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________________ १०६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पदार्थ-[यः] जो पुरुष [संवरेण युक्तः] आत्मानुभवरूप परमसंबरसे संयुक्त है [अथ] अथवा [सर्वकर्माणि] अपने समस्त पूर्वबन्धे कर्मोको [निर्जरन्] अनुक्रमसे खपाता हुवा प्रवत्र्त है । और जो पुरुष [व्यपगतवेद्यायुष्कः] दूर गया है वेदनीय नाम गोत्र आयु जिससे ऐसा है [सः] वह भगवान् परमेश्वर [भवं] अघातिकर्म सन्बन्धी संसारको [ मुञ्चति] छोड देता है नष्ट कर देता है [तेन मोक्षः] तिसकारणसे द्रव्य मोक्ष कहा जाता है। भावार्थ-इस केवली भगवानके भावमोक्ष होनेपर परमसंवर भाव होते हैं उनसे आगामी कालसंबन्धिनी कर्मकी परंपराका निरोध होता है । और पूर्वबंधे कर्मोंकी निर्जराका कारण ध्यान होता है उससे पूर्वकर्म संततिका किसी कालमें तो स्वभावहीसे अपना रस देकर खिरना होता है और किस ही काल समुद्घातविधानसे कर्मोंकी निर्जरा होती है। और किस ही काल यदि वेदनी नाम गोत्र इन तीन कर्मोंकी स्थिति आयुकर्मकी स्थितिकी बराबर होय तव तो सब चार अघातिया कर्मोंकी स्थिति बरावर ही खिरके मोक्ष अवस्था होती है और जो आयुःकर्मकी स्थिति अल्प होय और वेदिनी नाम गोत्रकी बहुत होय तो समुद्धात करके स्थिति खिरके मोक्ष अवस्था होती है. इस प्रकार जीवसे अत्यंत सर्वथाप्रकार कर्मपुद्गलोंका वियोग होना, उसीका नाम द्रव्यमोक्ष है । इसप्रकार द्रव्यमोक्षका व्याख्यान पूर्ण हुवा और मोक्षमार्गीके अंग सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानके निमित्तभूत नवपदार्थोंका व्याख्यान भी पूरा हुवा। __ आगें मोक्षमार्गका प्रपंच सूचनामात्र कहा जाता है सो प्रथम ही मोक्षमार्गका स्वरूप दिखाया जाता है। जीवसहावं णाणं अप्पडिहदसणं अणण्णमयं । चरियं च तेसु णियदं अस्थित्तमणिंदियं भणियं ॥ १५४ ॥ संस्कृतछाया. जीवस्वभावं ज्ञानमप्रतिहतदर्शनमनन्यमयं । चारित्रं च तयोर्नियतमस्तित्वमनिन्दितं भणितं ॥ १५४ ।। पदार्थ-[ज्ञान] यथार्थ वस्तुपरिच्छेदन [अप्रतिहतदर्शनं] यथार्थ वस्तुका अखं. डित सामान्यावलोकन ये दोनों गुण [अनन्यमयं] चैतन्यस्वभावसे एक ही है [जीवखभावं] जीवका असाधारणलक्षण है. [च तयोः] और उन ज्ञान तथा दर्शनका [नियतं] निश्चित स्थिररूप [अस्तित्वं] अस्तिभाव जो है सो [अनिन्दितं] निर्मल [चारित्रं] आचरणरूप चारित्रगुण [भणितं] सर्वज्ञ वीतरागदेवने कहा है। भावार्थ-जीवके स्वभाव भावोंकी जो थिरता है, उसका नाम चारित्र कहा जाता है वही चारित्र मोक्षमार्ग है । वे जीवके स्वाभाविक भाव ज्ञान दर्शन है और वे आत्मासे अभेद
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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