________________
१०८
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अंगीकार करता है तब यह आत्मा अवश्य ही कर्मवन्धसे रहित होता है क्योंकि निश्चल भावोंके आचरणसे ही मोक्ष सधता है । आगें परचारित्ररूप परसमयका स्वरूप कहा जाता है।
जो परयास्मि सुहं असुहं रामेण अणदि जदि भावं । सो संगचरित्तमहो परचरियचरो हयदि जीवो ॥ १५६॥
संस्कृतछाया. यः परद्रव्ये शुभमशुभं रागेण करोति यदि भावं ।
स स्वकचरित्रभ्रष्टः परचरितचरो भवति जीवः ।। १५६ ॥ पदार्थ-[यः] जो अविद्या पिशाचीग्रहीत जीव [ परद्रव्ये ] आत्मीक वस्तुसे विपरीत परद्रव्यमें [रागेण] मदिरापानवत् मोहरूपभावसे [यदि] जो [शुभं] व्रत भक्ति संयमादि भाव अथवा [अशुभं भावं] विषयकपायादि असत भावको [करोति] करता है [सः जीवः] वह जीव [वकचरित्रभ्रष्टः] आत्मीक शुद्धाचरणसे रहित [परचरितचरः] परसमयका आचरणवाला [भवति] होता है ।
भावार्थ—जो कोई पुरुष मोहकर्मके विपाकके वशीभूत होनेसे रागरूप परिणामोंसे अशुद्धोपयोगी होता है विकल्पी होकर परमें शुभाशुभ भावोंको करता है सो स्वरूपाचरणसे भ्रष्ट होकर परवस्तुका आचरण करता हुवा परसमयी है ऐसा महन्त पुरुषोंने कहा है । आगममें प्रसिद्ध है कि आत्मीकभावोंमें शुद्धोपयोगकी प्रवृत्ति होना सो स्वसमय है और परद्रव्यमें अशुद्धोपयोग प्रवृत्ति होना सो परसमय है। यह अध्यात्मरसके आस्वादी पुरुषोंडा विलास है। ___ आगें जो पुरुष परसमयमें प्रवः है उसके वन्धका कारण है और मोक्षमार्गका निषेध है ऐसा कथन करते हैं।
आसवदि जेण पुण्णं पावं वा अप्पणोध भावेण । सो तेण परचरित्तो हवदिति जिणा पख्वति ॥ १५७ ॥
संस्कृतछाया. आस्रवति येन पुण्यं पापं वात्मनोऽथ भावेन ।
स तेन परचरित्रः भवतीति जिनाः प्ररूपयन्ति ।। १५७ ॥ पदार्थ-[येन] जिस [भावेन] अशुद्धोपयोगरूप परिणामसे [आत्मनः] कहिये संसारी जीवके [ पुण्यं] शुभ [अथ वा] तथा [पापं] अशुभरूप कर्मवर्गणा [आस्रवति] आकर्पण होती है [सः] वह आत्मा [तेन] तिस अशुद्धभावसे [परचरित्रः] परसमयका आचरण करनेवाला [भवति ] होता है [इति] इसप्रकार [जिनाः] सर्वज्ञदेव जे हैं ते [प्ररूपयंति] कहते हैं।