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________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । ४५ समवायसम्बन्धलिये [दर्शनज्ञाने ] दर्शन ज्ञान असाधारण गुण भी [अनन्यभूते] जुदे नहीं है [व्यपदेशतः] संज्ञादि भेदके कथनसे आचार्य आत्मा और ज्ञानदर्शनमें [पृथक्त्वं ] भेदभावको [कुरुते ] करते हैं. तथापि [हि] निश्चयसे [स्वभावात् ] निजस्वरूपसे [नो] भेद संभवता नहीं है । भगवन्तका मत अनेकान्त है. दोय नयोंसे सधता है. इस कारण निश्चय व्यवहारसे भेद अभेद गुणगुणीकास्वरूप परमागमसे विशेषरूप जानना । यह चारप्रकार दर्शनोपयोग आठप्रकार ज्ञानोपयोग शुद्धअशुद्ध भेद कथनसे सामान्यस्वरूप पूर्वोक्त प्रकारसे जानना. यह उपयोग गुणका व्याख्यान पूर्ण हुवा । ___ आगे कर्तृत्वका अधिकार कहते हैं. जिसमें से जीव निश्चयनयसे परभावनका कर्ता नहीं है, अपने स्वभावके ही कर्ता होते हैं । वे ही जीव अपने परिणामोंको करते हुये अनादि अनन्त हैं कि सादिसान्त हैं अथवा सादिअनन्त है ? और ऐसे अपने भावोंको परिणमते हैं कि नहीं परिणमैंगे ? ऐसी आशंका होनेपर आचार्य समाधान करते हैं। जीवा अणाइणिहिणा संता ता य जीवभावादो। सम्भावदो अणंता पंचग्गगुणप्पधाणा य ॥ ५३ ॥ संस्कृतछाया. जीवाः अनादिनिधनाः सान्ता अनन्ताश्च जीवभावात् । सद्भावतोऽनन्ताः पञ्चाग्रगुणप्रधाना च ॥ ५३ ।। पदार्थ- [जीवाः] आत्मद्रव्य जे हैं ते [ अनादिनिधनाः ] सहजशुद्धचेतन पारिणामिक भावोंसे अनादि अनन्त हैं. स्वाभाविक भावकी अपेक्षा जीव तीनों कालोंमें टंकोत्कीर्ण अविनाशी है [च] और वे ही जीव [सान्ताः] सादि सान्त भी हैं और [अनन्ताः] सादि अनन्त भी हैं । औदयिक और क्षायोपशमिक भावोंसे सादिसान्त हैं क्योंकि [जीवभावात् ] जीवके कर्मजनित भाव होनेसे औदयिक और क्षायोपशमिकभाव कर्मजनित हैं. कर्म वन्धै भी है और निर्जरै भी है तातें कर्म आदिअंतलियेहुये हैं. उन कर्मजनित भावोंकी अपेक्षा जीव सादिसान्त जान लेना. और वे ही जीव क्षायिक भावोंकी अपेक्षा सादि अनन्त हैं क्योंकि कर्मके-क्षयसे क्षायिक भाव उत्पन्न होते हैं इस कारण सादि हैं. आगें अनन्तकालपर्यंत रहेंगे. इस कारण अनन्त हैं. ऐसा क्षायिक भाव सादि अनन्त हैं. सो क्षायिकभाव जैसें शुद्ध सिद्धका भाव अविनाशी निश्चलरूप है, तैसा अनन्तकालताई रहेगा [सद्भावतः] सत्तास्वरूपसे जीवद्रव्य [अनन्ताः] अनन्त है. भव्य अभव्यके भेदसे जीवराशि अनन्त है. अभव्य जीव अनन्त हैं. उनसे अनन्तगुणा अधिक भव्यराशि है। ___ जो कोई यहां प्रश्न करे कि आत्मा तो अनादि अनन्त साहजीक चैतन्यभावोंसे संयुक्त है. उसके सादिलान्त सादिअनन्त भाव कैसे हो सक्ते हैं ? इसका उत्तर
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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