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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
पदार्थ -- [वा] अथवा [यस्य ] जिस पुरुष के [हृदये] चित्तमं [ अणुमात्रः ] परमाणु मात्र भी [परद्रव्ये ] पुलादि परद्रव्यों में [ रागः ] प्रीतिभाव [ विद्यते ] प्रवर्त्त है [स] वह पुरुष [सर्वागमधरः अपि ] यद्यपि समस्त श्रुतका पाठी है तथापि [स्वकस्य ] आत्माके [समयं] यथार्थरूपको [न] नहीं [विजानाति ] जाने है |
भावार्थ - जिस पुरुष के चित्तमें आत्मीकभावरहित परभावोंमें रागकी कणिका भी विद्यमान है वह पुरुष समस्त सिद्धान्तशास्त्रों को जानता हुवा भी सर्वांग वीतराग शुद्धस्वरूप स्वसमयको नहिं वेदै है. इसकारण यथार्थ शुद्धस्वरूपकी सिद्धिनिमित्त अरहंतादिकमें भी क्रमसे राग छोडना योग्य है ।
आगें राग अंशका कारण पाय अनेक दोषोंकी परंपराय होती है ऐसा कथन करते हैं । धरितुं जस्स ण सक्कं चित्तुभामं विणा दु अप्पाणं । रोधो तस्स ण विज्झदि सुहासुहकद्स्स कम्मस्स ॥ १६८ ॥
संस्कृतछाया.
धर्तुं यस्य न शक्यश्चित्तोद्भामं विनात्वात्मानं ।
रोधस्तस्य न विद्यते शुभाशुभकृतस्य कर्मस्य ॥ १६८ ॥
पदार्थ–[तु] और[यस्य ] जिस पुरुषका [चित्तोद्भामं] मनका संकल्परूप भ्रामकत्व जो है सो [आत्मानं विना ] आत्माके विना [] निरोध करनेको [ शक्यः न ] समर्थ नहीं होता । तस्य ] उस पुरुष के [ शुभाशुभकृतस्य] शुभाशुभभावों से कियेहुये [ कर्मणः] कर्मका [रोधः] संवर [न विद्यते ] नहीं है ।
भावार्थ — अरहन्तादिककी भक्ति भी प्रशस्त रागके विना नहिं होती और जो रागादिक भावकी प्रवृत्ति होती है और जो बुद्धिका विस्तार नहिं होय तो यह आत्मा उस भक्तिको किसीप्रकार धारण करनेमें समर्थ नहीं है क्योंकि बुद्धिके बिना भक्ति नहीं है तथा रागभावके बिना भी भक्ति नहीं है इसकारण इस जीवके रागादिगर्भित बुद्धिका विस्तार होता है. तब इसके अशुद्धोपयोग होता है. उस अशुद्धोपयोग के कारणसे शुभाशुभका आस्रव होता है इसीकारण वन्धपद्धति है. और इसीसे यह बात सिद्ध हुई कि शुभअशुभ गतिरूप संसारके विलासका कारण एकमात्र रागादि संक्लेशरूप विभाव परिणाम ही हैं । आगें संक्लेशका समस्त नाश करनेका कार्य ( उपाय ) बताते हैं ।
तह्माणिदिकामो णिस्लंगो णिम्ममो य हविय पुण्णो । सिस कुणदि भक्ति निव्वाणं तेण पप्पादि ॥ १६९ ॥
संस्कृतछाया.
तस्मान्निवृत्तिकामो निसङ्गो निर्ममत्वश्च भूत्वा पुनः ।
सिद्धेषु करोति भक्ति निर्वाणं तेन प्राप्नोति ।। १६९ ।। पदार्थ - [ तस्मात् ] जिस्से रागका निपेध है उस कारण से [ निवृत्तिकामः ] जो