SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११३ ] अनुभव है। तिस कारणसे सात देखे है अथा श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । यह बात सिद्ध हुई कि चारित्र ज्ञानदर्शनरूप आत्मा है. जो यह आत्मा जीवस्वभावमें निश्चल होकर आत्मीकभावको आचरण करै तो निश्चय मोक्षमार्ग सर्वथाप्रकार सिद्ध होता है। आगें समस्त ही संसारी जीवोंके मोक्षमार्गकी योग्यताका निषेध दिखाते हैं। जेण विजाणदि सव्वं पेच्छदि सो तेण लोक्खमणुहवादि। इदि तं जाणदि सविओ अभव्यलत्तो ण सद्दहदि ॥ १६३ ॥ संस्कृतछाया. . येन विजानाति सर्व पश्यति स तेन सौख्यमनुभवति । इति तज्जानाति भव्योऽभव्यसत्त्वो न श्रद्धते ।। १६३ ॥. पदार्थ-येन] जिस कारणसे [ सर्व] समस्तज्ञेय मात्र वस्तुको [विजानाति] जानै है ['सर्व'] समस्त वस्तुवोंको [पश्यति ] देखे है अर्थात् ज्ञानदर्शनकर संयुक्त है [सः] वह पुरुष [तेन] तिस कारणसे [ सौख्यं] अनाकुल अनन्त मोक्षसुखको [अनुभवति ] अनुभवै है । [इति] इसप्रकार [भव्यः] निकट भव्यजीव । तत् ] उस अनाकुल पारमार्थिक सुखको [जानाति] उपादेयरूप श्रद्धान करै है और अपने २ गुणस्थानानुसार जानै भी है । भावार्थ- जो स्वाभाविक भावोंके आवरणके विनाश होनेसे आत्मीक शान्तरस उत्पन्न होता है उसे सुख कहते हैं । आत्माके स्वभाव ज्ञान दर्शन हैं. इनके आवरणसे आत्माको दुःख है. जैसें पुरुषके नखसिख वढनेसे दुःख होता है उसी प्रकार आवरणके होनेसे दुःस्व होता है. मोक्षअवस्थामें उस आवरणका अभाव होता है, इसकारण मुक्तजीव सवका देखनेहारा जाननेहारा है और यह बात भी सिद्ध हुई कि निराकुल परमार्थ आत्मीकसुखका अनुभवन मोक्षमें ही निश्चल है और जगह नहीं है. ऐसा परम भावका श्रद्धान भी भव्य सम्यग्दृष्टी जीवमें ही होता है । इसकारण भव्य ही मोक्षमार्गी होने योग्य है [अभव्यसत्त्वः ] त्रैकालिक आत्मीकभावकी प्रतीति करनेके योग्य नहीं ऐसा जीव आत्मीक सुखको [न श्रद्धते] नहिं सरदहै है जान भी नहीं है । भावार्थ-उस आत्मीक सुखका श्रद्धान करनहारा अभव्य नहीं है क्योंकि मोक्षमार्गके साधनेकी अभव्य मिथ्यादृष्टी योग्यता नहिं रखता । इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि केई संसारी भव्यजीव अर्थात् मोक्षमार्गके योग्य हैं केई नहीं भी हैं । ___ आगें सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रको किसीप्रकार सरागअवस्थामें आचार्यने बन्धका भी प्रकार दिखाया है इसकारण जीवस्वभावमें निश्चित जो आचरण है उसको मोक्षका कारण दिखाते हैं. दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गोऽत्ति सेविव्याणि । साधृहि इदं भाणदं तेहिं दु वंधो व मोक्खो वा ।। १६४ ॥
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy