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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् संस्कृतछाया. आकाशकालजीवा धर्माधम्मौ च मूर्तिपरिहीनाः । मूर्त पुद्गलद्रव्यं जीवः खलु चेतनस्तेपु ॥ ९७ ॥ पदार्थ-[आकाशकालजीवाः] आकाशद्रव्य कालद्रव्य और जीवद्रव्य [च] और [धर्माधम्मौ ] धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य [ मूर्तिपरिहीनाः] स्पर्श रस गन्ध वर्ण इन चारगुणरहित अमूर्तीक हैं । [पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्य एक [मूर्त] मूर्तीक है अर्थात् स्पर्शरसगंधवर्णवान् है । [तेपु] तिनमेंसे [जीवः] जीवद्रव्य [खलु] निश्चय करके [चेतनः] ज्ञानदर्शनरूप चेतन है । और अन्य पांच द्रव्य धर्म अधर्म आकाश काल और पुद्गल ये अचेतन हैं. आगें इन ही षद्रव्योंकी सक्रिय निष्क्रिय अवस्था दिखाते हैं। जीवा पुग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति ण य सेसा । पुरगलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु॥९८ ॥ संस्कृतछाया. जीवाः पुद्गलकायाः सह सक्रिया भवन्ति न च शेपाः । पुद्गलकरणा जीवाः स्कन्धाः खलु कालकरणास्तु ॥ ९८ ॥ पदार्थ-[जीवाः] जीवद्रव्य [पुगलकायाः] पुद्गलद्रव्य [ सह सक्रियाः] निमित्तभूत परद्रव्यकी सहायतासे क्रियावंत [भवन्ति] होते हैं । [च] और [शेषाः] शेषके जो चार द्रव्य हैं वे क्रियावन्त [न] नहीं हैं । सो आगे क्रियाका कारण विशेषताकर दिखाते हैं कि-[जीवाः] जीवद्रव्य हैं ते [पुद्गलकरणाः] पुद्गलका निमित्त पाकर क्रियावन्त होते हैं। [तु] और [स्कन्धाः ] पुद्गलस्कन्ध हैं ते [खल] निश्चय करके [कालकरणाः] कालद्रव्यके निमित्तसे क्रियावंत होकर नाना प्रकारकी अवस्थाको धरते हैं। भावार्थ-एक प्रदेशसे प्रदेशांतरमें जो गमन करना उसका नाम क्रिया है सो पद्रव्यों से जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य प्रदेशसे प्रदेशान्तरमें गमन करते हैं और कम्परूप अवस्थाको धरते हैं इसकारण क्रियावंत कहे जाते हैं और शेषके चार द्रव्य निष्क्रिय निप्कम्प हैं. जीव द्रव्यकी क्रियाको निमित्त बहिरंगमें कर्म नोकर्मरूप पुद्गल हैं इनकी ही संगतिसे जीव अनेक विकाररूप होकर परिणमता है । और जब काल पायकर पुद्गलमयी कर्म नोकर्मका अभाव होता है तब साहजिक निष्क्रिय निप्कंप स्वाभाविक अवस्थारूप सिद्ध पर्यायको धरता है. इसकारण पुद्गलका निमित्त पाकर जीव क्रियावान् जानना । और कालका वहिरंग कारण पाकर पुद्गल अनेक स्कन्धरूप विकारको धारण करता है । इसकारण काल पुद्गलकी क्रियाको सहकारी कारण जानना । परन्तु इतना विशेप है कि जीवद्रव्यकी तरह पुद्गल निष्क्रिय कभी भी नहीं होता । जीव शुद्धहुये उपरान्त क्रियावान् किसी कालमें भी नहीं होयगा. पुद्गलका यह नियम नहीं है । सदा क्रियावान् परसहायसे रहता है।
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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