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________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। अवस्थाको कथंचित्प्रकार प्राप्त होता है । और भांति होती नहीं, कुछ और जानना रहा नाहीं, इस कारण अपने स्वरूपसे निवृत्ति नहिं होती ऐसी, शुद्ध चेतनासे निश्चल हुवा जो यह आत्मा सो सर्वदर्शी सर्वज्ञभावको प्राप्त हो गया है तब इसके द्रव्यकर्मके जो कारण हैं विभाव भावकर्म, तिनके कर्तृत्वका उच्छेद होता है । और कर्म उपाधिके उदयसे उत्पन्न होते हैं जे सुखदुख विभाव परिणाम तिनको भोगना भी नष्ट होता है । और अनादि कालसे लेकर विभाव प-योंके होनेसे हुवा था जो आकुलतारूप खेद उसके विनाश होनेसे स्वरूपमें स्थिर अनन्त चैतन्य स्वरूप आत्माके स्वाधीन आत्मीक स्वरूपका अनुभूत रूप जो अनाकुल अनन्त सुख प्रगट हुवा है उसका अनन्तकालपर्यन्त भोग बना रहेगा । यह मोक्षावस्थामें शुद्ध आत्माका स्वरूप जानना । ___ आगे पहिले ही कह आये जो आत्माके ज्ञानदर्शन सुखभाव तिनको फिर भी आचार्य निरुपाधि शुद्धरूप कहते हैं। जादो सयं स चेदा सवण्हू सव्वलोगदसी य । पप्पोदि सुहमणन्तं अव्वावाधं सगममुत्तं ॥ २९ ॥ संस्कृतछाया. जातः स्वयं स चेतयिता सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च । प्राप्नोति सुखमनन्तमव्याबाधं स्वकममूर्तम् ॥ २९ ॥ पदार्थ-[सः] वह शुद्धरूप [चेतयिता] चिदात्मा [ स्वयं] आप अपने स्वाभाविक भावोंसे [सर्वज्ञः] सबका जाननेवाला [च ] और [सर्वदर्शी] सबका देखनेहारा ऐसा [जातः] हुवा है । और वही भगवान [अनन्तं] नहीं है पार जिसका और [अव्यावाधं] वाधारहित निरन्तर अखंडित है तथा [अमूर्त] अतीन्द्रिय अमूर्तीक है ऐसे [स्वकं] आत्मीक [सुखं ] आकुलतारहित परम सुखको [प्रामोति ] पाता है। भावार्थ-आत्मा जो है सो ज्ञानदर्शनरूप सुखस्वभाव है, सो संसार अवस्थामें अनादि जो कर्मवन्धके कारण संकलेस तिस कर सावरण हुवा है । आत्मशक्ति घाती गई है । परद्रव्यके संबंधसे क्षयोपशम ज्ञानके वलसे क्रमशः कुछ २ जानता वा देखता है । इस कारण पराधीन मूर्तीक इन्द्रियगोचर वाधासंयुक्त विनाशीक सुखको भोगता है। और जब इसके सर्वथा प्रकार कर्मक्लेश विनशै है. तब वाधारहित परकी सहाय विना आप ही एकहीवार समस्त पदार्थों को जाने वा देखे है । और स्वाधीन अमूर्तीक परसंयोगरहित अतीन्द्रिय अखंडित अनन्त सुखको भोगता है । इस कारण सिद्ध परमेष्ठी स्वयं जानने देखनेवाला सुखका अनुभवन करनेवाला आपही है । और परसे कुछ प्रयोजन नहीं है । ___ यहां कोई नास्तिक मती तर्क करता है कि, सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि सबका जानने देखनेवाला प्रत्यक्षमें कोई नहिं दीखता । जैसे गर्दभके सींग नहीं, तैसें ही कोई सर्वज्ञ नहीं हैं ।
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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