Book Title: Prakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक साहित्य : मनन और मीमांसा सम्पादक प्रो० सागरमल जैन डॉ० सुरेश सिसोदिया wwwher wwwimm R प्रकाशक आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर-३१३ 001 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक : प्रकीर्णक साहित्य : मनन और मीमांसा सम्पादक : प्रो० सागरमल जैन डॉ० सुरेश सिसोदिया प्रकाशक : आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान पद्मिनी मार्ग, उदयपुर (राज०) 313.001 संस्करण : प्रथम, 1995 मूल्य : रुपये 100.00 मुद्रक : वर्द्धमान मुद्रणालय, वाराणसी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Prakirnaka Sahitya : Manana Aura Mimansa Editors Prof. Sagarmal Jain Dr. Suresh Sisodiya wwwm wwww Publisher Agama Ahimsa Samata Evam Praksta Samsthana Udaipur 331 001 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Book : Prakirnaka Sahitya : Manana Aura Mimansa Editors : Prof. Sagarmal Jain Dr. Suresh Sisodiya Published by:Agama Ahimsa Samata Evam Praksta Samsthana Padmini Marg, Udaipur (Raj.). 313 001 Edition : First, 1995 Price : Rs. 100.00 Printed at : Vardhaman Mudranalaya, Varanasi Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रकाशन के अर्थ सहयोगी धर्मपरायण शिक्षाप्रेमी श्री धनराज जी बाँठिया जीवनवृत्त : श्री धनराजजी बाँठिया, चुरू निवासी श्री मोहनलालजी बाँठिया के ज्येष्ठ पुत्र थे। आप बचपन से ही परिश्रमी, कुशाग्रबुद्धि, धर्मपरायण एवं मिलनसार थे / किशोरावस्था से ही आप कपड़े के व्यवसाय में संलग्न हो गये / प्रारम्भ में आप बम्बई में कपड़े की आढ़त एवं थोक व्यापार करते थे। सन् 1962 में 'बाम्बे डाइंग' जैसी ख्यातिप्राप्त कपड़े के मिल की आपको एजेन्सी प्राप्त हो गई एवं आपने अपनी लगन, अध्यवसाय, व्यावसायिक कुशलता तथा कठोर परिश्रम से कपड़े के व्यापारियों में प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया / कलकत्ता में भी आपका अग्रणी स्थान रहा है / सन् 1942 में संस्थापित ‘हणुतमल रावतमल' फर्म ने कपड़े के व्यवसाय में जो सफलता प्राप्त की वह आपकी अप्रतिम कुशलता, दूरदर्शिता एवं प्रतिभा का ही परिणाम है / सन् 1968 में आपके मार्गदर्शन में कपड़े का निर्यात प्रारम्भ हुआ जो आज अपनी चरम सीमा पर है। श्री धनराजजी बाँठिया एक सफल व्यवसायी के साथ-साथ शिक्षाप्रेमी, उदार एवं 'धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे / आप अनेक वर्षों तक मारवाड़ी कामर्शियल हाईस्कूल, बम्बई के मानदमंत्री एवं अध्यक्ष रहे हैं / अड़तालीस वर्ष की अल्पायु में आपके आकस्मिक स्वर्गवास से समाज एवं व्यवसाय जगत् की अपूरणीय क्षति हुई है / आपके तीन सुपुत्र श्री निर्मलकुमार, श्री राजेन्द्र कुमार एवं श्री सुरेन्द्र कुमार तथा श्रीमती पुष्पादेवी सेठिया तथा श्रीमती प्रमिला कांकरिया दो सुपुत्रियां हैं / श्री निर्मलकुमार लन्दन में रहते हैं एवं कपड़े के आयात-निर्यात का व्यवसाय करते हैं / श्री राजेन्द्र कुमार बम्बई में रहते हैं एवं शेयर स्टाक एक्सचेंज के निदेशक मंडल में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं / शेयर के व्यवसाय में आप सिद्धहस्त हैं / श्री सुरेन्द्र कुमार कलकत्ता में कपड़े का व्यवसाय करते हैं / आप निर्यात भी करते हैं / तीनों सुपुत्र अत्यन्त उदार, समाजसेवी, शिक्षाप्रेमी, युवा तथा उत्साही कार्यकर्ता हैं / Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री बाँठिया की धर्मपत्नी श्रीमती लक्ष्मीदेवी बाँठिया अत्यन्त सरल, धर्मपरायण एवं उदार महिला हैं / समाज सेवा एवं शिक्षा के कार्यों में आपकी गहन रुचि है। श्री बाँठियाजी की स्मृति में इस पुस्तक का प्रकाशन इनके सुपुत्रों के उदार सहयोग से किया गया है / इसके लिये हम आप सबके बहुत आभारी हैं / सरदारमल कांकरिया __ मानद महामन्त्री आगम संस्थान, उदयपुर Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अर्धमागधी जैन आगम साहित्य भारतीय संस्कृति एवं साहित्य की अमूल्य धरोहर है। इस अर्धमागधी आगम साहित्य का एक भाग प्रकीर्णक साहित्य के नाम से जाना जाता है / प्रकीर्णक साहित्य में विषय-वैविध्य इतना है कि दर्शन, धर्म, साधना एवं आध्यात्मिक उपदेश के साथ ही खगोल, भूगोल, ज्योतिष और इतिहास सभी इसमें समाहित हैं / इस दृष्टि से प्रकीर्णक साहित्य जैन समाज और संस्कृति का सम्पूर्ण परिचय प्रदान करता है, किन्तु हमारा दुर्भाग्य यह है कि यह साहित्य और तत्संबंधी अध्ययन प्रायः उपेक्षित ही रहे। सर्वप्रथम शुबिंग जैसे विदेशी प्राच्य विद्याविदों ने ही इन ग्रन्थों के महत्त्व को हमारे समक्ष उजागर किया / यद्यपि विगत वर्षों में कुछ प्रकीर्णक ग्रन्थों का प्रकाशन तो हुआ है, किन्तु न तो उनके अनुवाद के प्रयत्न हुए और न ही उनके मूल्य एवं महत्त्व को जनसाधारण के समक्ष लाने का प्रयास किया गया / ___प्रकाशित प्रकीर्णक ग्रन्थों में केवल मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित एवं महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित पइण्णयसुत्ताइ भाग 1 एवं 2 ही एकमात्र ऐसे संस्करण हैं, जिनका विस्तृत भूमिका के साथ वैज्ञानिक रीति से संपादन हुआ है / इसीप्रकार एल. डी० इन्स्टीट्यूट ऑफ इंडोलाजी, अहमदाबाद से इसिभासियाइं के मूलपाठ के साथ शुब्रिग की भूमिका का जो प्रकाशन हुआ है, वह भी महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है / इसी क्रम में प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर द्वारा इसिभासियाइं का हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रो० सागरमल जैन की विस्तृत भूमिका सहित जो प्रकाशन हुआ है, उसे भी हम महत्त्वपूर्ण कह सकते हैं, किन्तु अभी तक समस्त प्रकीर्णकों का हिन्दी अनुवाद एवं विस्तृत भूमिका के साथ प्रकाशन का कार्य अवशिष्ट ही था। इस दिशा में आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर द्वारा प्रो० सागरमल जैन के निर्देशन में प्रकीर्णकों को हिन्दी अनुवाद एवं विस्तृत भूमिका के साथ प्रकाशित करने की एक योजना बनाई गयी / योजना को मूर्तरूप देते हुए डॉ. सुभाष कोठारी एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया के द्वारा अनुदित होकर अद्यावधि देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, महाप्रत्याख्यान, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, गणिविद्या, गच्छाचार, वीरस्तव और संस्तारक आदि नौ प्रकीर्णक संस्थान द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं तथा शेष प्रकीर्णकों के अनुवाद का कार्य प्रगति पर है / प्रकीर्णक साहित्य के मूल्य और महत्त्व को जनसाधारण के समक्ष व्यापक रूप से प्रस्तुत करने हेतु हमने सोचा कि इस विषय पर विद्वत संगोष्ठियों का आयोजन करना उपयोगी रहेगा / अतः हमने सर्वप्रथम संस्थान द्वारा "प्रकीर्णक साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा" विषयक एक द्वि-दिवसीयसंगोष्ठी का आयोजन 2-3 अप्रेल, 1995 को उदयपुर में किया। इस संगोष्ठी में प्रो० कमलचन्द सोगानी, प्रो० सागरमल जैन, प्रो० के० आर० चन्द्र, डॉ० प्रेमसुमन जैन, डॉ. सुषमा सिंघवी, महो० विनयसागरजी, श्री जौहरीमलजी एवं Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० कन्हैयालालजी दक आदि जैनविद्या के मूर्धन्य विद्वानों के साथ ही कुछ नवोदित प्रतिभाओं डॉ० धर्मचन्द जैन, डॉ. अशोक कुमार सिंह, डॉ० हुकमचन्द जैन, डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय, डॉ. सुभाष कोठारी एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया आदि ने भाग लिया और अपने विद्वत्तापूर्ण आलेख प्रस्तुत किये। द्वि-दिवसीय संगोष्ठी का उद्घाटन प्रो० कमलचन्द सोगानी के मुख्य आतिथ्य में मोहनलाल सुखड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के कुलपति प्रो० आर० के० राय ने किया। समापन समारोह के अध्यक्ष ओसवाल सभा, उदयपुर के अध्यक्ष श्री पी० एस० मुर्डिया एवं मुख्य अतिथि उदयपुर के विधायक श्री शिवकिशोर सनाढ्य थे / सत्र कार्यक्रमों का कुशल संचालन डॉ० सुषमा सिंघवी एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया ने किया। संगोष्ठी के अन्तिम सत्र में यह विचार उभरकर सामने आया कि संगोष्ठी में पठित आलेखों को प्रकाशित किया जाना चाहिए / तदनुरूप हम "प्रकीर्णक साहित्य : मनन और मीमांसा" के नाम से इन आलेखों का यह संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं / इसमें संगोष्ठी में पठित आलेखों के अतिरिक्त तीन ऐसे आलेख भी समाहित हैं जो प्रकीर्णक साहित्य के मूल्य एवं महत्त्व पर विशेष प्रकाश डालते हैं / संगोष्ठी में होने वाले अर्थव्यय के साथ-साथ इन आलेखों का प्रकाशन व्यय भी कलकत्ता निवासी श्री धनराजजी बाँठिया ने वहन किया है, . इस हेतु हम उनके प्रति विशेष आभारी हैं। साथ ही उपरोक्त आलेखों के सम्पादन, प्रूफ संशोधन, कम्पोजिंग और मुद्रण संबंधी व्यवस्थाओं के लिये संस्थान के मानद निदेशक प्रो० सागरमल जैन एवं शोध अधिकारी डॉ. सुरेश सिसोदिया का बहुमूल्य योगदान रहा, अतःउनके प्रति भी आभार व्यक्त करना अपना दायित्व समझते हैं / इस ग्रन्थ का मुद्रण कार्य वर्द्धमान मुद्रणालय, वाराणसी ने सम्पादित किया है, एतदर्थ हम उनके प्रति भी अपना आभार व्यक्त करते हैं। गुमानमल चोरडिया सरदारमल कांकरिया महामन्त्री अध्यक्ष Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब होता है / इसी दृष्टि से अर्धमागधी आगम साहित्य जैन समाज और संस्कृति का प्रतिबिम्ब माना जा सकता है / अर्धमागधी आगम साहित्य को अंग, उपांग, छेद, मूल, चूलिका और प्रकीर्णकों में विभाजित किया जाता है / इसमें प्रकीर्णक साहित्य सामान्यतया उपेक्षा का विषय रहा है / अंग, उपांग आदि साहित्य के जितने अधिक संस्करण अनुवाद सहित प्रकाशित हुए हैं उतने प्रकीर्णक साहित्य के नहीं हुए हैं। यही कारण है कि प्रकीर्णक साहित्य के सन्दर्भ में जनसाधारण का ज्ञान अल्पतम ही है / अर्धमागधी आगम साहित्य का यह भाग अनुवाद और विस्तृत भूमिकाओं के साथ जनसाधारण के समक्ष आये, इस हेतु पार्श्वनाथ विद्याश्रमशोध संस्थान, वाराणसी के स्वर्ण जयन्ती समारोह के अवसर पर जैन विद्या के विद्वानों की समन्वय समिति के निर्णयानुसार यह कार्य आगम संस्थान, उदयपुर को सौंपा गया। आज हमें यह कहते हुए अत्यन्त प्रसन्नता होती है कि इस संस्थान ने पूरी प्रामाणिकता और निष्ठा के साथ विस्तृत भूमिका और अनुवाद सहित अनेक प्रकीर्णकों का प्रकाशन किया है / यद्यपि आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी ने प्रकीर्णकों का वैज्ञानिक शैली से संपादन किया और उनका प्रकाशन भी हुआ है, किन्तु अनुवाद के अभाव में प्राकृत भाषा से अनभिज्ञजन न तो प्रकीर्णक साहित्य का रसास्वादन कर सके और न ही उनके मूल्य और महत्त्व को समझ सके / प्रकीर्णक साहित्य के मूल्य और महत्त्व को जनसाधारण के समक्ष रखने के उद्देश्य से आगम संस्थान, उदयपुर द्वारा "प्रकीर्णक साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा" विषयक जिस संगोष्ठी का आयोजन किया गया था उसमें पठित आलेखों को प्रकाशित करने का यह प्रयत्न किया गया है। . प्रस्तुत ग्रन्थ में संगोष्ठी हेतु प्राप्त आलेखों के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित निम्न तीन आलेखों को भी सम्मिलित किया गया है-- (1) ISIBHASIYAIM : Prof. Walther Schubring, L. D. Institute of Indology, Ahmedabad, 1974 (2) ISIBHASIYAI AND PALI BUDDHIST TEXTS A STUDY: Aspects of Jainology Vol. III. Pt. Dalsukh Malvania Felicition, Vol. I., P.V. Reserach Institute, Varanasi, 1991. * (3) THE DATE OF THE DEVENDRASTVA : AN ART HISTORICALAPPROACH: Sambodhi,L.D.Instituteof Indology, Ahmedabad, Vol. XVIII, 1992-93. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 8 - हम उपरोक्त तीनों आलेखों के लेखकों एवं प्रकाशकों के आभारी हैं / वस्तुतः ये आलेख प्रकीर्णक साहित्य के मूल्य और महत्त्व को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से प्रस्तुत करने . की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं / इसी क्रम में हम उन सभी विद्वानों के प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं जिन्होंने इस संगोष्ठी में पठित अपने विद्वत्तापूर्ण आलेख हमें प्रकाशित करने हेतु प्रदान किये / इन आलेखों पर संगोष्ठी में जो चर्चाएँ हुईं थीं तथा प्रकीर्णक साहित्य संबंधी जो नवीन जानकारियाँ उपलब्ध हुई थीं उनके सन्दर्भ में इनमें अपेक्षित संशोधन किये गये हैं तथा सम्पादकीय टिप्पणियाँ देकर उन तथ्यों को रेखांकित भी किया गया है / प्रस्तुत संगोष्ठी के प्रेरणास्रोत श्री सरदारमलजी कांकरिया के हम विशेष आभारी हैं जिन्होंने न केवल स्वयं उपस्थित होकर इस संगोष्ठी को सफल बनाया वरन इस संगोष्ठी में पठित लेखों को प्रकाशित कराने हेतु कलकत्ता निवासी श्री धनराजजी बाँठिया को प्रेरित भी किया। संस्थान की मानद सह-निदेशिका डॉ० सुषमा सिंघवी ने इस संगोष्ठी संबंधी सभी कार्यों को मनोयोगपूर्वक सम्पन्न करवाया, एतदर्थ हम उनके प्रति भी अपना आभार व्यक्त करते हैं / इनके अतरिक्त श्री संग्रामसिंहजी हिरण, श्री वीरेन्द्रसिंहजी लोढ़ा, श्री हिम्मतसिंहजी नाहर एवं श्री मानमलजी कुदाल आदि का संगोष्ठी को सफल बनाने में अपेक्षित सहयोग मिला, एतदर्थ हम आप सब के प्रति भी अपना आभार ज्ञापित करते हैं। संस्थान के परम संरक्षक श्री गणपतराजजी बोहरा एवं अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ के पदाधिकारीगण श्री अनुपचन्दजी सेठिया तथा श्री इन्दरचन्दजी बैद आदि संगोष्ठी के सभी सत्रों में बराबर उपस्थित रहे, एतदर्थ हम उनके आभारी हैं। हमारे लिए यह प्रसन्नता का विषय है कि प्रकीर्णक साहित्य के मूल्य और महत्त्व को उजागर करने वाले इन आलेखों का संग्रह हम "प्रकीर्णक साहित्य : मनन और मीमांसा" के रूप में प्रकाशित कर पाठकों को अर्पित कर रहे हैं / प्रस्तुत कृति के मूल्य और महत्त्व का मूल्यांकन करना तो पाठकों का ही कार्य है किन्तु यदि इस कृति के माध्यम से प्रकीर्णक साहित्य के अध्ययन और स्वाध्याय की प्रवृत्ति विकसित होती है तो हम अपना प्रयास सार्थक समझेंगे। . अन्त में पुनः उन सभी के प्रति आभार व्यक्त करते हैं जो संगोष्ठी आयोजित करने, विद्वानों से आलेख प्राप्त करने तथा आलेखों को प्रकाशित करने में सहभागी बने हैं। सागरमल जैन सुरेश सिसोदिया Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची लेख लेखक 1. प्रो० सागरमल जैन : आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता 2. डॉ. अशोक कुमार सिंहः समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु 3. डॉ. अशोक कुमार सिंहः समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु डॉ. सुरेश सिसोदिया 4. जौहरीमल पारख : प्रकीर्णकों की पाण्डुलिपियाँ और प्रकाशित संस्करण 5. प्रो० के० आर० चन्द्र : प्रकीर्णकों का पाठ निर्धारण 6. डॉ. प्रेमसुमन जैन : प्रकीर्णक साहित्य का कथात्मक वैशिष्ट्य 87 7. डॉ. धर्मचन्द जैन : प्रकीर्णक साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा 8. डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय : प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य 111 9. डॉ. सुरेश सिसोदिया : गच्छाचार (प्रकीर्णक) का समीक्षात्मक 165 अध्ययन 10. डॉ० हुकमचन्द जैन : चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में 180 प्रतिपादित विनयगुण 11. डॉ. सुभाष कोठारी : गणिविद्या प्रकीर्णक एवं उसका अन्य प्राचीन ग्रन्थों में स्थान 12. डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय : प्रकीर्णक और प्रवचनसारोद्धार 192 13. प्रो० सागरमल जैन : प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित 208 14. डॉ. रज्जन कुमार : तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक और 224 आधुनिक जीव विज्ञान 15. 60 कन्हैयालाल दक : तित्योगाली प्रकीर्णक और प्राचीन जैन इतिहास 16. Prof. Walther : ISIBHASIYAIM 236 Schubring 17. Prof. C.S.Upasak : THE ISIBHASIYAI AND PALI 251 BUDDHIST TEXTS A STUDY 18. Lalit Kumar : THE DATE OF THE 259 DEVENDRASTAVA: AN ART-HISTORICAL APPROACH 184 230 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता * प्रो० सागरमल जैन आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान किसी भी धार्मिक परम्परा का आधार उसके धर्मग्रंथ होते हैं, जिन्हें वह प्रमाणभूत मानकर चलती है / जिस प्रकार मुसलमानों के लिए कुरान, ईसाईयों के लिए बाइबिल, बौद्धों के लिए त्रिपिटक और हिन्दुओं के लिए वेद प्रमाणभूत ग्रंथ हैं, उसी प्रकार जैनों के लिए आगम प्रमाणभूत ग्रंथ हैं / सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र, नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में आगमों का वर्गीकरण अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में किया गया है / परम्पसगत अवधारणा यह है कि तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट और गणधरों द्वारा रचित ग्रंथ अंगप्रविष्ट आगम कहे जाते हैं। इनकी संख्या बारह है, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से स्वीकृत हैं / इन अंग आगमों के नाम हैं- 1. आचारांग 2. सूत्रकृतांग 3. स्थानांग 4. समवायांग 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति 6. ज्ञाताधर्मकथांग 7. उपासकदशांग 8. अन्तकृद्दशांग 9. अनुत्तरौपपातिक दशा१०. प्रश्नव्याकरणदशा 11. विपाकदशा और 12. दृष्टिवाद / इनके नाम और क्रम के संबंध में भी दोनों परम्पराओं में एकरूपता है / मूलभूत अन्तर मात्र यह है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा आज भी दृष्टिवाद के अतिरिक्त शेष ग्यारह अंगों का अस्तित्व स्वीकार करती है, वहाँ दिगम्बर परम्परा आज मात्र दृष्टिवाद के आधार पर निर्मित कसायपाहुड, षट्खण्डागम आदि के अतिरिक्त इन अंग आगमों को विलुप्त मानती __अंगबाह्य वे ग्रंथ हैं जो जिनवचन के आधार पर स्थविरों के द्वारा लिखे जाते हैं। नन्दीसूत्र में इन अंग बाह्य आगमों को भी प्रथमतः दो भागों में विभाजित किया है१. आवश्यक और 2. आवश्यक व्यतिरिक्त / आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक, चार्तुविंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान-ये छः ग्रंथ सम्मिलित रूपसे आते हैं, जिन्हें आज आवश्यकसूत्र के नाम से जाना जाता है / इसी ग्रंथ में आवश्यक व्यतिरिक्त आगम ग्रंथों को भी पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है-१. कालिक और 2. उत्कालिका आज प्रकीर्णकों में वर्गीकृत नौ ग्रंथ इन्हीं दो विभागों के अन्तर्गत उल्लिखित हैं / इसमें कालिक के अन्तर्गत ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति इन दो प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है, जबकि उत्कालिक के अन्तर्गत देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रकवेध्यक, गणिविद्या, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणविभक्ति इन सात प्रकीर्णकों का उल्लेख है। प्राचीन आगमों में ऐसा कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि अमुक-अमुक ग्रंथ ' प्रकीर्णक के अन्तर्गत आते हैं / नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र दोनों में ही आगमों के विभिन्न Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 : प्रो० सागरमल जैन वर्गों में कहीं भी प्रकीर्णक-वर्ग का उल्लेख नहीं है / यद्यपि इन दोनों ग्रंथों में आज हम जिन्हें प्रकीर्णक मान रहे हैं उनमें से अनेक का उल्लेख कालिक एवं उत्कालिक आगमों के अन्तर्गत हुआ है / यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आगमों का अंग, उपांग, छेद, मूल, चूलिका और प्रकीर्णक के रूप में उल्लेख सर्वप्रथम आचार्य जिनप्रभ के विधिमार्गप्रपा (लगभग ईसा की तेरहवीं शती) में मिलता है / इससे यह फलित होता है कि तेरहवीं शती से पूर्व आगमों के वर्गीकरण में कहीं भी प्रकीर्णक वर्ग का स्पष्ट निर्देश नहीं है, किन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिये कि उसके पूर्व न तो प्रकीर्णक साहित्य था और न ही इनका कोई उल्लेख था / अंग आगमों में सर्वप्रथम समवायांगसूत्र में प्रकीर्णक' का उल्लेख हुआ है / उसमें . कहा गया है कि भगवान ऋषभदेव के 84 हजार शिष्यों द्वारा रचित 84 हजार प्रकीर्णक थे। परम्परागत अवधारणा यह है कि जिस तीर्थंकर के जितने शिष्य होते हैं, उसके शासन में उतने ही प्रकीर्णक ग्रंथों की रचना होती है। सामान्यतया प्रकीर्णक शब्द का तात्पर्य होता है- विविध ग्रंथ / मुझे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ में आगमों के अतिरिक्त सभी ग्रंथ प्रकीर्णक की कोटि में माने जाते थे। अंग आगमों से इतर आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक एवं उत्कालिक के रूप में वर्गीकृत सभी ग्रंथ प्रकीर्णक कहलाते थे / मेरे इस कथन का प्रमाण यह है कि षट्खण्डागम की धवला टीका में 12 अंग आगमों से भित्र अंगबाह्य ग्रंथों को प्रकीर्णक नाम दिया है। उसमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि को भी प्रकीर्णक ही कहा गया है / यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णक नाम से अभिहित अथवा प्रकीर्णक वर्ग में समाहित सभी ग्रंथों के नाम के अंत में प्रकीर्णक शब्द तो नहीं मिलता है, मात्र कुछ ही ग्रंथ ऐसे हैं जिनके नाम के अंत में प्रकीर्णक शब्द का उल्लेख हुआ है / फिर भी इतना निश्चित है कि प्रकीर्णकों का अस्तित्व अतिप्राचीन काल में भी रहा है, चाहे उन्हें प्रकीर्णक नाम से अभिहित किया गया हो अथवा न किया गया हो / नन्दीसूत्रकार ने अंग आगमों को छोड़कर आगम रूप में मान्य अन्य सभी ग्रंथों को प्रकीर्णक कहा है / अतः 'प्रकीर्णक' शब्द आज जितने संकुचित अर्थ में है उतना पूर्व में नहीं था / उमास्वाति और देववाचक के समय में तो अंग आगमों के अतिरिक्त शेष सभी आगमों को प्रकीर्णकों में ही समाहित किया जाता था। इससे जैन आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का क्या स्थान है, यह सिद्ध हो जाता है / प्राचीन दृष्टि से तो अंग आगमों के अतिरिक्त सम्पूर्ण जैन आगमिक साहित्य प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत आता है। वर्तमान में प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत 10 ग्रंथ मानने की जो परम्परा है, वह न केवल अर्वाचीन है अपितु इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर आचार्यों में परस्पर मतभेद भी है कि इन 10 प्रकीर्णकों में कौन से ग्रंथसमाहित किये जाएँ / प्रद्युम्नसूरि ने विचारसारप्रकरण (१४वीं शताब्दी) में 45 आगमों का उल्लेख करते हुए कुछ प्रकीर्णकों का उल्लेख किया है / आगम प्रभाकर मुनि पुण्यविजय जी ने चार अलग-अलग सन्दर्भो में प्रकीर्णकों की अलग-अलग सूचियाँ प्रस्तुत की हैं / 5 अतः 10 प्रकीर्णक के अन्तर्गत किन-किन ग्रंथों को समाहित करना चाहिए, इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर आचार्यों में कहीं भी एकरूपता देखने को नहीं मिलती है / इससे यह Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साराम सात्वि में प्रकनिकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता : 3 फलित होता है कि प्रकीर्णक ग्रंथों की संख्या दस है, यह मान्यता न केवल परवर्ती है अपितु उसमें एकरूपता का भी अभाव है / भित्र-भित्र श्वेताम्बर आचार्य भित्र-भित्र सूचियाँ प्रस्तुत करते रहे हैं उनमें कुछ नामों में तो एकरूपता होती है, किन्तु सभी नामों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है / जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें तत्त्वार्थभाष्य का अनुसरण करते हुए अंग आगमों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक कहने की ही परम्परा रही है / अतः प्रकीर्णकों की संख्या अमुक ही है, यह कहने का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है / वस्तुतः अंग आगम साहित्य के अतिरिक्त सम्पूर्ण अंगबाह्य आगम साहित्य प्रकीर्णक के अन्तर्गत आता है / इसप्रकार प्रकीर्णक साहित्य जैन आगम साहित्य के अति विशाल भाग का परिचायक है और उनकी संख्या को 10 तक सीमित करने का दृष्टिकोण पर्याप्त रूप से परवर्ती और विवादास्पद है। प्रकीर्णक साहित्य का महत्त्व __ यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय प्रकीर्णकों को आगमों के अन्तर्गत मान्य नहीं करते हैं किन्तु प्रकीर्णकों की विषयवस्तु का अध्ययन करने से ऐसा लगता है कि अनेक प्रकीर्णक अंग आगमों की अपेक्षा भी साधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं / यद्यपि यह सत्य है कि आचार्य वीरभद्र द्वारा ईसा की दसवीं शती में रचित कुछ प्रकीर्णक अर्वाचीन हैं, किन्तु इससे सम्पूर्ण प्रकीर्णकों की अर्वाचीनता सिद्ध नहीं होती। विषयवस्तु की दृष्टि से प्रकीर्णक साहित्य में जैनविद्या के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है / जहाँ तक देवेन्द्रस्तव और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रकीर्णक का प्रश्न है, वे मुख्यतः जैन खगोल और भूगोल की चर्चा करते हैं, इसीप्रकार तित्थोगाली प्रकीर्णक में भी जैन काल व्यवस्था का चित्रण विभित्र भौगोलिक क्षेत्रों के सन्दर्भ में हुआ है / ज्योतिषकरण्डक और गणिविद्या प्रकीर्णक का संबंधमुख्यतया जैन ज्योतिष से है / तित्थोगाली प्रकीर्णक मुख्यरूप से प्राचीन जैन इतिहास को प्रस्तुत करता है / श्वेताम्बर परम्परा में तित्थोगाली ही एक मात्र ऐसा प्रकीर्णक है जिसमें आगमज्ञान के क्रमिक उच्छेद की बात कही गई है / सारावली प्रकीर्णक में मुख्य रूप से शत्रुञ्जय महातीर्थ की कथा और महत्त्व उल्लिखित है / तंदलवैचारिक प्रकीर्णक जैन जीव विज्ञान का सुन्दर और संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता है / इसीप्रकार अंगविद्या नामक प्रकीर्णक मानवीय शरीर के अंग-प्रत्यंगों के विवरण के साथ-साथ उनके शुभाशुभ लक्षणों का भी चित्रण करता है और उनके आधार पर फलादेश भी प्रस्तुत करता है / इसप्रकार इस ग्रंथ का संबंध शरीर रचना एवं फलित ज्योतिष दोनों विषयों से है / गच्छाचार प्रकीर्णक में जैन संघ व्यवस्था का चित्रण उपलब्ध होता है जबकि चन्द्रकंवेध्यक प्रकीर्णक में गुरु शिष्य के संबंध एवं शिक्षा संबंधी निर्देश हैं / वीरस्तव प्रकीर्णक में महावीर के विविध विशेषणों के अर्थ की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या की गई है। चतुःशरण प्रकीर्णक में मुख्य रूप से चतुर्विध संघ के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए जैन साधना का परिचय दिया गया है / आतुर प्रत्याख्यान महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, संस्तारक, आराधनापताका आराधनाप्रकरण, भक्तप्रत्याख्यान आदि प्रकीर्णक जैन साधना के अंतिम Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 : प्रो० सागरमल जैन चरण समाधिमरण की पूर्व तैयारी और उसकी साधना की विशेष विधियों का चित्रण प्रस्तुत करते हैं / इसप्रकार प्रकीर्णक साहित्य में जैनविद्या के विविध पक्षों का समावेश हुआ है, जो जैन साहित्य के क्षेत्र में उनके मूल्य और महत्त्व को स्पष्ट कर देता है / प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल जहाँ तक प्रकीर्णकों की प्राचीनता का प्रश्न है उनमें से अनेक प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से वे उससे प्राचीन सिद्ध हो जाते हैं / मात्र यही नहीं प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रंथो मेंसे अनेक तो अंग-आगमों की अपेक्षा प्राचीन स्तर के रहे हैं, क्योंकि ऋषिभाषित का स्थानांग एवं समवायांग में उल्लेख है / ऋषिभाषित आदि कुछ ऐसे प्रकीर्णक हैं जो भाषा-शैली, विषयवस्तु आदि अनेक आधारों पर आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध को छोड़कर