SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .१२० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् वाले हैं वे तीर्थ कहाते हैं. तीर्थसाधनभाव जहां है तीर्थफल शुद्ध सिद्धअवस्था साध्यभाव है. तीर्थ क्या है सो दिखाते हैं, जिन जीवोंके ऐसे विकल्प होंहि कि यह वस्तु श्रद्धा करने योग्य है, यह वस्तु श्रद्धा करने योग्य नहीं है, श्रद्धा करनेवाला पुरुष ऐसा है, यह श्रद्धान है, इसका नाम अश्रद्धान है, यह वस्तु जानने योग्य है, यह नहिं जानने योग्य है, यह स्वरूप ज्ञाताका है, यह ज्ञान है, यह अज्ञान है, यह आचरने योग्य है, यह वस्तु आचरने योग्य नहीं है, यह आचारमयी भाव हैं, यह आचरण करनेवाला है, यह चारित्र है, ऐसें अनेकप्रकारके करने न करनेके कर्ताकर्मके भेद उपजते हैं, उन विकल्पोंके होतेहुये उन पुरुष तीर्थोको सुदृष्टिके बढावसे वारंवार उन पूर्वोक्त गुणोंके देखनेसे प्रगट उल्लासलिये उत्साह बढे है । जैसें द्वितीयाके चंद्रमाकी कला बढती जाती है, तैसें ही ज्ञानदर्शनचारित्ररूप अमृतचंद्रमाकी कलावोंका कर्तव्याकर्त्तव्य भेदोंसे उन जीवोंके बढवारी होती है । फिर उन ही जीवोंके शनैः शनैः (होलै होलै) मोहरूप महामल्लका मूल सत्तासे विनाश होता है । किस ही एक कालमें अज्ञानताके आवेशते प्रमादकी आधीनतासे उनही जीवोंके आत्मधर्मकी सिथिलता है. फिर आत्माको न्यायमार्गमें चलानेकेलिये आपको प्रचण्ड दंड देते हैं । शास्त्रन्यायसे फिर ये ही जिनमागी वारंवार जैसा कुछ रत्नत्रयमें दोष लगा होय उसीप्रकार प्रायश्चित्त करते हैं. फिर निरन्तर उद्यमी रहकर अपनी आत्माको जो आत्मस्वरूपसे भिन्नस्वरूप श्रद्धानज्ञानचारित्ररूप व्यवहाररत्नत्रयसे शुद्धता करते हैं. जैसें मलीन वस्त्रको धोवी भिन्न साध्यसाधनभावकर सिलाके उपरि सावन आदि सामग्रियोंसे उज्वल करता है तैसें ही व्यवहारनयका अवलम्ब पाय भिन्न साध्यसाधनभावकेद्वारा गुणस्थान चढनेकी परपाटीके क्रमसे विशुद्धताको प्राप्त होता है। फिर उन ही मोक्षमार्ग साधक जीवोंके निश्चयनयकी मुख्यतासे भेदस्वरूप परअवलंबी व्यवहारमयी भिन्न साध्यसाधनभावका अभाव है. इसकारण अपने दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूपविषै सावधान होकर अन्तरंग गुप्त अवस्थाको धारण करता है । और जो समस्त वहिरंग योगोंसे उत्पन्न है क्रियाकांडका आडम्बर, तिनसे रहित निरंतर संकल्प विकल्पोंसे रहित परम चैतन्य भावोंके द्वारा सुंदर परिपूर्ण आनंदवंत भगवान् परब्रह्म आत्मामें स्थिरताको करै है ऐसे जे पुरुप हैं, वे ही निश्चयावलम्बी जीव हैं. व्यवहारनयसे अ. विरोधी क्रमसे परम समरसीभावके भोक्ता होते हैं. तत्पश्चात् परम वीतरागपदको प्राप्त होयकर साक्षात् मोक्षावस्थाके अनुभवी होते हैं । यह तो मोक्षमार्ग दिखाया. अब जे एकान्तवादी हैं मोक्षमार्गसे पराङ्मुख हैं उनका स्वरूप दिखाया जाता है.--जो जीव केवलमात्र व्यवहारनयका ही अवलंबन करते हैं उन जीवोंके परद्रव्यरूप भिन्न साध्यसाधनभावकी दृष्टि है स्वद्रव्यरूप निश्चयनयात्मक अभेदसाध्यसाधनभाव नहीं है. अकेले व्यवहारसे खेदखिन्न हैं. वारंवार परद्रव्यम्वरूप धर्मादिक पदार्थों में श्रद्धानादिक अनेक
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy