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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
कषाय और चार संज्ञारूप पापपरिणति [यावत] जिस समय [सुष्टुमागें] संवर मार्गमें [निग्रहीताः ] रोकीं हैं [तावत् ] तब [तेपां] उनके [पापासवं छिद्रं] पापास्रवरूपी छिद्र [पिहितं ] आच्छादित हुवा।। ___ भावार्थ-मोक्षका मार्ग एक संवर है सो संवर जितना इन्द्रिय कषाय संज्ञावोंका निरोध होय उतना ही होता है । अर्थात् जितने अंश आसवका निरोध होता है उतने ही अंश संवर होता है । इन्द्रिय कषाय संज्ञा ये भावपापास्रव हैं । इनका निरोध करना भाव पापसंवर है ये ही भावपापसंवर द्रव्यपापसंवरका कारण है । अर्थात् जब इस जीवके अशुद्ध भाव नहिं होते तब पौद्गलीक वर्गणावोंका आस्रव भी नहिं होता । आगें सामान्य संवरका स्वरूप कहते हैं।
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वव्वेसु । णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ॥१४२॥
संस्कृतछाया. यस्य न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा सर्वद्रव्येषु ।
नास्रवति शुभमशुभं समसुखदुःखस्य भिक्षोः ।। १४२ ॥ पदार्थ- [यस्य ] जिस पुरुषके [ सर्वद्रव्येषु ] समस्त परद्रव्योंमें [रागः] प्रीतिभाव [द्वेषः] द्वेषभाव [वा] अथवा [मोहः] तत्त्वोंकी अश्रद्धारूप मोह [न विद्यते ] नहीं है [तस्य] उस [समसुखदुःखस्य] समान है सुखदुःख जिसके ऐसे [भिक्षोः] महामुनिके [शुभं] शुभरूप [अशुभं] पापरूप पुद्गलद्रव्य [न आस्रवति] आस्रवभावको प्राप्त नहिं होता।
भावार्थ-जिस जीवके रागद्वेष मोहरूप भाव परद्रव्योंमें नहीं है उस ही समरसीके शुभाशुभ कर्मास्रव नहिं होता. उसके संवर ही होता है इसकारण रागद्वेषमोहपरिणामोंका निरोध सो भावसंवर कहाता है. उस भावसंवरके निमित्तसे योगद्वारोंसे शुभाशुभरूप कर्म वर्गणावोंका निरोध होना सो द्रव्यसंवर है । आगें संवरका विशेष स्वरूप कहते हैं ।
जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्त । संवरणं तस्स तदा सुहानुहकदस्त कम्मरस ॥ १४३॥ .
संस्कृतछाया. यस्य यदा खलु पुण्यं योगे पापं च नास्ति विरतस्य ।
संवरणं तस्य तदा शुभाशुभकृतस्य कर्मणः ॥ १४३ ॥ पदार्थ-[यदा] खिल] निश्चय करकें जिस समय [यस्य] जिस [विरतस्य] परद्रव्यत्यागीके [योगे] मनवचनकायरूप योगोंमें [पापं] अशुभपरिणाम [च] और. [पुण्यं ] शुभपरिणाम [नास्ति ] नहीं है [तदा] उस समय [तस्य ] उस मुनिके