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________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । ৩৩ यकी अतीतअनागतवर्तमानरूप जो परंपरा लियी जाय तो आवली पल्योपम सागरोपम ' इत्यादि अनेक भेद होते हैं. इससे यह बात सिद्ध हुई कि-निश्चयकाल अविनाशी है व्यवहारकाल विनाशीक है। आगे कालकी द्रव्यसंज्ञा है कायसंज्ञा नही है ऐसा कहते हैं। एदे कालागासा घम्साघम्सा य पुग्गला जीवाः। लन्भंति व्वसण्णं कालस्स दु णत्थि कायत्तं ॥ १०२ ॥ संस्कृतछाया. एते कालाकाशे धमाधम्मौ च पुद्गला जीवाः । लभन्ते द्रव्यसंज्ञां कालस्य तु नास्ति कायत्वं ।। १०२ ॥ पदार्थ-[एते] ये [कालाकाशे ] काल और आकाशद्रव्य [च] और [धर्माधम्मौ] धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य [पुद्गलाः] पुद्गलद्रव्य [ जीवाः] जीवद्रव्य [द्रव्यसंज्ञां] द्रव्यनामको [लभन्ते ] पाते हैं । भावार्थ-जिस प्रकार धर्म अधर्म आकाश पुद्गल जीव इन पांचों द्रव्योंमें गुणपर्याय हैं और जैसा इनका सद्रव्य लक्षण है तथा इनका उत्पादव्यय ध्रौव्य लक्षण है वैसे ही गुणपर्यायादि द्रव्यके लक्षण कालमें भी हैं इसकारण कालका नाम भी द्रव्य है । कालको और अन्य पांचों द्रव्योंको द्रव्यसंज्ञा तो समान है परन्तु धर्मादि पांच द्रव्योंकी कायसंज्ञा है. क्योंकि काय उसको कहते हैं जिसके बहुत प्रदेश होते हैं । धर्म अधर्म आकाश जीव इन चारों द्रव्योंके असंख्यात प्रदेश हैं पुद्गलके परमाणु यद्यपि एकप्रदेशी हैं तथापि पुद्गलोंमें मिलनशक्ति है इस कारण पुद्गल संख्यात असंख्यात तथा अनन्त प्रदेशी हैं । [कालस्य तु] कालद्रव्यके तो [कायत्वं] बहु प्रदेशरूप कायभाव [नास्ति] नहीं है । भावार्थ-कालाणु एकप्रदेशी है. लोकाकाशके भी असंख्यात प्रदेश हैं असंख्यातीही कालाणु हैं. सो लोकाकाशके एक एक प्रदेशपर एक एक कालाणु रहता है । इसी कारण इस पंचास्तिकाय ग्रन्थमें कालद्रव्य कायरहित होनेके कारण इसका मुख्यरूप कथन नहीं किया । यह कालद्रव्य इन पंचास्तिकायोंमें गर्भित आता है क्योंकि जीव पुद्गलके परिणमनसे समयादि व्यवहारकाल जाना जाता है. जीव.पुद्गलोंके नवजीर्णपरिणामोंके विना व्यवहारकाल नहीं जाना जाता है । जो व्यवहारकाल प्रगट जाना जाय तो निश्चयकालका अनुमान होता है. इस कारण पंचास्तिकायमें जीवपुद्गलोंके परिणमनद्वारा कालद्रव्य जाना ही जाता है कालको इसलियेही इन पंचास्तिकायोंमें गर्मित जानना. यह कालद्रव्यका व्याख्यान पूरा हुवा। अब पंचास्तिकायके व्याख्यानसे ज्ञान फल होता है सो दिखाते हैं । एवं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं वियाणित्ता । जो मुयदि रागदोसे सो गाहदि दुक्खपरिमोक्खं ॥ १०३ ॥
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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