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________________ ११२ ___ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् समाधान है कि यह आत्मा असद्भूतव्यबहारकी विवक्षासे अनादि अविद्यासे युक्त है. जब काललब्धिपानेसे उसका नाश होय उस समय व्यवहार मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति नहीं है मिथ्याज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्याचारित्र इस अज्ञानरत्नत्रयके नाशका उपाय यथार्थ तत्त्वोंका श्रद्धान द्वादशांगका ज्ञान यथार्थ चारित्रका आचरण इस सम्यक् रत्नत्रयके ग्रहण करनेका विचार होता है इस विचारके होनेपर जो अनादिका ग्रहण था उसका तो त्याग होता है और जिसका त्याग था उसका ग्रहण होता है. तत्पश्चात् कमी आचरणमें दोष होय तो दंडशोधनादिकर उसे दूर करते हैं और जिस कालमें विशेष शुद्धात्मतत्त्वका उदय होता है तब स्वाभाविक निश्चय दर्शन ज्ञान चारित्र इनसे गुण गुणीके भावकी परिणतिद्वारा अडोल (अचल) होता है । तब ग्रहणत्यजनकी बुद्धि मिट जाती है परमशान्तिसे विकल्परहित होता है उस समय अतिनिश्चल भावसे यह आत्मा स्वरूपगुप्त होता है । जिसकाल यह आत्मा स्वरूपका आचरण करता है तब यह जीव निश्चय मोक्षमार्गी कहाता है. इसीकारण ही निश्चयव्यवहाररूपमोक्षमार्गको साध्यसाधनभावकी सिद्धि होती है। अब आत्माके चारित्र ज्ञान दर्शनका उद्योत कर दिखाते हैं । जो चरदि णादि पिच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं । सो चारित्तं णाणं दंसणमिदि णिचिदो होदि ॥ १६२ ॥ संस्कृतछाया. . यश्चरति जानाति पश्यति आत्मानमात्मनानन्यमयं । स चारित्रं ज्ञानं दर्शनमिति निश्चितो भवति ॥ १६२ ॥ पदार्थ- [यः] जो पुरुष [आत्मना] अपने निजस्वरूपसे [आत्मानं] आपको [अनन्यमयं] ज्ञानादि गुणपर्यायोंसे अभेदरूप [चरति ] आचरण करता है [जानाति] जानता है [पश्यति ] श्रद्धान करता है [सः] सो पुरुष [चारित्रं] आचरण गुण [ज्ञानं] जानना [दर्शनं] देखना [इति ] इसप्रकार द्रव्यसे नामसे अभेदरूप [निश्चितः] निश्चय करके स्वयं दर्शनज्ञानचारित्ररूप [ भवति ] होता है । भावार्थ-निश्चयकरके जो पुरुप आपकेद्वारा आपको अभेदरूप आचरण करै है क्योंकि अभेदनयसे आत्मा गुणगुणीभावसे एक है. अपने शरीरकी निश्चलताई अस्तिरूप प्रवर्ते है और अन्यकारणके विना आप ही आपको जानता है स्वपरप्रकाश चैतन्यशक्तिके द्वारा अनुभवी होता है और आपहीकेद्वारा यथार्थ देखै है सो आत्मनिष्ठ भेदविज्ञानी पुरुष आप ही चारित्र है आप ही ज्ञान है आप ही दर्शन है. इसप्रकार गुणगुणीभेदसे आत्मा कर्ता है ज्ञानादि कर्म हैं. शक्ति करण है इनका आपसमें नियमकर अभेद है. इसकारण
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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