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________________ दार्थ-दर्शनज्ञानचारिजात इसकारण [ सेवितकहा गया है ११४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् संस्कृतछाया. दर्शनज्ञानचारित्राणि सोक्षमार्ग इति सेवितव्यानि । साधूभिरिति भणितं तैस्तु वन्धो वा मोक्षो वा ॥ १६४ ।। पदार्थ-[दर्शनज्ञानचारित्राणि] दर्शन ज्ञान और चारित्र ये तीन रत्नत्रय [मोक्षमार्गः] मोक्षमार्ग है [इति ] .इसकारण [सेवितव्यानि] सेवने योग्य है। [साधुभिः] महापुरुषोंद्वारा [इति] इसप्रकार [.भणिनं ] कहा गया है [तैः तु] उन ज्ञानदर्शन चारित्रकेद्वारा तो [वन्धः वा] बन्ध भी होता है [ मोक्षः वा] मोक्ष भी होता है। भावार्थ-दर्शन ज्ञानचारित्र दो प्रकारके हैं एक सराग है एक वीतराग है । जो दर्शनज्ञानचारित्र रागलिये होते हैं उनको तो सराग रत्नत्रय कहते हैं और जो आत्मनिष्ठ वीतरागतालिये होंय वे वीतराग रत्नत्रय कहाते हैं । क्योंकि रागभाव आत्मीक भावरहित परभाव है परसमयरूप है, इसलिये जो रतत्रय किंचिन्मात्र भी परसमयप्रवृत्तिसे मिले होंय तो वे बन्धके कारण होते हैं क्योंकि इनमें कथंचित्प्रकार विरुद्धकारणकी रूढि होती है रत्नत्रय तो मोक्षका ही कारण है परन्तु रागके संयोगसे बन्धका कारण भी होता है ऐसी रूढि है । जैसें अग्निके संयोगसे घृत दाहका कारण होकर विरुद्ध कार्य करता है स्वभावसे तो घृत शीतल ही है, इसीप्रकार रागके संयोगसे रत्नत्रय बंधका कारण है । जिस काल समस्त परसमयकी नित्ति होकर स्वसमयरूप स्वरूपमें प्रवृत्ति होय उस समय अग्निसंयोगरहित घृत, दाहादि विरुद्ध कार्योंका कारण नहिं होता. तैसें ही रत्नत्रय सरागताके अभावसे साक्षात् मोक्षका कारण होता है । इस कारण यह वात सिद्ध हुई कि जब यह आत्मा स्वसमयमें प्रव” निजस्वाभाविक भावको आचरै उस ही समय मोक्षमार्गकी सिद्धि होती है। ___ आगे सूक्ष्म परसमयका स्वरूप कहा जाता है । ... अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि सुखसंपओगादो। वदित्ति दुक्खमोक्खं परसमयरदो हवदि जीवो ॥ १६९ ॥ संस्कृतछाया. अज्ञानात् ज्ञानी यदि मन्यते शुद्धसंप्रयोगात् ।। भवतीति दुःखमोक्षः परसमयरतो भवति जीवः ।। १६५ ॥ पदार्थ-[ज्ञानी] सरागसम्यग्दृष्टी जीव [अज्ञानात् ] अज्ञानभावसे [यदि] जो [इति] ऐसा [मन्यते] मानै कि-[शुद्धसंप्रयोगात् ] शुद्ध जो अरहंतादिक तिनमें लगन अति धर्मरागप्रीतिरूप शुभोपयोगसे [दुःखमोक्षः] सांसारिक दुःखसे मुक्ति [भवति] होती है [तदा] उस समय [जीवः] यह आत्मा [परसमयरतः] परसमयमें अनुरक्त [भवति] होता है। भावार्थ-अरहन्तादिक जो मोक्षके कारण हैं उन भगवंत परमेष्ठीमें भक्तिरूप राग अंशकर जो रागलिये चित्तकी वृत्ति होय, उसका नाम शुद्धसम्प्रयोग कहा जाता है परन्तु
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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