शेष आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन हैं / ऋषिभाषित उस काल का ग्रंथ है, जब जैनधर्म सीमित सिमाओं में आबद्ध नहीं हुआ था वरन् उसमें अन्य परम्पराओं के श्रमणों को भी आदरपूर्वक स्थान प्राप्त था / इस ग्रंथ की रचना उस युग में सम्भव नहीं थी, जब जैनधर्म भी सम्प्रदाय के क्षुद्र घेरे में आबद्ध हो गया / लगभग ई०पू० तीसरी शताब्दी से जैनधर्म में जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढ़ हो रहे थे, उसके संकेत सूत्रकृतांगसूत्र और भगवतीसूत्र जैसे प्राचीन आगमों में भी मिल रहे हैं / भगवतीसूत्र में जिस मंखलिपुत्र गोशालक की कटु आलोचना है, उसे ऋषिभाषित अर्हत् ऋषि कहता है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, तंदुलवैचारिक, मरणविभक्ति आदि प्रकीर्णक साहित्य के ऐसे ग्रंथहैं-जो सम्प्रदायगत आग्रहों से मुक्त हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों का सम्मानपूर्वक उल्लेख और उन्हें अर्हत् परम्परा द्वारा सम्मत माना जाना भी यही सूचित करता है कि ऋषिभाषित इन अंग आगमों से भी प्राचीन है / पुनः ऋषिभाषित जैसे कुछ प्राचीन प्रकीर्णकों की भाषा का अर्धमागधी स्वरूप तथा आगमों की अपेक्षा उनकी भाषा पर महाराष्ट्री भाषा के प्रभाव की अल्पता भी यही सिद्ध करती है कि ये ग्रंथ प्राचीन स्तर के हैं / नन्दीसूत्र में प्रकीर्णक के नाम से अभिहित 9 ग्रंथों का उल्लेख भी यही सिद्ध करता है कि कम से कम ये 9 प्रकीर्णक तो नन्दीसूत्र से पूर्ववर्ती हैं / नन्दीसूत्र का काल विद्वानों ने विक्रम की पाचवीं शती माना है, अतः ये प्रकीर्णक उससे पूर्व के हैं। इसीप्रकार समवायांगसूत्र में स्पष्टरूप से प्रकीर्णकों का निर्देश भी यही सिद्ध करता है कि समवायांगसूत्र के रचनाकाल अर्थात् विक्रम की तीसरी शती में भी अनेक प्रकीर्णकों का . अस्तित्व था। इन प्रकीर्णकों में देवेन्द्रस्तव के रचनाकार ऋषिपालित हैं / कल्पसूत्र स्थविरावली में ऋषिपालित का उल्लेख है / इनका काल ईसा पूर्व प्रथम शती के लगभग है / इसकी विस्तृत चर्चा हमने देवेन्द्रस्तव (देविंदत्यओ) की प्रस्तावना में की है। इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख सकतें है / अभी-अभी सम्बोधि पत्रिका में श्री ललितकुमार का एक शोधलेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने पुरातात्त्विक आधारों पर यह सिद्ध किया है कि देवेन्द्रस्तव की रचना ई० पू० प्रथम शती में या उसके भी कुछ पूर्व हुई होगी। प्रकीर्णकों में निम्न Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता : 5 प्रकीर्णक वीरभद्र की रचना कहे जाते हैं-चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताका / आराधनापताका की प्रशस्ति में 'विक्कमनिवकालाओ अद्वत्तरिमेसमासहस्सम्मि था पाठभेद से अट्ठत्तरिमे समासहस्सम्मि', के उल्लेख के अनुसार इसका रचनाकाल ई० सन् 1008 या 1078 सिद्ध होता है / इसप्रकार प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रंथो में जहाँ ऋषिभाषित ई० पू० पाचवीं शती की रचना है, वहीं आराधनापताका ई० सन् की दसवीं या ग्यारहवीं शती के पूर्वार्द्ध की रचना है / इसप्रकार प्रकीर्णक साहित्य में समाहित ग्रंथ लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि में निर्मित होते रहे हैं, फिर भी चउसरण, परवर्तीआउरपच्चक्खान, भत्तपरिण्णा, संथारग और आराहनापडाया को छोड़कर शेष प्रकीर्णक ई० सन की पाचवीं शती के पूर्व की रचनाएँ हैं। ज्ञातव्य है कि महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित पइण्णयसुत्ताइं में आउरपच्चक्खान के नाम से तीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं, इनमें वीरभद्र रचित आउरपच्चक्खान परवर्ती है किन्तु नन्दीसूत्र में उल्लिखित आउरपच्चक्खान तो प्राचीन ही है / यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य अंग आगमों एवं उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र जैसे प्राचीन स्तर के आगम ग्रंथों में भी पायी जाती हैं / गद्य अंगआगमों में पद्य रूप में इन गाथाओं की उपस्थिति भी यही सिद्ध करती है कि उनमें ये गाथाएँ प्रकीर्णकों से अवतरित हैं / यह कार्य वलभीवाचना के पूर्व हुआ है अतः फलित होता है कि नन्दीसूत्र में उल्लिखित प्रकीर्णक वलभीवाचना के पूर्व रचित हैं। तदुलवैचारिक का उल्लेख दशवकालिक की प्राचीन अगस्त्यसिंह चूर्णी में है। इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है / यह चूर्णी अन्य चूर्णियों की अपेक्षा प्राचीन मानी गई दिगम्बर परम्परा में मूलाचार, भगवतीआराधना और कुन्दकुन्द के ग्रंथों में प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएँ अपने शौरसेनी रूपान्तरण में मिलती हैं। मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्यायों में तो आतुरप्रत्याख्यान एवं महाप्रत्याख्यान इन दोनों प्रकीर्णकों की लगभग सत्तर से अधिक गाथाएँ हैं / इसीप्रकार मरणविभक्ति प्रकीर्णक की लगभगशताधिक गाथाएँ भगवतीआराधना में मिलती हैं। इससे यही फलित होता है कि ये प्रकीर्णक ग्रंथ मूलाचार एवं भगवतीआराधना से पूर्व के हैं / मूलाचार एवं भगवतीआराधना के रचनाकाल को लेकर चाहे कितना भी मतभेद हो, किन्तु इतना निश्चित है कि ये ग्रंथ ईसा की छठीं शती से परवर्ती नहीं हैं। ... यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि प्रकीर्णकों में ये गाथाएं इन यापनीय/ अचेल परम्परा के ग्रंथों से ली गयी होंगी, किन्तु अनेक प्रमाणों के आधार पर यह दावा निरस्त हो जाता है / जिनमें से कुछ प्रमाण इसप्रकार हैं..१. गुणस्थान सिद्धान्त उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और आचारांगनियुक्ति की रचना * प्रकीर्णक ग्रन्थों की शौरसेनी आगम से इस दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन की रुचि रखने वाले अध्येताओ के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ में डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय का प्रकाशित लेख 'प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम' ब्रटव्य है। .-सम्पादक Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 : प्रो० सागरमल जैन के पश्चात लगभग पाचवीं-छठीं शती में अस्तित्व में आया है / चूँकि मूलाचार और भगवती आराधना दोनों ग्रन्थों में गुणस्थान का उल्लेख मिलता है, अतः ये ग्रन्थ पाचवीं शती के बाद की रचनाएँ हैं जबकि आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणसमाधि का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से ये ग्रन्थ पांचवीं शती के पूर्व की रचना हैं / 2. मूलाचार में संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्ययन बनाकर उनमें आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक दोनों ग्रंथों को समाहित किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि ये ग्रंथ पूर्ववर्ती हैं और मूलाचार परवर्ती है। 3. भगवती आराधना में भी मरणविभक्ति की अनेक गाथाएँ समान रूप से मिलती हैं / वर्ण्य-विषय की समानता होते हुए भी भगवती आराधना में जो विस्तार है, वह मरणविभक्ति में नहीं है / प्राचीन स्तर के ग्रंथ मात्र श्रुतपरम्परा से कण्ठस्थ किये जाते थे। अतः वे आकार में संक्षिप्त होते थे ताकि उन्हें सुगमता से याद रखा जा सके जबकि लेखन परम्परा के विकसित होने के पश्चात विशालकाय ग्रंथ निर्मित होने लगे / मूलाचार और भगवती आराधना दोनों विशाल ग्रंथ हैं, अतः वे प्रकीर्णकों से अपेक्षाकृत परवर्ती हैं / वस्तुतः प्रकीर्णक साहित्य के वे सभी ग्रंथ जो नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में उल्लिखित हैं और वर्तमान में उपलब्ध हैं, निश्चित ही ईसा की पांचवीं शती के पूर्व के हैं। प्रकीर्णकों में ज्योतिषकरण्डक नामक प्रकीर्णक का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है / इसमें श्रमण गन्धहस्ती और प्रतिहस्ती का उल्लेख मिलता है / इसमें यह भी कहा गया है कि जिस विषय का सूर्यप्रज्ञप्ति में विस्तार से विवेचन है उसी को संक्षेप में यहाँ दिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह प्रकीर्णक सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार पर निर्मित किया गया है / इसमें कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य का भी स्पष्ट उल्लेख हुआ है / पादतिप्ताचार्य का उल्लेख नियुक्ति साहित्य में भी उपलब्ध होता है / वे लगभग ईसा की प्रथम शती में हुए, इससे यही फलित होता है कि ज्योतिषकरण्डक का रचनाकाल भी ई० सन् की प्रथम शती है / अंगबाह्य आगमों में सूर्यप्रज्ञप्ति जिसके आधार पर इस ग्रंथ की रचना हुई, एक प्राचीन ग्रंथ है क्योंकि इसमें जो ज्योतिष सम्बन्धी विवरण है वह ईस्वी पूर्व का है, उसके आधार पर भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। साथ ही इसकी भाषा में अर्धमागधी रूपों की प्रचुरता भी इसे प्राचीन ग्रंथ सिद्ध करती है। __ अतः प्रकीर्णकों के रचनाकाल की पूर्व सीमा ई०पू० चतुर्थ-तृतीय शती से प्रारम्भ होती है / परवर्ती कुछ प्रकीर्णक जैसे कुशलाणुबंधि अध्ययन-चतुःशरण, भक्तपरिज्ञा आदि वीरभद्र की रचना माने जाते हैं वे निश्चित ही ईसा की दसवीं शती की रचनाएँ हैं / इसप्रकार प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल ई०पू० चतुर्थशती से प्रारम्भ होकर ईसा की दसवीं शती तक अर्थात् लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि तक व्यापक है / प्रकीर्णकों के रचयिता प्रकीर्णक साहित्य के रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार करते हुए हमने यह पाया है कि अधिकांश प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचयिता के सन्दर्भ में कहीं कोई उल्लेख नहीं है / प्राचीन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता : 7 स्तर के प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित चन्द्रकवेध्यक आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, गणिविद्या, संस्तारक आदि में लेखक के नाम का कहीं भी निर्देश नहीं है / मात्र देवेन्द्रस्तव और ज्योतिषकरण्डक दो ही प्राचीन प्रकीर्णक ऐसे हैं, जिनकी अन्तिम गाथाओं में स्पष्ट रूप से लेखक के नामों का उल्लेख हुआ है / 11 देवेन्द्रस्तवके कर्ता के रूप में ऋषिपालित और ज्योतिषकरण्डक के कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य के नामों का उल्लेख है / जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके हैं, ऋषिपालित का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में महावीर की पट्टपरम्परा में तेरहवें स्थान पर आता है और इस आधार पर वे ई० पू० प्रथम शताब्दी के लगभग के सिद्ध होते हैं / कल्पसूत्र स्थविरावली में इनके द्वारा कोटिकगण की ऋषिपालित शाखा प्रारम्भ हुई, ऐसा भी उल्लेख है / इस सन्दर्भ में और विस्तार से चर्चा हमने देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक की भूमिका में की है / 12 देवेन्द्रस्तव के कर्ता ऋषिपालित का समय लगभग ई०पू० प्रथम शताब्दी है / इस तथ्य की पुष्टि श्री ललित कुमार ने अपने एक शोध लेख में की है, जिसका निर्देश भी हम पूर्व में कर चुके हैं / ज्योतिषकरण्डक के कर्ता पादलिप्ताचार्य का उल्लेख हमें नियुक्ति साहित्य में उपलब्ध होता है / 13 आर्यरक्षित के समकालिक होने से वे लगभग ईसा की प्रथम शताब्दी के ही सिद्ध होते हैं / उनके व्यक्तित्व के सन्दर्भ में भी चूर्णी साहित्य और परवर्ती प्रबन्धों में विस्तार से उल्लेख मिलता है। कुसलानुबंधि अध्ययन और भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक के कर्ता के रूप में भी आचार्य वीरभद्र का ही उल्लेख मिलता है / 14 वीरभद्र के काल के संबंध में अनेक प्रवाद प्रचलित हैं जिनकी चर्चा हमने गच्छाचार प्रकीर्णक की भूमिका में की है / 15 हमारी दृष्टि में वीरभद्र ईसा की १०वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और ११वीं शताब्दी के पूवार्द्ध के आचार्य हैं / ... इसप्रकार निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि ईस्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी से लेकर ईसा की दसवीं शताब्दी तक लगभग पन्द्रह सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में प्रकीर्णक साहित्य लिखा जाता रहा है / किन्तु इतना निश्चित है कि अधिकांश महत्त्वपूर्ण प्रकीर्णक ग्रन्थ ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी तक लिखे जा चुके थे, इस तथ्य का निर्देश हम पूर्व में कर चुके हैं / वे सभी प्रकीर्णक जो नन्दीसूत्र में उल्लिखत हैं, वस्तुतः प्राचीन हैं और . उनमें जैनों के सम्प्रदायगत विभेद की कोई सूचना नहीं है / मात्र तित्थोगाली, सारावली आदि कुछ परवर्ती प्रकीर्णकों में प्रकारान्तर से जैनों के साम्प्रदायिक मतभेदों की किञ्चित सूचना मिलती है / प्राचीन स्तर के इन प्रकीर्णकों में से अधिकांश मूलतः आध्यात्मिक साधना और विशेष रूप से समाधिकरण की साधना के विषय में प्रकाश डालते हैं / ये ग्रन्थ निवृत्तिमूलक जीवनदृष्टि के प्रस्तोता हैं / यह हमारा दुर्भाग्य है कि जैन परम्परा के कुछ सम्प्रदायों में विशेष रूप से दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में इनकी आगम रूप में मान्यता नहीं है, किन्तु यदि निष्पक्ष भाव से इन प्रकीर्णकों का अध्ययन किया जाय तो इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन परम्पराओं की मान्यता के विरोध में जाता हो। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 : प्रो० सागरमल जैन आगम संस्थान, उदयपुर के द्वारा इन प्रकीर्णकों का हिन्दी में अनुवाद करके जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है, आशा है उसके माध्यम से ये ग्रन्थ इन परम्पराओं में भी पहुँचेंगे और उनमें इनके अध्ययन और पठन-पाठन की रुचि विकसित होगी / वस्तुतः प्रकीर्णक साहित्य की उपेक्षा प्राकृत साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण पक्ष की उपेक्षा है / इस दिशा में आगम . संस्थान, उदयपुर ने साम्प्रदायिक आग्रहों से ऊपर उठकर इनके अनुवाद को प्रकाशित करने की योजना को अपने हाथ में लिया और इनका प्रकाशन करके अपनी उदारवृत्ति का परिचय दिया है / प्रकीर्णक साहित्य के समीक्षात्मक अध्ययन के उद्देश्य को लेकर इनके द्वारा आयोजित 'प्रकीर्णक साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा' संगोष्ठी भी इनकी उदारवृत्ति का ही परिचायक है / आशा है सुधीजन इनके इन प्रयत्नों को प्रोत्साहित करेंगे जिसके माध्यम से प्राकृत साहित्य की यह अमूल्य निधि जन-जन तक पहुँचकर उनके आत्मकल्याण में सहायक बनेगी। 3. * सन्दर्भ सूची अंगबाहिरचोद्दसपइण्णयज्झाया'-धवला, पुस्तक 13, खण्ड 5, भाग 5, सूत्र 48 पृष्ठ 276, उद्धृत-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 4, पृष्ठ 70 वही, पृष्ठ 70 नन्दीसूत्र, सम्पा० मुनि मधुकर, प्रका० आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, वर्ष 1982, सूत्र 81 उद्धृत-पइण्णयसुत्ताई, सम्पा० मुनि पुण्यविजय, प्रका० महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण 1984, भाग 1, प्रस्तावना पृष्ठ 21 वही, प्रस्तावना पृष्ठ 20-21 (क) स्थानाङ्गसूत्र, सम्पा० मुनिमधुकर, प्रका० आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, वर्ष 1981, स्थान 10 सूत्र 116 (ख) समवायाङ्गसूत्र, सम्पा० मुनि मधुकर, प्रका० आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, वर्ष 1982, समवाय 44 सूत्र 258 देविंदत्थओ (देवेन्द्रस्तव), प्रका० आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, प्रथम संस्करण 1988, भूमिका पृष्ठ 18-22 Sambodhi, Institute of Indology, Ahmedabad, Vol, XVIII year 1992-93, P.74-76. आराधनापताका (आचार्य वीरभद्र), गाथा 987 दशवैकालिक चूर्णी, पृ० 3 पं० १२-उद्धृत-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, प्रस्तावना पृष्ठ 19 . 10. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता : 9 13. (क) देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक, गाथा 310, (ख) ज्योतिषकरण्डक प्रकीर्णक, गाथा 403-405 देविंदत्थओ, भूमिका पृष्ठ 18-22 पिंडनियुक्ति, गाथा 498 (क) कुसलानुबंधि अध्ययन प्रकीर्णक, गाथा 63, (ख) भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक, गाथा 172 गच्छायार पइण्णयं (गच्छाचार-प्रकीर्णक), प्रका० आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, प्रथम संस्करण 1994, भूमिका पृष्ठ 20-21 * मानद निदेशक आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान पद्मिनी मार्ग उदयपुर (राज.) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु * डॉ० अशोक कुमार सिंह वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य में प्रकीर्णक भी समाविष्ट हैं / प्रकीर्णक शब्द 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु से 'क्त' प्रत्यय सहित निष्पन्न प्रकीर्ण' शब्द से 'कन्' प्रत्यय होने पर बना है / इसका शाब्दिक अर्थ है-नाना संग्रह, फुटकर वस्तुओं का संग्रह और विविध वस्तुओं का अध्याय / वस्तुतः विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ ही प्रकीर्णक हैं / कुछ प्रकीर्णकों में ग्रन्थकारों ने इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख भी किया है कि उन्होंने श्रुत के अनुसार अंग, उपांग आदि ग्रन्थों के आधार पर प्रकीर्णकों की रचना की है / टीकाकार मलयगिरि के अनुसार भी तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण कर श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे। मुनि डा० नगराज के मत में प्रकीर्णक उन ग्रन्थों को कहा जाता है जो तीर्थङ्करों के शिष्य, उबुधचेता श्रमणों द्वारा अध्यात्म-सम्बद्ध विषयों पर रचे जाते हैं। आचार्य देवेन्द्रमुनि के शब्दों में श्रुत का अनुसरण करके वचन कौशल से धर्म देशना आदि के प्रसंग से श्रमणों द्वारा कृत रचनायें भी प्रकीर्णक कहलाती हैं। परम्परागत मान्यता प्रत्येक श्रमण द्वारा एक प्रकीर्णक रचने का उल्लेख करती है। इसी कारण समवायांग सूत्र में ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के उतने ही प्रकीर्णकों का उल्लेख है। महावीर के तीर्थ में भी उनके चौदह हजार श्रमणों द्वारा इतने ही प्रकीर्णक रचने की मान्यता है / 6 ___ जहां तक प्रकीर्णकों की वास्तविक संख्या का प्रश्न है सामान्यतः केवल इन दस प्रकीर्णकों को ही आगम में समाविष्ट किया गया- 1. चतुःशरण, 2. आतुरप्रत्याख्यान, 3. महाप्रत्याख्यान, 4 . भक्तपरिज्ञा, 5. तंदुलवैचारिक, 6. संस्तारक, 7. गच्छाचार, 8. गणिविद्या, 9. देवेन्द्रस्तव, और 10. मरणसमाधि / नन्दीसूत्र में भी ये दस प्रकीर्णक उल्लेखित हैं-१. चतुःशरण, 2. आतुरप्रत्याख्यान, 3. भक्तपरिज्ञा, 4. संस्तारक, 5. तंदुलवैचारिक, 6. चन्द्रावेध्यक, 7. देवेन्द्रस्तव, 8. गणिविद्या, 9. महाप्रत्याख्यान और 10. वीरस्तव / आज मान्य दस प्रकीर्णकों में भी समाविष्ट ग्रन्थों में एकरूपता नहीं है / कहीं-कहीं मरणसमाधि एवं गच्छाचार के स्थान पर चन्द्रवेध्यक एवं वीरस्तव दस प्रकीर्णकों में सम्मिलित हैं तो किन्हीं ग्रन्थों में देवेन्द्रस्तव एवं वीरस्तव को सम्मिलित कर दिया गया है। पूज्य मुनि पुण्यविजयजी ने अपनी प्रस्तावना में बाईस प्रकीर्णकों का उल्लेख किया है। ये 22 प्रकीर्णक निम्न हैं : 1. चतुःशरण, 2. आतुरप्रत्याख्यान, 3. भक्तपरिज्ञा, 4. संस्तारक, 5. तंदुलवैचारिक, 6. चन्द्रावेध्यक, 7. देवेन्द्रस्तव, 8. गणिविद्या, 9. महाप्रत्याख्यान, 10. वीरस्तव, 11. ऋषिभाषित, 12. अजीवकल्प, 13. गच्छाचार, १४.मरणसमाधि, १५.तित्थोगाली, 16. आराधनापताका, 17. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, 18. ज्योतिषकरण्डक, 19. अंगविद्या, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 11 20. सिद्धप्राभृत, 21. सारावली और 22. जीवविभक्ति / उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि वर्तमान में यदि प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों का संग्रह किया जाय तो बाईस नाम प्राप्त होते हैं१° परन्तु उनके द्वारा सम्पादित 'पइण्णयसुत्ताई' (दो भागों) में संग्रहीत ग्रन्थों की संख्या बत्तीस है / पुण्यविजयजी द्वारा निर्दिष्ट प्रकीर्णकों में से १२वें, 193, २०वें और २२वें क्रम पर उल्लिखित क्रमशः अजीवकल्प, अंगविद्या, सिद्धप्राभृत और जीवविभक्ति, 'पइण्णयसुत्ताई' में उपलब्ध नहीं हैं / पइण्णयसुत्ताई (दो भागों) में संग्रहीत बत्तीस प्रकीर्णकों में से ग्यारह अर्थात् 1. देवेन्द्रस्तव, 2. तन्दुलवैचारिक, 3. चन्द्रावेध्यक, 4. गणिविद्या, 5. ऋषिभाषित, 6. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, 7. वीरस्तव, 8. गच्छाचार, 9. सारावली, 10. ज्योतिषकरण्डक और 11. तीर्थोद्गालि ये पृथक्-पृथक् विषयों को आधार बनाकर रचे गये हैं / शेष इक्कीस 1. मरणसमाधि, 2. आतुरप्रत्याख्यान, 3. महाप्रत्याख्यान, 4. संस्तारक, 5. चतुःशरण, 6. आतुरप्रत्याख्यान, 7. भक्तपरिज्ञा, 8. वीरभद्राचार्य कृत आतुरप्रत्याख्यान, 9. प्राचीनाचार्य विरचिताराधनापताका, 10. वीरभद्राचार्य विरचितआराधना पताका, 11. पर्यन्ताराधना, 12. आराधनापंचकम्, 13. आतुरप्रत्याख्यानम्, 14. आराधनाप्रकरणम्, 15. जिनशेखर श्रावक प्रति सुलसाश्रावक कारापित आराधना, 16. नन्दनमुनि आराधित आराधना, 17. आराधना कुलकम, 18. मिथ्या दुःकृत कुलकम, 19. मिथ्यादुःकृत कुलकम्, 20. आलोचना कुलकम् और 21. आत्मविशोधिकुलकम् प्रकीर्णक समाधिमरण का ही किसी न किसी रूप में प्रतिपादन करते हैं / उल्लेखनीय है कि नन्दनमुनि आराधित आराधना प्रकीर्णक के अतिरिक्त समस्त प्रकीर्णक प्राकृत भाषा में रचे गये हैं। जहां तक इन प्रकीर्णकों के आकार या गाथा संख्या का प्रश्न है तो सबसे लघ आकार वाले आराधना कुलक में मात्र 8 गाथाएँ हैं और सबसे दीर्घ आकार वाले प्रकीर्णक तित्थोगालि में 1261 गाथाएँ हैं / प्रकीर्णकों की कुल गाथा सं. 7800 के लगभग है / उल्लेखनीय है कि समान शीर्षक वाले भी कुछ प्रकीर्णक हैं / आतुरप्रत्याख्यान नाम के तीन प्रकीर्णक हैं तथा चतुःशरण, आराधनापताका और मिथ्यादुष्कृतकुलक शीर्षक दो-दो प्रकीर्णक हैं / क्रमसं० 12 आराधना पंचकम्' स्वतंत्र रचना नहीं है बल्कि कुवलयमाला (उद्योतनसूरि कृत) से . उद्धृत अंश है अतः इसे प्रकीर्णक में सम्मिलित करना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है। ___विषयवस्तु का प्रतिपादन करने हेतु प्रकीर्णक को समाधिमरण विषयक प्रकीर्णक और समाधिमरणेतर प्रकीर्णक इन दो समूहों में वर्गीकृत किया गया है / प्रस्तुत लेख में समाधिमरण विषयक प्रकीर्णकों की विषयवस्तु पर ही प्रकाश डाला गया है। ____ गाथा संख्या के आरोह क्रम में इन समाधिमरण विषयक प्रकीर्णकों की सूची गाथा . संख्या सहित इस प्रकार प्रस्तुत की जा सकती है (1) आराधना कुलकम् [8], (2) आलोचना कुलकम्[१२], (3) मिथ्यादुष्कृतकुलकम्[१५],(४) मिथ्यादुष्कृतकुलकम[१७],(५) आत्मविशोधिकुलकम, [24],(6) चतुःशरण प्रकीर्णक[२७], (7) आतुरप्रत्याख्यान [30].(8) आतुर प्रत्याख्यान [34].(9) नन्दनमुनि आराधित आराधना [40].(10) कुशलानुबन्धि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 : डॉ० अशोक कुमार सिंह अध्ययन चतुःशरण.[६३].(११) आतुरप्रत्याख्यान [71].(12) जिनशेखर श्रावक प्रति सुलसा श्रावक आराधित आराधना [74],(13) श्रीअभयदेवसूरि प्रणीत आराधना प्रकरण [85].(14) संस्तारक प्रकीर्णक[१२२],(१५) महाप्रत्याख्यान [142], . (16) भक्तपरिज्ञा [173], (17) आराधनासार अथवा पर्यन्ताराधना [263].(18) . आराधनापंचक [335],(19) मरणविभक्ति या मरणसमाधि [661], (20) प्राचीन आचार्य विरचित आराधनापताका [932] एवं(२१) वीरभद्राचार्य विरचित आराधनापताका [989] अब उक्त क्रम में इन प्रकीर्णकों की संक्षिप्त विषयवस्तु का परिचय प्रस्तुत है(१) आराधना कुलकर प्रकीर्णकों में सबसे लघु आराधनाकुलक में कुल आठ गाधायें हैं / आराधक द्वारा आराधना व्रत का उच्चारण करते हुए सभी जीवों से क्षमापना, अठारह पापस्थानों का त्याग, राग-द्वेष और मोहवश तीन करण और तीन योग से इस भव और पर भव में जो . धर्म विरुद्ध कृत्य हैं उनकी निन्दा (दुष्कृत निन्दा)५, सुकृत का अनुमोदन, चतुःशरणग्रहण, और एकत्वभावना का इसमें निर्देश मात्र है। (2) आलोचना कुलकर इस प्रकीर्णक में मात्र 12 गाथायें हैं / इसमें विविध दुष्कृतों की आलोचना की गई है। जिन कथित ज्ञान, दर्शन और चारित्र के अतिचारों की निन्दा, मूलगुण , उत्तरगुण के अतिचारों की निन्दा, राग-द्वेष और चारों कषायों के वशीभूत जो कृत्य हैं उनकी निन्दा, दर्प और प्रमाद से जो कृत्य किये गये उनकी निन्दा,५ अज्ञान, मिथ्यात्व, विमोह और कलुषता के कारण जो कृत्य किये गये उनकी निन्दा, जिन प्रवचन, साधु-की आशातना और अविनय की मन-वचन और काय से निन्दा है / आगे इन्द्रियों के वशीभूत होकर किये गये कार्यों की आलोचना एवं अन्तिम गाथा में आलोचना का माहात्म्य बताया गया है। (3) मिथ्यादुष्कृत कुलक ___'मिथ्यादुष्कृत कुलक' में आराधक द्वारा समस्त जीवों के प्रति क्षमापना की गई है। कुलक का प्रारम्भ मंगलाचरण से न होकर विषय से ही है। इसमें आरम्भिक दो गाथाओं में आराधक द्वारा क्रमशः सामान्य रूप से किसी भी प्राणी और नरकादि चारों गतियों के प्राणियों से क्षमापना की गई है। इसके पश्चात् चारों गतियों के समस्त जीवों से अलगअलग क्षमापना की गई है। पुनःपंचपरमेष्ठियों की निन्दा के लिए क्षमापना, दर्शन-ज्ञानचारित्र और सम्यक्त्व की विराधना हेतु निन्दा, चतुर्विध संघ की अवमानना, महाव्रतों और अणुव्रतों के प्रति जो स्खलना है उसकी निन्दा की गई है। इसके पश्चात पृथ्वीकायिक से लेकर त्रसपर्यन्त जीवों की क्षमापना, सभी आत्मीय जनों (सांसारिक दृष्टि से) के प्रति क्षमापना और मिथ्यादुष्कृतों की निन्दा की गई है / / Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 13 (4) मिथ्यादुष्कृत कुलक' (2) इसमें भी मंगलाचरण का अभाव है / इसमें 17 गाथायें हैं / कुलक का आरम्भ आराधक द्वारा संसार-चक्र में विविध योनियों में भ्रमण करते समय जिन-जिन प्राणियों को दुःख दिया गया उनके प्रति मिथ्या दुष्कृत से किया गया है। विभिन्न भवों में जो मातापिता, पत्नी, मित्र, पुत्र और पुत्रियां रही हैं जिनका इस समय त्याग किया जा रहा है उनके प्रति मिथ्या दुष्कृत कहा गया है / राग-द्वेषवश जिन एकेन्द्रिय जीवों का वध हुआ, इस लोक और परलोक में राग-द्वेषवश मृषावाद भाषण किया गया, लोभ-दोष से जो परिग्रह किया गया, राग के कारण अशनादि भोजन किया गया, उसके लिए मिथ्या दुष्कृत किया गया है। इस लोक और परलोक में जो मिथ्यात्व मोह से मूढ़ हो साधुओं की सेवा, साधर्मिक वात्सल्य, चतुर्विध संघ की भक्ति नहीं की गई उसके लिए मिथ्या दुष्कृत किया गया है / अन्त में चारों गतियों के जीवों के प्रति कृत पापों के लिए मिथ्या दुष्कृत किया गया है / 6 (5) आत्मविशोधिकुलकर - इस प्रकीर्णक में चौबीस गाथाओं में विविध दुष्कृतों की निन्दा, आराधक द्वारा आत्म-विशुद्धि के लिए की गयी है / आराधक, अरहंत, सिद्ध, गणधर प्रमुखों के सम्मुख खड़े होकर अपने दुश्चरितों की समालोचना करता है / सूक्ष्म और बादर के प्रति प्रमाद और दर्प से जो भी अकृत्य हुये हों या ज्ञान के अतिचार जाने या अनजाने में हुए हों, जिन वाचनों में जो अश्रद्धा हुई हो, सांसारिक वस्तुओं के प्रति यदि समभाव न रहा हो, छः प्रकार के जीवनिकाय, बादर और सूक्ष्म के प्रति जाने या अनजाने जो प्रमाद हुआ हो एवं हासपरिहास में या अज्ञान में जो मृषावाद भाषित किया हो उसके लिए निन्दा की गयी है ।