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________________ ३४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जो ये आठ भाव नहिं होय तो द्रव्यका अभाव होजाय द्रव्यके अभावसे संसार और मोक्ष दोनों अवस्थाका अभाव होय इस कारण इन आठों भावज्ञानोंको जानना चाहिये । ध्रौव्यभाव १ व्ययभाव २ भव्यभाव ३ अभव्यभाव ४ शून्यभाव ५ पूर्वाभाव ६ ज्ञानभाव ७ अज्ञानभाव ८ इन आठ भावोंसे जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है । और जीवद्रव्यके अस्तित्वसे इन आठोंका अस्तित्व रहता है। आगे चैतन्यस्वरूप आत्माके गुणोंका व्याख्यान करते हैं । कम्माणं फलमेक्को एक्को कजं तु णाणमध एक्को। चेदयदि जीवरासि चेद्गभावेण तिविहेण ॥ ३८॥ संस्कृतछाया. कर्मणां फलमेकः एकः कार्य तु ज्ञानमथैकः । चेतयति जीवराशिश्चेतकभावेन त्रिविधेन ॥ ३८ ॥ पदार्थ-[एक::] एक जीवराशि तो [कर्मणां] कर्मोंके [ फलं] सुखदुखरूप फलको [चेतयति ] वेदै है. [तु] और [एकः] एक जीवराशि ऐसी है कि कुछ उद्यम लिये [कार्य] सुखदुखरूप कर्मोंके भोगनेके निमित्त इष्ट अनिष्ट विकल्परूप कार्यको विशेषताके साथ वेदै है. [अथ] और [एकः] एक जीवराशि ऐसी है कि- [ज्ञानं] शुद्धज्ञानको ही विशेषतारूप वेदती है. [त्रिविधेन] यह पूर्वोक्त कर्मचेतना कर्मफल चेतना और ज्ञानचेतना इसप्रकार तीन भेद लिये है [चेतकभावेन] चैतन्य भावोंसे ही [जीवराशिः] समस्त जीवराशि है । ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो इस त्रिगुणमयी चेतनासे रहित हो । इस कारण आत्माके चैतन्यगुण जानलेना। भावार्थ-अनेक जीव ऐसे हैं कि जिनके विशेषता करके ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनी वीर्यान्तराय इन कर्मोंका उदय है. इन कर्मोंके उदयसे आत्मीक शक्तिसे रहित हुये परिणमते हैं । इस कारण विशेषताकर सुखदुखरूप कर्मफलको भोगते हैं । निरुद्यमी हुये विकल्परूप इष्ट अनिष्ट कार्यकारणको असमर्थ है इसलिये इन जीवोंको मुख्यतासे कर्मफल-चेतना गुणको धरनहारे जानने। और जो जीव ज्ञानावरण दर्शनावरण और मोह कर्मके विशेष उदयसे अतिमलीन हुये चैतन्यशक्तिकर हीन परणमे हैं परंतु उनके वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम कुछ अधिक हुवा है, इस कारण सुखदुखरूप कर्मफलके भोगवनेको इष्ट अनिष्ट पदार्थोंमें रागद्वेष मोहलिये उद्यमी हुये कार्य करनेको समर्थ हैं, वे जीव मुख्यतासे कर्मचेतनागुणसंयुक्त जानने । और जिन जीवोंके सर्वथा प्रकार ज्ञानावरण दर्शनावरण मोह और अन्तरायकर्म गये हैं. अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन अनन्तसुख अनन्तवीर्य ये गुण प्रगट हुये हैं कर्म और कर्मफलके भोगनेमें विकल्परहित हैं और आत्मीक पराधीनतारहित स्वाभाविक सुखमें लीन होगये हैं, वे ज्ञानचेतनागुणसंयुक्त कहाते हैं ।
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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