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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आगें देहमात्र जीव किस दृष्टांतसे है सो कहा जाता है। जह पउमरायरयणं खित्तं खीरं पभासयदि खीरं । तह देही देहत्थो सदेहमत्तं पभासयदि ॥ ३३ ॥ संस्कृतछाया. यथा पद्मरागरत्नं क्षिप्तं क्षीरे प्रभासयति क्षीरं । तथा देही देहस्थः स्वदेहमानं प्रभासयति ॥ ३३ ॥ पदार्थ-[यथा] जिस प्रकार [पद्मरागरत्नं] पद्मरागनामा महामणि जो है सो [क्षीरे क्षिप्तं] दूधमें डाला हुवा [क्षीरं] दूधको उस ही अपनी प्रभासे [प्रभासयति] प्रकाशमान करै है [तथा ] तैसें ही [देही ] संसारी जीव [देहस्थः] देहमें रहता हुवा [स्वदेहमानं] आपको देहके वरावर ही [प्रभासयति ] प्रकाश करता है । भावार्थ-पद्मराग नामा रत्न दुग्धसे भरेहुये वर्त्तनमें डाला जाय तो उस रत्नमें ऐसा गुण है कि अपनी प्रभासे समस्त दुग्धको अपने रंगसे रंगकर अपनी प्रभाको दुग्धकी बराबर ही प्रकाशमान करता है. उसी प्रकार यह संसारी जीव भी अनादि कषायोंके द्वारा मैला होता हुवा शरीरमें रहता है. उस शरीरमें अपने प्रदेशोंसे व्याप्त होकर रहता है. इसलिये शरीरके परिमाण होकर तिष्ठता है और जिस प्रकार वही रत्नसहित दुग्ध अग्निके संयोगसे उबलकर बढता है तो उसके साथ ही रत्नकी प्रभा भी बढती है और जब अग्निका संयोग न्यून होता है, तब रत्नकी प्रभा घट जाती है. इसी प्रकार ही स्निग्ध पौष्टिक आहारादिके प्रभावसे शरीर ज्यों ज्यों बढता है त्यो त्यों शरीरस्थ जीवके प्रदेश भी बढते रहते हैं. और आहारादिककी न्यूनतासे जैसें २ शरीर क्षीण होता है तैसे २ जीवके प्रदेश भी संकुचित होते रहते हैं । और जो उस रत्नको बहुतसे दूधमें डाला जाय तो उसकी प्रभा भी विस्तृत होकर समस्त दूधमें व्याप्त हो जायगी-तैसें ही बडे शरीरमें जीव जाता है तो जीव अपने प्रदेशोंको विस्तार करके उस ही प्रमाण हो जाता है-और वही रत्न जब थोड़े दूधमें डारा जाता है तो उसकी प्रभा भी संकुचित होकर दूधके प्रमाण ही प्रकाश करती है. इसीप्रकार बडे शरीरसे निकलकर छोटे शरीरमें जानेसे जीवके भी प्रदेश संकुचित होकर उस छोटे शरीरके बराबर रहेंगे-इस कारण यह बात सिद्ध हुई कि यह आत्मा कर्मजनित संकोचविस्ताररूप शक्तिके प्रभावसे जब जैसा शरीर धरता है तब तैसा ही होकर प्रवत है । उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजनकी स्वयंभूरमण समुद्रमें महामच्छकी होती है । और जघन्य अवगाहना अलब्ध पर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीवोंकी है । ___आगें जीवका देहसे अन्य देहमें अस्तित्व कहते हैं और देहसे जुदा दिखाते हैं तथा अन्य देहके धारण करनेका कारण भी बलाते हैं। सव्वत्थ अत्थि जीवो ण य एको एककाय एकठो। अज्झवसाणविसिट्ठो चिट्ठदि मलिणो रजमलेहिं ॥ ३४ ॥
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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