रे लोभवश दूसरे की अदत्त वस्तु ग्रहण हुई हो या सत्य को छिपाया हो, मैथुनभाव से तिर्यंच, मनुष्य और देव को स्पर्श किया हो, परिग्रह भाव से सचित्त, अचित्त और मिश्र वस्तुओं का ग्रहण, जिह्वादोष से या अज्ञानता से रात्रिभोज, रागाग्नि दीप्त होने के कारण आर्तध्यान से चारित्र को मलिन किया हो, दोष पिशाचवश विवेक नष्ट होने, अशुभ लेश्या के कारण चारित्र, कलुषित किया हो, आहार, भय, परिग्रह. मैथुन संज्ञा से परिभूत जो अकृत्य किया हो, उसकी तीन योग और तीन करण से आराधक द्वारा निन्दा की गई है। आराधक द्वारा चरण, करण, शील और भिक्षु प्रतिमाओं में जो अतिचार हुए हों, जिन, सिद्ध, गणधर, उपाध्याय, साधुओं और श्रेष्ठ गुणियों के प्रति जो आशातना की हो, प्रमाद-दोष से जो अन्य भी दुश्चरित किये हों, उनकी तीन करण और तीन योग से निन्दा है। इसके बाद आहार और समस्त शारीरिक क्रियाओं के त्याग का निर्देश है / अन्त में आलोचना द्वारा आत्मविशुद्धि का माहात्म्य बताया गया है / 6 (6) चतुःशरण प्रकीर्णक इस प्रकीर्णक में कुल 27 गाथायें हैं। इसकी प्रथम गाथा में कुशलता हेतु चतुःशरण गमन, दुष्कृत गर्दा और सुकृत का अनुमोदन-इन तीन अधिकारों का निर्देश है / प्रथम अधिकार में अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म की शरण में जाने और शरणागत होकर Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 : डॉ. अशोक कुमार सिंह सम्यकप से दुष्कृतों की निन्दा और सुकृत का अनुमोदन करने का निर्देश है / दूसरे अधिकार में संसार में मोहवश किये गये कृत्यों की निन्दा, सन्मार्ग को छिपाने और कुमार्ग का उपदेश देने से जो कर्मबन्ध के हेतु उत्पन्न हुए हों, जीवघात के हेतु बने जो अधिकरण (उपकरण) बनाये हों, कषाय कलुषित और अशुभ लेश्या के कारण जो अमैत्रीपूर्ण व्यवहार किया हो, शरीर, इष्ट और कुटुम्बियों के साधन रूप जो कला, शिल्प आदि जीवों की हिंसा का कारण बनी, जिन शरीरों के द्वारा जन्म-मरण रूप ग्रहण-त्याग से पाप में आसक्त हुआ, लोभ और मोहवश अर्थ को प्राप्त कर जो धारण किया और अशुभ स्थानों में प्रवृत्त हुआ, हल, ओक्खल, शस्त्र, यंत्रादि पाप के साधन जो धारण किये गये और अन्य जो अज्ञान, प्रमाद, दोष विमूढ होकर पाप किये उनका तीन योग और तीन करण से त्याग का संकल्प है। सुकृत अनुमोदन रूप तृतीय अधिकार में सौधर्म स्थान में स्थित देह, सदन, व्यापार, द्रव्य, ज्ञान और कौशल, जीवों के लिए सुखकारक पवित्रस्थान या प्रवचन, शुभदेशना की, जिनों के उत्कृष्ट गुणों की, उनके धर्मकथन रूप परोपकार की, मोहनाशक ज्ञान की, सिद्धों के सिद्धत्व की, सम्पूर्ण कर्मक्षय रूपी शुभभाव की, दर्शन और ज्ञान रूपी स्वभाव की, अनुयोगों के ज्ञाता, आचार्यों के पंचविध आचार से जनित कल्याण की और उपकार में लगे हुए उपाध्यायों के अध्ययन और ज्ञान-दान से मार्ग दिखाने की, समभाव से भावित, उत्तम क्रिया वाले, मोक्ष सुख की साधना को प्राप्त साधुओं की, सम्यक् व्रत ग्रहण करने वाले, धर्मश्रवण, दानादि और अन्य धार्मिक कृत्यों की अनुमोदना की गई है / मोक्षमार्ग के अनुरूप अन्य सत्त्वों की क्रियाओं की भी अनुमोदना है।५ अन्त में चतुःशरण का फल कल्याण बताया गया है। (7) आतुरप्रत्याख्यान' (1) आतुरप्रत्याख्यान शीर्षक से तीन प्रकीर्णक उपलब्ध होते हैं / इसमें से एक वीरभद्राचार्य (११वीं शताब्दी) रचित है / श्री अमृतलाल भोजक ने पइण्णयसुत्ताई भाग 1 की भूमिका में यह प्रश्न उठाया है कि शेष दोनों नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में निर्दिष्ट प्रकीर्णक में से ही कोई एक है या अन्य है, यह विचारणीय है / 2 नन्दीसूत्र चूर्णि, हरिभद्रसूरि की नन्दीवृत्ति और पाक्षिकवृत्ति में इस प्रकीर्णक का परिचय इसप्रकार दिया गया है। यदि कोई दारुण असाध्य बिमारी से पीड़ित हो तो गीतार्थ पुरुष प्रतिदिन खाद्य पदार्थ की मात्रा घटाते हुए प्रत्याख्यान करवाते हैं / धीरे-धीरे जब वह व्यक्ति आहार के विषय में पूर्णतया अनासक्त हो जाता है तब उसे भवचरिम प्रत्याख्यान कराते हैं अर्थात् जीवन-पर्यन्त आहारपान का त्याग कराते हैं / यह निरूपण जिस अध्ययन में है उसे आतुरप्रत्याख्यान कहते इस प्रकीर्णक की रचना गद्य-पद्य मिश्रित है / इसमें सूत्र और गाधाओं की मिली. जुली संख्या तीस है / इसमें प्रथम पाँच गाथाओं में क्रमशः पंचपरमेष्ठियों को अपना मंगल और देव बताकर उनकी स्तुति करते हुए पाप-त्याग करने की प्रतिज्ञा की गई है / इसके पश्चात् अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, आचार्य, गणधर, चतुर्विध संघ की आशातना के लिए Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकोणलों की विषयवस्तु : 15 क्षमापना के साथ सभी जीवों के प्रति क्षमापना है / फिर सूत्र 11 और गाथा 12 में शरीरादि के ममत्व-त्याग की प्रतिज्ञा है / गाथायें 13 और 14 सागार और निरागार प्रत्याख्यान और सब जीवों के प्रति क्षमापना का निरूपण करती हैं / इसके पश्चात् संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करते हुए विविधजातीय, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वानस्पतिक जीवों, विकलेन्द्रिय जीवों, नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति वाले जीवों तथा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों को मन, वचन और काय से यदि कष्ट पहुँचाया हो तो क्षमापना करता हूँ-५ऐसा कहा गया है / अन्तिम तीन गाथायें आत्मशिक्षा के रूप में हैं। इनमें आत्मा के एकत्व भाव की विचारणा करते हुए आत्मा को अनुशासित करने का निर्देश है / आत्मा के अतिरिक्त सभी बहिर्भाव हैं और संयोग लक्षण से उनसे आत्मसम्बन्ध है / यही जीव के दुःख का मूल है इसलिए सभी बहिर्भावों के त्याग का उपदेश है।६ (8) आतुरप्रत्याख्यान प्रकीर्णक' (2) - इस प्रकीर्णक में कुल 34 गाथायें हैं। इसमें तथ्यों का निरूपण इन शीर्षकों के अन्तर्गत है- उपोद्घात, अविरतिप्रत्याख्यान, मिथ्यादुष्कृत, ममत्व-त्याग, शरीर के लिए उपालम्भ, शुभभावना, अरहंतादि स्मरण, पापस्थानक त्याग आदि / प्रथम गाथा में कुश-शय्या पर बैठे हुए, भावपूर्वक स्थापित झुके हाथों सहित दुःखों या रोगों का प्रत्याख्यान है / अविरति प्रत्याख्यान के सन्दर्भ में समस्त प्राणहिंसा, असत्यवचन, अदत्तादान, रात्रिभोजन अविरति, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से विरति तथा सदन, परिजन, पुत्र-स्त्री, आत्मीय जनों के प्रति सब प्रकार की ममता के त्याग का निर्देश है / 2 मिथ्या दुष्कृत के प्रसङ्ग में नैरयिक, तिर्यंच, देव और मनुष्य जो भी दुःख प्राप्त हुए हों, सबके प्रति मिथ्या दुष्कृत करने का निर्देश है / ममत्व त्याग के प्रसङ्ग में देवलोक की शब्दायमान मेखला वाली, विशाल नितम्बों वाली स्वैरिणी अप्सराओं को छोड़ अब अशुचि नारियों के प्रति आसक्त न होने तथा स्वर्ग में इन्द्रनील, मरकत मणि के समान कान्तिवाले, शाश्वत श्रेष्ठ भवनों को छोड़ जीर्ण चटाई से बने घरों में आसक्त न होने का निर्देश है / देवदूष्य को छोड़कर अब गुदड़ी का स्मरण न करने, श्रेष्ठ रत्नों से निर्मित, स्वर्णमय, पुष्पपराग के समान सुकुमाल शरीर का त्यागकर जीर्ण शरीर में आसक्त न होने का निर्देश है तथा पित्त, शुक्र और रुधिर से अपवित्र, दुर्गन्ध युक्त शरीर पर आसक्त न होने, ऋद्धिओं के लिए कभी निदान न करने का निर्देश है / गाथा 14 से 18 में सुकृत न करने के लिए शरीर को उपालम्भ दिया गया है / तदनन्तर शुभभावना का निर्देश करते हुए कहा गया है कि इस संसार में दुःख जितना सुलभ है, सद्धर्म की प्राप्ति उतनी ही दुर्लभ है। मनुष्य का अहोभाग्य कि संसार रूपी महासमुद्र पार करने हेतु जिनधर्मरूपी पोत प्राप्त है / शुभ भावना के प्रसंग में मरण समीप आने पर अरहंत को स्मरण करने की प्रतिज्ञा है।५ अन्त में गाथा 26 से 34 में पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार, अठारह पापस्थानों का त्याग और समस्त मिथ्या दुष्कृत का निरूपण है / 6 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 : डॉ० अशोक कुमार सिंह (9) नन्दन मुनि आराधित आराधना यह प्रकीर्णक संस्कृत में है / इसमें 40 श्लोकों में नन्दनमुनिकृत दुष्कृत गर्दा,. समस्त जीव क्षमापणा, शुभभावना, चतुःशरण ग्रहण, पंचपरमेष्ठि नमस्कार और अनशन प्राप्त करने रूप छ:प्रकार की आराधना की चर्चा है / प्रकीर्णक का आरम्भनिष्कलंक श्रमण चारित्र का पालन कर आयु के अन्त में अनशन व्रत ग्रहण करने की सूचना से हुआ है। इसके बाद आठ प्रकार के ज्ञानाचार, आठ प्रकार के दर्शनाचार, सूक्ष्म एवं बादर जीवों के प्रति हिंसा, सर्वप्रकार के मृषावाद, अदत्तादान, तिर्यंच, मनुष्य, और देवविषयक मैथुन, लोभ और दोष, धन-धान्य, पशु आदि विषयक परिग्रह, सचित्त पुत्रादि, अचित्त धन-धान्य और गृह में ममत्व की तीन करण और तीन योग से निन्दा की गई है / इन्द्रियों के वश होकर चार प्रकार के आहार ग्रहण में तथा रात्रि-भोजन में दोष का, चारित्राचार के विषय में दूषित आचरण, अभ्यन्तर और बाह्य तप के विषय में अतिचार तथा धर्मानुष्ठान के सम्बन्ध में वीर्याचार के अतिचार की निन्दा तीन प्रकार से की गई है। दूसरों के प्रति कधित कुवचन तथा दूसरों की हरण की हुई वस्तु के लिए, अपकार के लिए उनसे क्षमायाचना, मित्र-अमित्र, स्वजन, शत्रुजन तथा तिर्यंच, नारक, देव और मनुष्य जिनके भी दुःख का आराधक कारण : बना हो, वे उसे क्षमा करें। इसके अनन्तर शुभ भावना के प्रसङ्ग में जीवन, यौवन, लक्ष्मी, रूप और प्रिय समागम को तंरग की तरह चंचल बताते हुए व्याधि, जन्म, जरा, मृत्यु से ग्रस्त प्राणियों के लिए जिनकथित धर्म ही एकमात्र शरण प्ररूपित किया गया है। शरीरादि बाह्य वस्तुओं की नश्वरता तथा अशुचित्व का निरूपण करते हुए अरहन्त को शरण, जिनधर्म को माता, गुरु को पिता, साधुओं को सहोदर और साधर्मिकों को बान्धव बताया गया है / ऋषभादि तीर्थंकरों को नमस्कार करते हुए भरत, ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है / पुनः सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओं की वन्दना की गई है।५ अन्त में भवभीरुओं के लिए उपरोक्त षड्विध आराधना करने का निर्देश है / 6 (10) कुशलानुबन्धि अध्ययन इस कुशलानुबन्धि अध्ययन का दूसरा नाम चतुःशरण प्रकीर्णक है / इस दूसरे नाम से यह वर्तमान में अधिक प्रसिद्ध है / इसके कर्ता श्री वीरभद्राचार्य का काल विक्रम की ११वीं शताब्दी माना जाता है / इसकी कुल गाथायें 63 हैं / प्रथम गाथा में इस प्रकीर्णक की विषयवस्तु का नाम-निर्देश इस प्रकार है२-१. सावद्ययोग की विरति, 2. उत्कीर्तन, 3. गुणियों के प्रति विनय, 4. क्षति की निन्दा, 5. दोषों की चिकित्सा और 6. गुणधारणा। पुनः उक्त 6 अधिकारों का पृथक्-पृथक् निरूपण है / आठवीं से दसवीं गाथा में क्रमशः जिनेश्वर के जन्म के पूर्व उनकी माता द्वारा देखे गये चौदह स्वप्नों के नाम और चतुःशरण गमन, दुष्कृत निन्दा और सुकृत के अनुमोदनरूप तीन अर्थाधिकारों का निर्देश है। इसके पश्चात् अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवलिप्रज्ञप्त धर्म इन चार आश्रयों की शरण लेने का 5 और जन्म-जन्मान्तर में आत्मा ने यदि कोई दुष्कृत आचरण किया हो तो उसकी निन्दा का निरूपण है / प्रकीर्णक के अन्त में चतुःशरण ग्रहण, दुष्कृत की निन्दा और सुकृत के अनुमोदन का फल बताया गया है / Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 17 (11) अतुर प्रत्याख्यान' (3) इस प्रकीर्णक में 71 गाथायें हैं / इसे आचार्य वीरभद्र कृत माना जाता है / 'मरण' से सम्बन्धित होने के कारण इसे अन्तकाल प्रकीर्णक भी कहा जाता है / इसे बृहदातुरप्रत्याख्यान भी कहते हैं / दसवीं गाथा के पश्चात कुछ गद्यांश भी हैं। मरण के बाल, बालपण्डित और पण्डितमरण ये तीन भेद बताये गये हैं / बालमरण एवं पण्डितमरण का विवेचन है / इसमें मंगलाचरण का अभाव है। सर्वप्रथम बालपण्डितमरण की व्याख्या की गई है / सम्यग्दृष्टि देशविरत जीव का मरण बालपण्डित मरण कहा गया है / पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत और संलेखना के धारक को देशयति कहा गया है / संलेखना के उपक्रम के बारे में यह निर्दिष्ट किया गया है कि जो भक्तपरिज्ञा में वर्णित है उसी से यथायोग्य जान लें / बालपण्डितमरण करने वाले का वैमानिकों में उपपात एवं सातभव से सिद्धि बतायी गई है / पण्डितमरण की चर्चा करते हुए उसके वेसठ अतिचारों की शुद्धि. जिन वन्दना, गणधर वन्दना और पाँच महाव्रतों के अतिक्रमण का सर्वप्रत्याख्यान करने के पश्चात संथारे की प्रतिज्ञा की गई है , 3 सामायिक, सर्वबाह्याभ्यन्तर उपधि, अठारह पापस्थानों का त्याग, एकमात्र आत्मा का अवलम्बन, आत्मा ही केवलज्ञान दर्शनादि रूप है, इसका निरूपण है। इस प्रकरण में एकत्व भावना, प्रतिक्रमण, आलोचना, क्षमापना का भी निरूपण है / ___ असमाधिमरण का फल बताते हुए कहा गया है कि जो अष्ट मदों से युक्त चंचल बुद्धि और कुटिलभाव वाले असमाधिपूर्वक मरण को प्राप्त होते हैं, उनको आराधक नहीं कहा जाता है / इसप्रकार मरने पर देवगति, बोधि दुर्लभ होती है और संसार-चक्र बढ़ जाता है। बालमरण के प्रसङ्ग में कहा गया है कि जिनवचन को न जानने वाले बहुत से अज्ञानी बालमरण मरते हैं / ये शस्त्रग्रहण, विषभक्षण, आग से जलने और जल में प्रवेश करने से मरते हैं। उद्वेगजनक जन्म-मरण और नरक की वेदना का स्मरण कर पण्डितमरण मरना .चाहिए। इसके पश्चात पण्डितमरण को उद्देश कर भावनाओं का निरूपण और पण्डित मरण की आराधना विधि का वर्णन है / पण्डितमरण की भावनाओं के प्रसङ्ग में कहा गया है कि समस्त सांसारिक भोगों से तृप्ति नहीं हो सकती, राग-द्वेष का भेदन कर, अष्टकर्म समूह को नाश कर जन्म-मरण चक्र को भेदकर भव से मुक्ति हो जाएगी / एक पद और श्लोक जिससे मनुष्य को वीतराग के मार्ग में संवेग उत्पन्न होता है, उसके चिन्तन से परुष आराधक होता है / आराधक उत्कृष्टतः तीन भव करके निर्वाण प्राप्त करता है / आराधक यह विचार करता है कि मृत्यु धैर्यवान की भी होती है और कायर की भी, तो क्यों न धैर्य से मृत्यु को प्राप्त किया जाय ? चारित्र रहित और चरित्रवान दोनों की ही जब मृत्यु होती है, तो क्यों न सचारित्र मृत्यु का वरण किया जाय ? अन्त में ग्रन्थकार कहता है कि मरणकाल में जो इसप्रकार प्रत्याख्यान करता है वह धीर, ज्ञानी शाश्वत स्थान को प्राप्त करता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 : डॉ० अशोक कुमार सिंह (12) जिनशेखर श्रावकप्रति सुलसा श्रावक आराधित आराधना'१ ___ इस प्रकीर्णक में 74 गाथाओं में प्रत्यासन्न मरण-प्रेरणा अर्थात् अन्त सन्निकट होने पर अनशन की प्रेरणा, अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधुओं का स्वरूपनिरूपण एवं उनकी वन्दना, नमस्कार-माहात्म्य तथा मंगल चतुष्क, लोकोत्तम चतुष्क, शरणचतुष्क, आलोचना और व्रतोच्चारण का निर्देश है / अन्त में सर्व जीवों की क्षमापणा तथा वेदना सहने और अनशन करने का उपदेश है। आरम्भ में मृत्यु आसत्र होने पर अनशन को उपयुक्त बताया गया है। इसके पश्चात अरहंत की वन्दना के प्रसङ्ग में अरूहंत, अरहंत, नामों का अन्वयार्थ बताते हुए उन्हें प्रथम मंगल कहा गया है, अरहंत का अन्वयार्थ चार प्रकार से किया गया है / सिद्ध के स्वरूप वर्णन प्रसंग में उन्हें सम्पूर्ण कर्मों को जलानेवाला, गन्धरहित, रसरहित, स्पर्शरहित, शब्द रहित, शुक्ल के अतिरिक्त 5 लेश्याओं से रहित, तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल और अमधुर रसों से रहित, जरा-मरण, तृषादि से मुक्त कहा गया है और उनकी वन्दना करते हुए उन्हें सब जीवों का मंगलकारक कहा गया है। आचार्य का स्वरूप और उनकी वन्दना के प्रसंग. में पंच प्रकार के आचार, अष्ट प्रकार के ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार और बारह प्रकार के तपाचार का सम्यक् आचरण तथा वीर्याचार का खण्डन न करने वाला कहा गया है / इन्हें जगत का तृतीय मंगल कहा गया है / 5 उपाध्याय के स्वरूप और वन्दन के क्रम में उन्हें आचारांग आदि 11 अंगों, १२वें अंग के 14 पूर्वो, आवश्यकं, आवश्यक-व्यतिरिक्त उत्कालिकसूत्रों, दशकालिकादि कालिकसूत्रों एवं उत्तराध्ययनादि मूलसूत्रों, औपपातिक आदि उपांगों को शिष्यों को पढ़ाने वाला कहा गया है। आगे यह भी कहा है कि नमोक्कार में चौथे स्थान वाले उपाध्याय सकल जीवों का मंगल करें। साधुवन्दना के प्रसङ्ग में निर्वाण के समस्त साधनों की जो मन, वचन, काय से साधना करते हैं तथा इसी क्रम में पाँच समितियों, तीन गुप्तियों, प्रतिलेखना, प्रमार्जन, भिक्षचर्या, लोच आदि में जो अप्रमत्त हों उनकी वन्दना की गई है / नमोक्कार महिमा, मंगलचतुष्क, लोकोत्तम चतुष्क, शरण चतुष्क, आलोचना और व्रतोच्चारण का निर्देश है। सर्वजीव क्षमापणा के प्रसंग में क्रमश: पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय पर्यन्त, द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय, जलचर, थलचर, नभचर आदि विविध पंचेन्द्रियों, नक्र, मत्स्य, गोह, मकरादि जलचर, द्विपद, चतुष्पद, बहुपद, पदरहित थलचरों, अंडज, रोमज, चर्मज, समुद्गत पक्षी आदि, मनुष्यों, भवनपति, वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक आदि देवों, रत्नादि पृध्वियों के नैरयिक जीवों तथा चारों गतियों में प्राप्त चौरासी लाख योनि के जीवों के प्रति कृत वैर के लिए मिथ्या दुष्कृत और उनसे क्षमापना है। अन्तमें गाथा 64 से वेदना और अनशन करने का उपदेश है / 10 (13) अभयदेवसूरि प्रणीत आराधना प्रकरण' 85 गाथाओं में रचित इस प्रकीर्णक की अन्तिम गाथा में प्राप्त अभयसूरिरइय' से इसके कर्ता अभयदेवसूरि निश्चित होते हैं / इसकी प्रथम गाथा में मरणविधि के छ: द्वारों (1) आलोचना, (2) व्रतोच्चार, (3) क्षामणा, (4) अनशन, (5) शुभभावना और Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 19 (6) नमोक्कार भावना का नाम निर्देश है / आलोचना द्वार में विविध तपों से सूखे हुए अथवा रोगों को दूर करने के हेतु उपक्रम के अभाव में क्षीण शरीर होने एवं मृत्यु आसन होने पर मृत्यु भय की चिन्ता न कर शल्य मरण के गुण-दोषों का विचार करना चाहिए / शल्य-मरण से संसार रूपी अटवी में जीव भ्रमण करता रहता है / भयानक सर्प, विष, शस्त्र आदि से भाव शल्य अधिक दारुण है इसलिए गौरव-भावना से रहित हो, पुनर्भव के मूलमिथ्यादर्शन शल्य, माया शल्य और निदानशल्य को दूर करना चाहिए / सब शल्यों को दूर कर सम्यक् आराधना करने वाला तीसरे भव में निर्वाण प्राप्त करता है / गुरु के समक्ष बालक सदृश सरलता से बिना कुछ छिपाये आलोचना करनी चाहिए / जो कुछ भी अकार्य किया है उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए, उसे हृदय में धारण नहीं करना चाहिए / पाँच प्रकार के ज्ञान, आठ प्रकार के दर्शनाचार और जिन, सिद्ध, आचार्य, वाचक, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, चैत्य आदि के सम्बन्ध में हुई आशातना की आलोचना करनी चाहिए। समिति, गुप्ति रूप अथवा मूलगुण, उत्तरगुण रूप चारित्र की जो विराधना हुई उसकी आलोचना करनी चाहिए / विधिपूर्वक यदि वीर्य में प्रवृत्त न हुआ हो तो उसकी भी सम्यक आलोचना करनी चाहिए / द्वितीय व्रतोच्चार द्वार में प्रतिपादित है कि सुगुरु के समीप शल्यों को दूर कर साधु महाव्रतों का भावपूर्वक उच्चारण करता है कि वह प्राणातिपात, असत्य, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह का सर्वथा परित्याग करता है। सभी कषायों, और मिथ्यादर्शन शल्य का त्याग कर श्रद्धापूर्वक साधु संस्तारक के लिए गमन करें / जो श्रावक महाव्रतों का भावपूर्वक उपचार न सकें वे स्थूल प्राणातिपात का भावपूर्वक उपचार करें।६ * तृतीय क्षमापणा द्वार में आराधक चतुर्विध संघ एवं संसार में जिसके प्रति भी मोहवश अपराध किया है उससे क्षमापणा करता है / इस द्वार में सभी प्रकार के जीवों से क्षमापणा की गई है। इसमें आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल, गण, स्वजन, परजन, उपकारकर्ता, अनुपकारकर्ता, मित्र, अमित्र, दृष्ट, अदृष्ट, जिनसे वार्तालाप हुआ, जिनसे नहीं हुआ, परिचित, अपरिचित, अनुपकृत, उपकृत, मनुष्य, देव, तिर्यक, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय, जलचर, थलचर, नभचर सारे जीवों को इस भव में, अन्य भवों में यदि किसी प्रकार प्रताड़ित किया हो, उपहास किया हो अथवा दुर्वचन बोला हो, वे सभी हमें क्षमा करें और मैं भी उनके अपराध को क्षमा करता हूँ - ऐसा कथन है / चतुर्थ अनशन द्वार में सर्व प्रकार का आहार त्यागकर अनशन करने का निरूपण है। पंचम शुभभावना द्वार में एकत्व आदि बारह भावनाओं का चिन्तन करने का निर्देश है / आराधक द्वारा राग-द्वेष से मुक्त होकर इन भावनाओं का चिन्तन करने का प्रतिपादन है। उल्लेखनीय है कि इसमें कुन्दकुन्द की प्रसिद्ध गाथा एगो मे सासओ अप्पा नाणदंसण संजुओ / सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा' भी अन्यत्व भावना के प्रतिपादन में उद्धृत है / 10 षष्ठम द्वार 'नमोक्कार भावना' में पञ्च परमेष्ठियों की वन्दना करते हुए नमोक्कार मन्त्र का माहात्म्य बताया गया है / 11 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 : डॉ० अशोक कुमार सिंह (14) संस्तारक प्रकीर्णक इस प्रकीर्णक में संस्तारक सम्बन्धी विवरण है / संस्तारक से तात्पर्य है अन्तिम आराधना के प्रसङ्ग में स्वीकार किया जाने वाला दर्भादि आसन / इस प्रकीर्णक की कुल गाथायें 122 हैं / प्रकीर्णक के आरम्भ में जिन ऋषभ और वर्धमान को नमस्कार कर संस्तारक में निबद्ध गुणों को सुनने का निर्देश है / इसके पश्चात् उपमा द्वारा संस्तारक की उत्कृष्टता बतायी गयी है / संस्तारक को पुरुषों में जिन की तरह, महिलाओं में जिनमाता, वंशों में जिनवंश, गतियों में सिद्भगति, सभी सुखों में मोक्षसुख, धर्मों में अहिंसा, श्रुतियों में जिनवचन, ध्यानों में परमशुक्ल, ज्ञानों में केवल ज्ञान, सर्वोतम तीर्थों में तीर्थंकर तीर्थ की भाँति बताया गया है / संस्तारक को श्वेतकमल, कलश, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, वरमाल्य, से भी अधिक मंगल बताया गया है / जो संस्तारक प्राप्त कर लेता है, वह सर्वजीवलोक में उत्कृष्ट तीर्थ प्राप्त कर लेता है / संस्तारक को पर्वतों में मेरु की तरह, तारकों में चन्द्र की तरह बताया गया है / तदनन्तर संस्तारक के स्वरूप-वर्णन के क्रम में सुविशुद्ध और अविशुद्ध संस्तारक का वर्णन संस्तारक ग्रहण करने वाले की मनोवृत्ति के सन्दर्भ में किया गया है, जैसे जो गौरव से युक्त गुरु के समीप आलोचना नहीं करना चाहता है, तथा जो मलिन दर्शन और शिथिल चारित्रवाला श्रमण है वह जिस संस्तारक को ग्रहण करे, वह अविशुद्ध है तथा जो योग्य गुरु के समीप आलोचना करता है उसके द्वारा ग्रहण किया गया संस्तारक सुविशुद्ध संस्तारक है। संस्तारक प्राप्त करने वाले को लाभ बताते हुए कहा गया है कि संस्तारक के प्रथम दिवस ही संख्येय भवों की कर्मस्थिति नष्ट हो जाती है / नष्ट राग-मंद-मोह साधु तृण संस्तारक पर बैठा हुआ भी जो मुक्तिसुख प्राप्त करता है, वह चक्रवर्ती को भी सुलभ नहीं है / गाथा 56 से दृष्टान्त के रूप में प्रदत्त संस्तारक ग्रहण करने वाली पुण्यात्माओं के नाम इस प्रकार हैं- अर्णिकापुत्र, खन्दकमुनि के 500 शिष्य, दण्डमुनि, सुकोशल मुनि, अवंतीसुकुमाल, कार्तिकार्य, धर्मसिंह चाणक्य, अभयघोष, ललितघटा, सिंहसेन मुनि, चिलातिपुत्र, गजसुकुमाल और भगवान महावीर के वे शिष्य जो गोशालक द्वारा फेंकी गई तेजोलेश्या से जल गये थे। अन्त में गाथा 88 से 122 में संस्तारक ग्रहण करने की क्षमापना और भावना का निरूपण है। (15) महाप्रत्याख्यान' आगमिक व्याख्याकारों के अनुसार जो स्थविरकल्पी जीवन की सान्ध्यवेला में विहार करने में असमर्थ होते हैं, उनके द्वारा जो अनशन व्रत (समाधिमरण) स्वीकार किया जाता है, उन सबका जिसमें विस्तृत वर्णन हो उसे महाप्रत्याख्यान कहते हैं / महाप्रत्याख्यान का शाब्दिक अर्थ है-महा अर्थात् सबसे बड़ा और प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग, और यह शरीर-त्याग के अतिरिक्त कुछ अन्य नहीं हो सकता है / महाप्रत्याख्यान में कुल 142 गाथाएँ हैं / आरम्भ में तीर्थंकरादि की वन्दना, जिनप्रज्ञप्त वचनों पर श्रद्धा तथा पापकर्म का प्रत्याख्यान करते हुए दुश्चरितों की निन्दा, निरपवाद Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 21 सामायिक ग्रहण, बाह्य तथा अभ्यन्तर उपधियों के त्याग का कथन है। तदनन्तर क्षमापना के पश्चात् निन्दा, गर्दा और आलोचना का कथन है / आत्मा ही ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संयम और योग है / 5 मूलगुणों और उत्तरगुणों में प्रमाद के लिए निन्दा की गई है तथा प्रतिक्रमण किया गया है / आत्मा के अतिरिक्त सबको बाह्य तथा संयोग सम्बन्धों को दुःख परम्परा का मूल बताया गया है / 6 माया सर्वथा त्याज्य है / निन्दा और गर्दा से उसकी पुनरुत्पत्ति नहीं होती / आलोचक को बालक की भांति सहज स्वभाव वाला होना चाहिए, सरल चित्त ही मोक्षगामी होता है / शल्योद्धरण अत्यावश्यक है, कर्मरज से मुक्त भी सशल्य होने पर मुक्त नहीं होता। सर्वथा शल्यरहित जीव ही मुक्त होता है। गुरु के समक्ष आलोचना करने वाला अत्यधिक भावशल्य से युक्त भी आराधक है / आलोचना न करने वाला अल्पतम भावशल्य से युक्त भी आराधक नहीं होता है / भावशल्य भयंकर शस्त्रों से भी अधिक अनिष्टकारी होता है / कृत पाप की आलोचना करने वाले की स्थिति भारवाहक द्वारा बोझ उतारने के समान बतायी गई है / प्रायश्चित्त अनुसरण प्ररूपणा में गुरुप्रदत्त प्रायश्चित्त को शिष्य द्वारा उसीप्रकार ग्रहण करने, शिष्य द्वारा समस्त दोषों व कार्य-अकार्य को बिना छिपाये गुरु से कहने का निर्देश है / तत्पश्चात् पाँचों व्रतों की विराधना, चतुर्विध आहार, बाह्य एवं अभ्यन्तर उपधियों का त्याग तथा दुष्कर से दुष्कर परिस्थिति में भी आचार-नियमों के पालन का निर्देश है। राग-द्वेष रहित एवं भाव से अदूषित प्रत्याख्यान भाव विशुद्ध है / चारों गतियों में विद्यमान वेदनाओं और देवलोक से भी च्युति को स्मरण कर जीव द्वारा पण्डितमरणपूर्वक शरीरत्याग का उपदेश है / एक पण्डितमरण सैकड़ों भव-परम्पराओं का अन्त कर देता है / 10 निर्वेद के प्रसङ्ग में निर्दिष्ट है कि जीव किसी प्रकार तृप्त नहीं हो सकता है / कल्पवृक्षों से युक्त देवकुरु और उत्तरकुरु में उत्पत्र होकर, देवेन्द्रों, चक्रवर्तियों के उत्तम भोगों को अनेक बार भोगकर तथा रति सम्बन्धी विषयसुखों के अतुल आनन्द भोगकर भी वह तृप्त नहीं हो सकता है / 11 महाव्रतों की रक्षा के लिए विधेयात्मक एवं निषेधात्मक दोनों उपायों का प्रतिपादन है / कषायों, कलह, लाञ्छन, चुगली और परनिन्दा का त्याग कर, पाँच प्रकार के कामगुणों का निरोधकर, पांच इन्द्रियों का संवरण कर, नील और कपोत लेश्याओं तथा आत और रौद्रध्यान के त्याग से महाव्रतों की रक्षा का संकल्प है / व्रतरक्षा के विधेयात्मक पक्ष में सात भयों, आठ मदस्थानों का त्यागकर, गुप्ति, समिति, भावना, ज्ञान एवं दर्शन से सम्पत्र, तेजो, पदम एवं शक्ल लेश्याओं तथा धर्म एवं शुक्ल ध्यान प्राप्त कर, तीन योग से सत्य को जानकर, बोलकर तथा आचरण कर महाव्रतों की रक्षा का कथन है / 12 अनाकांक्ष और आत्मज्ञ ही आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ है / ऐसा व्यक्ति पर्वत की गुफा, शिलातल या दुर्गम स्थानों पर भी अपनी आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध कर लेता है। विषयसुखों में अनासक्त, भावीफल का अनाकांक्ष एवं नष्टकषाय मृत्यु से विचलित न होकर तत्परता पूर्वक उसका आलिंगन कर लेता है / इसके विपरीत श्रुतसम्पत्र होते हुए भी इन्द्रिय विषयों में लिप्त, छित्रचारित्री, असंस्कारी तथा पूर्व में साधना नहीं किया हुआ जीव मृत्यु के अवसर पर परिषह सहन करने में असमर्थ होता है / 13 अनशन, प्रायोपगमन, ध्यान और Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 : डॉ० अशोक कुमार सिंह भावनायें ही समाधिमरण की आलम्बन हैं / समाधिमरण में मन की विशुद्धता का प्राधान्य है / 14 इन्द्रिय-सुखों में लीन, भयंकर परिषहों से पराजित, परपदार्थों में आसक्त, असंस्कारित, अधीर तथा गुरु के सम्मुख अपने दुश्चारित्र को प्रकट न करने वाले ये सभी. अनाराधक होते हैं / अज्ञानी व्यक्ति जिन कर्मों को करोड़ों वर्षों में क्षय करता है, उन कर्मो को त्रिगुप्ति से युक्त ज्ञानी व्यक्ति एक श्वासमात्र में ही क्षय करता है / जिस एक पद के द्वारा व्यक्ति संवेग को प्राप्त करता है, वैराग्य प्राप्त कराने वाला वह पद ही उस व्यक्ति का ज्ञान है, वह पद ही उसके मोह जाल को छिन्त्र कर देता है / 15 साधक असंयम का त्याग करने, उपधि का विवेक करने, उपशम भाव को धारण करने, योग से विरत होने, क्षमा . भाव और वैराग्य भाव का विवेक बनाये रखने, तथा इसप्रकार के अन्य प्रत्याख्यानों को ग्रहण करता हुआ समाधि को प्राप्त करता है / 16 जीव ने प्रमादवश अनेक बार अन्तिम नरक की अवस्था को प्राप्त किया है, अज्ञानवश अनेक क्रूर कर्म किये गये जिनके कारण इन दारुण विपाकों को प्राप्त किया है, ऐसा विचार करना चाहिए / 17 जिनकल्पी मुनि के एकाकी विहार तथा उनके द्वारा सेवित अभ्युद्यतमरण को प्रशंसनीय कहा गया है / तदनन्तर आराधना के चार स्कन्धों-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपका तथा उसके तीन प्रकारों-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य का उल्लेख है तथा इनकी साधना करने वाले की उसी भव में मुक्ति का वर्णन : है। प्रकीर्णक के अन्त में सभी जीवों के प्रति क्षमापना, धीर मरण की प्रशंसा और प्रत्याख्यान का फल निर्दिष्ट है / 18 (16) भक्तपरिज्ञा भक्तपरिज्ञा में 172 गाथाएँ हैं / इस प्रकीर्णक में भक्तपरिज्ञा नामक मरण का विवेचन है / प्रारम्भ में महावीर वन्दन और अभिधेय है / जिनशासन भव-भ्रमण का अन्त करने वाला और कल्पद्रुम कानन सदृश सुखद है / अभ्युद्यतमरण के भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन-ये तीन तथा भक्तपरिज्ञा के सविचार और अविचार-ये दो भेद हैं / मुनि द्वारा जो प्रयासपूर्वक शारीरिक संलेखना ली जाती है वह सविचारमरण और जब मृत्यु अनायास हो जाती है तब अविचारमरण कहा जाता है / परमसुख पिपासा से युक्त, विषय सुख से विमुख हो, मोक्षेच्छा से मृत्यु आसन्न होने पर व्याधिग्रस्त यति अथवा गृहस्थ भक्तपरिज्ञा की ओर उन्मुख होता है / तत्पश्चात् शिष्य द्वारा भक्तपरिज्ञामरण ग्रहण करने की अभिलाषा गुरु से व्यक्त करने और गुरु द्वारा आलोचना व्रत और क्षमापना से पुरस्सर भक्तपरिज्ञा व्रत ग्रहण करने की स्वीकृति का उल्लेख है / गुरु के आदेश को शिरोधार्य कर विधिपूर्वक गुरु वन्दना कर मोक्ष की तीव्रकामना से युक्त हो वह शुद्धि के लिए जो कुछ करता है, उससे आराधक होता है / इसके अनन्तर उसके आलोचना दोष रहित हो बालक सदृश सरल स्वभाव का होकर सम्यक् आलोचना देने पर गणि समस्त गण के समक्ष उसे प्रायश्चित्त देता है / वह आराधक भले ही महाव्रतों का अखण्ड पालन करने वाला यति रहा हो फिर भी इन जगत्तारक महाव्रतों का यावज्जीवन पालन करते रहने का पुनःसंकल्प करता है / 5 यदि आराधक देशविरत रहा हो तो वह यावज्जीवन अणुव्रतों के पालन की प्रतिज्ञा करता है / गुरु शुद्ध अणुव्रतों की पुनः आराधना करता है / तदनन्तर निदान रहित हो वह Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 23 अपने द्रव्य को धर्मकार्यों के निमित्त व्यय करता है। सर्वविरति आराधक गृह से अनुराग तोड़कर और विषय वासनाओं से विरक्त हो संस्तारक प्रव्रज्या प्राप्त कर नियमपूर्वक निरवद्य सामायिकचारित्र और देशविरत सर्वप्रत्याख्यानकर गुरु के चरणों में यह निवेदन करे कि भगवन आपकी अनुमति से भक्तपरिज्ञा प्राप्त करता हूँ / 6 इसके पश्चात् वह दोषों की प्रतिलेखना करता है, भव के अन्त तक त्रिविधआहार का प्रत्याख्यान करता है / इसके पश्चात् द्रव्यों में उसकी आसक्ति की परीक्षा का उल्लेख है / क्षपक को सुख से समाधि प्राप्त हो सके इसके लिए लौकिक पथ्यों जैसे विरेचक, एला, छाल या दालचीनी, नागकेशर एवं तमालपत्र को शक्कर और दुग्ध के साथ पिलाकर, उसके पश्तात् उबला हुआ शीतल समाधि पान कराना चाहिए / पूग आदि फलों से इसका मधुर विरेचन करना चाहिए / अन्तराग्नि को शीतल कर देने पर समाधि सुख से होती है।' संघ द्वारा क्षपक को चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान अथवा सागार को त्रिविध आहार का परित्याग कराया जाता है, फिर कालक्रम में वह पानक आहार का भी त्याग करता है / इसके पश्चात् वह विधिपूर्वक सर्वसंघ, आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल और गण से क्षमापना करता है / वह कहता है-मैं सभी के अपराधों को क्षमा करता हूँ सभी मुक्षे क्षमा करें। इसप्रकार क्षमापना और गर्दा करते हुए वह राजपत्नी मृगावती की भाँति सैकड़ों भवों में अर्जित कर्मों का क्षणभर में क्षय करता है / इसके पश्चात् गणि द्वारा आराधक को विस्तृत उपदेश देने का विवरण है / गणि कहता है हे वत्स ! मिथ्यात्व का समूल उच्छेदन करो, सूत्रानुसार परमतत्त्व सम्यक्त्व का चिन्तन करो, तीव्र अनुराग से वीतरागों की भक्ति करो, सुविहित हित का चिन्तन करते हुए सदा स्वाध्याय में उद्यत रहो, नित्य पंचमहाव्रतों की रक्षा द्वारा आत्म-प्रत्यक्ष करो, निदान, शल्य, महामोह का त्याग करो, संसार के मूल बीज मिथ्यात्व का सबप्रकार से त्याग करो, सम्यक्त्व में दृढ़चित्त वाले होओ / मिथ्यात्व अग्नि, विष और कृष्णसर्प से भी अधिक महादोष उत्पन्न करने वाला है / मिथ्यात्व से मोहित चित्तवाला सदैव तुरुमिणी दत्त के समान दारुण दुःख पाता है / जिनशासन में भावानुरागी, सुगुणानुरागी और धर्मानुरागी बनो / दर्शन भ्रष्ट ही वास्तव में भ्रष्ट है, चारित्रभ्रष्ट भ्रष्ट नहीं है / जो सम्यक् दर्शन प्राप्त कर लेता है उसका संसार में भ्रमण नहीं है / दर्शन भ्रष्ट का निर्वाण नहीं है / चारित्र रहित सिद्ध होते हैं जबकि दर्शन रहित सिद्ध नहीं होते हैं / शुद्ध समयक्त्वी होने पर अविरती भी तीर्थंकर नाम प्राप्त करते हैं / त्रैलोक्य का प्रभुत्व प्राप्त कर के भी लोग समय आने पर दुखी होते हैं, परन्तु सम्यक्त्व प्राप्त होने पर कभी न नष्ट होनेवाला मोक्ष सुख प्राप्त होता है ! त्रिकरण शुद्ध भाव से अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन, आचार्य और साधुओं में भक्ति करो / एक जिनभक्ति भी दुर्गति निवारण में समर्थ है। भक्ति से युक्त विद्या ही सिद्धि लाती है और फल देने वाली होती है तो क्या निर्वाण विद्या भक्ति से रहित होने पर सिद्ध होगी ? आराधना नायकों की जो भक्ति नहीं करता है वह ऊसर में धान बोता है / भक्ति रहित आराधना वाला बिना बीज के फल की इच्छा करता है और बादल के बिना वर्षा की आकांक्षा करता है / उत्तम कुल और सुख की प्राप्ति हेतु जिनभक्ति अपेक्षित है।१० Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 : डॉ० अशोक कुमार सिंह नमस्कार का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है कि मरण काल में यदि एक भी तीर्थंकर नमस्कार किया गया हो तो वह श्रेष्ठ जिनों द्वारा संसारचक्र के उच्छेदन में समर्थ है। क्लिष्टकर्मवाला मेष्ठ (महावत) जिननमस्कार के पुण्य से कमलदल नाम का यक्ष उत्पत्र हुआ / नमस्कार, आराधना रूपी पताका के ग्रहण में हाथ सदृश है तथा जीव द्वारा सुगतिमार्ग पर गमन करने में रथ की तरह नष्ट नहीं होने वाला है / अज्ञानी गोप भी आराधना नमस्कार पूर्वक मृत होकर चम्पा में विख्यात श्रेष्ठिपुत्र सुदर्शन के रूप में उत्पन्न हुआ / जिसप्रकार भली प्रकार से उपयुक्त विद्या पिशाच को पुरुष के वश में कर देती है उसी प्रकार ज्ञान हृदयरूपी पिशाच को आराधकों के वश में कर देता है / जिसप्रकार कृष्णसर्प विधिपूर्वक प्रयुक्त मंत्र से शान्त हो जाता है उसीप्रकार ज्ञान के भलीप्रकार उपयोग से हृदयरूपी काला सर्प शान्त हो जाता है / जिसप्रकार बन्दर क्षणभर के लिए भी स्थिर नहीं होता उसीप्रकार मध्यस्थ के बिना मन स्थिर नहीं होता / इसलिए मनरूपी मर्कट को जिनोपदेश से आलम्बित कर सूत्र से बाँधकर शुभ ध्यान में रमण करना चाहिए / यव ऋषि ने यदि खण्डित श्लोकों से राजा की मृत्यु से रक्षा की तो सुश्रामण्य प्राप्त जिनोक्त सूत्र से क्या सम्भव नहीं है ? अथवा चिलातिपुत्र ने उपशम, विवेक, संवर, पद स्मरण मात्र से ज्ञान तथा अमरत्व प्राप्त किया / 11 इसके पश्चात विविध दृष्टान्तों एवं उपमाओं के द्वारा आराधक को तीनकरण, तीन योग से षनिकाय जीवों की हिंसा का त्याग करने, चतुर्विध प्रयत्न से सर्वप्रकार के असत्य वचनों का त्याग करने, अल्प हो या अधिक परद्रव्य हरण का त्याग करने, ब्रह्मचर्य की नव परिशुद्ध ब्रह्मगुप्तियों से नित्य रक्षा करने तथा आसक्ति एवं परिग्रह त्याग का उपदेश दिया गया है / तत्पश्चात् कहा गया है कि रात्रि-भोजन-त्याग, समिति और गुप्तियों से पंच महाव्रतों की रक्षा कर आराधक गारव को साधता है / 12 इसके पश्चात् इन्द्रिय-विषयों से विमुख रहने का उपदेश-इन्द्रियासक्त व्यक्तियों की दुर्दशा के दृष्टान्त पूर्वक निरूपित किया गया है / 13 सुपुरुष को चाहिये कि क्रोधादि विपाकों को जानकर गुणों से उनका निग्रह करे / क्रोध से नन्द, मान से परशुराम, माया से पाण्डु आर्या तथा लोभ से लोभनन्दी आदि विनाश को प्राप्त हुए। ___ इन उपदेशों से आह्लादित चित्त हो वह आराधक विनयपूर्वक निवेदन करता है कि आपके कहे अनुसार आचरण करूँगा।१४ इसके पश्चात् वेदना परिषह का उपदेश देते हुए यदि किसी प्रकार अशुभ कर्मोदय से शरीर में वेदना उत्पत्र हो अथवा प्यास आदि परिषहों की उदीरणा हो तो उसको विचलित न होने का उपदेश देना चाहिए / आराधना अभिसिद्ध केवलि के समक्ष और सर्वसंघको साक्षी मानकर किये गये प्रत्याख्यान को कौन भंग करता है / शृंगाली द्वारा खाये जाते हुए घोर वेदनात भी अवन्ती सुकुमाल ने आराधना को प्राप्त किया / मुद्गल गिरि पर सुकोशल व्याघ्र से खाये जाते हुए भी उत्तम अर्थ को प्राप्त हुए / गोष्ठ पर समाधिप्राप्त सुबन्धु, उपले के जलने पर जलते हुए चाणक्य आदि ने उत्तम समाधिमरण प्राप्त किया / क्षपक द्वारा अपने को धन्य मानना चाहिए कि इस समाधिमरण Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 25 के एक प्रयत्न से जीव दूसरे जन्म में भी दुःख और दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है / यह समाधिमरण अपूर्व चिन्तामणि, अपूर्व कल्पवृक्ष है / यह परम मन्त्र है और परम अमृत सदृश है / जघन्य आराधना में वह साधु सौधर्म देवलोक में महागति शाली देव होता है / उत्कृष्ट भक्तपरिज्ञा से गृहस्थ अच्युत देवलोक में देव उत्पन्न होता है / साधु आराधना से निर्वाण रूप सर्वार्थसिद्धि विमान प्राप्त करता है / 15 / (17) आराधनासार अथवा पर्यन्ताराधना इसमें कुल 263 गाथाएँ हैं / इसमें मंगलाचरण और अभिधेय के पश्चात् पर्यन्ताराधना के 24 द्वारों का नाम-निर्देश इस प्रकार है-(१) संलेखना (2) स्थान (3) विकटना (4) सम्यक् (5) अणुव्रत (6) गुणव्रत (7) पापस्थान (8) सागार (9) चतुःशरण गमन(१०) दुष्कृतगर्दा (11) सुकृतानुमोदन(१२) विषय (13) संघादि (14) चतुर्गति जीवक्षमणा (15) चैत्य-नमनोत्सर्ग (16) अनशन (17) अनुशिष्टि (18) भावना (19) कवच (20) नमस्कार (21) शुभध्यान (22) निदान (23) अतिचार और (24) फलद्वार / 2 प्रथम 'संलेखना' द्वार में संलेखना अभ्यन्तर और बाह्य दो प्रकार की है / अभ्यन्तर संलेखना कषायों की और बाह्य संलेखना, शरीर की होती है / शारीरिक संलेखना उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीन प्रकार की होती है / काल की दृष्टि से यह संलेखना बारह दिन, बारह मास और बारह पक्ष की होती है / संलेखना के लिए कषाय रहित होना आवश्यक है। सकषाय का सारा प्रयास व्यर्थ है / 'स्थान' द्वार में ध्यान में बाधक गन्धर्व, नट, वेश्यास्थानादि को आराधक के लिए वर्जित बताया गया है / 'विकटना' द्वार में गीतार्थ गुरु के समीप भावपूर्वक आलोचना करने का निर्देश है / मूलगुण, उत्तरगुण, ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्र और वीर्याचार में राग-द्वेष वश जो भी अतिचार किये गये हों, आराधक द्वारा उनकी आलोचना करने का निर्देश है / चतुर्थ 'सम्यकद्धार' में शंका, कांक्षादि दोषों से रहित सम्यक्त्व प्राप्त होने की कामना की गई है तथा पंचम 'अणुव्रत' द्वार में यावज्जीवन पंच * 'अणुव्रतों का पालन करने का संकल्प है / 5 छठे एवं सातवें द्वार में क्रमशः गुणव्रतों एवं अठारह पाप स्थानों का नाम-निर्देश है / 6 आठवें 'सागार' द्वार में पापस्थानों एवं इष्ट आदि के त्याग का एवं नवें द्वार में अरहन्त, सिद्ध, साधु और संघ रूप चतुःशरण में जाने का निर्देश है / दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें और चौदहवें द्वार में विस्तार से क्रमशः दुष्कृतगर्दा, सुकृत अनुमोदना, शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूप विषय-त्याग, संघादि क्षमापना, चतुर्गति जीव क्षमापना का निरूपण है / पन्द्रहवें द्वार में चैत्य नमन पूर्वक कायोत्सर्ग करने, सोलहवें द्वार में गुरुवन्दन पूर्वक अनशन की प्रतिपत्ति, सत्रहवें द्वार में वेदना पीड़ित क्षपक के प्रति उपदेश, अठारहवें भावना द्वार में बारह भावनाओं के चिन्तन का उपदेश, उन्नीसवें द्वार में वेदना वश चंचलचित्त वाले आराधक के लिए गुरु द्वारा स्थिरीकरण का उपदेश, बीसवें द्वार में क्षपक का पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार, ध्यान और नमस्कार का माहात्म्य वर्णित है। इक्कीसवें द्वार में धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के विषय Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 : डॉ० अशोक कुमार सिंह में उपदेश, बाईसवें द्वार में निदान करने का निषेध, तेईसवें द्वार में अतिचारों का निर्देश है, जबकि चौबीसवें द्वार में आराधना के फल के विषय में वक्तव्य है / 10 (18) आराधनापंचक प्रस्तुत प्रकीर्णक के सन्दर्भ में जैसा कि हम पूर्व में ही यह सूचित कर चुके हैं कि यह स्वतन्त्र रचना नहीं है अपितु 'कुवलयमाला' (उद्योतनसूरि) से उद्धृत अंश है / अतः हम इसे प्रकीर्णक में सम्मिलित नहीं मानकर यहाँ इसकी विषय-वस्तु का विवेचन भी नहीं कर रहे हैं। (19) मरणविभक्ति या मरणसमाधि नन्दीसूत्र की चूर्णि और वृत्ति में 'मरणविभक्ति' का परिचय लगभग एक जैसा है, मरण-प्राण-परित्याग, मरण के प्रशस्त-अप्रशस्त ये दो भेद हैं / ये दो प्रकार के मरण जिसमें विस्तार से वर्णित हैं वे अध्ययन मरणविभक्ति कहे जाते हैं। पाक्षिकसूत्र में उपरोक्त परिचय देते हुए मरण के सत्रह भेद बताये गये हैं / 3 परम्परागत मान्य दस प्रकीर्णकों में यह सबसे बड़ा है / इसमें ६६१गाथायें हैं / ग्रन्थकार के अनुसार (1) मरणविभक्ति (2) मरणविशोधि (3) मरणसमाधि (4) संलेखनाश्रुत (5) भक्तपरिज्ञा (6) आतुरप्रत्याख्यान (7) महाप्रत्याख्यान और (8) आराधना इन आठ प्राचीन श्रुतग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत प्रकीर्णक की रचना हुई प्रकीर्णक का अध्ययन करने से भी यह ज्ञात होता है कि अन्य लघु प्रकीर्णकों में प्रतिपादित विषयवस्तु का इसमें विस्तार से वर्णन है। यही नहीं महाप्रत्याख्यान की लगभग 90 गाथायें इसमें उपलब्ध हैं / 5 अन्य लघु प्रकीर्णकों में निर्देशित तथ्यों का इसमें विस्तार कर दिया गया है / उदाहरण स्वरूप आचार्य के 36 गुणों, आलोचना के दोषों आदि का इसमें नाम सहित वर्णन है जबकि अन्य प्रकीर्णकों में संख्या मात्र बता दी गई है। आरम्भ में मंगल के पश्चात् शिष्य द्वारा आचार्य से यह जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर कि समाधिमरण किस प्रकार होता है ? आचार्य संक्षेपतः मरणसमाधि का वर्णन करते हैं।६ आराधना के दर्शन आराधना, ज्ञान आराधना और चारित्र आराधना ये तीन भेद हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीवास्तिकाय में तथा जिनाज्ञा में श्रद्धावान होना सम्यक्त्व है / सम्पूर्ण चारित्र और शील से युक्त हो जो समाधिमरण प्राप्त करते हैं वे आराधक होते हैं / तदनन्तर समाधिमरण व्रत ग्रहण करने की विधि बताई गई है। इन्द्रिय-विषयों, कषायों, गौरव, राग-द्वेष का त्यागकर आराधना की शुद्धि करनी चाहिए / दर्शन, ज्ञान, चारित्र और प्रव्रज्या के अतिचारों की निरवशेष आलोचना करनी चाहिए / सुविशुद्ध चारित्र वाला साधु ही कर्मक्षय करता है / त्रियोग की साधना न करनेवाला मरणकाल आने पर परिषहों को सहने में समर्थ नहीं होता है / भावना-दुःखकर अशुभ भावना या संक्लिष्ट भावना पाँच प्रकार की होती है-कान्दपी, देवकिल्विषी, आभियोगी, आसुरी और सांमोही / शुभभावना असंक्लिष्ट कही जाती है / संक्लिष्ट भावना का त्यागकर असंक्लिष्ट भावना की आदेयता Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 27 बतायी गई है। जो जीव जिनधर्म, श्रामण्य चारित्र का सुविधि पालन नहीं करते और तुच्छ सांसारिक सुखों में लीन रहते हैं वे जन्म और दीक्षा को मलिन करते हुए महामोह रूपी सागर में पड़कर बालमरण मरते हैं / तदनन्तर आलोचना, आत्मशल्य-त्याग आदि का विस्तार से निरूपण है / समाधिमरण के कारणभूत चौदह द्वार बताये हैं-(१) आलोचना (2) संलेखना (3) क्षमापना (4) काल (5) उत्सर्ग (6) उद्ग्रास. (7) संथारा (8) निसर्ग (9) वैराग्य (10) मोक्ष (11) ध्यानविशेष (12) लेश्या (13) सम्यक्त्व (14) पादोपगमन / निःशल्य होकर आलोचना करने का निर्देश है / आलोचना के दस दोष-आकंपन, अनुमानन, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छत्र, शब्दाकुल, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी बताये गये हैं / 10 तप के भेदों, ज्ञान, चारित्र के गुण और उसका माहात्म्य तथा आत्मशुद्धिविषयक उपायों का विस्तार से वर्णन है / 11 इसके पश्चात् संलेखना के अभ्यन्तर और बाह्य भेदों का निरूपण, आतुरप्रत्याख्यान एवं पंचमहाव्रतों की रक्षा आदि के उपायों का विस्तार से निर्देश है / आराधना में सिद्ध, अर्हत् और केवलि पद का प्राधान्य, वेदनाओं को सहने का निर्देश करते हुए अभ्युद्यत विहारमरण का प्ररूपण, आराधनापताका हरण आदि उपदेश, आराधना के भेद-प्रभेद और फल बताये गये हैं / आराधना उत्कृष्टा, मध्यमा और जघन्या तीन प्रकार की है / दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप आराधना के चार स्कन्ध हैं / निर्यामक आचार्य का स्वरूप बताते हुए उन्हें श्रुतरत्न रहस्य में निष्णात, पांच समिति, त्रिगुप्ति, राग-द्वेष मद रहित, कृतयोगी, कालज्ञानी, ज्ञान, चारित्र, दर्शन में समृद्ध, मरणसमाधि में कुंशल, व्यवहार, विधि-विधान का ज्ञाता आदि बहुत से गुणों से समन्वित बताया गया है / 12 आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल, गण सभी से क्षमापना और उनको क्षमा करने का तथा आत्मशल्योद्धार आदि का निरूपण है / 13 इसके आगे वेदना सहन करने का उपदेश है / 14 इसी क्रम में गर्भावास आदि दुःखों तथा विविध जातिगत जन्मों के दुःखों का निरूपण करते हुए निर्वेदजनक उपदेश दिया गया है / कहा गया है कि विभित्र भवों में दुःखों के कारण जीव ने जो आँसू बहाये हैं, वे समुद्र के जल से भी अधिक हैं / मृत्यु के समान भय नहीं है, जन्म के समान दुःख नहीं हैं इसलिए जरा-मरणकारी शरीर से ममत्व दूर करें / 15 शरीर से ममत्व-त्याग, उपसर्ग और परिषह सहन करने का तथा * अशुभ ध्यान के त्याग का और सोलह प्रकार के रोगातंकों को सहन करने में सनत्कुमार चक्रवर्ती का दृष्टान्त है / 16 विविध उपसर्ग सहन करने के लिए उदाहरणों के उल्लेखपूर्वक उपदेश हैं / इस प्रसंग में दिये गये दृष्टान्त इसप्रकार हैं 17- . बाईस परिषहों को सहन करने वालों का दृष्टान्तपूर्वक निरूपण है / तृष्णा परिषह के लिए प्राण त्याग करने वाले मुनिचन्द्र, शीत परिषह में रात में राजगृह के बाहर सिद्धि को प्राप्त चार साधुओं का दृष्टान्त, उष्ण परिषह के लिए सुमनभद्र ऋषि दृष्टान्त, क्षमा में आर्यरक्षित आदि के दृष्टान्त वर्णित हैं / 18 तिर्यग्जीवों ने भी धर्म पालन किया / उदाहरण के रूप में मत्स्य देवलोक में वानरयूथपति, वैमानिकदेव में गजेन्द्र, सप्तम कल्प में श्रीतिलक विमान में उत्कृष्ट स्थिति Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 : डॉ० अशोक कुमार सिंह वाला देव हुआ तथा दो सर्पो में एक देव विमान में तथा दूसरा नन्दनकुल में महान ऋद्धि वाला यक्ष उत्पन्न हुआ / 19 पादपोपगमन मरण का स्वरूप निरूपण करते हुए कहा गया है कि त्रस प्राणों से रहित एकान्त गमनरहित और निर्दोष एवं विशुद्ध स्थंडिल भूमि पर अभ्युद्यत मरण करना चाहिए। पूर्वभव के वैर से कोई देव संहार करे तथा दिव्य, मानव, तिर्यंच सभी के द्वारा उत्पन्न उपसर्गों को पराजित कर पादपोपमनमरण का व्रत लेने वाला निश्चल रहे / जिसप्रकार एक म्यान से दूसरे म्यान में तलवार जाती रहती है उसीप्रकार जीव भी एक शरीर से दूसरे शरीर में जाते रहते हैं / अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को समान भाव से सहतें हुए जीव कर्मक्षय को प्राप्त करता है / कमलश्री महिला ने यदि विषम पर्वत की कन्दरा में धैर्य पूर्वक समाधिमरण किया तो अनगार के लिए निर्यामक गुरु और गण के सहायक रहने पर समाधिमरण व्रत ग्रहण करने में क्या कठिनाई है ?2deg अर्थात् कोई कठिनाई नहीं है / उपसर्ग-महाभय के प्रसंग में अनुचिन्तन करने के उपरान्त समाधिमरण प्राप्त करने की प्रतिज्ञा का उपदेश है / जीव अविनाशी है वह विषमसे विषम परिस्थितियों मे भी भयभीत नहीं होता है / तिर्यक् योनि में जीव अनेक उपसर्गों के मध्य भी उद्विग्न नहीं हुआ अतः उपसर्गों की चिन्ता न करते हुए समाधिमरण का आश्रय लेना चाहिए / 21 द्वादश भावनाओं का अतिविस्तृत निरूपण इस प्रकीर्णक में प्राप्त होता है / संवेग को दृढ़ करने वाली इन भावनाओं को श्रमण और श्रावक दोनों द्वारा भावित करने का उपदेश है / 22 पण्डितमरण ग्रहण करने का उपदेश देते हुए कहा गया है कि मूढ़ लोग अनेक दोषों से युक्त मनुष्य जन्म के अल्प सुख को देखकर भी उपदेश को हृदय में धारण कर तदनुरूप कार्य नहीं करते हैं। सारे सांसारिक दुःखों को भी मनुष्य वैसे ही सुख मानता है जैसे नीम के वृक्ष पर उत्पत्र कीड़ा मधुरता से अनभिज्ञ नीम की कटुता कोही मधुर मानता है। इसलिए लोक संज्ञा का त्यागकर पण्डितमरण मरना चाहिए / 23 लोक परम्परा के अनुसार मलविरेचन कर धर्म और शुक्ल ध्यान करने का निर्देश है / 24 (20) प्राचीन आचार्य विरचित आराधनापताका इसमें 932 गाथायें हैं मङ्गल और अभिधेय के पश्चात् ग्रन्थ में वर्णित 32 द्वारों का नाम निर्देश किया गया है / प्रथम 'संलेखना द्वार' में कषाय संलेखना रूप अभ्यन्तर और शरीर संलेखना रूप बाह्य-ये दो भेद बताकर पुनः इसके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीन भेद बताये गये हैं / संलेखना की अवधि में तप के निरूपण में कषाय-संलेखना की व्याख्या, कषाय-जय के उपाय, कषाय से हानि, कषाय का शमन निरूपण, संलेखनाधारण करने वाले के स्वरूप का वर्णन और गुरु के चरणों में गमन का निरूपण किया गया है। द्वितीय परीक्षा' द्वार में संलेखनाधारक क्षपक का गुरु कृत परीक्षण, तृतीय निर्यामक द्वार में निर्यामक स्वरूप, निर्यामक साधुओं के कर्तव्यों का निरूपण, जघन्य दृष्टि से दो निर्यामक साधुओं का निरूपण, एक निर्यामक निषेध, एक निर्यामक के विविध दोषों का निरूपण, चतुर्थ योग्यता' द्वार में भक्त प्रत्याख्यान करने वाले की योग्यता का वक्तव्य, पाचवें गीतार्थ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 29 द्वार में अगीतार्थ के समीप अनशन ग्रहण का निषेध तथा उसके समीप, अनशन करने वाले का विस्तार से दोष-निरूपण एवं गीतार्थ के निकट 'उत्तमार्थ' की साधना से क्षपक को लाभ का विस्तार से निरूपण है / छठे ' असंविग्नद्वार' में असंविग्न के निकट, दोष-निरूपणपूर्वक, अनशन का निषेध, क्षेत्र और काल के अनुरूप मार्गणा निरूपण पूर्वक संविग्नमुनि के समीप उत्तमार्थकरण का निर्देश / सातवें द्वार में स्वाध्याय, कायोत्सर्ग, वैयावृत्य, अनशन से असंख्य भव की कर्म-निर्जरा का निरूपण, आठवें द्वार में क्षपक के लिए धर्मध्यान बाधक स्थान का निर्देश, नवें वसतिद्वार' में क्षपक योग्य वसति का निरूपण, दसवें 'संस्तारकद्वार' में क्षपक योग्य संस्तारक के विषय में उत्सर्ग-अपवाद के गर्भ का वक्तव्य, ग्यारहवें 'द्रव्यवानद्वार' में क्षपक के अन्तिमकाल में आहार पानदान के विषय में निरूपण, बारहवें 'समाधिपानविरेकदद्वार' में क्षपक के समाधि के लिए मधुरपान, विरेचन द्रव्यनाम निर्देशपूर्वक दान का निरूपण,१° तेरहवें गणनिसर्गद्वार' में क्षपक के गच्छाचार्य होने पर उसके द्वारा योग्य गणाधिप की स्थापना, स्थापित गणाधिप और गण के प्रति क्षपकाचार्य का हृदयंगम वक्तव्य, क्षपकाचार्य और गण का परस्पर क्षमापन, चौदहवें 'चैत्यवन्दनद्वार' में अनशन के अभिलाषी मुनि द्वारा अनशन प्राप्त करने हेतु गुरु से अनुज्ञा, चैत्यवन्दन के निर्देश सहित गुरु द्वारा अनुज्ञा और क्षपक द्वारा चैत्य वन्दन, श्रावक के सन्दर्भ में अनशन ग्रहण का विस्तार से निरूपण है / 11 पन्द्रहवें 'आलोचनाद्वार' में संविग्न गीतार्थ गुरु के समक्ष आलोचना करने का निर्देश और अगीतार्थ के समक्ष आलोचना करने के दोष का निरूपण, आलोचना विधान का विस्तार से निरूपण, ज्ञानाचार अतिचार आलोचना, दर्शनाचारअतिचार आलोचना, चारित्राचारातिचारालोचना, तपाचारातिचारालोचना, वीर्याचारातिचारालोचना, श्रावकाश्रित आलोचना प्ररूपण, आलोचना विषय का विस्तृत निरूपण, शल्यपूर्वक आलोचना निषेध है / 12 सोलहवें 'व्रतोच्चारद्वार' में गुरु के समीप क्षपक में महाव्रत का आरोपण, क्षपक श्रावक के सन्दर्भ में गुरु के समीप अणुव्रत का आरोपण तथा सत्रहवें 'चतुःशरणद्वार' में क्षपक द्वारा चतुःशरण की प्रप्ति, अट्ठारहवें 'दुष्कृतगर्दाद्वार' में लोक-परलोक में किये गये विविध हिंसा कार्यों से समन्वित दुष्कृतों की क्षपणककृत विस्तृत निन्दा वर्णित है / 13 उनीसवें 'सुकृत अनुमोदनाद्वार' में अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, निर्ग्रन्थ, निर्ग्रन्थिनी, श्रावक-श्राविका, जिनभक्ति, तिर्यंच-नारक कृत आराधना, विविध जीवों के गुण, चारित्रपालन, आचार्यादि वैयावृत्य, स्वाध्याय, योग, उद्वहन, सामाचारी पालन, धर्मोपदेश, शास्त्र-अवगाहन, शिष्यपाठन, सिद्धान्तवाचना, अपूर्वशास्त्ररचना, पूर्वसूरिरचित ग्रन्थ व्याख्या, श्रावक-श्राविकाव्रतारोपादि, शिष्यनिष्पत्ति, आचार्य पदादिस्थापन, विविध * तपानुष्ठान, विविध संयममार्ग पालन, उन्मार्ग निवारण, सन्मार्गस्थापना आदि की क्षपकमुनि कृत अनुमोदना का प्रतिपादन है / इसके पश्चात् स्वकृत-कारित और अनुमोदित मिथ्यात्वत्याग, सम्यक्त्व प्राप्ति, तीर्थयात्रा, गुरुयात्रा, रथयात्रा, जिनचैत्यनिर्माण, जिनप्रतिमास्थापन, संघपूजा, मुनिप्रतिलाभ, साधर्मिक वात्सल्य, पुस्तक-पुस्तिका लेखनरूप, ज्ञानप्रपानिर्माण, नवजिनबिम्ब प्रवेश, त्रिकाल के तीर्थंकरों की पूजा, सद्गुरु-सेवा, प्रवज्या Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 : डॉ० अशोक कुमार सिंह के लिए उत्सुक अपनी सन्तान को अनुमति, प्रव्रज्या-उत्सव करना, जीर्ण जिनालयों का उद्धार, पौषधशाला का निर्माण, परिग्रह की मर्यादा निश्चित करना, उचित दान देना, शास्त्र सम्मत विविध तप करन., तप का उद्यापन करना, जिनपूजा, जिनप्रतिमा के लिए आभूषण बनवाना, दोनों सामायिक करना, पर्वतिथि पर पौषधवास, गरीब, अनाथ, कठिनाई पूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले जनों का उद्धार, धार्मिक लोगों का वात्सल्यकरण, ग्लान साधु सेवा, देवगुरु भक्ति, धर्मश्रवण आदि / 14 बीसवें 'जीवक्षमणाद्वार' में क्षपकद्वारा चारों गतियों के जीवों के प्रति किये गये अपराधों की क्षमापना, इक्कीसवें 'स्वजन क्षमणाद्वार' में आत्मीयजनों जैसे माता-पिता, मित्र, भगिनी, पुत्री, भार्या, पति, बहन (स्नुषा) सासश्वसुर, बान्धव, सम्बन्धी, आदि के प्रति इस लोक और परलोक कृत अपराधों की क्षेपक द्वारा की गई क्षमापना का विस्तार से वर्णन है / 15 ___ बाईसवें 'संघ क्षमणाद्वार' में साधु, साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ के प्रति किये गये अपराधों की क्षपक कृत क्षमापना, इसमें प्रसंगवश संघ का स्वरूप, संघ के बहुमान से मोक्ष पर्यन्त विविध सुखों की प्राप्ति का निरूपण है / तेईसवें 'जिनवरादि क्षमणाद्वार' में भरत-ऐरावत, विदेहक्षेत्र तीनों कालों के गणधरों सहित और संघ सहित तीर्थंकरों के प्रति किये गये अपराधों की क्षपक द्वारा क्षमापना वर्णित है / 16 चौबीसवें आशातना प्रतिक्रमणद्वार' में 33 आशातना दोषों का प्रतिक्रमण, 19 आशातना दोषों का प्रतिक्रमण, सूत्र विषयक 14 आशातना दोषों का प्रतिक्रमण निरूपित है / 17 पच्चीसवें 'कायोत्सर्गद्वार' में क्षपक की आराधना के विघ्न रहित होने के लिए कायोत्सर्ग विधान का निरूपण तथा छब्बीसवें 'शक्रस्तवद्वार' में क्षपक द्वारा शक्रस्तव का पाठ है / 18 सत्ताइसवें 'पापस्थान व्युत्सर्जनद्वार' में अठारह पाप स्थानों के त्याग का निरूपण, अठारह पाप स्थान के त्याग के सम्बन्ध में 18 दृष्टान्तो का निरूपण, अट्ठाइसवें अनशनवार' में साकारनिराकार के त्यागपूर्वक क्षपक द्वारा अनशन.ग्रहण का विस्तार से निरूपण है / 19 उन्तीसवें अनुशिष्टिद्वार' में अनुशिष्टि के 17 प्रतिद्वारों का वर्णन है / 2deg प्रथम मिथ्यात्व परित्याग' अनुशिष्टि प्रतिद्वार में मिथ्यात्व का दोष बताते हुए मिथ्यात्व को त्यागने का निर्देश है / द्वितीय 'सम्यक्त्व सेवनानुशिष्टिद्वार' में सम्यक्त्व के प्रभाव का निरूपण है तथा तीसरे 'स्वाध्याय' अनुशिष्टि प्रतिद्वार में पंचविध स्वाध्याय के करण, मोक्ष के अंग के रूप में स्वाध्याय का माहात्म्य, उत्कृष्टादि स्वाध्याय का निरूपण, स्वाध्याय का फल एवं चौथे पंचमहाव्रत रक्षा अनुशिष्टि प्रतिद्वार में पंचमहाव्रत रक्षा सम्बन्धी उपदेशों का प्रतिपादन है / 21 पंचम ' मदनिग्रह' अनुशिष्टि प्रतिद्वार में जाति, कल, बल, रूप, तप, ऐश्वर्य, श्रत और लाभ मद के त्याग का निर्देश, विविध मदों के दोषों का वक्तव्य और जाति आदि 8 मदों के सम्बन्ध में दृष्टान्तों का निर्देश, छठवें 'इन्द्रिय विजय' अनुशिष्टि प्रतिद्वार में इन्द्रिय पर विजय प्राप्त न करने वाले के दोष और इन्द्रिय निग्रह के गुणों का वर्णन है / इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करने सम्बन्धी 5 दृष्टान्त भी दिये गये हैं / 22 सप्तम कषाय विजय' अनुशिष्टि प्रतिद्वार में कषाय त्याग का निरूपण, कषाय के भेद-प्रभेद कधन, क्रोध के दोषों का कथन करते हुए उसके त्याग, क्षमा की प्रधानता, क्रोध के दोष और क्षमा में दो दृष्टान्तों का निर्देश, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 31 मान दोष का कथन, मान-त्याग के गुणों का कथन, माया-दोष का निरूपण, लोभ दोष के कथन पूर्वक उसके त्याग का निरूपण, इनसे सम्बन्धित दृष्टान्त, कषायों पर विजय प्राप्त करने के उपदेश, आठवें 'परिषह सहन' अनुशिष्टि प्रतिद्वार में 22 परिषहों के नाम और उनके विजय की प्रेरणा, नवें 'उपसर्ग सहन' अनुशिष्टि प्रतिद्वार में देव, मनुष्य, तिर्यंच की आत्मसंवेदना, उपसर्ग चतुष्क में प्रत्येक के भेद से षोडश उपसर्ग का निरूपण, उदित उपसर्ग के सहन का उपदेश,२३ दसवें प्रमाद' अनुशिष्टि प्रतिद्वार में प्रमाद-त्याग का कथन, प्रमाद के आठ और पाँच भेद, प्रमाद के कारण महाज्ञानी का भी भव भ्रमण, ग्यारहवें 'तपश्चर्या' अनुशिष्टि प्रतिद्वार में तपमाहात्म्य बताते हुए तपश्चर्या का उपदेश, बारहवें 'रागादि प्रतिषेध' में रागादिजनित दोष, रागादि पर विजय के सम्बन्ध में बताते हुए रागद्वेष के त्याग का निरूपण है / 24 तेरहवें निदान त्याग अनुशिष्टि प्रतिद्वार में निदान के 9 भेद, 9 प्रकार के निदानों के करने से होने वाले दोषों का कथन, प्रकारान्तर से निदान के तीन भेद, निदानों से सम्बन्धित दृष्टान्तों का निर्देश, निदान करने से संसार-वृद्धि का निरूपण आत्महितकर प्रार्थना को प्रेरणा, चौदहवें 'कुभावना त्याग' अनुशिाष्टे प्रतिद्वार में 25 प्रकार की कुभावनायें, कुभावना से हानि, कुभावना के त्याग से लाभ का वर्णन है / 25 पन्द्रहवें 'संलेखनाचारपरिहरण' अनुशिष्टि प्रतिद्वार में संलेखना के विषय में 5 अतिचार तथा उनके त्याग का उपदेश, सोलहवें 'शुभभावना' अनुशिष्टि प्रतिद्वार में द्वादश शुभभावनाओं के नाम, स्वरूपादि, सत्रहवें 'पंचविंशमहाव्रत भावना' अनुशिष्टि प्रतिद्वार में 25 महाव्रत भावनाओं के नाम-स्वरूप आदि का विवरण, अनुशिष्ट क्षपक का गुरु के प्रति हृदयंगम वक्तव्य का निरूपण है / 26 तीसवें कवचद्वार' में क्षपक को पेय (पानक) स्वरूप और क्रम से पान का भी प्रत्याख्यान, वेदनाभिभूत क्षपक की चिकित्सा, निर्यामक गुरु स्मारणा, आराधक नर-तिर्यंच के विविध दृष्टान्तों के निर्देश पूर्वक गुरुकृत क्षपक की स्मारणा, क्षपक के प्रति चतुर्गति दुःख के सम्बन्ध में गुरु का विस्तार से उपदेश, ३१वें आराधना फलद्वार' में उत्तरोत्तर, 'मोक्षप्राप्ति' कथन पूर्वक आराधना का विस्तार से फल निरूपण है / 27 अन्त में उपसंहार में आराधना का माहात्म्य बताया गया है / 28 (21) श्रीवीरभद्राचार्य विरचित आराधनापताका इस प्रकीर्णक में 989 गाथायें हैं / इसमें समाधिमरण का सांगोपांग विवरण उपलब्ध है / प्रकीर्णक में मंगल और अभिधेय के पश्चात् मुख्य विषय का प्रतिपादन करने के पूर्व पीठिका दी गई है। इसमें पहले मरण के भेद-प्रभेद का वर्णन है / समाधिमरण के अविचार और सविचार दो भेदों में से सविचार भक्तपरिज्ञा मरण का यहाँ विस्तृत विवेचन है / विषय को (1) परिकर्मविधि द्वार, (2) गणसंक्रमण द्वार, (3) ममत्व उच्छेद द्वार और (4) समाधिलाभ द्वार में वर्गीकृत कर पुनः इन्हें प्रतिद्वारों में विभक्त किया गया है / इन चार द्वारों के क्रमशः ग्यारह, दस, दस और आठ प्रतिद्वार हैं। ___ग्रन्थ के प्रारम्भ में भगवान महावीर की वन्दना करके गौतमादि पूर्वाचार्यों द्वारा अनुभूत और कथित आराधना के स्वरूप का ग्रन्थकार द्वारा कथन करने का संकल्प है। इसके पश्चात पीठिका के रूप में आराधना के चार उपायों का निरूपण, आराधना-विराधना Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 : डॉ. अशोक कुमार सिंह का फल, आराधना के उपाय के भेद के सम्बन्ध में मतान्तर की चर्चा, विराधना-आराधना का प्रतिपादन, और पांच प्रकार के मरण-(१) पंडित-पंडित, (2) पंडित, (3) बालपण्डित, (4) बालमरण और (5) बाल-बाल मरण का कथन है / क्षीण कषाय केवलि प्रथम मरण, श्रेष्ठ मुनि द्वितीय मरण, देशविरत और अविरत तृतीय मरण, मिथ्यादृष्टि बालमरण और सबसे जघन्य, कषाय-कलुषित बाल बालमरण प्राप्त करते हैं / ___ पीठिका के पश्चात् श्रुतदेवता की वन्दना कर मुख्य विषय के प्रतिपादन के आरम्भ में सविचार भक्त परिज्ञामरण के चार द्वारों का निर्देश है / 5 प्रथम परिकर्म विधि द्वार के अन्तर्गत अर्ह' प्रतिद्वार अर्थात् भक्तपरिज्ञा कारक की योग्यता, 'लिङ्ग' अर्थात मुखवत्रिका, रजोहरण, शरीर-अपरिकर्मत्व, अचेलकत्व, केशलोच रूपक्षपक लिङ्गों, शिक्षा जिनवचन कथन सहित सात शिक्षापदों-आत्महित परिज्ञा, भावसंवर, नवनवसंवेग, निष्कंपता, तप, भावना, परदेशित्व का निरूपण है / चतुर्थ विनय' प्रतिद्वार में ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि पांच विनयों, पंचम समाधि' प्रतिद्वार में मनोविग्रह का, अनियत' प्रतिद्वार में दर्शन शुद्धि आदि पंचअनियत वास के गुणों का, सातवें 'परिणाम' प्रतिद्वार में अनशन करने का परिणाम, आठवें 'त्याग' प्रतिद्वार में संयम साधन मात्र उपधि के अतिरिक्त अन्य उपधियों के त्याग, शय्या शुद्धि आदि पांच प्रकार की शुद्धियां और इन्द्रिय विवेक आदि पांच प्रकार के विवेक का निरूपण है / नवें 'निःश्रेणि' भावश्रेणि पर आरोहण का, 'भावना' प्रतिद्वार में क्रमशः पांच संक्लिष्ट भावनाओं से हानि और असंक्लिष्ट भावनाओं से लाभ का तथा अन्तिम ग्यारहवें 'संलेखना' 'प्रतिद्वार' में संलेखना के दो भेद-बाह्य और अभ्यन्तर, का विस्तार से निरूपण है / 6 द्वितीयगण संक्रमणद्वार' के दस प्रतिद्वार इसप्रकार हैं-(१) दिशा, (2) क्षमणा, (3) अनुशिष्टि, (4) परगणचर्या, (5) सुस्थित गवेषणा, (6) उपसम्पदा, (7) परिज्ञा, (8) प्रतिलेखा, (9) आपृच्छना और (10) प्रतीच्छा प्रतिद्वार / प्रथम 'दिशा' प्रतिद्वार में गणाधिप द्वारा क्षपक के गण से निष्क्रमण हेतु शुभ तिथि, नक्षत्र, लग्न और दिशा का निर्देश है, द्वितीय प्रतिद्वार में क्षपक द्वारा समस्त गण से क्षमापणा करने, तृतीय में गणाधिपति द्वारा क्षपक सहित अन्य शिष्यों को विस्तार पूर्वक विविध उपदेश देने, चतुर्थ परगणचर्या' प्रतिद्वार में स्वगण में आराधना लेने से आराधना में कुछ स्वाभाविक विघ्नों का निर्देश करते हुए अन्य गण में गमन हेतु विधान का औचित्य बताया है / पंचम 'सुस्थित गवेषणा' प्रतिद्वार में विभिन्न दोषों की सम्यक् आलोचना का निरूपण, निर्यामक की गवेषणा के सम्बन्ध में क्षेत्र और काल की मर्यादा का और आराधक और निर्यामक के स्वरूप का प्रतिपादन, षष्ठम 'उपसंपदा' प्रतिद्वार में वाचक आचार्य द्वारा क्षपक को आराधनापताका व्रत प्रदान करने की स्वीकृति का, सप्तम परिज्ञाद्वार' में निर्यामक आचार्य द्वारा आहार आदि के सम्बन्ध में क्षपक की आराधना के निरीक्षण का, नवें आपृच्छनाद्वार' में प्रतिचारक की अनुमति हेतु निर्यामक आचार्य से कथन एवं प्रतिच्छक की नियुक्ति का निश्चय है। तृतीय ममत्व व्युच्छेद द्वार में दस प्रतिद्वार हैं-(१) आलोचना, (2) गुण-दोष, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 33 (3) शय्या, (4) संस्तारक, (5) निर्यामक, (6) दर्शन, (7) हानि, (8) प्रत्याख्यान, (9) क्षमणा (१०)क्षमण / प्रथम प्रतिद्वार में क्षपक की आलोचना का विस्तार से निरूपण, द्वितीय में सम्यक् रूप से आलोचना न करने के दस दोषों के निरूपण के साथ सम्यक् आलोचना के गुणों का प्रतिपादन, तृतीय में क्षपक के लिए उपयुक्त वसति, चतुर्थ में योग्य संस्तारक, पंचम में विविध सुश्रूषाप्रवीण अड़तालिस प्रकार के निर्यामकों का स्वरूप कथन, छठवें में आहार का विविध प्रकार त्याग करने पर उत्कृष्ट आहार दिखाने कानिरूपण, सप्तम 'हानि' प्रतिद्वार में उत्कृष्ट आहार का दर्शन कराने पर किसी क्षपक को रसासक्त जानकर उस-उस उत्कृष्ट आहार से हानि का निरूपण करते हुए क्षपक को रस में आसक्ति के त्याग का निर्देश है। आठवें में कम से क्षपक द्वारा सर्वाहार के त्याग का, नवें क्षमणा' प्रतिद्वार में गुरु की प्रेरणा से सर्वसंघ के प्रति क्षमायाचना, दसवें क्षमण' में क्षपक का सर्वसंघ को क्षमादान का कथन है, उसके पश्चात् ममत्व व्युच्छेद का फल बताया गया है / चतुर्थ समाधिलाभद्वार' के आठ प्रतिद्वार इस प्रकार बताये गये हैं-(१) अनुशिष्टि, (2) सारणा, (3) कवच, (4) समता, (5) ध्यान, (6) लेश्या, (7) आराधनाफल और (8) विजहान प्रतिद्वार / प्रथम अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में संस्तारक गत क्षपक के प्रति निर्यामक प्ररूपित नवप्रकार की भाव संलेखना का उपदेश है / इसके अन्तर्गत मिथ्यात्व-वमन, सम्यक्त्व भावना, श्रेष्ठ भक्ति, अर्हनमस्कार, ज्ञानोपयोग, पञ्चमहाव्रत रक्षा, कषाय त्याग, इन्द्रिय विजय और तप में उद्यम का उपदेश है / उपदेश के अन्त में क्षपक द्वारा उपदेश स्वीकार करने का उल्लेख है / 10 द्वितीय 'सारणा' प्रतिद्वार में क्षपक के ध्यान में विघ्नकारी वेदनाओं के प्रसंग में चिकित्सा आदि का प्ररूपण, 'कवच' प्रतिद्वार में विविध परिषहों को सम्यक्त्वपूर्वक सहन करने का निरूपण, समता' प्रतिद्वार में क्षपक द्वारा समभाव अंगीकार करना, 'ध्यान' प्रतिद्वार में आर्त व रौद्र ध्यान के परित्यागपूर्वक धर्म एवं शुक्ल ध्यान अंगीकार का विस्तार से स्वरूप कथन, 'लेश्या' प्रतिपत्ति द्वार में प्रशस्त लेश्याओं की प्रतिपत्ति, सप्तम आराधनाफल' प्रतिद्वार में उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य आराधना के फल के निरूपण के साथ शिथिलाचारियों की अप्रशस्त गति का कथन है / अष्टम विजहाण' प्रतिद्वार में समय आने पर क्षषक द्वारा शरीर के परित्याग का विस्तार से निरूपण है / 11 - सविचार भक्तपरिज्ञा मरण के वर्णन के पश्चात अविचार भक्तपरिज्ञामरण का निरूपण है / इसके-(१) निरुद्ध (2) निरुद्धतर (3) परमनिरुद्ध तीन भेद कहे गये हैं। जंघाबल के क्षीण हो जाने पर अथवा रोगादि के कारण कृशशरीर वाले साधु का गुफादि में होने वाला मरणविशेष निरुद्ध अविचार भक्त परिज्ञामरण है / पूर्वोक्त विधि-(१) प्रकाश और (2) अप्रकाश दो प्रकार की होती है / प्रथम जिसमें मरण लोगों को ज्ञात हो जाय और द्वितीय जिसमें मरण लोगों को ज्ञात न हो सके / व्याल, अग्नि, व्याघ्र, शूल, मूर्छा, विशूचिका आदि के कारण अपनी आयु को संकुचित जानकर मुनि का जो गुफादि में मरण हो, वह निरुद्धतर अविचार भक्तपरिज्ञामरण है / जब भिक्षु की वाणी वातादि के करण अवरुद्ध हो जाये तब वह आयु को समाप्त जानकर जो शीघ्र मरण करता है वह परमनिरुद्ध अविचार भक्तपरिज्ञामरण है / 12 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 : डॉ. अशोक कुमार सिंह . उपरोक्त रूप में भक्तपरिज्ञामरण का प्रतिपादन कर वीरभद्राचार्य इंगिनीमरण का वर्णन करते हैं-इंगिनीमरण का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि भक्तपरिज्ञा में जो उपक्रम वर्णित हैं वे ही उपक्रम यथायोग्य इंगिनीमरण में हैं / इंगिनीमरण में आराधक द्वारा स्वयं ही आकुंचन, प्रसारण, उच्चारादि की क्रियाएं की जाती हैं। इसमें आराधक देव अथवा मनुष्य कृत उपसर्गो से भयभीत या विचलित नहीं होता / किनर, किंपुरुष, अथवा देवकन्यायें भी उसे विचलित नहीं कर पातीं। सभी पुद्गल यदि दुःखरूप में परिणत हो जायें तो भी उसे ध्यान से विचलित नहीं कर सकते / 13 मौन का अभिग्रह धारण करने वाला वह आराधक आचार्य आदि के पहले बोलने पर बोलता है और देव और मनुष्यों द्वारा पूछने पर धर्मकथा कहता है / 14 इसप्रकार आख्यायित विधि की साधना कर कुछ सिद्ध होते हैं और कुछ विमानों में देव हो जाते है / 15 इसके पश्चात् संक्षेप में पादपोगमनमरण१६ का वर्णन करते हुए आराधना-फल१७ का प्रतिपादन कर प्रकीर्णक को समाप्त कर दिया गया है / सन्दर्भ-सूची 1. चंदावेज्झयं पइण्णयं (चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक) : आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर, 1991, भूमिका पृ०४ नन्दीसूत्रः सम्पा० मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, पृ० 80-81 गणिविज्जा पइण्णयं (गणिविद्या प्रकीर्णक) : आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, 1994, भूमिका पृ० 4 जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा : तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर 1977, पृ० 388 समवायांगसूत्र : सम्पा० मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, समवाय 84 वही, समवाय 14 देविंदत्थओ (देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक): आगम, आहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, 1988, भूमिका पृ० 12 पइण्णयसुत्ताई : सम्पा० मुनि पुण्यविजय, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, भाग 1, 1984, प्रस्तावना पृ०२० वही, पृ० 19 10. वही, पृ० 19 ॐ (1) आराधना कुलक१. आराहणा कुलयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 2, पृ० 244 2. वही, पृ० 244, गाथा 1; 3. वही, गाथा 2 4. वही, गाथा 3-4; 5. वही, गाथा 5 6. वही, गाथा 6; 7. वही, गाथा 7 8. वही, गाथा 8 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 35 (2) आलोचना कुलक१. आलोयणाकुलयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग२, पृ०२४९-२५० 2. वही, पृ० 249, गाथा 1-3; 3. वही, गाथा 4; 4. वही, गाथा 5-6 5. वही, गाथा 7; 6. वही; गाथा 8 7. वही, गाथा 9; 8. वही, गाथा 10-11 9. वही, गाथा 12 (3) मिथ्यादुष्कृतकुलक (1)1. मिच्छादुक्कड कुलयं (१)-पइण्णयसुत्ताई, भाग 2, पृ० 245-246 2. वही, पृ० 245, गाथा 1-2 3. वही, गाथा, 3-7 4. वही, गाथा 8; 5. वही, गाथा 9-10 6. वही, गाथा 11 - 1.2 (4) मिथ्यादुष्कृत कुलक (2)1. मिच्छादुक्कड कुलयं (2) पइण्णयसुत्ताई, भाग 2, पृ० 247-248 2. वही, पृ० 247 गाथा 1, 3. वही, गाथा 2-4 ४.वही, गाथा 5-8; 5. वही, गाथा 9-11 6. वही, गाथा 12-16 (5) आत्मविशोधिकुलक१. अप्पविसोहि कुलयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 2, पृ० 291-293 2. वही, पृ० 291 गाथा 1-8, 3. वही, गाथा 9-16 4. वही, गाथा 17-20; 5. वही, गाथा 21-22 6. वही, गाथा 23-24 (6) चतुःशरण प्रकीर्णक१. चउसरण पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 309-311 2. वही, पृ० 309 गाथा 1; 3. वही, गाथा 2-6 4. वही, गाथा 7-17; 5. वही, गाथा 18-25 6. वही, गाथा 27 (7) आतुरप्रत्याख्यान (1)1. आउरपच्चक्खाणं पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 160 - 163 2. पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, प्रस्तावना ( गुजराती) पृ० 41 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 : डॉ० अशोक कुमार सिंह 3. वही, पृ० 41 5 आउरपच्चक्खाणं पइण्णयं (१)-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 160, गाथा 6-9 5. वही, गाथा 15-27; 6. वही, गाथा 28-30 (8) आतुरप्रत्याख्यान(२)१. आउरपच्चक्खाणं पइण्णय(२)-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 305-308 2. वही, पृ० 305, गाथा 1; 3. वही, गाथा 2-3 4. वही, गाथा 6-13; 5. वही, गाथा 14-18 . . . 6. वही, गाथा 26-34 (9) नन्दनमुनि आराधित 'आराधना'१. नन्दनमुन्याराधिता 'आराधना'-पइण्णयसुत्ताई, भाग 2, पृ० 240-243 2. वही, पृ० 240, गाथा 1; 3. वही, गाथा 2-18 4. वही, गाथा 19-27 5. वही, गाथा 28-38 5. वही, गाथा 39-40 (10) कुशलानुबन्धि अध्ययन१. कुसलानुबन्धि अज्झयणं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 298-304 2. वही, पृ० 298, गाथा 1; 3. वही, गाथा 2-7 4. वही, गाथा 8-10; 5. वही, गाथा 11-48 6. वही, गाथा 49-54; 7. वही, गाथा 55-63 (11) आतुरप्रत्याख्यान (3)1. आरपच्चक्खाणं पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 329-336 2. वही, पृ० 329. गाथा 1-9, 3. वही, गाथा 10 --32 4. वही, गाथा 34-36; 5. वही, गाथा 37-45 6. वही, गाथा 46-48; 7. वही, गाथा 49-71 (12) जिनशेखर श्रावक प्रति सुलसा श्रावक आराधित 'आराधना'१. जिणसेहर सावयं पइ सुलससावयकाराविया 'आराहणा'-पइण्णयसुत्ताई, भाग 2 पृ० 232-239 2. वही, पृ० 232 गाथा 1; 3. वही, गाथा 2-10 4. वही, गाथा 11-20; 5. वही, गाथा 21-28 . 6. वही, गाथा 29-36; 7. वही, गाथा 37-43 8. वही, गाथा 44-51; 9. वही, गाथा 52-63 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 37 १०.वही, गाथा 64-74; (13) श्रीअभयदेवसूरि प्रणीत 'आराधना प्रकरण'१. सिरिअभयदेवसूरिपणीयं आराहणा पयरणं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 2, पृ० 224-231 2. वही, पृ० 224, गाथा 1; . 3. वही, गाथा 2-10 4. वही, गाथा 18-20; 5. वही, गाथा 21-34 6. वही, गाथा 35-44; 7. वही, गाथा 45-56 8. वही, गाथा 57-62 9. वही, गाथा 63 -76 १०.वही, गाथा 67; 11. वही, गाथा 77-85 (14) संस्तारक प्रकीर्णक१. संथारग पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 280-291 2. वही, पृ० 280, गाथा 1; 3. वही, गाथा 2-30 4. वही, गाथा 31-43; 5. वही, गाथा 44-45 6. वही, गाथा 56-87; 7. वही, गाथा 88-122 (15) महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक१. महापच्चक्खाण पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 164 -178 2. पाक्षिकसूत्र, पृ० 78 3. महापच्चक्खाण पइण्णयं : आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, भूमिका पृ० 7-8 4. महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 1-5:5. वही, गाथा 6-8 / 6. वही, गाथा 13 -17; . 7. वही, गाथा 18-21 8. वही, गाथा 22-30; 9. वही, गाथा 31-36 10. वही, गाथा 37-40; 11. वही, गाथा 41-59 12. वही, गाथा 51-71 13. वही, गाथा 77-84 14. वही, गाथा 85-92; 15. वही, गाथा 93 -10.1 16. वही, गाथा 101-112; 17. वही, गाथा 113 -125 18. वही, गाथा 126-142 (16) भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक१. भत्तपरित्रा पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 312 -328 2. वही, पृ० 312. गाथा 1-7; 3. वही, गाथा 8-16 4. वही, गाथा 18-19; 5. वही, गाथा 20-26 6. वही, गाथा 27-35; 7. वही, गाथा 36-38 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 : डॉ. अशोक कुमार सिंह 8. वही, गाथा 39-42; 10. वही, गाथा 51-74; 12. वही, गाथा 89-140; 14. वही, गाथा 148 -155; 9. वही, गाथा 43-50 11. वही, गाथा 75-88 13. वही, गाथा 141-147 15. वही, गाथा 156-172 (17.) आराधनासार / पर्यन्ताराधना१. आराहणासार' / 'पज्जंताराहणा,'-पइण्णयसुत्ताई, भाग 2 पृ० 169-192 2. वही, पृ० 169 गाथा 1-3, 3. वही, गाथा 5-11 . . . 4. वही, गाथा 12-15; 5. वही, गाथा 16-19 6. वही, गाथा 20-23; 7. वही, गाथा 24-29 8. वही, गाथा 3-240; 9. वही, गाथा 241-257 10. वही, गाथा 258-263H (18) आराधना पंचक-आराहणापणगं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 2, पृ० 193-223 (19) मरणविभक्ति / मरणसमाधि प्रकीर्णक१. मरणविभत्ति पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 99-159 2. नन्दीसूत्रचूर्णी, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद, पृ० 58 3. पाक्षिकसूत्रवृत्ति, देवचन्दलालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, पृ. 64-65 4. मरणविभत्ति पइण्णयं, गाथा 660-661 5. महापच्चक्खाण पइण्णय, आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, भूमिका पृ० 24-27 6. मरणविभत्ति पइण्णयं, गाथा 1-21; 7. वही, गाथा 14-58 8. वही, गाथा 59-67; 9. वही, गाथा 68-77 10. वही, गाथा 176; 11. वही, गाथा 127-175 12. वही, गाथा 176-335; १३.वही, गाथा 325-365 14. वही, गाथा 366-385; १५.वही, गाथा 386-401 16. वही, गाथा 402-412, १७.वही, गाथा 413-485 18. वही, गाथा 486-503; १९.वही, गाथा 507-524 20. वही, गाथा 528-552; २१.वही, गाथा 553-569 22. वही, गाथा 570-640; २३.वही, गाथा 641-659 24. वही, गाथा 660-661 (20) प्राचीन आचार्य विरचित 'आराधना पताका'१. पाईणायरियविरइया आराहणापडाया-पइण्णयसुत्ताई, भाग 2, पृ० 1-84 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 39 2. वही, पृ०१, गाथा 1-7; 4. वही, गाथा 25-28; 6. वही, गाथा 44-47; 8. वही, गाथा 64-70; 10. वही, गाथा 83-102; 12. वही, गाथा 163 -218; 14. वही, गाथा 301-349; 16. वही, गाथा 479-502; 18. वही, गाथा 514-521; 20. वही गाथा 568-758; 22. वही, गाथा 634-649; 24. वही, गाथा 685-702; 26. वही, गाथा 729-758; 28. वही, गाथा 926-932 . 3. वही, गाथा 8-24 5. वही, गाथा 29-43 7. वही, गाथा 48-63 9. वही, गाथा 71-82 11. वही, गाथा 103-162 13. वही, गाथा 219-300 15. वही, गाथा 350-478 17. वही, गाथा 503-513 19. वही, गाथा 522-567 21. वही, गाथा 573-633 23. वही, गाथा 650-684 25. वही, गाथा 703-728 27. वही, गाथा 759-925 (21) श्री वीरभद्राचार्य विरचित 'आराधना पताका'१. सिरिवीरभदायरियविरड्या आराहणापडाया' पइण्णयसुत्ताई, भाग 2, पृ० 85-168 2. वही, पृ० 85, गाथा 1-3, 3. वही, गाथा 4-40 4. वही, गाथा 41-51, 5. वही, गाथा 52-55 6. वही, गाथा 56-167; 7. वही, गाथा 168-242 8. वही, गाधा 243-316; 9. वही, गाथा 317-439 १०.वही, गाथा 442-717; 11. वही, गाथा 718-886 १२.वही, गाथा 894-903; . 13. वही, गाथा 904-921 १४.वही, गाथा 922-962; 15. वही, गाथा 963-965 १६.वही, गाथा 966-982; 17. वही, गाथा 983-989 . प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई०टी० आई० रोड वाराणसी. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु * डॉ० अशोक कुमार सिंह * डॉ० सुरेश सिसोदिया प्रकीर्णकों में प्रमुख प्रतिपाद्य समाधिमरण रहा है किन्तु कुछ प्रकीर्णक ऐसे भी हैं, जो खगोल, भूगोल, ज्योतिष, जैन इतिहास आदि से भी सम्बन्धित हैं / मुनि पुण्यविजयजी द्वारा पइण्णयसुत्ताइं भाग 1 एवं 2 में जो बत्तीस प्रकीर्णक संग्रहीत हैं, उनमें से इक्कीस प्रकीर्णक यथा-(१) मरणसमाधि, (2) आतुरप्रत्याख्यान, (3) महाप्रत्याख्यान, (4) संस्तारक, (5) चतुःशरण, (6) आतुरप्रत्याख्यान, (7) भक्तपरिज्ञा, (8) आतुरप्रत्याख्यान (वीरभद्राचार्य विरचित), (9) आराधनापताका (प्राचीन आचार्य विरचित), (10) आराधनापताका (वीरभद्राचार्य विरचित), (11) पर्यन्ताराधना, (12) आराधमापंचकम, (13) आतुरप्रत्याख्यान, (14) आराधनाप्रकरणम (15) जिनशेखर श्रावकप्रति सुलसा श्रावक कारापित आराधना (16) नन्दनमुनि आराधित आराधना, (17) आराधना कुलकम, (18) मिथ्या दुःकृत कुलकम् (19) मिथ्या दुःकृत कुलकम, (20) आलोचना कुलकम् और (21) आत्मविशोधि कुलकम प्रकीर्णक किसी न किसी रूप में समाधिमरण का ही विवेचन करते हैं / समाधिमरण विषयक इन इक्कीस प्रकीर्णकों की विषयवस्तु का विवेचन पूर्व आलेख समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु' में प्रस्तुत किया जा चुका है / शेष ग्यारह प्रकीर्णक यथा (1) देवेन्द्रस्तव, (2) तन्दुलवैचारिक, (3) चन्द्रकवेध्यक. (4) गणिविद्या, (5) ऋषिभाषित, (6) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, (7) वीरस्तव, (8) गच्छाचार, (9) सारावली, (10) ज्योतिषकरण्डक और (11) तित्थोगाली पृथक-पृथक विषयों को आधार बनाकर रचे गये हैं / प्रस्तुत आलेख में इन ग्यारह प्रकीर्णकों की विषयवस्तु का क्रमशः विवेचन किया जा रहा है(१) देवेन्द्रस्तव स्थविर ऋषिपालितकृत देवेन्द्रस्तव में 311 गाथाएँ हैं / इसका निर्देश नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में प्राप्त होता है / 2 पाक्षिक सूत्रवृत्ति में कहा गया है कि देवेन्द्रों का चमर, वैरोचन आदि का स्तवन, भवन, स्थिति आदि के स्वरूप का जहाँ वर्णन हो, वह देवेन्द्रस्तव है / प्रस्तुत ग्रन्थ में बत्तीस इन्द्रों का क्रमशः विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है / ग्रन्थ का प्रारम्भ तीर्थङ्कर ऋषभ से लेकर महावीर तक की स्तुति से किया गया है। तत्पश्चात् किसी श्रावक की पत्नी अपने पति से बत्तीस देवेन्द्रों के सन्दर्भ में प्रश्न पूछती है कि ये बत्तीस देवेन्द्र कौन हैं ? कहाँ रहते हैं ? उनके भवन कितने हैं ? और उनका स्वरूप क्या है ? प्रत्युत्तर में वह श्रावक भवनपतियों, वाणव्यंतरों ज्योतिष्कों, वैमानिकों एवं अन्त में सिद्धों का वर्णन करना प्रारम्भ करता है / सर्वप्रथम असुरकुमार, नागकुमार, सुवर्णकुमार, द्वीपकुमार, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 41 उदधिकुमार, दिशाकुमार, वायुकुमार, स्तनितकुमार, विद्युतकुमार और अग्निकुमार आदि दस भवनपति देवों तथा चमरेन्द्र, धरणेन्द्र आदि बीस भवनपति इन्द्रों के नामल्लेख हैं। तत्पश्चात् भवनपति इन्द्रों की स्थति, आयु, भवन संख्या एवं आवास आदि का विस्तारपूर्वक निरूपण है / 6 पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व ये आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देव कहे गये हैं। इनके काल, महाकाल, सुरूप, प्रतिरूप, पूर्णभद्र, माणिभद्र, भीम, महाभीम, कित्रर, किंपुरुष, सत्पुरुष, अतिकाय, महाकाय, गीतरति, गीतयश आदि सोलह इन्द्र कहे गये हैं। ये देव ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक किसी भी लोक में उत्पत्र हो सकते हैं। इनकी कम से कम आयु दस हजार वर्ष और अधिकतम आयु एक पल्योपम कही गयी चन्द्र, सूर्य, तारागण, नक्षत्र और ग्रह ये पाँच ज्योतिषिक देव कहे गये हैं। ज्योतिषिक देवों के स्थान, विमान संख्या और विमानों के आयाम-विष्कम्भ के विवेचन के पश्चात् चन्द्र, सूर्य, तारे, नक्षत्र आदि के विषय में विस्तार से विवेचन हुआ है / इनकी गति के बारे में कहा गया है कि सूर्य चन्द्रमा से, ग्रह सूर्य से, नक्षत्र ग्रहों से और तारे नक्षत्रों से तेज गति करने वाले होते हैं। शतभिषज, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा ये छः नक्षत्र कहे गये हैं, जो पन्द्रह मुहूर्त संयोग वाले हैं / तीन उत्तरानक्षत्र पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा-ये छः नक्षत्र चन्द्रमा के साथ पैतालिस मुहूर्त का संयोग करते हैं / इसीप्रकार :: अन्य नक्षत्रों के चन्द्र-सूर्य संयोगों का उल्लेख हुआ है / 10 इसके बाद ज्योतिषिकों के पिटक, पंक्तियाँ, मण्डल, उनका ताप क्षेत्र, उनकी गति आदि का वर्णन किया गया है / 11 तत्पश्चात् चन्द्रमा की हानि और वृद्धि बतलाते हुए कहा गया है कि शुक्ल पक्ष के पन्द्रह दिनों में चन्द्रमा का बासठवाँ-बासठवाँ भाग राहु से अनावृत होकर प्रतिदिन बढ़ता है और कृष्णपक्ष के उतने ही समय में राहु से आवृत होकर घटता जाता है, इसप्रकार चन्द्रमा का वृद्धि-हास होता रहता है / 12 आगे ज्योतिषि देवों की गति, स्थिति तथा जम्बूद्वीप में चन्द्र-सूर्यों की संख्या और अन्तर का निरूपण है / 13 तत्पश्चात् वैमानिक देवों के बारह भेदों, ग्रैवेयक देवों के नौ भेदों और अनुत्तर वैमानिक देवों के पाँच भेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है। विशेषरूप से इनके विमान, स्थिति, लेश्या, ऊँचाई, गंध, काम-क्रीड़ा, अवधिज्ञान, आहार ग्रहण करने की इच्छा, उनके प्रासाद, प्रासादों का वर्ण आदि विवरण प्रस्तुत किया गया है / 14 इसके पश्चात सिद्धशिला पृथ्वी का वर्णन किया गया है जो सबसे ऊँचे स्तूप के अन्त से 12 योजन ऊपर इषतप्रारभारा पृथ्वी है, वह 45 लाख योजन लम्बी-चौड़ी है और परिधि में वह 14230249 योजन से कुछ अधिक है। इस पर सिद्धों का निवास है / वहाँ सिद्ध वेदनारहित, ममतारहित, आसक्तिरहित, शरीररहित, अनाकार दर्शन और साकार ज्ञान वाले होते हैं / इनकी उत्कृष्ट अवगाहना एक रत्नि आठ अंगुल से कुछ अधिक है / 15 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___42 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ० सुरेश सिसोदिया अन्त में अरिहन्तों की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए ऋषिपालित कहते हैं कि सभी भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देव अरिहन्तों की वन्दना व स्तुति करने वाले ही होते हैं / 16 (2) तंदुलवैचारिक ई० सन की प्रथम शताब्दीसे लेकर पाँचवीं शताब्दी के मध्य विरचित तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक एक गद्य-पद्य मिश्रित रचना है / इसका गद्य भाग अधिकांशतः व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र से लिया गया है / इस प्रकीर्णक का उल्लेख उत्कालिक श्रुत के अन्तर्गत मिलता है | पाक्षिकसूत्र वृत्ति के अनुसार सौ वर्ष की आयु वाला मनुष्य प्रतिदिन जितना चावल खाता है, उसकी जितनी संख्या होती है उसी के उपलक्षणरूप संख्या विचार को तंदुलवैचारिक कहते हैं। 