________________
श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
१०९ भावार्थ-निश्चयकरके इस लोकमें शुभोपयोगरूप भावपुण्यके आस्रवका कारण है और अशुभोपयोगरूप भावपापास्रवका कारण है सो जिन भावोंसे पुण्यरूप वा पापरूप कर्म आकर्षण होते हैं उनका नाम भाव आस्रव है । जिस जीवके जिससमय ये अशुद्धोपयोग भाव होते हैं उसकाल वह जीव उन अशुद्धोपयोग भावोंसे परद्रव्यका आचरणवाला होता है. इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि परद्रव्यके आचरणकी प्रवृत्तिरूप परसमय वंधका मार्ग है मोक्षमार्ग नहीं है । यह अर्हद्देवकथित व्याख्यान जानना । आगें स्वसमयमें विचरनेवाले पुरुषका स्वरूप विशेषतासे दिखाया जाता है।
जो सव्वसंगमुको णण्णमणो अप्पणं सहावेण । जाणदि पस्सदि णियदं सो सगचरियं चरदि जीवो ॥१५८॥
संस्कृतछाया. यः सर्वसङ्गमुक्तः अनन्यमनाः आत्मानं स्वभावेन ।
जानाति पश्यति नियतं सः स्वकचरितं चरति जीवः ।। १५८ ॥ . पदार्थ- [यः] जो सम्यग्दृष्टी जीव [स्वभावेन ] अपने शुद्धभावसे [आत्मानं] शुद्ध जीवको [ नियतं] निश्चयकरके [जानाति ] जानता है और [पश्यति] देखता है [सः] वह [जीवः] जीव [ सर्वसङ्गसुक्तः] अन्तरंग बहिरंग परिग्रहसे रहित [अनन्यमनाः सन् ] एकाग्रतासे चित्तके निरोधपूर्वक स्वरूपमें मगन होता हुवा [खकचरितं] स्वसमयके आचरणको [चरति] आचरण करता है ।
भावार्थ-आत्मस्वरूपमें निजगुणपर्यायके निश्चलस्वरूपमें अनुभवन करनेका नाम स्वसमय है और उसका ही नाम स्वचारित्र है। आगे शुद्ध स्वचारित्रमें प्रवृत्ति है उसका मार्ग दिखाते हैं। .
चरियं चरदि सगं लो जो परवप्पभावरहिदप्पा । दसणणाणविपयप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो ॥ १५९ ॥
संस्कृतछाया. चरितं चरति स्वकं स यः परद्रव्यात्मभावरहितात्मा ।
दर्शनज्ञानविकल्पमविकल्पं चरत्यात्मनः ।। १५९ ॥ पदार्थ- [यः] जो पुरुष [स्वकं चरितं ] अपने आचरणको [चरति ] आचरता है [सः] वह पुरुष [आत्मनः] आत्माके [दर्शनज्ञानविकल्पं] दर्शन और ज्ञानके निराकार साकार अवस्थारूप भेदको [अविकल्पं ] भेदरहित [चरति ] आचरै है । कैसा है वह भेद विज्ञानी ? [परद्रव्यात्मभावरहितात्या] परद्रव्यमें अहंभावरहित है स्वरूप जिसका ऐसा है।
भावार्थ-जो वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानी समस्त मोहचक्रसे रहित है और परभावोंका त्यागी होकर आत्मभावोंमें सन्मुख हुवा अधिकतासे प्रवत्तॆ है । आत्मद्रव्यमें स्वाभाविक जो