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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
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'आगे ज्ञानोपयोगके भेद दिखाते हैं ।
आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । कुमदिसुदविभंगाणि य तिष्णि वि णाणेहिं संजुत्ते ॥ ४१ ॥
संस्कृतछाया.
आभिनिवोधिकश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि ज्ञानानि पञ्चभेदानि । कुमतिश्रुतविभङ्गानि च त्रीण्यपि ज्ञानैः संयुक्तानि ॥ ४१ ॥
पदार्थ – [ आभिनिवोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि] मति श्रुत अवधि मनःपर्यय, केवल पञ्चभेदानि ज्ञानानि ] ये पांच प्रकारके सम्यग्ज्ञान हैं । [च] और [कुमतिश्रुतविभङ्गानि त्रीणि अपि] कुमति कुश्रुत विभङ्गावधि ये तीन कुज्ञान भी [ ज्ञानैः संयुक्तानि] पूर्वोक्त पांचों ज्ञानोंसहित गण लेने। ये ज्ञानके आठ भेद हैं ।
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भावार्थ-स्वाभाविक भावसे यह आत्मा अपने समस्त प्रदेशव्यापी अनन्त निरावरण शुद्धज्ञानसंयुक्त है । परन्तु अनादिकाल से लेकर कर्म संयोगसे दूषित हुवा प्रवर्त्ते है । इसलिये सर्वांग असंख्यात प्रदेशों में ज्ञानावरण कर्मके द्वारा आच्छादित है । उस ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे मतिज्ञान प्रगट होता है । तब मन और पांच इन्द्रियोंके अवलं - बनसे किंचित् मूर्तीक अमूर्त्तीक द्रव्यको विशेषता कर जिस ज्ञानकेद्वारा परोक्षरूप जानता उसका नाम मतिज्ञान है । और उस ही ज्ञानावरणं कर्मके क्षयोपशमसे मनके अवलंबसे किंचिन्मूर्त्तीिक अमूर्त्तीक द्रव्य जिसके द्वारा जाना जाय उस ज्ञानका नाम श्रुतज्ञान है | जो कोई यहां पूछै कि श्रुतज्ञान तो एकेन्द्रियसे लगाकर असैनी जीव पर्यन्त कहा है. उसका समाधान यह है कि—उनके मिथ्याज्ञान है. इस कारण वह श्रुतज्ञान नहिं लेना और अक्षरात्मक श्रुतज्ञानको ही प्रधानता है । इस कारण भी वह श्रुतज्ञान नहिं लेना । मनके अवलंबनसे जो परोक्षरूप जाना जाय उस श्रुतज्ञानको द्रव्यभावके द्वारा जानना और उसही ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जिस ज्ञानके द्वारा एकदेशप्रत्यक्षरूप किंचिन्मूर्तीक द्रव्य जानै तिसका नाम अवधिज्ञान है । और उसही ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे अन्यजीवके मनोगत मूर्तीक द्रव्यको एक देश प्रत्यक्ष जिस ज्ञानके द्वारा जानै, उसका नाम मन:पर्ययज्ञान कहा जाता है । और सर्वथा प्रकार ज्ञानावरण कर्मके क्षय होनेसे जिस ज्ञानके द्वारा समस्त मूर्तीक अमूर्त्तीक द्रव्य, गुण पर्यायसहित प्रत्यक्ष जाने जांय उसका नाम केवलज्ञान है । मिथ्यादर्शनसहित जो मतिश्रुतअवधिज्ञान हैं, वे ही कुमति कुश्रुत कुअवधिज्ञान कहलाते हैं । ये आठ प्रकारके ज्ञान जिनागमसे विशेषता कर जानने ।
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आगें दर्शनोपयोगके नाम और स्वरूपका कथन किया जाता है ।
दंसणमचि चक्खुजुदं अचक्खुजुदमवि य ओहिणा सहियं । अणिघणमणतविसयं केवलियं चावि पण्णत्तं ॥ ४२ ॥