SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् गर्भित ध्यानका अनुभवी है, इसकारण परमात्मपदको पाता है । इसप्रकार निर्जरा पदार्थका व्याख्यान पूरा हुवा. - अब बन्ध पदार्थका व्याख्यान किया जाता है। जं सुहमसुहमुदिण्णं भावं रत्तो करेदि जदि अप्पा। सो तेण हवदि वंधो पोग्गलकम्मेण विविहेण ॥ १४७॥ संस्कृतछाया. यं शुभाशुभमुदीर्ण भावं रक्तः करोति यद्यात्मा। स तेन भवति बद्धः पुद्गलकर्मणा विविधेन ॥ १४७ ।। पदार्थ-यदि ] जो [ रक्तः] अज्ञानभावमें रागी होकर [आत्मा ] यह जीवद्रव्य [यं] जिस [शुभं अशुभं] शुभाशुभरूप [उदीर्ण] प्रकट हुये [भावं ] भावको [करोति] करता है [सः] वह जीव [तेन] तिस भावसे [विविधेन पुद्गलकर्मणा] अनेक प्रकारके पौद्गलीक कर्मोंसे [बद्धः भवति ] बंध जाता है । भावार्थ-जो यह आत्मा परके सम्बन्धसे अनादि अविद्यासे मोहित होकर कर्मके उदयसे जिस शुभाशुभ भावको करता है तब यह आत्मा उसही काल उस अशुद्ध उपयोगरूप भावका निमित्त पाकरके पौद्गलिक कर्मोंसे वंधता है। इससे यह वात भी सिद्ध हुई कि इस आत्माके जो रागद्वेषमोहरूप स्निग्ध शुभअशुभ परिणाम हैं उनका नाम तो भावबन्ध है उस भाववन्धका निमित्त पाकर शुभअशुभरूप द्रव्यवर्गणामयी पुद्गलोंका जीवके प्रदेशोंसे परस्पर बंध होना तिसका नाम द्रव्यबन्ध है। आगें बंधके बहिरंग अन्तरंग कारणोंका स्वरूप दिखाते हैं । जोगनिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो। भावणिमित्तो वंधो भायो रदिरागदोसमोहजुदो ॥ १४८॥ संस्कृतछाया. योगनिमित्तं ग्रहणं योगो मनोवचनकायसंभूतः । भावनिमित्तो बन्धो भावो रतिरागद्वेपमोहयुतः ।। १४८ ॥ पदार्थ-योगनिमित्तं ग्रहणं ] योगोंका निमित्त पाकर कर्मपुद्गलोंका जीवके प्रदेशोंमें परस्पर एक क्षेत्रावगाहकर ग्रहण होता है [योगः मनोवचनकायसंभूतः] योग जो हैं १ जो कोई कहै कि इस वर्तमान कालमें ध्यान नहिं होता उनको नीचे लिखी दो गाथावोंसे अपना समाधान करना चाहिये "अज्जवि तिरयणसुद्धा अप्पा झाये वि लहइ इंदत्तं । लोयंति य देवत्तं तत्थ चुया णिव्वुदि जंति ॥ १॥ अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा । तण्णवरि सिक्खियव्वं जंजरमरणं खई कुणई ॥२॥"
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy