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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। आगें जीवोंका स्वाभाविक प्रदेशोंकी अपेक्षा प्रमाण कहते हैं और मुक्त संसारी जीवका भेद कहते हैं।
अगुरुलहुगा अणंता तेहिं अणंतेहिं परिणदा सव्वे । देसेहिं असंखादा सियलोगं सव्वमावणा ॥३१॥ केचित्तु अणावण्णा मिच्छादंसणकसायजोगजुदा । विजुदा य तेहिं बहुगा सिद्धा संसारिणो जीवा ॥ ३२॥
संस्कृतछाया. अगुरुलघुका अनन्तास्तैरनन्तैः परिणताः सर्वे । देशैरसंख्याताः स्याल्लोकं सर्वमापन्नाः ॥ ३१ ॥ केचित्तु अनापन्ना मिथ्यादर्शनकषाययोगयुताः ।
वियुताश्च तैर्वहवः सिद्धाः संसारिणो जीवाः ॥ ३२ ॥ पदार्थ— [ अगुरुलघुकाः ] समय समयमें षट्गुणी हानिवृद्धिलिये अगुरुलघुगुण [अनन्ताः ] अनन्त हैं. वे अगुरुलघु गुण आत्माके स्वरूपमें थिरताके कारण अगुरुलघु स्वभाव तिसके अविभागी अंश अति सूक्ष्म हैं. आगमकथित ही प्रमाण कहनेमें आते हैं। [तैः अनन्तैः ] उन अगुरु लघु अनन्त गुणोंकेद्वारा [ सर्वे ] जितने समस्त जीव हैं तितने सब ही [परिणताः] परणये हैं अर्थात् ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो अनन्त अगुरुलघुगुण रहित हों किन्तु सबमें पाये जाते हैं । और वे सब ही जीव [देशैः] प्रदेशोंकेद्वारा [असंख्याताः] लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी हैं । अर्थात्-एक एक जीवके असंख्यात असंख्यात प्रदेश हैं । उन जीवों से कितने ही जीव [ स्यात् ] किस ही एक प्रकारसे दंडकपाटादि अवस्थावोंमें [ सर्व लोकं ] तीनसे तेतालीस रज्जुप्रमाण घनाकाररूप समस्त लोकके प्रमाणको [आपन्नाः] प्राप्त हुये हैं । दंडकपाटादिमें सब ही जातिके कर्मोके उदयसे प्रदेशोंका विस्तार लोकप्रमाण होता है । इस कारण समुद्धातकी अपेक्षासे कई जीव लोकके प्रमाणानुसार कहे गये हैं । और [ केचित्तु अनापन्नाः ] कई जीव समुद्धातके विना सर्व लोकप्रमाण नहीं है, निज २ शरीरके प्रमाण ही हैं । उस अनन्त जीव राशिमें [वद्दवः जीवाः] अनन्तानन्त जीव [मिथ्यादर्शनकपाययोगयुक्ताः] अनादि कालसे मिथ्यात्व कपायके योगसे संयुक्त [संसारिणः] संसारी हैं । अर्थात् जितने जीव मिथ्यादर्शनकपाययोग संयुक्त हैं वे सब संसारी कहे जाते हैं और जे [तैः] उन मिथ्यात्व कषायके योगोंसे [ वियुक्ताः ] रहित शुद्ध, जीव हैं वे [सिद्धाः] सिद्ध हैं. वे सिद्ध, (मुक्त जीव भी) अनन्त हैं. यह शुद्धाशुद्धजीवोंका सामान्यस्वरूप जानना.