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________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । मोक्षका अभिलाषी जीव है सो [पुनः ] फिर [सिद्धेषु] विभाव भावसे रहित परमात्मा भावोंमें [भक्तिं] परमार्थभूत अनुरागताको [करोति ] करता है. क्या करके स्वरूपमें गुप्त होता है [निःसङ्गः] परिग्रहसेरहित [च] और [निर्ममः] परद्रव्यमें ममता भावसे रहित [भूत्वा] हो करकें [तेन] उस कारणसे [निर्वाणं] मोक्षको [प्रामोति ] पाता है। भावार्थ-संसारमें इस जीवके जब रागादिक भावोंकी प्रवृत्ति होती है तब अवश्य ही संकल्प विकल्पोंसे चित्तकी भ्रामकता हो जाती है. जहां चित्तकी भ्रामकता होती है तहां अवश्यमेव ज्ञानावरणादिक कर्मोका वन्ध होता है, इससे मोक्षाभिलापी पुरुपको चाहिये कि कर्मवन्धका जो मूलकारण संकल्प विकल्परूप चित्तकी भ्रामकता है उसके मूलकारण रागा दिक भावोंकी प्रवृत्तिको सर्वथा दूर करै । जब इस आत्माके सर्वथा रागादिककी प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है तब यह ही आत्मा सांसारिक परिग्रहसे रहित हो निर्ममत्वभावको धारण करता है । तत्पश्चात् आत्मीक शुद्धस्वरूप स्वाभाविक निजस्वरूपमें लीन ऐसी परमात्मसिद्धपदमें भक्ति करता है तब उस जीवके स्वसमयकी सिद्धि कही जाती है. इस ही कारण जो सर्वथाप्रकार कर्मबन्धसे रहित होता है वही मोक्षपदको प्राप्त होता है. जवतक रागभावका अंशमात्र भी होगा तबतक वीतरागभाव प्रगट नहिं होता, इसकारण सर्वथा प्रकारसे रागभाव त्याज्य है। ____आगे अरहन्तादिक परमेष्ठिपदोंमें जो भक्तिरूप परसमयमें प्रवृत्ति है उससे साक्षात् मोक्षका अभाव है तथापि परंपरायकर मोक्षका कारण है ऐसा कथन करते हैं। लपयत्थं तित्थयरं अभिगवुद्धिस्स सुत्तरोइस्स । दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपओत्तस्स ॥ १७०॥ संस्कृतछाया. सपदार्थ तीर्थकरमभिगतवुद्धेः सूत्ररोचिनः ।। दूरतरं निर्वाणं संयमतपःसम्प्रयुक्तस्य.॥ १७० ॥ पदार्थ- [सपदार्थ] नवपदार्थसहित [तीर्थकरं] अरहन्तादिक पूज्य परमेष्ठीमें [अभिगतबुद्धेः] रुचिलिये श्रद्धारूप बुद्धि है जिसकी ऐसा जो पुरुप है उसको [निर्वाणं] सकल कर्मरहित मोक्षपद [दरतरं] अतिशय दूर होता है । कैसा है वह पुरुप जो नव पदार्थ पंचपरमेष्टीमें भक्ति करता है ? [ सूत्ररोचिनः] सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत सिद्धान्तका श्रद्धानी है फिर कैसा है ? [संयमतपःसंप्रयुक्तस्य ] इन्द्रियदंडन और धोर उपसर्गरूप तपसे संयुक्त है। भावार्थ-जो पुरुष मोक्षके निमित्त उद्यमी हुवा प्रवर्ते है और मनसे अगोचर जिन्होंने संयम तपका भार लिया है अर्थात् अंगीकार किया है तथा परमवैराग्यरूपी भूमिकामें चढनेकी है उत्कृष्ट शक्ति जिनमें ऐसा है, विषयानुराग भावसे रहित है तथापि प्रशस्त रागरूप परसमयकर संयुक्त है । उस प्रशस्त रागके संयोगसे नवपदार्थ तथा पंचपरमेष्टीमें भक्तिपूर्वक
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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