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________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। क्योंकि [अज्ञानी] आत्मा अज्ञानगुणसंयुक्त है [इति वचनं] यह कथन [एकत्वप्रसाधकं ] गुणगुणीमें एकताका साधनहारा [ भवति ] होता है । भावार्थ-ज्ञानी और ज्ञानगुणकी प्रदेशभेदरहित एकता है और जो कहिये कि एकता नहीं है ज्ञानसंबंधसे ज्ञानी जुदा है-तो जब ज्ञान गुणका संबंध ज्ञानीके पूर्व ही नहीं था, तब ज्ञानी अज्ञानी था कि ज्ञानी ? जो कहोगे कि ज्ञानी था तो ज्ञान गुणके कथनका कुछ प्रयोजन नहीं, स्वरूपसे ही ज्ञानी था और जो कहोगे कि पहिले अज्ञानी था पीछेसे ज्ञानका संबंध होनेसे ज्ञानी हुवा है तो जब अज्ञानी था तो अज्ञान गुणके संबंधसे अज्ञानी था कि अज्ञानगुणसे एकमेक था? जो कहोगे कि-अज्ञानगुणके संबंधसे ही अज्ञानी ही था तो वह अज्ञानी था. अज्ञानके संबंधसे कुछ प्रयोजन नहीं है. स्वभावसे ही अज्ञानी थपै है. इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि-ज्ञान गुणका जो प्रदेशभेदरहित ज्ञानीसे एकभाव माना जाय तो आत्माके अज्ञानगुणसे एकभाव होता सन्ता अज्ञानी पद थपता है-इसकारण ज्ञान और ज्ञानीमें अनादिकी अनन्त एकता है । ऐसी एकता है जो ज्ञानके अभावसे ज्ञानीका अभाव हो जाता है—और ज्ञानीके अभावसे ज्ञानका अभाव होता है । और जो यों नहिं माना जाय तो आत्मा अज्ञानभावकी एकतासे अवश्यमेव अज्ञानी होता है और जो ऐसा कहा जाता है कि अज्ञानका नाश करके आत्मा ज्ञानी होता है सो यह कथन कर्म उपाधिसंबंधसे व्यवहारनयकी अपेक्षा जानना । जैसें सूर्य मेघपटलद्वारा आच्छादित हुवा प्रभारहित कहा जाता है परन्तु सूर्य अपने स्वभावसे उस प्रभावते त्रिकाल जुदा होता नाही. पटलकी उपाधिसे प्रभासे हीन अधिक कहा जाता है. तैसें ही यह आत्मा अनादि पुद्गलउपाधिसम्बन्धसे अज्ञानी हुवा प्रवर्ते है. परन्तु वह आत्मा अपने स्वाभाविक अखंड केवलज्ञान स्वभावसे स्वरूपसे किसी कालमें भी जुदा नहिं होता । कर्मकी उपाधिसे ज्ञानकी हीनता अधिकता कही जाती है. इसकारण निश्चय करकें ज्ञानीसे ज्ञानगुण जुदा नहीं है । कर्मउपाधिके वशसें अज्ञानी कहा जाता है. कर्मके घटनेसे ज्ञानी होता है. यह कथन व्यवहारनयकी अपेक्षा जानना । ___ आगं गुणगुणीमें एकभावके विना और किसीप्रकारका संबंध नहीं है ऐसा कथन करते हैं. समवत्ती समवाओ अपुधभूदोय अजुदसिद्धो य । तह्मा द्वगुणाणं अजुदा सिद्धित्ति णिहिट्ठा ॥५०॥ संस्कृतछाया. समवर्तित्वं समवायः अपृथग्भूतत्वमयुतसिद्धत्वं च । तस्माद्र्व्यगुणानां अयुता सिद्धिरिति निर्दिष्टा ।। ५० ।। पदार्थ-[समवर्तित्वं ] द्रव्य और गुणोंके एक अस्तित्वकर अनादि अनन्त धारा
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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