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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दर्शन ज्ञानका गुणभेद तिनको आत्मासे अभेदरूप जानकर आचरण करै है । ऐसा जो कोई जीव है उसीको स्वसमयका अनुभवी कहा जाता है । वीतरागसर्वज्ञने निश्चयव्यवहारके दो भेदसे मोक्षमार्ग दिखाया है. उन दोनोंमें निश्चय नयके अवलंबनसे शुद्धगुणगुणीका आश्रय लेकर अभेदभावरूप साध्यसाधनकी जो प्रवृत्ति है वही निश्चय मोक्षमार्ग प्ररूपणा कही जाती है। और व्यवहारनयाश्रित जो मोक्षमार्गप्ररूपणा है सो पहिले ही दो गाथावोंमें दिखाई गई हैं वे दो गाथायें ये हैं
"समत्तणाणजुत्तं चारित्तं रागदोसपरिहीणं । मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लद्धसुद्धीणं ॥१॥ सम्मत्तं सदहणं भावाणां तेसिमधिगमो णाणं ।
चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं ॥२॥" इन गाथावोंमें जो व्यवहार मोक्षमार्गका स्वरूप कहा गया है सो स्वद्रव्य परद्रव्यका कारण पाकर जो अशुद्धपर्याय उपजा है उसकी अधीनतासे भिन्न साध्यसाधनरूप है सो यह व्यवहार मोक्षमार्ग सर्वथा निषेधरूप नहीं है कथंचित् महापुरुषोंने ग्रहण किया है निश्चय और व्यवहारमें परस्पर साध्यसाधनभाव है। निश्चय साध्य है व्यवहार साधन है. जैसे सोना साध्य है और जिस पाषाण से सोना निकलता है वह पाषाण साधन है । इस सुवर्णपाषाणवत् व्यवहार है। जीव पुद्गलाश्रित है केवलसुवर्णवत् निश्चय है एक जीव द्रव्यहीका आश्रय है । अनेकांतवादी श्रद्धानी जीव इन दोनों निश्चयव्यवहाररूप मोक्षमार्गका ग्रहण करते हैं । क्योंकि इन दोनों नयोंके ही आधीन सर्वज्ञ वीतरागके धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति जानी गई है। आगे निश्चय मोक्षमार्गका साधनरूप व्यवहार मोक्षमार्गका स्वरूप दिखाते हैं,
धम्मादी सहहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं । चिट्ठा तवंहि चरिया ववहारो मोक्खमग्गोत्ति ॥ १६० ॥
संस्कृतछाया. धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं ज्ञानमङ्गपूर्वगतं ।
__ चेष्टा तपसि चर्या व्यवहारो मोक्षमार्ग इति ।। १६० ॥ पदार्थ-[धर्मादिश्रद्धानं] धर्म अधर्म आकाश कालादिक समस्त द्रव्य वा पदार्थोंका श्रद्धान अर्थात् प्रतीति सो तो व्यवहार सम्यक्त्व है [अङ्गपूर्वगतं] ज्ञारह अंग चवदह पूर्वमें प्रवर्त्तनेवाला जो ज्ञान है सो [ज्ञानं] व्यवहाररूप सम्यग्ज्ञान है । और [तपसि] बारह प्रकारके तप वा तेरह प्रकारके चारित्रमें [चेष्टा] आचरण करना सो [चर्या व्यवहाररूप चारित्र है [इति] इसप्रकार [व्यवहारः] व्यवहारात्मक [मोक्षमार्गः] मोक्षका मार्ग कहा गया है।
१ 'जीवादी सद्दहणं' ऐसा पाठ भी है ।