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________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । संस्कृतछाया. दर्शनमपि चक्षुर्युतमचक्षुर्युतमपि चावधिना सहितं । अनिधनमनन्तविषयं कैवल्यं चापि प्रज्ञप्तम् ॥ ४२ ॥ पदार्थ- [चक्षुर्युतं ] द्रवितनेत्रके अवलंबनसे जो [दर्शनं] देखना है उसका नाम चक्षुदर्शन [प्रज्ञप्तं ] भगवाननें कहा है [च] और [अचक्षुर्युतं] नेत्र इन्द्रियके विना अन्य चारों द्रव्य इन्द्रियोंके और मनके अवलंबनसे देखा जाय उसका नाम अचक्षुदर्शन है। [च] और [अवधिना सहित] अवधिज्ञानके द्वारा [अपि] निश्चयसे जो देखना है, उसको अवधिदर्शन कहते हैं । और जो [अनिधनं ] अन्तरहित [अनन्तविषयं] समस्त अनंत पदार्थ हैं विषय जिसके सो [ कैवल्यं ] केवलदर्शन [प्रज्ञप्तं ] कहा गया है । भावार्थ-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इन चार भेदों द्वारा दर्शनोपयोग जानना. दर्शन और ज्ञानमें सामान्य और विशेषका भेद मात्र है. जो विशेषरूप जानै उसको ज्ञान कहते हैं इस कारण दर्शनका सामान्य जानना लक्षण है । आत्मा स्वाभाविक भावोंसे सर्वांग प्रदेशोंमें निर्मल अनन्तदर्शनमयी है परन्तु वही आत्मा अनादि दर्शनावरण कर्मके उदयसे आच्छादित है. इसकारण दर्शन शक्तिसे रहित है। उसही आत्माके अन्तरंग चक्षुदर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे बहिरंगनेत्रके अवलंबनकर किंचित् मूर्तीक द्रव्य जिसके द्वारा देखा जाय उसका नाम चक्षुदर्शन कहा जाता है । और अन्तरंगमें अचक्षुदर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे बहिरंग नेत्र इन्द्रिय विना चार इन्द्रियों और द्रव्यमनके अवलंबनसे किंचित् मूर्तीक द्रव्य अमूर्तीक द्रव्य जिसके द्वारा देखे जांय उसका नाम अचक्षुदर्शन कहा जाता है । और जो अवधि दर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे किंचिन्मूर्तीक द्रव्योंको प्रत्यक्ष देखै उसका नाम अवधिदर्शन है । और जिसके द्वारा सर्वथा प्रकार दर्शनावरणीय कर्मके क्षयसे समस्त मूर्तीक अमूर्तीक पदार्थोंको प्रत्यक्ष देखा जाय उसको केवल दर्शन कहते हैं । इसप्रकार दर्शनका स्वरूप जानना । आगे कहते हैं कि एक आत्माके अनेक ज्ञान होते हैं इसमें कुछ दूषण नहीं है । ण वियप्पदिणाणादो णाणी जाणाणि होति णेगाणि । तमा दु विस्सरुवं भणियं दवियत्ति णाणीहि ॥४३॥ संस्कृतछाया. न विकल्पते ज्ञानात् ज्ञानी ज्ञानानि भवन्त्यनेकानि । तस्मात्तु विश्वरूपं भणितं द्रव्यमिति ज्ञानीभिः ॥ ४३ ।। पदार्थ-ज्ञानात्] ज्ञानगुणसे [ज्ञानी] आत्मा [न विकल्पते] भेद भावको प्राप्त नहिं होता है । अर्थात्-परमार्थसे तो गुणगुणीमें भेद होता नहीं है क्योंकि द्रव्य क्षेत्र काल भावसे गुणगुणी एक है । जो द्रव्य क्षेत्र काल भाव गुणीका है वही गुणका है और जो गुणका है सो गुणीका है । इसी प्रकार अभेदनयकी अपेक्षा एकता जाननी. भेदनयसे
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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