'तंदुलवैचारिक' नामक प्रस्तुत ग्रन्थ में मुख्य रूप से मानव-जीवन के पक्षों, यथा-गर्भावस्था, मानव शरीर-रचना, उसकी सौ वर्ष की आयु के दस विभाग, उनमें होने वाली शारीरिक स्थितियाँ, उसके आहार आदि के बारे में पर्याप्त विवेचन किया गया है। ग्रन्थकार मंगलाचरण के रूप में भगवान महावीर को वन्दना कर ग्रन्थ प्रारम्भ करता है। वर्णित विषय इसप्रकार हैं सर्वप्रथम इसमें गर्भावस्था का विस्तार से विवेचन किया गया है / सामान्यतया मनुष्य दो सौ साढ़े सत्तहत्तर दिन गर्भ में रहता है / इस संख्या में कभी-कभी कमी या वृद्धि भी हो सकती है / इसके पश्चात् गर्भ धारण करने में समर्थ योनि का स्वरूप बतला कर कहा गया है कि स्त्री पचपन वर्ष की आयु तक तथा पुरुष पचहत्तर वर्ष की आयु तक सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ होता है / माता के दक्षिण कुंक्षि में रहने वाला गर्भ पुत्र का, वाम कुक्षि में रहने वाला पुत्री का और मध्य कुक्षि में रहने वाला गर्भ नपुंसक का होता है / गर्भगत जीव सम्पूर्ण शरीर से आहार ग्रहण करता है तथा श्वाँस लेता है और छोड़ता है / इसके आहार को ओजाहार कहा जाता है। गर्भस्थ जीव के तीन अंग माता के एवं तीन अंग पिता के कहे गये हैं / गर्भ के मांस, रक्त और मस्तक का स्नेह माता के एवं हड्डी-मज्जाकेश-रोम-नाखून पिता के अंग माने गये हैं / गर्भ में रहा हुआ जीव यदि मृत्यु को प्राप्त हो जाय तो वह नरक एवं देवलोक दोनों में उत्पत्र हो सकता है। गर्भगत जीव माता के समान भावों एवं क्रियाओं वाला होता है / माता के उठने, बैठने, सोने अथवा दुःखी या सुखी होने पर वह भी उठता, बैठता, सोता है तथा दुःखी यासुखी होता है / 6 पुरुष, स्त्री और नपुंसक की उत्पत्ति के विषय में कहा है कि पुरुष का शुक्र अधिक एवं माता का ओज कम हो तो पुत्र, ओज अधिक और शुक्र कम हो तो पुत्री और दोनों बराबर हो तो नपुंसक की उत्पत्ति होती है। शरीर के अशुचित्त्व को प्रकट करते हुए कहा गया है कि अशुचि से उत्पत्र सदैव दुर्गन्ध युक्त विष्ठा से भरे हुए इस शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 43 गर्भावस्था के विवेचन के पश्चात् इसमें मनुष्य की सौ वर्ष की आयु को निम्न दस अवस्थाओं में विभक्त किया गया है-(१) बाला (2) क्रीड़ा (3) मंदा (4) बला (5) प्रज्ञा (6) हायणी (7) प्रपञ्चा(८) प्राग्भारा(९) मुन्मुखी और (१०)शायनी। इन अवस्थाओं में व्यक्ति को अपना समय जिनभाषित धर्म का पालन करने में बिताने की प्रेरणा दी गई है / 10 चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि की देह रिद्धि का निरूपण करते हुए कहा है कि पहले व्यक्ति हजारों, लाखों वर्ष जीवित रहते थे, उनमें जो विशिष्ठ, चक्रवर्ती, तीर्थंकर, यौगलिक आदि पुरुष होते थे, वे अत्यन्त सौम्य, सुन्दर, उत्तम लक्षणों से युक्त, श्रेष्ठ गज की गति वाले, सिंह की कमर के समान कटिप्रदेश वाले, स्वर्ण के समान कान्ति वाले, रागादि उपसर्गों से रहित, श्रीवत्स आदि शुभचिह्नों से चिह्नित वक्षस्थल वाले, पुष्ट हाथों वाले, चन्द्रमा, सूर्य, शंख, चक्र आदि के चिह्नों से युक्त हथेलियों वाले, सिंह के समान कन्धों वाले, सारस पक्षी के समान स्वर वाले, विकसित कमल के समान मुख वाले, उत्तम व्यञ्जनों, लक्षणों आदि से परिपूर्ण होते थे।११ प्रसंगोपरान्त सम्प्रतिकालीन मनुष्यों की देह, संहनन आदि की हानि काविवेचन शतायुष्य मनुष्य के आहार परिमाण का विवेचन करते हुए कहा है कि सौ वर्ष जीने वाला मनुष्य बीस युग, दो सौ अयन, छ: सौ ऋतु, बारह सौ महीने, चौबीस सौ पक्ष, चार सौ सात करोड़ अड़तालीस लाख चालीसहचार श्वासोच्छ्वास जीता है और इस समयावधि में वह साढ़े बाईस वाह तंदुल खाता है / एक वाह में चार सौ साठ करोड़ अस्सी लाख चावल के दाने होते हैं / इसप्रकार मनुष्य साढ़े बाईस वाह तंदुल खाता हुआ साढे पाँच कुंभ मूंग, चौबीस सौ आढक घृत और तेल, छत्तीस हजार पल नमक खाता है / यदि प्रतिमाह वस्त्र बदले तो सम्पूर्ण जीवन में बारह सौ धोती धारण करता है / यह भी स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य सौ वर्ष तक जीवित रहे और उसके पास यह सब उपभोग योग्य सामग्री हो तभी इस सामग्री का उपभोग वह कर पाता है / जिसके पास खाने को ही नहीं हो, वह इनका उपभोग कैसे करेगा.?१३ - समय, उच्छ्वास आदि का काल परिमाण बतलाते हुए कहा है कि एक उच्छ्वास निःश्वास में असंख्यात समय होते हैं / एक उच्छ्वास निःश्वास को ही प्राण कहते हैं, सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, सत्तहत्तर लवों का एक मुहूर्त, तीस मुहूर्त या साठ घड़ी का एक दिन-रात, पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष और दो पक्ष का एक महिना होता है / बारह मास का एक वर्ष होता है / एक वर्ष में 360 रात-दिन होते हैं / एक रातदिन मे एक लाख तेरह हजार एक सौ नब्बे उच्छ्वास होते हैं / तत्पश्चात् व्यक्ति को आयु की अनित्यता का बोध कराते हुए कहा है कि अज्ञानी व्यक्ति निद्रा, प्रमाद, रोग एवं भय की स्थितियों में अथवा भूख, प्यास और कामवासना की पूर्ति में अपने जीवन को व्यर्थ गंवाते है जबकि उन्हें चारित्ररूपी श्रेष्ठ धर्म का पालन करना चाहिए / 14 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया प्रस्तुत ग्रन्थ में मनुष्य की हड्डियों, शिराओं, अस्थियों, नसों, रोमकूपों आदि का संख्यात्मक विवेचन विस्तारपूर्वक निरूपित है।१५ ग्रन्थ में शरीर को सर्वथा अपवित्र और अशुचिमय बतलाते हुए कहा गया है कि शरीर की भीतरी दुर्गन्ध का ज्ञान नहीं होने के कारण ही पुरुष स्त्री के शरीर को रागयुक्त होकर देखता है और चुम्बन आदि के द्वारा शरीर से निकलने वाले अपवित्र स्त्रावों का पान करता है / अतः व्यक्ति को इस दुर्गन्धयुक्त शरीर में आसक्त नहीं होना चाहिए / 16 प्रस्तुत ग्रन्थ में नारी-स्वभाव का चित्रण करते हुए कहा गया है कि स्त्रियाँ स्वभाव से कुटिल, अविश्वास का घर, व्याकुल चित्त वाली, हजारों अपराधों की कारणभूत, पुरुषों का वध स्थान, लज्जा की नाशक, कपट का आश्रय स्थान, शोक की जनक, दुराचार का घर, ज्ञान को नष्ट करने वाली, कुपित होने पर जहरीले साँप की तरह, दुष्ट हृदया होने से व्याघ्री की तरह और चंचलता में बन्दर की तरह, क्षणभर में प्रसन या रूष्ट होने वाली, किंपाक फल की तरह बाहर से अच्छी लगने वाली किन्तु कटु फल प्रदान करने वाली, अविश्वसनीय, दुःख से पालित, रक्षित और मनुष्य की दृढ़ शत्रु हैं / ये साँप के समान कुटिल हृदय वाली; मित्र और परिजनों में फूट डालने वाली, कृतघ्न और सर्वाङ्ग जलाने वाली होती हैं। ___ आगे कहा है कि नानाप्रकार से पुरुषों को मोहित करने के कारण महिलाएँ, पुरुषों को मद युक्त बनाती हैं इसलिए प्रमदा, महान् कष्ट उत्पन्न कराती हैं इसलिए महिलिका तथा योग-नियोग से पुरुषों को वश में करती हैं इसलिए योषित कही जाती हैं / स्त्रियाँ विभिन्न हाव-भाव, विलास, अंगार, कटाक्ष, आलिङ्गन आदि द्वारा पुरुषों को आकृष्ट करती हैं / सैकड़ों दोषों की गागर और अनेक प्रकार से बदनामी का कारण होती हैं / स्त्रियों के चरित्र को बुद्धिमान पुरुष भी नहीं जान सकते हैं फिर साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है ? ऐसा कहकर व्यक्ति को स्त्रियों का सर्वथा त्याग करने की प्रेरणा दी गई है / 17 अन्त में धर्म का माहात्म्य बताते हुए कहा है कि धर्म रक्षक है, धर्म ही शरणभूत है। धर्म से ही ज्ञान की प्रतिष्ठा होती है और धर्म से ही मोक्ष पद प्राप्त होता है / देवेन्द्र और चक्रवर्तियों के पद भी धर्म के कारण ही प्राप्त होते हैं और अन्ततः उसी से मुक्ति की प्राप्ति भी होती है / 18 (3) चन्द्रकवेध्यक प्रकीर्णक प्रकीर्णक ग्रन्थों में चन्द्रकवेध्यक प्रकीर्णक ही एक ऐसा प्रकीर्णक है जिसके भित्रभिन्न आगम ग्रन्थों में नाम भी भित्र-भित्र प्राप्त होते हैं, यथा-चंदावेज्झयं, चंदगवेझं, चंदाविज्झयं, चंदयवेज्झं, चंदगविज्झं और चंदगविज्झयं / इन भिन्न-भित्र नामों के कई संस्कृत रूपान्तरण भी बनते हैं, जैसे-चन्द्रावेध्यक, चन्द्रवेध्यक, चन्द्रकवेध्यक, चन्द्राविध्यक, चन्द्रविद्या और चन्द्रकविध्यक / जैनविद्या के बहुश्रुत विद्वान पं० दलसुख मालवणिया के अनुसार इस ग्रन्थ का चन्द्रकवेध्यक नाम सर्वाधिक उपयुक्त है / * * व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 45 चन्द्रकवेध्यक' नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि इस ग्रन्थ में आचार के जो नियम आदि बताए गये हैं उनका पालन कर पाना चन्द्रकवेध (राधा-वेध) के समान ही मुश्किल है / इस ग्रन्थ में सात द्वारों से सात गुणों का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार हैं 1. विनयगुण 2. आचार्य गुण 3. शिष्यगुण 4. विनय-निग्रहगुण 5. ज्ञानगुण ६.चारित्रगुण और 7. मरणगुण / प्रारम्भ में ग्रन्थकार मंगलाचरण करते हुए कहता है कि ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले तथा लोक में ज्ञान का उद्योत करने वाले जिनवरों को नमस्कार हो / ग्रन्थकार के इस मंगलाचरण से यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सामान्यतया रत्नत्रय सम्यगज्ञान, सम्यगदर्शन और सम्यगचारित्र तीनों का नामोल्लेख साथ-साथ ही होता है तो फिर यहाँ ज्ञान और दर्शन के साथ चारित्रका उल्लेख क्यों नहीं हुआ है ? किन्तु इस प्रश्न का समाधान करते हुए ग्रन्थकार गाथा 77 में कहता है कि जो ज्ञान है वही क्रिया है (अर्थात् चारित्र है)। इस कथन से प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार ने सम्यगचारित्र का समावेश सम्यग्ज्ञान में ही कर दिया है / यह कथन ग्रन्थकार का अपना पृथक चिन्तन है / अन्य किसी आगम ग्रन्थ में यह शैली अपनाई गई हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता / ग्रन्थकार इस सूत्र को मोक्षमार्ग में ले जाने वाला सूत्र कहता है / विनयगुण नामक प्रथम द्वार के अनुसार किसी शिष्य की महानता उसके द्वारा अर्जित व्यापक ज्ञान पर निर्भर नहीं है वरन् उसकी विनयशीलता पर आधारित है / गुरुजनों का तिरस्कार करने वाला विनय रहित शिष्य लोक में कीर्ति और यश को प्राप्त नहीं करता है, किन्तु जो विनयपूर्वक विद्या ग्रहण करता है वह शिष्य सर्वत्र विश्वास और कीर्ति प्राप्त करता विद्या और गुरु का तिरस्कार करने वाले जो व्यक्ति मिथ्यात्व से युक्त होकर लोकैषणा में फँसे रहते हैं ऐसे व्यक्तियों को ऋषिघातक तक कहा गया है / विद्या को इस लोक में ही नहीं, परलोक में भी सुखप्रद बतलाया है / .. विद्याप्रदाता आचार्य एवं शिष्य के विषय में कहा है कि जिसप्रकार समस्त प्रकार की विद्याओं के प्रदाता गुरु कठिनाई से प्राप्त होते हैं उसीप्रकार चारों कषायों तथा खेद से रहित सरलचित्त वाले शिक्षक एवं शिष्य भी मुश्किल से प्राप्त होते हैं।६ विनयगुण के पश्चात आचार्यगुण की चर्चा करते हुए कहा गया है कि पृथ्वी के समान सहनशील, पर्वत की तरह अकम्पित, धर्म में स्थित चन्द्रमा की तरह सौम्यकांति वाले, समुद्र के समान गम्भीर तथा देश, काल के जानकार आचार्यों की सर्वत्र प्रशंसा होती है / 7 आचार्यों की महानता के विषय में कहा गया है कि आचार्यों की भक्ति से जहाँ जीव इस लोक में कीर्ति और यश प्राप्त करता है वहीं परलोक में विशुद्ध देवयोनि और धर्म में सर्वश्रेष्ठ बोधि को प्राप्त करता है / आगे कहा गया है,कि इस लोक के जीव तो क्या देवलोक में स्थित देवता भी अपने आसन व शय्या आदि का त्याग कर अप्सरा समूह के साथ आचार्यों की वन्दना करने के लिए जाते हैं।" Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ० सुरेश सिसोदिया त्याग और तपस्या से भी महत्त्वपूर्ण गुरुवचन का पालन मानते हुए कहा गया है कि अनेक उपवास करते हुए भी जो गुरु के वचनों का पालन नहीं करता, वह अनन्तसंसारी होता है। आचार्यगुण के पश्चात् शिष्यगुण का उल्लेख हुआ है जिसमें कहा गया है कि नानाप्रकार से परिषहों को सहन करने वाले, लाभ-हानि में सुख-दुःख रहित रहने वाले, अल्प इच्छा में संतुष्ट रहने वाले, ऋद्धि के अभिमान से रहित, दस प्रकार की सेवा-सुश्रूषा में सहज, आचार्य की प्रशंसा करने वाले तथा संघ की सेवा करने वाले एवं ऐसे ही विविध गुणों से सम्पन्न शिष्य की कुशलजन प्रशंसा करते हैं / 1deg ___ आगे कहा गया है कि समस्त अहंकारों को नष्ट करके जो शिष्य शिक्षित होता है, उसके बहुत से शिष्य होते हैं, किन्तु कुशिष्य के कोई भी शिष्य नहीं होते / शिक्षा किसे दी जाए, इस सम्बन्ध में कहा गया है कि किसी शिष्य में सैकड़ों दूसरे गुण भले ही क्यों न हों, किन्तु यदि.उसमें विनयगुण नहीं है तो वैसे पुत्र को भी वाचना न दी जाए / फिर गुण विहीन शिष्य को तो क्या ? अर्थात् उसे तो वाचना दी ही नहीं जा सकती / 11 विनय-निग्रह नामक चतुर्थ परिच्छेद में विनय को मोक्ष का द्वार बतलाया गया है और सदैव विनय का पालन करने की प्रेरणा दी गई है तथा कहा है कि शास्त्रों का थोड़ा जानकार पुरुष भी विनय से कर्मों का क्षय करता है / 12 आगे कहा गया है कि सभी कर्मभूमियों में अनन्तज्ञानी जिनेन्द्र देवों के द्वारा भी सर्वप्रथम विनयगुण को प्रतिपादित किया गया है तथा इसे मोक्षमार्ग में ले जाने वाला शाश्वत गुण कहा है / मनुष्यों के सम्पूर्ण सदाचरण का सारतत्त्व भी विनय में ही प्रतिष्ठित होना बतलाया है / इतना ही नहीं, आगे कहा है कि विनय रहित तो निर्ग्रन्थ साधु भी प्रशंसित नहीं होते / 13 ___ ज्ञानगुण नामक पाँचवें द्वार में ज्ञानगुण का वर्णन करते हुए कहा है कि वे पुरुष धन्य हैं, जो जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट अति विस्तृत ज्ञान को समग्रतया नहीं जानते हुए भी चारित्र सम्पन्न हैं / ज्ञात दोषों का परित्याग और गुणों का परिपालन, ये ही धर्म के साधन कहे गये हैं / आगे कहा गया है कि जो ज्ञान है वही क्रिया या आचरण है, जो आचरण है वही प्रवचन अर्थात जिनोपदेश का सार है और जो प्रवचन का सार है, वही परमतत्त्व है।१४ ज्ञान की महत्ता का प्रतिपादन करते हए कहा गया है कि इस लोक में अत्यधिक सुन्दर तथा विलक्षण होने से क्या लाभ ? क्योंकि लोक में तो चन्द्रमा की तरह लोग विद्वान के मुख को ही देखते हैं / ज्ञान ही मुक्ति का साधन है, क्योंकि ज्ञानी व्यक्ति संसार में परिभ्रमण नहीं करता है / साधक के लिए कहा गया है कि जिस एक पद के द्वारा व्यक्ति वीतराग के मार्ग में प्रवृत्ति करता है, मृत्यु समय में भी उसे नहीं छोड़ना चाहिए / 15 चारित्रगुण नामक छठे द्वार में उन पुरुषों को प्रशंसनीय बतलाया गया है, जो गृहस्थरूपी बन्धन से पूर्णतः मुक्त होकर जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट मुनि-धर्म के आचरण हेतु प्रवृत्त होते हैं / पुनः दृढ धैर्य वाले मनुष्यों के विषय में कहा है कि वे दुःखो के Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 47 पार चले जाते हैं / आगे यह भी कहा गया है कि जो उद्यमी पुरुष क्रोध, मान, माया, लोभ, अरति और जुगुप्सा को समाप्त कर देते हैं, वे परम सुख को खोज पाते हैं।१६चारित्रशुद्धि के विषय में कहा गया है कि पाँच समिति और तीन गुप्तियों में जिसकी निरन्तर मति है तथा जो राग-द्वेष नहीं करता है, उसी का चारित्र शुद्ध होता हे / 17 ग्रन्थ में एक प्रश्न उपस्थित किया गया है कि सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र दोनों एक साथ उपस्थित हो जाएँ तो बुद्धिमान पुरुष वहाँ किसे ग्रहण करे ? अर्थात किसे प्राथमिकता दे ? इसके प्रत्युत्तर में कहा गया है कि बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह दर्शन को पकड़ रखे, क्योंकि चारित्र रहित व्यक्ति तो भविष्य में सम्यक्चारित्र का अनुसरण करके सिद्ध हो सकते हैं, किन्तु दर्शनरहित व्यक्ति कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता / 18 इसप्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में दर्शन की प्राथमिकता को स्वीकार किया गया है। अन्त में ग्रन्थकार मरणगुण का प्रतिपादन करते हुए समाधिमरण की उत्कृष्टता का बोध कराते हुए कहता है कि विषयसुखों का निवारण करने वाली पुरुषार्थी आत्मा मृत्यु समय में समाधिमरण की गवेषणा करने वाली होती है। आगे कहा गया है कि आगम ज्ञान से युक्त किन्तु रसलोलुप साधुओं में कुछ ही समाधिमरण प्राप्त कर पाते हैं किन्तु अधिकांश का समाधिमरण नहीं होता है / 19 ___ ग्रन्थ में कहा गया है कि विनिश्चित बुद्धि से अपनी शिक्षा का स्मरण करने वाला व्यक्ति ही कसे हुए धनुष पर तीर चढ़ाकर चन्द्र अर्थात् यन्त्रचालित पुतली के अक्षिकागोलक को वेध पाता है किन्तु जो व्यक्ति थोड़ा सा भी प्रमाद कर जाता है तो वह लक्ष्य को नहीं वेध पाता / 20 समाधिमरण के विषय में कहा गया है कि सम्यक् बुद्धि को प्राप्त, अन्तिम समय में साधना में विद्यमान, पाप कर्म की आलोचना, निन्दा और गर्दा करने वाले व्यक्ति का ही समाधिमरण होता है / यहाँ मृत्यु के अवसर पर कृतयोग वाला कौन होता है, इस पर भी चर्चा की गई है / 21 ... कषायों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि जिस मनुष्य ने करोड़ पूर्व वर्ष से कुछ कम वर्ष तक चारित्र का पालन किया हो, ऐसे दीर्घ संयमी व्यक्ति के चारित्र को भी ये कषाय क्षणभर में नष्ट कर देते हैं / 22 ग्रन्थ में उन साधुओं को धन्य कहा गया है जो सदैव राग रहित, जिन वचनों में लीन तथा निवृत्त कषाय वाले हैं एवं आसक्ति और ममता रहित होकर अप्रतिबद्ध विहार करने वाले, निरन्तर सद्गुणों में रमण करने वाले तथा मोक्षमार्ग में लीन रहने वाले हैं / 23 तत्पश्चात् समाधिमरण का उल्लेख करते हुए आसक्ति त्याग पर बल दिया गया है / 24 ग्रन्थ का समापन यह कहकर किया गया है कि विनयगुण, आचार्यगुण, शिष्यगुण, विनय-निग्रहगुण, ज्ञानगुण, चारित्रगुण और मरणगुण विधि को सुनकर उन्हें उसी प्रकार Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया धारण करें, जिसप्रकार वे शास्त्र में प्रतिपादित हैं / इसप्रकार की साधना से गर्भवास में निवास करने वाले जीवों के जन्म-मरण, पुनर्भव, दुर्गति और संसार में गमनागमन समाप्त. हो जाते हैं / 25 (4) गणिविद्या प्रकीर्णक इस प्रकीर्णक का उल्लेख नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में प्राप्त होता है। नन्दीचूर्णि में गणिविद्या का परिचय इसप्रकार दिया गया है-गण अर्थात् बाल और वृद्ध मुनियों का गच्छ, वह गण जिसके नियन्त्रण में है वह गणि, विद्या का अर्थ है ज्ञान, ज्योतिष-निमित्त विषय के ज्ञान से दीक्षा, सामायिक, व्रतोपस्थापना, श्रूतसम्बन्धित उद्देश, समुद्देश की अनुज्ञा, गण का आरोपण, दिशा की अनुज्ञा तथा क्षेत्र से निर्गमन और प्रवेश आदि कार्य जिस तिथि, करण, नक्षत्र, मुहूर्त और योग में करने के लिए निर्देश जिस अध्ययन में है उसको गणिविद्या कहते हैं / 3 हरिभद्रसूरिकृत नन्दीसूत्र वृत्ति में इस प्रकीर्णक का परिचय इसप्रकार दिया गया है-गुणों का समूह जिसमें है वह गणि, गणि आचार्य भी कहा जाता है, उसकी विद्या अर्थात ज्ञान गणिविद्या कही जाती है। यहाँ सामान्य होते हुए भी यह विशेष है कि प्रव्रज्यादि कार्यों में तिथि-करण आदि जानने में ज्योतिष-निमित्त के ज्ञान का उपयोग करना चाहिए, अन्यथा दोष लगता है, हानि हो सकती है। प्रस्तुत ग्रन्थ में दिवस, तिथि, नक्षत्र, करण, ग्रह, मुहूर्त, शकुनबल, लग्नबल और निमित्तबल, इन नौ विषयों का निरूपण है / प्रारम्भ में ग्रन्थकार अपने वर्ण्य-विषय का अभिधेय कहता है / तत्पश्चात् इन नौ विषयों का विस्तारपूर्वक निरूपण करता है। प्रथम दिवस द्वार में कहा गया है कि उभयपक्षों के पराक्रमी लग्न वाले दिवसों और निर्बल एवं विषम रात्रियों के सम्बन्ध में बलाबल विधि को जानना चाहिए / 5 द्वितीय तिथिद्वार में चन्द्रमा की एक कला को तिथि माना गया है / ग्रन्थ में कृष्ण एवं शक्ल दोनों पक्षो की 15-15 तिथियों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि प्रदिपदा एवं द्वितीया में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए / तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी एवं त्रयोदशी विघ्नरहित एवं कल्याणकारक हैं। इन तिथियों का नामकरण नन्दा, भद्रा, विजया, रिक्ता, (तुच्छा) पूर्णा आदि रूपों में किया गया है / श्रमणों के लिए कहा गया है कि वे नन्दा, जया एवं पूर्णा संज्ञक तिथियों में शैक्ष को दीक्षित करें / नन्दा एवं भद्रा तिथियों में नवीन वस्त्र धारण करें एवं पूर्णा तिथि में अनशन करें। तृतीय नक्षत्र द्वार में कहा गया है कि सन्ध्यागत नक्षत्र में कलह, विलम्बिन नक्षत्र में विवाद, विड्डेर नक्षत्र में शत्रू विजयी होता है / रविगत नक्षत्र में मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है / पुष्य, हस्त, अभिजित, अश्विनी तथा भरणी-इन नक्षत्रों मे पादोपगमन अनशन करना चाहिए / मृगशीर्ष, आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, घनिष्ठा, पुणर्वसू, मूल, अश्लेषा, हस्त तथा चित्रा नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि कराने वाले हैं / पूणर्वसू, पुष्य, श्रवण, घनिष्ठा-इन चार नक्षत्रों में लोच Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 49 नहीं करना चाहिए, किन्तु कृतिका, विशाखा, मघा एवं भरणी-इन चार नक्षत्रों में लोच करना चाहिए। तीनों उत्तरा एवं रोहिणी नक्षत्र में शिष्य को प्रव्रज्या, उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) एवं गणी या वाचक पद देने की अनुज्ञा है / आर्द्रा, अश्लेषा, ज्येष्ठा तथा मूल-इन चार नक्षत्रों में गुरु के पास प्रतिमा धारण करने को कहा गया है / घनिष्ठा, शतभिषज, स्वाति, श्रवण और पुणर्वसू इन नक्षत्रों में गुरु की सेवा और चैत्यों की पूजा करनी चाहिए / चतुर्थ करण द्वार में ग्यारह करणों का उल्लेख मिलता है / बव, बालव, कालव, स्त्रीलोचन, गर वणिज और विष्टि-ये चर करण हैं जबकि शकुनि, चतुष्पद, नाग, किंस्तुघ्न स्थिर करण हैं। ग्रन्थ में कहा गया है कि बव, बालव, कालव, वणिज, नाग एवं चतुष्पद करण में प्रव्रज्या देनी चाहिए / बव करण में व्रतों में उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) एवं गणि, वाचक आदि पद प्रदान करना चाहिए / शकुनि एवं विष्टिकरण पादोपगमन संथारे के लिए शुभ माने गवे पंचम ग्रह दिवस द्वार में निम्न सात दिवस निरूपित हैं-(१) रवि, (2) सोम, (3) मंगल, (4) बुध, (5) बृहस्पति, (6) शुक्र एवं (7) शनि / गुरु, शुक्र एवं सोमवार को दीक्षा, व्रतों में उपस्थापना एवं गणि, वाचक आदि पद प्रदान करना चाहिए तथा रविवार, मंगलवार एवं शनिवार संयम-साधना एवं पादोपगमन आदि समाधिमरण की क्रियाओं के लिए शुभ माना गया है / 11 छठे मुहूर्त द्वार में दिन के पन्द्रह मुहूर्त रुद्र, श्रेयस, मित्र, आरभट, सौमित्र, वेरेय, श्रवसु, वृत्त, रोहण, बल, विजय, नैऋत्य, वरुण, अर्यमन द्वीप एवं सूर्य बताये गये हैं तथा . कुछ रात्रि में किसी भी कार्य को करने का उल्लेख नहीं है / मित्र, नन्दा, सुस्थित, अभिजित, चन्द्र, वरुण, अग्निवेश, ईशान, आनन्द एवं विजय इन मुहूर्तों में शैक्ष को उपस्थापना (महाव्रतों में दीक्षित) और गणि एवं वाचक पद प्रदान करने तथा ब्रह्म, वलय, वायु, वृषभ तथा तरुण मुहूर्त में अनशन, पादोपगमन एवं समाधिमरण ग्रहण करने का कथन है / 12 सातवें शकुनबल द्वार में बताया गया है कि पुल्लिंग नाम वाले शकुनों में शैक्ष को दीक्षा प्रदान करें / स्त्री नाम वाले शकुनों में समाधिमरण ग्रहण करें, नपुंसक नाम वाले शकुनों में सभी शुभ कार्यों का त्याग करें एवं मिश्रित शकुनों में सभी आरम्भों का त्याग करें / 13 आठवें लग्नबल द्वार में कहा गया है कि अस्थिर राशियों वाले लग्नों में शैक्ष को दीक्षा प्रदान करना, स्थिर राशियों वाले लग्नों मे व्रत में उपस्थापना करना, एकावतारी लग्नों में स्वाध्याय एवं होरा लग्नों में शैक्ष को दीक्षा प्रदान करनी चाहिए / तदनन्तर सौम्य लग्नों में संयमाचरण एवं क्रूर लग्नों में उपवास आदि तथा राहू एवं केतु लग्नों में सर्वकार्य त्वाग करने का निरूपण है / 14 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया . नवें निमित्तबल द्वार के अनुसार पुरुष नाम वाले निमित्तों में पुरुष दीक्षा ग्रहण करे एवं स्त्री नाम वाले निमित्तों में स्त्री दीक्षा ग्रहण करे / नपुंसक संज्ञा वाले निमित्तों में कृतअकृत कार्यों का विवेचन किया गया है / तत्पश्चात् अप्रशस्त निमित्तों में समस्त कार्यों का त्याग करना चाहिए, ऐसा विवेचन है / 15 ग्रन्थ का समापन यह कहते हुए किया है कि दिवसों से तिथि, तिथियों से नक्षत्र, नक्षत्रों से करण, करणों से ग्रह, ग्रहों से मुहूर्त, मुहूर्तों से शकुन, शकुनों से लग्न और लग्नों - से निमित्त बलवान होते हैं / 16 (5) ऋषिभाषित ऋषिभाषित प्रकीर्णक साहित्य में प्राचीनतम ग्रन्थ है / इस ग्रन्थ में पैतालीस अध्याय हैं / समवायांगसूत्र की सूचनानुसार इसमें चंवालीस अध्याय थे। संभवतः उत्कटवादियों का अध्याय जोड़ने से इसके अध्यायों की संख्या पैतालीस हो गई हों / पैतालीस अध्यायों में प्रत्येक में एक ऋषि के उपदेशों का संकलन है / इसप्रकार इस ग्रन्थ में पैतालीस ऋषियों के उपदेशों का संकलन है। प्रथम अध्याय में देवऋषि नारद के उपदेशों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन चार प्रकार के शौचों (पवित्रताओं) का उल्लेख किया गया है / वस्तुतः जैन परम्परा के पंच महाव्रतों को ही यहाँ शौचों के रूप में उल्लिखित किया गया है / इस अध्याय के अन्त में साधक को सत्यवादी, दत्तभोजी और ब्रह्मचारी होने का निर्देश दिया गया है / इन्हें ही आचारांगसूत्र में त्रियाम कहा गया है / द्वितीय अध्याय में वज्जीयपुत्त (वात्सीयपुत्र) के उपदेशों का संकलन है / इस अध्याय में मुख्य रूप से कर्म सिद्धान्त का विवेचन है / इसमें बताया गया है कि कर्म ही सर्वदुःखों का मूल है और कर्म का मूल स्रोत मोह है / बीज और अंकुर की भाँति कर्म तथा जन्म-मरण और दुःख की परम्परा चलती रहती है / वज्जीयपुत्त के इन उपदेशों की समरूपता हमें उत्तराध्ययन के तीसवें अध्याय में भी मिलती है / विशेषता यह है कि वज्जीयपुत्त नामक इस अध्याय में बौद्ध परम्परा के अनुरूप कर्म-सन्तति की चर्चा की गई है और अन्त में यह बताया गया है कि ज्ञान और चित्त की शुद्धि से ही कर्म परम्परा का क्षय होता है तथा साधक निर्वाण को प्राप्त होता है / तृतीय अध्याय में असित दैवल के उपदेशों का संकलन है / असित देवल का उल्लेख जैन, बौद्ध और औपनिषदिक तीनों ही धाराओं में मिलता है / इनके उपदेशों का मुख्य सार यह है कि व्यक्ति को क्रोध, मान, माया और लोभइन चारों का त्याग करना चाहिए, क्योंकि ये चारों ही बन्धन और दुःख के मूल कारण हैं / 6 वस्तुतः इस अध्याय में जैन परम्परा के अनुरूप चारों कषायों पर विजय पाने का निर्देश किया गया है। चौथा अध्याय अंगिरस भारद्वाज के उपदेशों का संकलन है / इस अध्याय में मनुष्य के छद्मपूर्ण जीवन का चित्रण करते हुए कहा गया है कि मनुष्य के हृदय को जान पाना Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 51. अत्यन्त कठिन है / इसमें कहा गया है कि व्यक्ति के मन में कुछ अन्य बातें होती हैं, वह करता कुछ अन्य है और वह भाषण अन्य ही रूप से करता है। इसप्रकार इस अध्याय में मनुष्य के दोहरे जीवन का सम्यक् चित्रण प्रस्तुत किया गया है / अध्याय के अन्त में बताया गया है कि व्यक्ति की साधुता या दुराचारिता का आधार बाह्य समाज से मिलने वाली प्रशंसा या निन्दा नहीं है, अपितु उसकी अन्तर की मनोवृत्ति ही है / पाँचवे अध्याय में पुष्पशालपुत्र के उपदेशों का संकलन है / इस अध्याय में पुष्पशाल के उपदेशों का प्रारम्भ निम्न शब्दों से होता है-'अंजलिपूर्वक पृथ्वी पर मस्तक रखकर उन्होंने समस्त शयनासन तथा भोजनपान का त्याग कर दिया। