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________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । ८१ यथार्थ अनुभवन सो [ज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान है [ विषयेषु ] पंचेन्द्रियों के विषयों में [ अविरूढमा गण] नहिं की है अति दृढतासे प्रवृत्ति जिन्होंने ऐसे भेद विज्ञानी जीवोंका जो [ समभावः ] रागद्वेषरहित शान्तस्वभाव सो [ चारित्रं ] सम्यक्चारित्र है । भावार्थ — जीवोंके अनादि अविद्याके उदयसे विपरीत पदार्थों की श्रद्धा है । काललब्धिके प्रभावसे मिथ्यात्व नष्ट होय तव पदार्थोंकी जो यथार्थ प्रतीति होय उसका नाम सम्यग्दर्शन है । वही सम्यग्दर्शन शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मपदार्थके निश्चय करनेका बीज - भूत है । मिथ्यात्वके उदयसे संशय विमोह विभ्रमस्वरूप पदार्थों का ज्ञान होता है जैसें नावपर चढते हैं तो बाहरके स्थिर पदार्थ चलतेहुये दिखाई देते हैं इसीको विपरीतज्ञान कहते हैं. सो जब मिथ्यात्वका नाश हो जाता है तब यथार्थ पदार्थोंका ग्रहण होता है । उसी यथार्थ ज्ञानका ही नाम सम्यग्ज्ञान है । वही सम्यग्ज्ञान आत्मतत्त्व अनुभवनकी प्राप्तिका मूल कारण है । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानकी प्रवृत्तिके प्रभावसे समस्त कुमार्गों से निवृत्त होकर आत्मस्वरूपमें लीन होय इन्द्रियमनके विषय जे इष्ट अनिष्ट पदार्थ हैं उनमें रागद्वेषरहित जो समभावरूप निर्विकार परिणाम सो ही सम्यक्चारित्र है । सम्यक्चारित्र फिर जन्मसन्तानका (संसारका ) उपजानेहारा नहीं है । मोक्षसुखका कारण है । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र इन तीनों भावोंकी जब एकता होय तब ही मोक्षमार्ग कहाता है इनमेंसे किसी एककी कमी होय तो मोक्षमार्ग नहीं है । जैसें व्याधियुक्त रोगीको ओषधीका श्रद्धान ज्ञान उपचार तीनों प्रकार होय तवही रोगी रोगसे मुक्त होता है. एककी कमी होनेसे रोग नहिं जाता. इसीप्रकार त्रिलक्षण मोक्षमार्ग है । आर्गे निश्चय व्यवहारनयोंकी अपेक्षा विशेष मोक्षमार्ग दिखाते हैं। यहां सम्यग्दर्शन ज्ञानकेद्वारा नव पदार्थ जाने जाते हैं, इसकारण मोक्षका संक्षेपस्वरूप ही कहा है. आगें नव पदार्थोंका संक्षेपस्वरूप और नाम कहे जाते हैं. जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं । संवरणिज्जरबंधो मोख्खो य हवंति ते अड्डा ॥ १०८ ॥ संस्कृतछाया. जीवाजीव भाव पुण्यं पापं चासवस्तयोः । संवरनिर्जरवन्धा मोक्षश्च भवन्ति ते अर्थाः ॥ १०८ ॥ पदार्थ – [ जीवाजीवौ भावौ ] एक जीव पदार्थ और एक अजीव पदार्थ [ पुण्यं ] एक पुण्य पदार्थ [च] और [ पापं ] एक पाप पदार्थ [ तयोः ] उन दोनों पुण्य पापोंका [ आस्रवः ] आत्मामें आगमन सो एक आस्रव पदार्थ [संवरनिर्जरवन्धाः ] संवर निर्जरा और बन्ध ये तीन पढ़ार्थ हैं । [च] और [ मोक्षः ] एक मोक्ष पदार्थ है जो हैं [ते] वे [अर्थाः ] नव पदार्थ [ भवन्ति ] होते हैं । इसप्रकार ११
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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