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________________ सर्वजनते हैं कि तुम ही सर्वजन नहीं और किसी का और जो तुमने यह रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् .. उत्तर-सर्वज्ञ इस देशमें नहीं कि इस कालमें ही नहीं अथवा तीन लोकमें ही नहीं या तीन कालमें ही नहीं है ? यदि कहो कि इस देशमें और इस कालमें नहीं तो ठीक है क्योंकि इस समय कोई सर्वज्ञ प्रत्यक्ष देखनेमें नहिं आता और जो कहो कि तीन लोकमें तथा तीन कालमें भी नहीं है तो तुमने यह बात किसप्रकार जानी ! क्योंकि तीन लोक और तीन कालकी वात सर्वज्ञके विना कोई जान ही नहिं सक्ता और जो तुमने यह बात निश्चय करके जानली कि-कहीं भी सर्वज्ञ नहीं और किसी कालमें भी न तो हुवा न होगा तो हम कहते हैं कि तुम ही सर्वज्ञ हो-क्योंकि जो तीन लोक और तीन कालकी जाने वह ही सर्वज्ञ है। और जो तुम तीन लोक और तीन कालकी वात नहिं जानते तो तुमने तीन लोक और तीन कालमें सर्वज्ञ नहीं, ऐसा किस प्रकार जाना ? जो सबका जाननहारा देखनहारा होय, वही सर्वज्ञको निषेध कर सक्ता है और किसीकी भी गम्य नहीं है । इस कारण तुम ही सर्वज्ञ हो. इस न्यायसे सर्वज्ञकी सिद्धि होती है. निषेध नहिं होता । जो वस्तु इस देशकालमें नहीं और सूक्ष्म परमाणु आदिक जो वस्तु हैं और जो अमूर्त हैं तिन वस्तुवोंका ज्ञाता एक सर्वज्ञ ही है । और कोई नहीं है । आगें जीवत्व गुणका व्याख्यान करते हैं। पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हु जिविदो पुव्वं । सो जीवो पाणा पुण बलमिंदियमाऊ उस्सासो ॥ ३० ॥ संस्कृतछाया. प्राणैश्चतुर्भिर्जीवति जीवष्यति यः खलु जीवितः पूर्व । ___ स जीवः प्राणाः पुनर्वलमिन्द्रियमायुरुच्छ्रासः ॥ ३० ॥ पदार्थ- [यः] जो [चतुर्भिः प्राणैः] चार प्राणोंकर [ जीवति ] वर्तमान कालमें जीता है [जीवष्यति ] आगामी काल जीवैगा. [पूर्व जीवितः] पूर्वही जीवै था [सः] वह [ खलु ] निश्चयकरकें [जीवः] जीवनामा पदार्थ है । [पुनः] फिर उस जीवके [प्राणाः] चार प्राण हैं । वे कौन कौनसे हैं ! [वलं] एक तो मनवचनकायरूप वल प्राण हैं और दूजा [इंद्रियम् ] स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु श्रोत्ररूप ये पांच इन्द्रिय प्राण हैं । तीसरा [आयुः] आयुःप्राण है चौथा [उच्छ्वासः] श्वासोच्छ्ास प्राण है । भावार्थ-इन्द्रिय बल आयुः श्वासोच्छास इन चारों ही प्राणोंमें जो चैतन्यरूप परिणति हैं वे तो भावप्राण हैं और इनकी ही जो पुद्गलस्वरूप परणति हैं, वे द्रव्य प्राण कहलाते हैं। ये दोनों जातिके प्राण संसारी जीवके सदा अखंडित सन्तानकर प्रवर्तते हैं इनही प्राणोंकर संसारमें जीवता कहलाता है और मोक्षावस्थामें केवल शुद्धचैतन्यादि गुणरूप भावप्राणोंसे जीता है. इस कारण वह शुद्ध जीव है ।
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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