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें समाधिमरण का उपदेश दिया गया है / इसके अतिरिक्त इस अध्याय में प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह के त्याग का भी निर्देश मिलता है। साथही क्रोध और अहंकार का त्याग करके आत्मज्ञान के द्वारा समाधि की प्राप्ति का निर्देश किया गया है / 11 वल्कलचीरी नामक छठे अध्याय में मुख्य रूप से नारी के दुगुणों की चर्चा करते हुए स्त्री के त्याग का निर्देश किया गया है / 12 सातवें अध्याय में कुम्मापुत्त (कूर्मापुत्र) के उपदेशों का संकलन है / इसमें तपस्या के द्वारा सर्वदुःखों का क्षय करने का उपदेश देते हुए इस बात पर बल दिया गया है कि व्यक्ति को आलस्य का परित्याग करना चाहिए / 13 आगे यह भी कहा है कि जो व्यक्ति कामनाओं से ऊपर उठ जाता है, वही प्रव्रज्या प्राप्त कर सकता है / 14 . आठवें केतलीपत्त (केतलीपत्र) नामक अध्याय में ग्रन्थि छेद का उपदेश दिया गया है / इसमें बताया गया है कि ग्रन्धि के कारण समाधि का लोप होता है, इसलिए राग-द्वेष रूप ग्रन्थि जाल का छेदन करके ही दुःखों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है / 15 / / ... नवें महाकाश्यप नामक अध्याय में पुनः कर्मसिद्धान्त का निरूपण है / इस अध्याय में बताया गया है कि जब तक कर्म हैं तब तक जन्म-मरण की परम्परा है / अतः कर्ममूल को समाप्त कर देना आवश्यक है / कर्ममूल की समाप्ति के लिए इसमें संवर और निर्जरा का उपदेश दिया गया है / 16 तेतलीपुत्र नामक दसवें अध्याय में मुख्यरूप से सांसारिक प्राणियों के प्रति अविश्वास की बात कही गई है / इस अध्याय में तेतलीपुत्र कहते हैं-'दूसरे श्रमण-ब्राह्मण श्रद्धा (आस्था) की बात कहते हैं, किन्तु मैं अकेला ऐसा हूँ जो अनास्था का प्रतिपादन करता हूँ / 17 वस्तुतः यह अनास्था और अविश्वास ही उनके वैराग्य का कारण है / . मंखलिपुत्त (मंखलिपुत्र) नामक ग्यारहवें अध्याय में मंखलिपुत्त के उपदेशों का संकलन है। इस अध्याय में उन्होंने यह बताया है कि वायी कौन है ? 8 अर्थात् ऐसा गुरु कौन है, जो व्यक्ति को संसार-सागर से पार करा सके / इसप्रकार इस अध्याय में मुख्य रूप से कुगुरु और सुगुरु के भेद को स्पष्ट करते हुए सुगुरु का महत्त्व प्रतिपादित किया गया Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 : डॉ. अशोक कुमार सिंह एवं डॉ० सुरेश सिसोदिया बारहवें अध्याय में याज्ञवल्क्य ऋषि के उपदेशों का संकलन है / इसमें लौकैषणा और वित्तैषणा के त्याग पर बल दिया गया है और यह कहा है कि मुनि को गाय, कपोत आदि के समान अन्य किसी को कष्ट नहीं देते हुए अपनी भिक्षाचर्या करनी चाहिये / 19 / तेरहवें अध्याय में मेतेज्ज भयालि के उपदेशों का संकलन है / इसमें प्रतिपादित किया गया है कि सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती है / जिसकी उत्पत्ति होती है उसी का विनाश होता है / जिसप्रकार फल का आकांक्षी वृक्ष का सिंचन करता है, किन्तु जिसको फल की आकांक्षा नहीं है, वह वृक्ष का सिंचन नहीं करता है / उसी प्रकार साधक को भी फलाकांक्षा से ऊपर उठकर संसाररूपी वृक्ष का सिंचन नहीं करना / चाहिए / 20 चौदहवें बाहुक नामक अध्याय में इस लोक और परलोक की आकांक्षा से ऊपर उठने का निर्देश दिया गया है / इसमें बताया गया है कि आकांक्षाओं से ऊपर उठकर ही मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है / 21 मधुरायन नामक पन्द्रहवें अध्याय में मुख्यरूप से यह बताया गया है कि दुःखों का मूल कारण व्यक्ति का पापकर्मों में लीन होना है / जो व्यक्ति पापकर्म करता है, वह स्वतः : ही दुःखों को आमन्त्रण देता है / इसलिए दुःख के मूल कारण पापकर्मों का परित्याग करना चाहिए / 22 सोलहवें शौर्यायण नामक अध्याय में शौर्यायण ऋषि के उपदेश संकलित हैं। इसमें कहा गया है कि जो मनोज्ञ विषयों के प्रति राग और अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष करता है, वह पापकर्म का बन्ध करता है / इन्द्रियों के वेग को स्पष्ट करते हुए कहा है कि व्यक्ति को श्रोत, चक्षु, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शेन्द्रिय के मनोज्ञ विषय के प्राप्त होने पर उनमें आसक्त, अनुरक्त और लोलुप नहीं होना चाहिए / 23 . विदुर नामक सत्रहवें अध्याय में विदुर ऋषि के उपदेशों का संकलन है / इसमें कहा गया है कि वही विद्या महाविद्या या सर्व विद्याओं में श्रेष्ठ है जो दुःखों से मुक्त कराती है / 24 इस अध्याय में स्वाध्याय और ध्यान पर भी विशेष बल दिया गया है / 25 अठारहवें अध्याय में वारिषेण कृष्ण के उपदेश संकलित हैं / प्रस्तुत अध्याय में यह प्रतिपादित किया गया है कि जो व्यक्ति प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक और क्रोध से लेकर मिथ्या-दर्शन शल्य तक के वयाँ (अनाचरणीय या पापकर्मों) का सेवन करता है, वह हस्त-छेदन या पाप-छेदन को प्राप्त होता है और जो इन वज्र्यो (पापों) का सेवन नहीं करता है, वह सिद्ध स्थान को प्राप्त करता है / 26 उन्नीसवें अध्याय में आरियायण ऋषि के पदों का संकलन है इसमें यह कहा गया है कि अनार्य भाव, अनार्यकर्म, और अनार्य मित्र का वर्जन करना चाहिए / इनका संसर्ग करने वाला भवसागर में परिभ्रमण करता है। इसके विपरीत इनसे मुक्त व्यक्ति आर्यत्व को प्राप्त होता है / अध्याय के अन्त में कहा गया है कि आर्य भाव, आर्य ज्ञान और आर्य चरित्र उचित है, अतः इनकी सेवा करनी चाहिए / 27 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 53 उत्कट ऋषि नामक बीसवें अध्याय में यद्यपि किसी ऋषि के नाम का उल्लेख नही है तथापि इस अध्याय में पाँच प्रकार के उत्कट बताये गए हैं-(१) दण्डोत्कट (2) रज्जुत्कट (3) स्तेनोत्कट (4) देशोत्कट और (5) सर्वोत्कट / उक्त पांच प्रकार के उत्कटों की चर्चा के पश्चात यह कहा गया है कि शरीर का विनाश होने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती अर्थात् पुनर्जन्म नहीं होता / 28 इक्कीसवाँ अध्याय गाथापतिपुत्र तरुण के उपदेशों से संबंधित है / प्रस्तुत अध्याय में उदाहरण पूर्वक यह समझाया गया है कि अज्ञान के कारण किस प्रकार मृग, पक्षी और हाथी पाश में बाँधे जाते है और मत्स्यों के कंठ वींधे जाते हैं / इसी प्रकार अनेक उदाहरणों से प्रस्तुत अध्याय में अज्ञान के दुष्प्रभावों को दिखाकर ज्ञान मार्ग के अनुसरण की प्रेरणा दी गयी है / 29 __बाईसवाँ अध्याय गर्दभालि ऋषि के उपदेशों से संबंधित है / प्रस्तुत अध्याय में विशेष रूप से पुरुष की प्रधानता और नारी की निन्दा का ही निरूपण हुआ है / नारी निन्दा करते हुए इस अध्याय में कहा गया है कि वे ग्राम और नगर धिक्कार के योग्य हैं जहाँ महिला शासन करती हों / इसीप्रकार वे पुरुष भी धिक्कार के योग्य हैं जो नारी के वश में हों / अध्याय के अन्त में बंधन के कारणों के सम्यक् परिज्ञान की शिक्षा देते हुए धर्म मार्ग का प्रतिपादन किया गया है / 30 रामपुत्त नामक तेईसवें अध्याय में रामपुत्त के उपदेश गद्य रूप में मिलते है / इसमें दो प्रकार के मरणों का उल्लेख है-(१) सुख पूर्वक मरण (समाधि पूर्वक मरण) और (2) दुःख पूर्वक मरण (असमाधि पूर्वक मरण) इस अध्याय में यह भी कहा गया है कि साधक ज्ञान के द्वारा जाने, दर्शन के द्वारा देखे, चारित्र के द्वारा संयम करें और तप के द्वारा अष्टविध कर्मरज का विधुनन करें / 31 उत्तराध्ययनसूत्र के पांचवें अध्याय में मरण के इन दो रूपों की चर्चा के साथ ही अट्ठाईसवें अध्याय में ज्ञान के द्वारा जानने, दर्शन के द्वारा श्रद्धा करने, चारित्र के द्वारा संयम करने तथा तप के द्वारा परिशोधन करने की बात कही गयी .. चौबीसवें हरिगिरि नामक अध्ययन में हरिगिरि ऋषि के उपदेशों का संकलन है / प्रस्तुत अध्याय में मुख्य रूप से कर्म सिद्धान्त की महत्ता और उसके स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है / तत्पश्चात कर्म के बंधन के रूप में मोह या अज्ञान की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि व्यक्ति मोहदशा के कारण किस प्रकार कर्म का बंधन करता है / यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि व्यक्ति स्वंय ही बंधन में आता है और स्वयं ही मुक्त भी हो सकता है / 32 ___पच्चीसवें अम्बड परिव्राजक अध्याय में अम्बड परिव्राजक के उपदेशों का संकलन है / प्रस्तुत अध्याय में अम्बड परिव्राजक की आचार परम्परा की विस्तृत विवेचना की गयी छब्बीसवें मातंग नामक अध्याय में मातंग ऋषि के उपदेशों का संकलन है / इस Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया अध्याय में मुख्य रूप से यह बताया गया है कि ब्राह्मण न तो धनुष और रथ से युक्त होता है और न ही शस्त्रधारी होता है / सच्चे ब्राह्मण को न तो झूठ बोलना चाहिए और न चोरी करनी चाहिए / 34 वारत्तक मानक सत्ताइसवें अध्याय में वारत्तक ऋषि के उपदेशों का संकलन है / प्रस्तुत अध्याय में आदर्श श्रमण कैसा होना चाहिए, इस तथ्य का चित्रण किया गया है / इसके अनुसार मुनि सांसारिक या गृहस्थों के सम्पर्क से विरत रहे तथा स्नेह बंधन को छोड़कर स्वाध्याय में तल्लीन रहे और चित्त के विकार से दूर रहकर निर्वाण मार्ग में लगा रहे / प्रस्तुत अध्याय में मुनि के जीवन के अकृत्य कार्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण हुआ __ अट्ठाईसवाँ अध्याय आर्द्रक ऋषि के उपदेशों का संकलन है। इसमें सांसारिक काम भोगों से दूर रहने का उपदेश दिया गया है, क्योंकि काम-वासनाएँ ही रोग और दुर्गति का कारण हैं / जब तक प्राणी काम रूपी शल्य का नाश नही कर देता तब तक वह संसार भ्रमण की परम्परा से मुक्त भी नहीं हो पाता / 36 वर्द्धमान नामक उन्तीसवें अध्याय में वर्द्धमान ऋषि के उपदेश संकलित हैं। वस्तुतः ये वर्द्धमान कोई अन्य नहीं अपितु स्वयं भगवान महावीर ही हैं क्योंकि जैन परम्परा में महावीर का पारिवारिक नाम वर्द्धमान ही है / प्रस्तुतः अध्याय में कहा गया है कि जो मन और कषायों को जीतकर सम्यक् तप करता है वह शुद्धात्मा अग्नि में दी गई हविष के समान प्रदीप्त होती है / इसप्रकार प्रस्तुत अध्याय पाँच इन्द्रियों और मन के संयम पर बल देता है / 37 तीसवाँ अध्याय वायु नामक ऋषि से संबंधित है / इस अध्याय में मुख्य रूप से कर्म सिद्धान्त का ही प्रतिपादन हुआ है / वायु ऋषि कहते हैं कि जैसा बीज होता है वैसा ही फल होता है / अच्छे कर्मों का फल अच्छा और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है / 38 कर्म सिद्धान्त के सामान्य प्रतिपादन के अतिरिक्त इस अध्याय में और कोई विशेष नवीन तथ्य नहीं मिलता है। इकतीसवें अध्याय में अर्हत पार्श्व के विचारों का संकलन है। इस अध्याय में पार्श्व के दार्शनिक एवं आचार संबंधी दोनो ही प्रकार के विचार उपलब्ध होते हैं / दार्शनिक दृष्टि से इसमें लोक का स्वरूप, जीव एवं पुद्गल की गति, कर्म और फल विपाक तथा मोक्ष के स्वरूप आदि की चर्चा है / आचार संबंधी चर्चा में चातुर्याम, कषाय, प्राणातिपात से मिध्या दर्शन शल्य पर्यन्त अठारह पापस्थानों की चर्चा है / 39 पिंग मानक बत्तीसवें अध्याय में पिंग ऋषि के उपदेशों का संकलन है / प्रस्तुत अध्याय में आध्यात्मिक कृषि की चर्चा करते हुए पिंग ऋषि कहते हैं कि सर्व प्राणियों के प्रति दया करने वाला जो भी व्यक्ति इसप्रकार की कृषि करता है, वह चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र, सिद्धि को प्राप्त करता है / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 55 तैतीसवें अध्याय में महाशालपुत्र अरुण के उपदेशों का संकलन है / इस अध्याय में कहा गया है कि भषा-व्यवहार और कर्म (आचरण) के आधार पर ही व्यक्ति के पण्डित या मूर्ख होने का निर्णय किया जा सकता है / अशिष्ट वाणी, दुष्कर्म और कार्य-अकार्य का विवेक अभाव मूर्ख के लक्षण हैं जबकि शिष्ट वाणी, सुकृत कर्म और कार्य-अकार्य के विवेक पंडितजन के लक्षण हैं / अध्याय के अन्त में यह कहा गया है कि जितेन्द्रिय और प्रज्ञावान साधकों को कल्याणकारी मित्रों का ही संसर्ग करना चाहिए / 1 ऋषिगिरि नामक चौंतीसवें अध्याय में ऋषिगिरि नामक ब्राह्मण परिव्राजक के उपदेशों का संकलन है / इसमें ऋषिगिरि मूरों या दुष्टजनों द्वारा दिए गये कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करने का निर्देश देते हैं / 42 पैतीसवें उद्दालक नामक अध्याय में उद्दालक ऋषि के उपदेश संकलित हैं। इसमें सर्वप्रथम क्रोधादि चार कषायों को वर्ण्य कहा गया है तथा इनका सेवन करने वाले का संसार परिभ्रमण अनन्त बतलाया गया है / तत्पश्चात् इस अध्याय में पंच इन्द्रियों, संज्ञाओं, त्रिदण्डों, त्रिशल्यों, त्रिगर्यो, और बाईस परिषहों से साधक को सर्वत्र जागृत रहने का निर्देश दिया गया है / 43 - छत्तीसवें नारायण (तारायण) नामक अध्याय में नारायण ऋषि के उपदेशों का संकलन है / इसमें मुख्य रूप से क्रोधाग्नि निवारण हेतु प्रेरणा देते हुए कहा गया है कि अग्नि तो एक ही भव (जीवन) को समाप्त करती है किन्तु क्रोधाग्नि तो अनेक भवों को समाप्त करती है. / क्रोधाग्नि के कारण धर्म, अर्थ और काम तीनों ही पुरुषार्थ नष्ट हो जाते हैं / अतः क्रोध का निरोध करना चाहिए / 44 . श्रीगिरि नामक सैतीसवें अध्याय में श्रीगिरि ऋषि के उपदेश संकलित हैं / इस अध्याय में श्रीगिरि सृष्टि की जल एवं अण्डे से उत्पत्ति होने संबंधी अवधारणा का खण्डन करते हैं / 45 अड़तीसवाँ अध्याय सारिपुत्त (सारिपुत्र) नामक ऋषि के उपदेशों का संकलन है। इस अध्याय का मुख्य प्रतिपाद्य सभी प्रकार की अतियों से बचकर मध्यम मार्ग की साधना करना है / प्रस्तुत अध्याय में सारिपुत्र साधनों पर बल न देकर साधना में पित्तवृत्ति की विशुद्धि पर बल देते हैं / 46 - उन्तालीसवें अध्याय में संजय ऋषि के अतिसंक्षिप्त उपदेश संकलित हैं / इसमें कहा गया है कि न तो पाप कृत्य स्वयं करना चाहिए और न ही दूसरों से करवाना चाहिए। यदि कारण वश करना पड़ा. हो या कभी कर लिया हो तो उसे बार-बार नहीं करें और ऐसे किये हुए पाप की आलोचना करनी चाहिए / 47 - चालीसवें अध्याय में द्वैपायन ऋषि के उपदेशों का संकलन है / इसमें इच्छा को अनिच्छा में परिवर्तित करने का निर्देश है / द्वैपायन का कहना है कि इच्छाओं के कारण ही प्राणी दुःख पाता है तथा इच्छाओं के वशीभूत हो वह माता-पिता, गुरुजन, राजा और देवता आदि की अवमानना कर देता है / इच्छा ही धन-हानि, बंधन, प्रिय-वियोग और Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 : डॉ. अशोक कुमार सिंह एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया जन्म-मरण का मूल है / अतः इच्छाओं पर विजय प्राप्त करनी चाहिए / वस्तुतः इच्छा रहित होना ही सुख का मूल है।४८ इन्द्रनाग नामक इकतालीसवें अध्याय में इन्द्रनाग ऋषि के उपदेश संकलित हैं / प्रस्तुत अध्याय में वे कहते हैं कि आजीविका के लिए किया जाने वाला तप तथा सुकृत निरर्थक है / मुनि वेश को आजीविका का साधना नहीं बनाना चाहिये / मुनि को विद्या, तंत्रमंत्र. दूत-कर्म, भविष्य फल कथन आदि से आजीविका प्राप्त नहीं करनी चाहिए।४९ वस्तुतः इनके उपदेश संयम की ही साधना का निरूपण करते हैं / ' प्रस्तुत ग्रन्थ के बयालसवें, तैंतालीसवें और चौवालीसवें अध्याय में क्रमशः सोम, यम और वरुण ऋषि के उपदेशों का अतिसंक्षेप में निरूपण हुआ है। सोम ऋषि का उपदेश है कि साधक ज्येष्ठ, मध्यम या कनिष्ठ किसी भी पद पर हो, वह अल्प से अधिक प्राप्त करने का प्रयत्न करे / 50 यम ऋषि का उपदेश है कि जो साधक लाभ में प्रसत्र और अलाभ में कुपित नही होता है, वही श्रेष्ठ है / 51 वरुण ऋषि कहते हैं कि जो राग-द्वेष से अप्रभावित रहता है वही सम्यक् निश्चय कर पाता है / 52 ग्रन्थ के अन्तिम पैंतालीसवें अध्याय में वैश्रमण ऋषि के उपदेशों का संकलन है। इसमें सर्वप्रथम काम के निवारण तथा पाप कर्म नहीं करने की प्रेरणा दी गई है / तत्पश्चात अहिंसा के महत्त्व को प्रस्तुत कर उसके पालन का निर्देश किया गया है / 53 (6) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रस्तुत प्रकीर्णक में कुल 225 गाथाएँ हैं / सभी गाथाएँ मध्यलोक में मनुष्य क्षेत्र अर्थात् ढाई-द्वीप के आगे के द्वीप एवं सागरों की संरचना को प्रकट करती हैं / इस ग्रन्थ में निम्न विवरण उपलब्ध होता है ग्रन्थ के प्रारम्भ में किसी प्रकार का मंगल अथवा किसी की स्तुति आदि नहीं करके ग्रन्धकर्ता ने सीधे विषयवस्तु का ही स्पर्श किया है / ग्रन्थ का प्रारम्भ मानुषोत्तर पर्वत के विवरणसे किया गया है / मानुषोत्तर पर्वत के स्वरूप को बतलाते हुए इसकी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, जमीन में गहराई तथा इसके ऊपर विभित्र दिशा-विदिशाओं में स्थित शिखरों के नाम एवं विस्तार परिमाण का विवेचन किया गया है। तत्पश्चात् नलिनोदक सागर, सुरारस सागर, क्षीरजलसागर, घृतसागर तथा क्षोदरससागर में गोतीर्थ से रहित विशेष क्षेत्रों का तथा नन्दीश्वर द्वीप का विस्तार परिमाण निरूपित है / अंजन पर्वत और उसके ऊपर स्थित जिनमंदिरों का वर्णन करते हुए अंजन पर्वतों की ऊँचाई, जमीन में गहराई, अधोभाग, मध्यभाग तथा शिखर-तल पर उसकी परिधि और विस्तार बतलाया गया है साथ ही यह भी कहा है कि सुन्दर भौरों, काजल और अंजन के समान कृष्णवर्ण वाले वे अंजन पर्वत गगनतल को छूते हुए शोभायमाम हैं। तत्पश्चात् जिनमन्दिरों की लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई का परिमाण बतलाने के साथ यह भी कहा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 57 गया है कि वहाँ नानामणिरत्नों से रचित मनुष्यों, मगरों, विहगों और व्यालों की आकृतियाँ शोभायमान हैं, जो सर्वरत्नमय, आश्चर्य उत्पन्न करने वाली तथा अवर्णनीय हैं / 5 ग्रन्थ में उल्लेख है कि अंजन पर्वतों के एक लाख योजन अपान्तराल को छोड़ने के बाद चार पुष्करिणियाँ हैं, जो एक लाख योजन विस्तीर्ण तथा एक हजार योजन गहरी हैं / ये पुष्करिणियाँ स्वच्छ जल से भरी हुई हैं / इन पुष्करिणियों की चारों दिशाओं में चैत्यवृक्षों से युक्त चार वनखण्ड बललाए गए हैं / 6 पष्करिणियों के मध्य में रत्नमय दधिमख पर्वत कहे गए हैं / दधिमुख पर्वतों की ऊँचाई एवं परिधि की चर्चा करते हुए उन पर्वतों को शंख समूह की तरह विशुद्ध, अच्छे जमे हुए दही के समान निर्मल, गाय के दूध की तरह उज्जवल एवं माला के समान क्रमबद्ध बतलाया है / इन पर्वतों के ऊपर भी गगनचुम्बी जिनमंदिर अवस्थित हैं, ऐसा उल्लेख हुआ है। ___ ग्रन्थ में अंजन पर्वतों की पुष्करिणियों का उल्लेख करते हुए दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा वाले अंजन पर्वतों की चारों दिशाओं में स्थित चार-चार पुष्करिणियों के नाम बललाए गए हैं। ग्रन्थानुसार नन्दीश्वर द्वीप में इक्यासी करोड़ इक्कानवें लाख पिच्चानवें हजार योजन अवगाहना करने पर रतिकर पर्वत हैं / इन रतिकर पर्वतों की ऊँचाई, विस्तार, परिधि आदि का परिमाण बतलाते हुए पूर्व-दक्षिण, पश्चिम-दक्षिण, पश्चिम-उत्तर, तथा पूर्व-उत्तर : दिशा में स्थित रतिकर पर्वतों की चारों दिशाओं में एक लाख योजन विस्तीर्ण तथा तीन लाख योजन परिधि वाली चार-चार राजधानियों को पूर्वादि दिशाओं के अनुक्रम से चारों दिशाओं में स्थित माना है। इसके पश्चात् कुण्डल द्वीप, कुण्डल पर्वत के ऊपर स्थित शिखरों, शिखरों पर स्थित देवों, उनकी अग्रमहिषियों तथा उनकी राजधानियों एवं रूचक पर्वत के शिखरों पर स्थित देवों, दिशाकुमारियों आदि की विस्तृत चर्चा की गई है / 1deg ग्रन्थ में उल्लेख है कि रुचक पर्वत के बाहर आठ लाख चौरासी हजार योजन चलने पर रतिकर पर्वत आते हैं। . जम्बूद्वीप आदि द्वीप-समुद्रों तथा मानुषोत्तर पर्वत पर दो-दो, एवं रुचक पर्वत पर तीन अधिपति देव माने हैं / इनके पश्चात् स्थित अन्य द्वीप-समुद्रों में उनके समान नाम वाले अधिपति देव माने गये हैं / पुनः यह भी कहा गया है कि एक समान नाम वाले असंख्य देव होते हैं / वासों, द्रहों, वर्षधर पर्वतों, महानदियों, द्वीपों और समुद्रों के अधिपति देव एक पल्योपम कायस्थिति वाले कहे गए हैं। आगे यह भी उल्लिखित है कि द्वीपाधिपति देवों की उत्पत्ति द्वीप के मध्य में तथा समुद्राधिपति देवों की उत्पत्ति विशेष क्रीड़ा-द्वीपों में होती है।११ ग्रन्थानुसार रुचक समुद्र में असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं / रुचक समुद्र में पहले अरुण द्वीप और उसके बाद अरुण समुद्र आता है / अरुण समुद्र में दक्षिण दिशा की ओर तिगिञ्छि पर्वत माना गया है / तिगिछि पर्वत का विस्तार एवं परिधि बतलाने के उपरान्त Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ० सुरेश सिसोदिया तिगिछि पर्वत की दक्षिण दिशा की ओर चमरचंचा राजधानी कही गई है / इस राजधानी का विस्तार एक लाख योजन तथा परिधि तीन लाख योजन मानी गई है / साथ ही यह भी. माना गया है कि यह राजधानी भीतर से चौरस और बाहर से वर्तुलाकार है आगे की गाथाओं में चमरचंचा राजधानी के स्वर्णमय प्राकारों, दरवाजों, राजधानी के प्रवेश मार्गों तथा देवविमानों का विस्तार परिमाण उल्लिखित है / 12 ___इसके पश्चात् चमरचंचा राजधानी के प्रासाद की पूर्व-उत्तर दिशा में सुधर्मासभा मानी गई है। तत्पश्चात् चैत्यगृह, उपपातसभा, ह्रद, अभिषेक सभा, अलंकार सभा और व्यवसाय सभा का वर्णन किया गया है / सुधर्मा सभा की तीन दिशाओं में आठ योजन ऊँचे तथा चार योजन चौड़े तीन द्वार माने गये हैं। उन द्वारों के आगे मुखमण्डप, उनमें प्रेक्षागृह और प्रेक्षागृहों में अक्षवाटक आसन होना माना गया है / प्रेक्षागृहों के आगे स्तूप तथा उन स्तूपों की चारों दिशाओं में एक-एक पीठिका है। प्रत्येक पीठिका पर एक-एक जिनप्रतिमा मानी गई है / स्तूपों के आगे की पीठिकाओं के ऊपर महेन्द्रध्वज तथा उनके आगे नंदा पुष्करिणियाँ मानी गई हैं तथा यह कहा गया है कि यही वर्णन जिनमन्दिरों तथा शेष बची हुई सभाओं का भी है, किन्तु जो कुछ भित्रता है उसको आगे की गाथाओं में कहा गया है / ग्रन्थानुसार बहुमध्य भाग में चबूतरा, चबूतरे पर मानवक चैत्य स्तम्भ, मानवक चैत्य स्तम्भ पर फलकें, फलकों पर खूटियाँ, खूटियों पर लटके हुए वज्रमय सीकें, सीकों में डिब्बे तथा उन डिब्बों में जिनभगवान की अस्थियाँ मानी गई हैं / 13, __मानवक चैत्य स्तम्भ की पूर्व दिशा में आसन, पश्चिम दिशा में शय्या, शय्या की उत्तर दिशा में इन्द्रध्वज तथा इन्द्रध्वज की पश्चिम दिशा में चौप्पाल नामक शस्त्र भण्डार माना गया है तथा कहा है कि वहाँ स्फटिक मणियों एवं शस्त्रों का खजाना रखा हुआ है।१४ ग्रन्थ में जिनमंदिर और जिनप्रतिमाओं का विवेचन करते हुए यह भी कहा है कि जिनमंदिर में जिनदेव की एक सौ आठ प्रतिमाओं, प्रत्येक प्रतिमा के आगे एक-एक घण्टा तथा प्रत्येक प्रतिमा के दोनों पार्श्व में दो-दो चँवरधारी प्रतिमाएँ मानी गयी हैं। शेष सभाओं में भी पीठिका, आसन, शय्या, मुखमण्डप, प्रेक्षागृह, हृद, स्तूप, चैत्य-स्तम्भ, ध्वज एवं चैत्य वृक्षों आदि का यही वर्णन निरूपित किया गया है / 15 .. ग्रन्थ के अनुसार चमरचंचा राजधानी की उत्तर दिशा में अरुणोदक समुद्र में पाँच आवास हैं / आगे सोमनसा, सुसीमा तथा सोमयमा नामक तीन राजधानियाँ और उनका परिमाण बललाया गया है / यह भी कहा गया है कि वहाँ वरुणदेव के चौदह हजार तथा नलदेव के सोलह हजार आवास हैं / इन राजधानियों के बाहरी वर्तुल पर सैनिकों और अंगरक्षकों के आवास माने गये हैं।१६ जम्बूद्वीप में दो, मानुषोत्तर पर्वत में चार तथा अरुण समुद्र में देवों के छ: आवास माने गये हैं तथा कहा गया है कि उन आवासों में ही उन देवों की उत्पत्ति होती है / असुरकुमारों, नागकुमारों एवं उदधिकुमारों के आवास समुद्र में माने गये हैं और उन्हीं में उनकी उत्पत्ति होती है / इसीप्रकार द्वीपकुमारों, दिशाकुमारों, अग्निकुमारों तथा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 59 स्तनितकुमारों के.आवास अरुण द्वीप में माने गए हैं और यह कहा गया है कि उन्हीं में उनकी उत्पत्ति होती है / 17 ग्रन्थ का समापन यह कहकर किया है कि जो द्वीप और समुद्र जितने लाख योजन विस्तार वाला होता है / वहाँ उतनी ही चन्द्र और सूर्यों की पंक्तियाँ होती हैं / 18 (7) वीरस्तव 43 गाथाओं में रचित इस वीरस्तव प्रकीर्णक में महावीर की स्तुति उनके छब्बीस नामों द्वारा की गई है / इसमें 26 नामों का अलग-अलग अन्वयार्थ भी बताया गया है / प्रथम गाथा मंगल और अभिधेयरूप है। इसके पश्चात् महीवीर के छब्बीस नामों को गिनाया गया है, जो इस प्रकार हैं३-(१) अरुह, (2) अरिहंत, (3) अरहंत, (4) देव, (5) जिण, (6) वीर, (7) परमकारुणिक, (8) सर्वज्ञ, (9) सर्वदर्शी, (10) पारग, (11) त्रिकालविद् (12) नाथ, (13) वीतराग, (14) केवली, (15) त्रिभुवनगुरु, (16) सर्व, (17) त्रिभुवनवरिष्ठ, (18) भगवन, (19) तीर्थंकर, (20) शक्र-नमस्कृत, (21) जिनेन्द्र, (22) वर्द्धमान, (23) हरि, (24) हर, (25) कमलासन और (26) बुद्ध / प्रकीर्णक के शेषभाग में इन 26 नामों का अन्वयार्थ बताया गया है। अन्वयार्थ की विशेषता यह है कि इसमें अरिहंत के तीन, अरहंत के चार तथा भगवान के दो अन्वयार्थ किये गये हैं शेष नामों के एक-एक अन्वयार्थ हैं / (8) गच्छाचार गच्छाचार प्रकीर्णक में कुल 137 गाथाएँ हैं / ग्रन्थ की विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ आगम विहित मुनि-आचार का समर्थक और शिथिलाचार का विरोधी है / इस प्रकीर्णक की एक विशेषता यह है कि इसमें कहीं तो साधु के उपलक्षण से और कहीं साध्वी के उपलक्षण से सुविहित आचारमार्ग का निरूपण किया गया है, किन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि आचार मार्ग का निरूपण चाहे साधु अथवा साध्वी किसी के भी उपलक्षण से किया गया है, वह दोनों ही पक्षों पर लागू होता है / जैन आगमों में ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं जहाँ मुनि आचार का निरूपण किसी एक वर्ग विशेष के उपलक्षण से किया गया है, किन्तु हमें यह समझना चाहिए कि वह आचार निरूपण दोनों ही वर्गों पर समान रूप से लागू होता है। ___ प्रस्तुत प्रकीर्णक वस्तुतः जैनमुनि संघ को आगमोक्त आचार विधि के परिपालन हेतु निर्देश ही नहीं देता है वरन् उसे स्वच्छन्दाचारी और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों से दूर रहने का आदेश भी देता है। - इस प्रकीर्णक के संबंध में एक स्वतंत्र आलेख इसी पुस्तक में 'गच्छाचार (प्रकीर्णक) का समीक्षात्मक अध्ययन' नाम से प्रकाशित है / अतः हम इस प्रकीर्णक के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी हेतु उसका अवलोकन करने की अनुशंसा करते हैं / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया (9) सारावली प्रकीर्णक 116 गाथा वाले इस प्रकीर्णक में पुण्डरीकगिरि अर्थात शत्रुञ्जय तीर्थ का स्तवन किया गया है / इसका गुण निष्पन्न नाम सारावली प्रकीर्णक है / इसमें प्रारम्भ में कहा गया है कि जिस भूमि पर पंच परमेष्ठियों का विचरण होता है, उसे देव और मनुष्यों के लिए पूज्य माना जाता है। तदनन्तर उत्तम गुणों वाले पुण्डरीकगिरि पर तीर्थ के उद्भव का विवरण और पुण्डरीक तीर्थ के दर्शन एवं वन्दन का फल निरूपित किया गया है / 3 धातकीखण्ड में विद्यमान नारदऋषि दक्षिण भरत क्षेत्र में स्थित पुण्डरीक शिखर पर देवों का प्रकाश देखकर पुण्डरीक शिखर की पूजा के कारणों को ज्ञात करने के लिए आकाश मार्ग से अतिमुक्तककुमार केवलि के पास आते हैं / अतिमुक्तककुमार केवलि से जिज्ञासा व्यक्त करने पर वे इस पर्वत के पूज्य होने और इसका पुण्डरीक नाम पड़ने का वृत्तान्त बताते हैं। उनके अनुसार भरत के पत्र एवं ऋषभदेव के पौत्र पुण्डरीक उनके प्रथम समोवसरण में प्रतिबुद्ध हुए / उन्होनें संसार की निस्सारता से संवेग प्राप्त कर सावद्य-योग-विरति वाला श्रमण व्रत धारण किया। ऋषभदेव ने उन्हें बताया कि सौराष्ट्र देश के पर्वत शिखर पर तुझे ज्ञानोदय होगा / कालान्तर में वे विहार करते हुए उस पर्वत शिखर पर पहुँचे और साधना कर उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त किया / चूंकि इस पर्वत शिखर पर केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे इसलिए उसपर्वत शिखर पर देवों तथा मुनिजनों ने उनकी उपासना की। कालान्तर में भरत ने वहां जिनभवन बनवाया / इसप्रकार पुण्डरीकगिरि अवसर्पिणी काल का प्रथम तीर्थ हुआ / तीर्थोत्पत्ति की कथा के पश्चात् पुण्डरीक तीर्थ पर सिद्धि प्राप्त करने वाली अनेक आत्माओं का विवरण दिया गया है / पुण्डरीक तीर्थ के दर्शन, वन्दन आदि का फल बताते हुए कहा गया है कि जो फल अन्य तीर्थों पर उग्र तप की साधना से प्राप्त होता है वही फल शत्रुञ्जय तीर्थ के दर्शन से प्राप्त हो जाता है / जो व्यक्ति शत्रुञ्जय तीर्थ के सभी चैत्यों की विधिपूर्वक पूजा करता है उसकी देव, असुर और मनुष्य स्तुति करते हैं। इसके पश्चात् इसमें नारदऋषि आदि की दीक्षा, केवल ज्ञान प्राप्ति और सिद्धिगमन का निरूपण है / तत्पश्चात् पुण्डरीकगिरि की महिमा का विवेचन है / 1deg ज्ञान और जीवदया के फल के निरूपण के क्रम में कहा गया है कि जीव जिनप्रज्ञप्त वचनों पर ज्ञद्धा न करते हुए जो तप करता है, उस अज्ञानी और मूर्ख व्यक्ति का वह तप शारीरिक क्लेश मात्र है। 