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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आगे प्रशस्त रागका स्वरूप दिखाते हैं. अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा। अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुचंति ॥ १३६ ॥ संस्कृतछाया. अरहत्सिद्धसाधुपु भक्तिर्द्धर्मे या च खलु चेष्टा । अनुगमनमपि गुरूणां प्रशस्तराग इति ब्रुवन्ति (?) ।। १३६ ।। पदार्थ-[अरहत्सिद्धसाधुपु] अरहंत सिद्ध और साधु इन तीन पदोंम जो [भक्तिः] स्तुति वंदनादिक [च] और [या] जो [धर्मे] अरहंत प्रणीत धर्ममें [खल] निश्चय करके [चेष्टा] प्रवृत्ति, [ गुरूणां] धर्माचरणके उपदेष्टा आचार्यादिकोंका [अनुगमनं अपि] भक्ति भावसहित उनके पीछे होकर चलना अर्थात् उनकी आज्ञानुसार चलना भी [इति] इसप्रकार महापुरुष [प्रशस्तरागः] भला रागको [ब्रुवंति] कहते हैं। भावार्थ-अरहंतसिद्धसाधुवोंमें भक्तिव्यवहार चारित्रका आचरण और आचार्यादिक महन्त पुरुषोंके चरणोंमें रसिक होना इसका नाम प्रशस्त राग है । क्योंकि शुभ रागसे ही पूर्वोक्त प्रवृत्ति होती हैं । यह प्रशस्तराग स्थूलताकर अकेला भक्तिहीके करनेवाले अज्ञानी जीवोंके जानना और किसी काल ज्ञानीके भी होता है । कैसे ज्ञानीके होता है ? कि जो ज्ञानी उपरिके गुणस्थानोंमें स्थिर होनेको असमर्थ हैं उनके यह प्रशस्त राग होता है सो भी कुदैवादिकोंमें राग निषेधार्थ अथवा तीव्र विषयानुरागरूप ज्वरके दूर करनेकेलिये होता है । आगे अणुकम्पा अर्थात् दयाका स्वरूप कहते हैं । तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्टण जो दु दुहिमणो। पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा ॥ १३७ ॥ संस्कृतछाया. तृपितं बुभुक्षितं वा दुःखितं दृष्ट्वा यस्तु दुःखितमनाः । प्रतिपद्यते तं कृपया तस्यैपा भवत्यनुकम्पा ।। १३७ ॥ पदार्थ-तृषितं ] जो कोई जीव तृपावंत हो [वा] अथवा [बुभुक्षितं] क्षुधातुर होय वा [दु:खितं] रोगादिकरि दुःखित होय [तं] उसको [दृष्ट्वा ] देखकर [ यातु] जो पुरुष [दुःखितमनाः] उसकी पीड़ासे आप दुःखी होता हुवा [कृपया] दयाभाव करकें [प्रतिपद्यते] उस दुःखके दूर करनेकी क्रियाको प्राप्त होता है [तस्य] उस पुरुपके . [एपा] यह [अनुकम्पा] ढ़या [भवति ] होती है। भावार्थ- दयाभाव अज्ञानीके भी होता है और ज्ञानीके भी होता है परन्तु इतना विशेप है कि अज्ञानीके जो दयाभाव है सो किस ही पुरुषको दुःखित देखकर तो उसके दुःख दूर करनेके उपायमें अहंबुद्धिसे आकुलचित्त होकर प्रवते है और जो ज्ञानी
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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