11 इसके पश्चात इसमें दान न देने से दुःख और दान देने से सुखादि का विवेचन है / ग्रन्थानुसार शत्रुञ्जयगिरि पर चढते हुए जो व्यक्ति दान देता है उसके समान दानी लोक में दुर्लभ होता है / 12 अन्त में प्रस्तुत प्रकीर्णक की प्रतिलिपी करवाने का फल, अत्यधिक यश और सत्कार की प्राप्ति बताया गया है / 13 (10) ज्योतिषकरण्डक स्थविर भगवंत श्रीपादलिप्ताचार्य रचित इस प्रकीर्णक में कुल 405 गाथाएं हैं। ज्योतिषकरण्डक के वृत्तिकार आचार्य श्री मलयगिरि ने अपनी वृत्ति में श्रीपादलिप्ताचार्य को Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 61 वृत्तिकार बताया है इससे मुनि पुण्यविजयजी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि यह पादलिप्ताचार्य की रचना है। इसमें ज्योतिष सम्बन्धी 23 अधिकार हैं / प्रारम्भ में वर्धमान स्वामी को नमस्कार कर ज्योतिषकण्डक कहने की सूचना और प्रारम्भिक वक्तव्य है / इसके पश्चात 23 अधिकारों के नाम निर्देश किये गये हैं३. - 1. कालप्रमाण 2. मान अधिकार 3. अधिकमास निष्पत्ति 4. अवमरात्र ५-६.पर्व-तिथि समाप्ति 7. नक्षत्र परिमाण 8. चन्द्र सूर्य परिमाण 9. नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य गति 10. नक्षत्रयोग 11. मण्डलविभाग 12. अयन 13. आवृत्ति 14. मण्डल मुहूर्तगति 15. ऋतुपरिमाण 16. विषुवत्प्राभृत 17. व्यतिपात प्राभृत 18. ताप क्षेत्र 19. दिवस-वृद्धि-हानि 20. अमावस्या 21. पूर्णिमा प्राभृत 22. प्रणष्टपर्व . . 23. पौरुषी परिमाण उपरोक्त 23 अधिकारों की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम काल को अनागत, अतीत और वर्तमान तथा संख्यात, असंख्यात और अनन्त निर्दिष्ट किया गया है / इसके पश्चात काल के विभित्र प्रमाण, समय, उच्छवास, निःश्वास. प्राण, स्तोक, लव, नलिका का विवरण है / इसमें नलिका अर्थात् घटिका के निर्माण की विधि भी बतलाई गयी है। पहले मान के धरिम और मेय ये दो भेद किये गये हैं / फिर उनके भेद-प्रभेदों का विस्तार से निरूपण है। तीसरे अधिकार में अधिक मास निष्पत्ति का विवेचन है। इसके पश्चात चौथे अवमरात्र अधिकार का निरूपण करने से पूर्व पांचवें-छठे पर्व-तिथि समाप्ति का विवेचन है। इसमें तिथि की हानि और वृद्धि का निरूपण है / चौथेअवमरात्र अधिकार में मास का बढ़ना और घटना एवं अवमरात्रांश आदि का विवेचन है। सातवें नक्षत्र परिमाण प्राभृत में नक्षत्रों के संस्थान, तारा परिमाण, नाम, अधिपति देव, पांच प्रकार के ज्योतिष्कों के विभाग, चन्द्र और सूर्यों की संख्या, चन्द्रमा के परिवार आदि का निरूपण है / आठवें अधिकार में चन्द्र और सूर्य मण्डल का तथा नवें अधिकार में नक्षत्र, चन्द्र और सूर्य के गतिमण्डल का विवेचन है / 1deg दसवें अधिकार में नक्षत्र, चन्द्र और सूर्य के योगकाल आदि का निरूपण है।११ ग्यारहवें अधिकार में जम्बूद्वीप, भरत आदि क्षेत्र, वर्षधर पर्वत, भरत आदि विष्कम्भ, मेरु विष्कम्भ परिमाण करण, प्रदेश वृद्धिकरण, मेरु अवधि सापेक्ष, चन्द्र-सूर्य गति, चन्द्रसूर्य मण्डल आदि का विस्तार से निरूपण है / 12 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया बारहवें अधिकार में सूर्यायन, चन्द्रायन, का निरूपण, तेरहवें अधिकार में सूर्य और चन्द्र की आवृत्ति का निरूपण, चौदहवें अधिकार में मुहूर्त और प्रतिमुहूर्त में जाने का परिमाण तथ पन्द्रहवें अधिकार में ऋतु परिमाण का विस्तार से विवेचन है / 13 सोलहवें अधिकार में विषुवकाल, सत्रहवें अधिकार में चन्द्र और सूर्य के परस्पर व्यतिपात का निरूपण, अठारहवें अधिकार में सूर्य के ताप का निरुपण तथा उन्नीसवें अधिकार में दिन में वृद्धि और हानि का निरूपण हुआ है / 14 अमावस्या करण और पूर्णिमा करण आदि का विस्तार से निरूपण बीसवें एवं इक्कीसवें अधिकार में हुआ है / 15 बाईसवें आधिकार में प्रणष्ट पर्व, जन्म और नक्षत्र आदि का विवेचन है तथा अन्तिम तेईसवें अधिकार में पौरुषी परिसाण का निरूपण है / 16 अन्त में शिष्य का विनयवचन और उपसंहार के रूप में ग्रन्धकार श्रीपादलिप्ताचार्य के नामोल्लेख पूर्वक ग्रन्थ को पूर्ण किया गया है / 17 (11) तित्थोगाली तित्थोगाली प्रकीर्णक का उल्लेख सर्वप्रथम व्यवहार भाष्य में प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ की किसी प्रति में१२३३ और किसी में 1261 गाथाएँ उपलब्ध होती हैं / मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित पइण्णयसुत्ताइं में प्रस्तुत ग्रन्थ की.१२६१ गाधाएँ उपलब्ध होती हैं। इस ग्रन्थ में विशेष रूप में वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर महावीर तक के विवरण के साथ ही भरत, ऐरावत आदि दस क्षेत्रों में एक साथ उत्पन्न होने वाले दस तीर्थंकरों एवं पाँच विजय क्षेत्र की अपेक्षा से बत्तीस तीर्थंकरों का विवेचन किया गया है। ग्रन्थ के अज्ञात रचनाकार ने प्रारम्भिक मंगल गाथाओं में सर्वप्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को तत्पश्चात् अजितनाथ आदि मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों को और अन्त में तीर्थंकर महावीर को वन्दन किया है / तत्पश्चात् उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल और उसके छः-छः आरों का विस्तृत निरूपण करते हुए सर्वप्रथम सुषमा-सुषमा काल के विषय में कहा गया है कि इस काल में भरत और ऐरावत क्षेत्रों में दस कुरुओं के समान अकर्मभूमि होती है / यहां की भूमि मणि-कणक आदि से विभूषित होती हैं। यहां बाबड़िया, पुष्करिणियां और दीर्घिकाएं आदि सुशोभित होती हैं / यहां ग्राम, नगर आदि सुरालयों के समान होते हैं / इस काल में असि, मसि, कृषि तथा राजधर्म आदि का कोई व्यवहार नहीं होता है / यहां के निवासी सदा अनुपम सुख का अनुभव करते हैं। ये निर्भय, गंभीर, दयालु तथा सरल स्वभाव वाले एवं अपरिमित बल से सम्पत्र होते हैं / यहां के निवासी पृथ्वी से प्राप्त पुष्प तथा फलों का आहार करते हैं / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 63 पाँय भरत, पाँच ऐरावत, पाँच देवकुरु तथा पाँच उत्तरकुरु इन बीस क्षेत्रों में प्रथम आरा होता है / यहाँ मनुष्यों की इच्छापूर्ती दस प्रकार के कल्पवृक्ष करते हैं / यहां उत्पन्न होने वाले मनुष्यों की जघन्य आयु तीन पल्योपम तथा उत्कृष्ट आयु चार कोटि सागर की होती है / शरीर की ऊँचाई तीन कोस की होती है / इसके पश्चात् ग्रन्थ में द्वितीय आरे से षष्ठम् आरे पर्यन्त वर्णन निरूपित है जिसमें प्रत्येक आरे के मनुष्यों की आयु, शरीर की शक्ति, ऊँचाई, बुद्धि, शौर्य आदि का क्रमशः ह्रास होता हुआ बतलाया गया है / " ग्रन्थ में चौबीस तीर्थंकरों तथा बलदेव, वासुदेव आदि के पूर्वभवों के नाम, उनके माता-पिता, आचार्य, नगरी आदि का विस्तारपूर्वक विवेचन हुआ है / ग्रन्थानुसार जिस रात्रि में तीर्थंकर महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए उसी रात्रि में पालक राजा का राज्याभिषेक हुआ। इस प्रसंग को लेकर पालक, मरुक, पुष्पमित्र, बलमित्र, भानुमित्र, नमसेन, गर्दभ आदि राजाओं के राज्यकाल का तथा दुष्टबुद्धि (कल्कि) नामक राजा के जन्म एवं उसके राज्यकाल का वर्णन किया गया है / श्वेताम्बर परम्परा में यही एक मात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमें आगम ज्ञान के क्रमिक उच्छेद की बात कही गई है / प्रस्तुत ग्रन्थ में तीर्थंकर महावीर से लेकर भद्रबाहु स्वामी तथा स्थूलभद्र नामक आचार्य की पट्ट-परम्परा का भी उल्लेख है। इसके पश्चात् ग्रन्थ पर्यन्त आगामी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल के बारह आरों, विविध धर्मोपदेशों तथा विस्तारपूर्वक सिद्ध का स्वरूप निरूपित किया गया है / सन्दर्भ-सूची (1) देवेन्द्रस्तव 1. देविदत्थओ-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 3-34 2. (क) नन्दीसूत्र : सम्पा० मुनि मधुकर, प्रका० आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, पृ० 161-162 (ख) पाक्षिकसूत्र वृत्तिः सम्पा० जिनविजय, प्रका० देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, पृ०७३ / / 3. देविंदत्थओ, पइण्णयसुत्ताई, पृ० 3 गाथा 1-6; 4. वही, गाथा 7-14; 5. वही, गाथा 15-20 - 6. वही, गाथा 21-66; 7. वही गाथा 67-80 8. वही, गाथा 81-93; 9. वही, गाथा 94-96 10. वही, गाथा 97-129; 11. वही, गाथा 130 -141 12. वही, गाथा 142-146; 13. वही, गाथा 147-161 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ० सुरेश सिसोदिया 15. वही, गाथा 277-306 14. वही, गाथा 162-276; 16. वही, गाथा 307-311 (2) तंदुलवैचारिक 1. तंदुलवेयालियं पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताइं, भाग 1, पृ० 35-62 2. पाक्षिकसूत्रवृत्ति, पृ० 77 3. तंदुलवेयालियं पइण्णयं, पइण्णयरसुत्ताई, पृ० 35, गाथा 2 - 13 4. वही, गद्य-पद्य 14-24; 5. वही, गद्य-पद्य 25-27 . 6. वही, गद्य-पद्य 28-33; 7. वही, गद्य-पद्य 34-36 ' 8. वही, गाथा 39-44; 9. वही, गाथा 45-58.. 10. वही, गद्य-पद्य 59-64; 11. वही, गद्य-पद्य 65-68 12. वही, गद्य-पद्य 69-75; 13. वही, गद्य-पद्य 76-80 14. वही, गद्य-पद्य 82-107; 15. वही, गद्य-पद्य 108 - 113 16. वही, गद्य-पद्य 114 -153; 17. वही, गद्य-पद्य 154 -167 18. वही, गाथा 171-177 (3) चन्द्रकवेध्यक 1. चंदाज्झयं पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 63 - 89 2. वही, पृ० 63, गाथा 1; 3. वही, गाथा 2 4. वही, गाथा 3-6; 5. वही, गाथा 7-12 6. वही, गाथा 14-20; 7. वही, गाथा 21-31 8. वही, गाथा 32-34; . 9. वही, गाथा 35 10. वही, गाथा 37-42; 11. वही, गाथा 43-51 12. वही, गाथा 54 13. वही, गाथा 61-63 14. वही, गाथा 68-77; 15. वही, गाथा 81-97 16. वही, गाथा 100 -104; 17. वही, गाथा 114 18. वही, गाथा 110 -112; 19. वही, गाथा 120 -123 20. वही, गाथा 128-129; 21. वही, गाथा 131 -140 22. वही, गाथा 143 -144; 23. वही, गाथा 147-148 24. वही, गाथा 150 -173; 25. वही, गाथा 174 -175 (4) गणिविद्या 1. गणिविज्जा पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 90.98 2. (क) नन्दीसूत्र, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, पृ० 161-162 (ख) पाक्षिकसूत्र, पृ० 76-77 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 65 3. नन्दीसूत्रचूर्णी, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद, पृ० 58 4. नन्दीसुत्तम, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद, पृ० 71 5. गणिविज्जा पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, पृ० 90, गाथा 3 6. वही, गाथा 4-7; 7. वही, गाथा 8-10 8. वही, गाथा 11-41; 9. वही, गाथा 42-43 10. वही, गाथा 44-46; 11. वही, गाथा 47-48 12. वही, गाथा 49-58; 13. वही, गाथा 59-64 14. वही, गाथा 65-72, 15. वही, गाथा 73-82 16. वही, गाथा 83-85 (5) ऋषिभाषित 1. इसिभासियाई-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 181-256 2. वही, पृ० 181-182; 3. आचारांगसूत्र 1/8/1 4. इसिभासियाई, पृ० 182; 5. वही, पृ० 183 6. वही, पृ० 183-184; 7. वही, पृ० 185-186 8. वही, पृ० 186-188; 9. वही, पृ० 188 10. वही, पृ० 188; 11. वही, पृ० 188 12. वही, पृ०.१८९-१९०, 13. वही, पृ० 190 14. वही, पृ० 191; 15. वही, पृ० 191 16. वही, पृ० 192-195; 17. वही, पृ० 196-197 18. वही, पृ० 197-198; 19. वही, पृ० 198-199 20. वही, पृ० 199-200; 21. वही, पृ० 200-201 22. वही, पृ० 201-204; 23. वही, पृ० 204-205 24. वही, पृ० 205-206; 25. वही, पृ० 206-207 वही, पृ० 207; 27. वही, पृ० 208 28. वही, पृ० 208-210; 29. वही, पृ०२१०-२११ .वही; पृ० 212-213; 31. वही, पृ० 214 . 32. वही, पृ० 214-219; 33. वही, पृ० 219-221 34. वही, पृ०२२१-२२३; 35. वही, पृ० 223-224 36. वही, पृ० 224-227; 37. वही, पृ० 227-229 38. वही, पृ० 229-230; 39. वही, पृ० 230-233 40. वही, पृ० 233; 41. वही, पृ० 234-236 42. वही, पृ० 236-238; 43. वही, पृ०२३८-२४१ 44. वही, पृ० 241-242; 45. वही, पृ० 243 46. वही, पृ० 243-246; 47. वही, पृ० 246-347 48. वही, पृ० 247-248; 49, वही, पृ० 248-250 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ० सुरेश सिसोदिया 50. वही, पृ० 250; 52. वही, पृ० 251; 51. वही, पृ० 250 -251 53. वही, पृ० 251-256 (6) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति 1. दीवसागरपण्णत्तिसंगहणीगाहाओ-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 257-279 2. वही, पृ० 257, गाथा 1-18; ___3. वही, गाथा 19-25 4. वही, गाथा 26-37; 5. वही, गाथा 38-40 . . 6. वही, गाथा 41-47; 7. वही, गाथा 48-51 8. वही, गाथा 52-57; 9. वही, गाथा 58-70 10. वही, गाथा 71-148; 11. वही, गाथा 149-165 166-186; 13. वही, गाथा 187-197 14. वही, गाथा 198 -199; 15. वही, गाथा 200-206 16. वही, गाथा 207-218; 17. वही, गाथा 221-223 , 224-225 (7) वीरस्तव 1. वीरत्थओ-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 292-297 2. वही, पृ० 292, गाथा 1; 3. वही, गाथा 2-4 4. वही, गाथा 5-42 (8) गच्छाचार 1. गच्छायारपइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 337-349 (9) सारावली 1. सारावलीपइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 350-360 2. वही, पृ० 350, गाथा 1-6; 3. वही, गाथा 7,8 4. वही, गाथा 9-16; 5. वही, गाथा 17-44 6. वही, गाथा 45-48; 7. वही, गाथा 49-55 8. वही, गाथा 56-74; 9. वही, गाथा 75-85 10. वही, गाथा 86-102; 11. वही, गाथा 103-112 113-115; 13. वही, गाथा 116 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 67 (10) ज्योतिषकरण्डक 1. जोइसकरंडगं पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 361-408 2. वही, पृ० 361, गाथा 1-7: 3. वही, गाथा 8-11 4. वही, गाथा 12-21; 5. वही, गाथा 22-102 6. वही, गाथा 103-105; 7. वही, गाथा 106-118 8. वही, गाथा 119-126; 9. वही, गाथा 127-155 10. वही, गाथा 156-161; 11. वही, गाथा 162-184 12. वही, गाथा 185-234; 13. वही, गाथा 235-295 14. वही, गाथा 296-334; 15. वही, गाथा 335-384 16. वही, गाथा 385-402; 17. वही, गाथा 403 -405 (11) तित्थोगाली 1. तित्थोगालीपइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, पृ० 409-523 2. व्यवहारसूत्रभाष्य, उद्देशक 10, गाथा 701 3. तित्थोगाली पइण्णयं, पइण्णयसुत्ताई, पृ० 409, गाथा 1-6 4. वही, गाथा 16-54 5. वही, गाथा 55-975; . 6. वही, गाधा 567-689 7. वही, गाथा 702-836; 8. वही, गाथा 976-1257 .. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकों की पाण्डुलिपियाँ और प्रकाशित संस्करण * जौहरीमल. पारख जैन साहित्य में प्रकीर्णक शब्द विविध, विस्तृत, परचून, मिक्सचर आदि सामान्य अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है बल्कि पारिभाषिक प्रयोग लिए हुए है, क्योंकि प्रकीर्णक नाम से अभिहित प्रत्येक ग्रन्थ प्रायः एक सुसंहत विशिष्ट विषयवस्तु वाला ही है। प्रकीर्णक को परिभाषित करते हुए नंदी-चूर्णिकार कहते हैं अरहंतमगउवदितु जं सुतमणुसरित्ता किंचिणिज्जूहते (नियूंढ) ते सव्वे पइणग्गा; अहवा सुत्तमणुस्सरतो अप्पणो वयणकोसल्लेण जं धम्मदेसणादिसु (गंधपद्धत्तिणा) भासते तं सव्वं पइण्णगं'। नंदी के टीकाकारों ने एवं कोषकारों ने भी लगभग इसी परिभाषा को दोहराया है। जब आगम पुस्तकारूढ हुए तो नंदीकार ने प्रकीर्णकों की एक सूची बनाने का प्रयास किया परन्तु उन्हें भी अंत में एवमाइयाइं चउरासीती पइण्णग सहस्साई भगवतो अरहओ उसहस्स' कहकर संतोष करना पड़ा। सूत्रकार के अनुसार तीर्थंकरों की जितनी श्रमण संपदा अथवा जितने उत्कृष्ट चार प्रकार की बुद्धि वाले दिव्य ज्ञानी साधु शिष्य अथवा जितने प्रत्येक बुद्ध उतनी ही प्रकीर्णकों की संख्या है / इसप्रकार भगवान महावीर स्वामी के चौदह हजार प्रकीर्णक होते हैं। नंदीसूत्र का यह पाठ पूरे श्वेताम्बर संप्रदाय में मान्य है / ठाणांगसूत्र के दसवें स्थान में भी इन प्रकीर्णकों के कुछ नामोल्लेख मिलते हैं। व्यवहारसूत्र के दसवें उद्देशक में भी हमें 19 प्रकीर्णकों के नाम मिलते हैं। पाक्षिकसूत्र में प्रकीर्णकों की जो सूची है, वह नंदी के अनरूप ही है परन्तु उसमें गणिविद्या की जगह आणविभत्ति नाम है, सूर्यप्रज्ञप्ति को वहाँ कालिक सूत्र में गिना है, और नंदी के अलावा भी 7 और नाम वहाँ हैं, जिनका उल्लेख ठाणांग व व्यवहारसूत्र में है / षट्खण्डागम की धवलाटीका में भी 19. प्रकीर्णकों के नाम हमारे देखने में आये हैं। कुछ नाम जोगनंदी व विधिमार्गप्रपा नामक प्राचीनरचनाओं में भी प्राप्त होते हैं। ऋषिभाषित कासंदर्भ समवायांग, तत्त्वार्थ स्वोपज्ञभाष्य व अन्यत्र भी प्राप्त होता है। इनमें से कई प्रकीर्णक तो विस्मृत व नष्ट होते गये। नंदी, ठाणांग, व्यवहार, धवला, पाक्षिकादि सूत्रों में गिनाये गये अधिकतर ग्रन्थों का विच्छेद हो चुका है, यहाँ तक कि १७वीं शताब्दी में उपलब्ध 'पंचकल्प' नामक सूत्र आज अनुपलब्ध है / परन्तु साथ ही साथ इस प्रकार के श्रेष्ठ मान्यशास्त्र(ClassicScriptures) प्रकीर्णकों की कक्षा में जुड़ते भी गये; यहाँ तक कि विक्रम की १०वी ११वीं शताब्दियों में संकलित रचनाओं का समावेश प्रकीर्णकों में हुआ है, उस समय पर्यंत सांप्रदायिक द्वेष नहीं पनपा था / अर्थात् इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि प्रकीर्णकों की संख्या किंवा नामावली कभी भी सर्वमान्य निश्चित रूप नहीं ले सकी। जहाँ तक 11 अंग आगमों, बारहवें दृष्टिवाद और आवश्यक सूत्रों का प्रश्न है, इनके नामों के बारे में कोई विवाद नहीं है और न इन्हें कभी भी प्रकीर्णकों की संज्ञा दी गई थी। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकों की पाण्डुलिपियाँ और प्रकाशित संस्करण : 69 नंदीसूत्र में अंग आगम, आवश्यक व प्रकीर्णकों को स्वाध्याय समय की अपेक्षा कातिक एवं उत्कालिक ऐसे दो भागों में बांटा अवश्य गया था किन्तु कालान्तर में (संभवतः नंदीसूत्र के बाद) इन प्रकीर्णकों के बारे में दो महत्त्वपूर्ण परिपाटियाँ क्रमशः विकसित हुई 1. इन प्रकीर्णकों को भी आगम का दर्जा दिया गया / 2. श्वेताम्बर संप्रदाय में विषयादि की अपेक्षाओं से इन प्रकीर्णकों का वर्गीकरण भी हुआ है और तदनुसार 12 प्रकीर्णकों को उपाङ्गसूत्रों की कक्षा में, 6 प्रकीर्णकों को छेदसूत्रों की कक्षा में और 6 प्रकीर्णकों को मूलसूत्रों की कक्षा में रखा गया है, और शेष अवर्गीकृत प्रकीर्णको को 'प्रकीर्णक आगम' के नाम से ही पुकारा जाने लगा। (नोटः- प्राचीन चार अनुयोग विषय-वस्तु का विभाजन है उसे ग्रंथों का वर्गीकरण नहीं समझें) जैन परम्परा में उपरोक्त वर्गीकरणादि के बारे में जो सांप्रदायिक मतभेद है उसको स्पष्ट करना यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है ताकि प्रकीर्णकों की परिस्थिति समझने में कठिनाई नहीं होगी। मंदिरमार्गी श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वर्तमान में 45 आगम उपलब्ध है / इस सन्दर्भ में एक गाथा हैतिहा अंग इग्यारा, बारह उपांग, छ छेद, दस पइन्ना दाख्या मूलसूत्र छ उ भेद। जिन आगम षद्रव्य, सप्तपदारथ युक्त, सांभली श्रद्धन्ता तूटेकर्म तुरन्त / / ____ अर्थात 11 अंगर 12 उपांगर छेद 6 मूला 10 प्रकीर्णक 45;6 आवश्यक सूत्रों को मिलाकर 1 मूलसूत्र ही गिनते हैं और दो चूलिकासूत्रों नंदी व अनुयोगद्वार को भी मूल में ही शामिल कर देते हैं / : 45 की संख्या के आग्रहवश इस परम्परा में ओघ या पिण्डनियुक्ति में से एक को मूलग्रंथों में और पंचकल्प को (और उसके लुप्त हो जाने पर अब जीतकल्प को) छेदसूत्रों में गिनते हैं यद्यपि ये चारों नाम नंदीसूत्र या पाक्षिकसूत्र में नहीं है। जबकि स्थानकवासी इन चारों में से किसी को भी आगम नहीं मानते हैं और महानिशीथ (वर्तमान पाठ आचार्य हरिभद्र द्वारा उद्भरित) और 10 प्रकीर्णकों का विच्छेद मानते हैं और 45 में से इस प्रकार 13 की संख्या कम करने से उनमें 32 आगम की ही मान्यता है_ यद्यपि मंदिरमार्गी श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध प्रकीर्णकों की 10 संख्या ही मान्य है परन्तु गच्छाम्नाय या अन्य किसी कारणवश दस-दस ग्रंथों की ऐसी तीन सूचियाँ अलगअलग बनती हैं अर्थात मान्य-उपलब्ध प्रकीर्णकों की कुल संख्या 30 हो जाती हैं। इसके * लेखक ने यहाँ दस-दस (प्रकीर्णक) ग्रन्थों की तीन अलग-अलग सूचियों का उल्लेखकर प्रकीर्णको की संख्या 30 मानी है, किन्तु प्रकीर्णकों की उन सूचियों में कुछ नाम तो समान ही है / मात्र किसी सूची ' में गच्छाचार और मरणसमाधि के स्थान पर चन्द्रवेध्यक और बीरस्तव को गिना गया है तो किसी सूची में भक्तपरिज्ञा के स्थान पर चन्द्रवेध्यक को गिना गया है, अथवा किसी सूची में वीरस्तव के स्थान पर चन्द्रवेध्यक का उल्लेख है / इसप्रकार कुछ प्रकीर्णक ग्रन्थों के नामों को छोड़कर शेष नाम सभी सूचियों में प्रायः समान ही है। अतः इन अलग-अलग सूचियों के आधार पर प्रकीर्णकों की संख्या 30 नहीं होती -सम्पादक Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 : जौहरीमल पारख अतिरिक्त, चार ग्रंथों (आतुरप्रत्याख्यान, जंबूपइत्रा, आराधनापताका और पर्यन्त आराधना). के एक से अधिक ग्रन्थ मिलते हैं और ऋषिभाषित इन तीन जोड़ों से अलग ही है / अतः वास्तविक संख्या 30 से कहीं अधिक पहुंच जाती है / दिगम्बर परम्परा के अनुसार केवल षडावश्यक, षट्खण्डागम और कसायपाहुड़ को छोड़कर कोई भी आगम वर्तमान में उपलब्ध नहीं है / योनिप्राभृत व तीर्थोद्गालिक? हैं परन्तु उन्हें वे आगम का दर्जा नहीं देते हैं / यद्यपि आचार्य कुन्दकुन्द व कुछ अन्य बहुश्रुत . स्थविरों के ग्रंथों को परमागम की उपाधि देने की प्रथा दिगम्बर आम्नाय में कहीं जन्म ले रही है परन्तु ऐसी मान्यता' हो गई हो, यह अभी तक नहीं कहा जा सकता। अतएव बिना किसी सांप्रदायिक विवाद में पड़ते हुए (अर्थात् जिस किसी के द्वारा जो भी ग्रंथ आगम माना जाता है उसको हमने भी आगम गिन लिया है) संकलित जानकारी के आधार पर हम तीन सारिणियाँ संलग्न कर रहे हैं जिसके अनुसार क्रमांक 1 से 48 (६.९,४४को छोड़कर)तक जो प्रकीर्णक वर्तमान में प्राप्य नहीं हैं (यद्यपि उनके नाम यत्र-तत्र मिलते हैं) उन्हें दर्शाया गया है और शेष क्रमांक 49 से लेकर 78 तक वे 30 प्रकीर्णक हैं जो अभी उपलब्ध-मान्य हैं और वे ही हमारे इस लेख का मुख्य प्रतिपाद्य विषय हैं / हमने प्रकीर्णकों के इन दस-दस के तीन जोड़ों को (क्रमांक ४९से ५८को)A-१ सेA-१०, (क्रमांक ५९से 68 को)B -१से B -10 और (क्रमांक.६९ से 78 को)-१सेc -10, ऐसा अंकित कर दिया है / सूची में प्रकीर्णकों के नाम, ग्रंथकार (जहाँ ज्ञात हैं), विकल्प व अपरनाम, गाथाओं व ग्रंथान में परिमाण, कालिक है या उत्कालिक, कहाँ उनका उल्लेख है ऐसे प्रमाण, संक्षिप्त विषयवस्तु, मुद्रित है या अमुद्रित, प्रकाशन की जानकारी, इन पर रचा गया व्याख्या साहित्य (वृत्ति, टब्बा, टिप्पणक, विषमपदपर्याय, अवचूरि, बालावबोध अनुवाद, संस्कृत छाया आदि) इत्यादि सूचना देने का प्रयत्न किया है / हमारा विनम्र अनुरोध है कि इस सूची को प्रारंभिक रूप में ही अंगीकार करें क्योंकि प्रकाशित साहित्य के स्वाध्याय से, हस्तलिखित ग्रन्थ भंडारों की खोज से, शोध छात्रों द्वारा अनुसंधान व अन्वेषण से, विद्वानों के शास्त्रार्थ विचार-विमर्श व गहन अध्ययन से एवं नाम साम्य व अन्य कई कारणों से भविष्य में इस सूची का संशोधन, परिवर्तन एवं परिवर्द्धन अपरिहार्य है। उदाहरण स्वरूप क्रमांक 43 वियाह (व्यवहार/विवाह) चूलिका नामक प्रविष्टि विनयचंद्र ज्ञानभंडार जयपुर और हेमचन्द्राचार्य ज्ञानमंदिर, पाटण में मिलती है जो चन्द्रगुप्त के 16 स्वप्नों के बारे में है / जैसलमेर भंडार में भी इस बारे में ताडपत्रीय प्राचीन प्रति है / इस सबका पूरा अन्वेषण होने पर सही निष्कर्ष निकाला जा सकता है / शोध की ऐसी प्रक्रिया सतत चालू ही रहेगी। तीस प्रकीर्णकों में से प्रत्येक की उल्लेखनीय विशेषता का संक्षिप्त निरूपण अभीष्ट जान पड़ता है A-1 - आतुरप्रत्याख्यान-महावीर जैन विद्यालय, बम्बई वाले संस्करण में इस नाम के तीन भित्र-भित्र पाठ दिये गये हैं और दूसरे अन्य प्रकीर्णकों में भी इस नाम के द्वार मिलते हैं। इनमें 70 गाथा व गद्य की एक रचना वीरभद्र की है और दो अन्य रचनाएँ अज्ञात Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकों की पाण्डुलिपियाँ और प्रकाशित संस्करण : 71 कृत हैं जो लघु हैं परन्तु प्राचीन हैं। अतः पाठभेद की दृष्टि से ग्रन्थ भण्डारों की समस्त प्रतियों का पुनर्लोकन आवश्यक हो गया है / संभवतः और भी भित्र पाठ मिल जायें। इसका अपरनाम अंतकाल प्रत्याख्यान भी है। A-2 - गणिविद्या-इस ग्रन्थ का अध्ययन संघ के आचार्य के लिये अनिवार्य था। इसका दूसरा नाम गणितविद्या भी सार्थक है, क्योंकि मुहूर्त, ज्योतिष व निमित्त इसका विषय है / वस्तुतः दीक्षा, प्रतिष्ठादि धार्मिक कार्यों से ही इसका सम्बन्ध है / A-3 - कुशलानुबंधि-चूंकि चतुशरण इसी नाम वाला एक और प्रकीर्णक है, अतः इसको कुशलानुबंधि चतुःशरण कहते हैं / इसमें 63 गाधाये हैं, यह वीरभद्र की रचना है और उस दूसरे की अपेक्षा यह अर्वाचीन है / इसका प्रगाढ प्रचलन होने से इस पर भरपूर व्याख्या साहित्य भी रचा गया है, अवचूरियाँ तथा टब्बे अनेक हैं। A-4 - चन्द्रवेध्यक-सही नाम चन्द्रावेध्यक है / प्राकृत में सर्वत्र चंदावेज्झयं पाठ ही मिलता है / जिसप्रकार-प्रवीण धनुर्धारी यन्त्र में फिरती पुतली की आंख वींचने में समर्थ है वैसे ही अप्रमत्त साधक दुर्गति को दूर हटा देता है, ऐसा उपमावाचक नाम इस ग्रंथ को / दिया गया है। A-5 - तन्दुलवैचारिक-पाठ तो भित्र नहीं है पर विस्तार भेद अवश्य मिलता है, यह गद्यपद्यमय रचना है - गद्य आलापक भगवती में से भी लिये गये हैं। प्राणिविज्ञान सम्बन्धी कई प्रासंगिक बातों का भी इसमें समावेश है / A-6- देवेन्द्रस्तव-देवलोकों का वर्णन और इन्द्रों द्वारा स्तुत्य इसप्रकार दोनों समास विग्रह परक विषय-वस्तु इस ग्रंथ में है। उत्तरार्द्ध में यही शिक्षा है कि इतनी ऋद्धि वाले देवगण भी सिद्धों की स्तुति करते हैं। A-7 - भक्तपरिज्ञा-यह वीरभद्र की रचना है। इनकी कृति रूप में चार प्रकीर्णक प्रसिद्ध हैं। उनमें से कुशलानुबंधि चतुःशरण, भक्तपरिज्ञा व आराधनापताका में उनके उल्लेख का प्रमाण कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता |* आतुरप्रत्याख्यान का नाम नंदीसूत्र व पाक्षिकसूत्र में मिलता है लेकिन आतुरप्रत्याख्यान, आराधनापताका और चतुःशरण इन नामों के तीनों ग्रंथ वीरभद्र से भी प्रचीन मिलते हैं / वीरभद्र का काल ११वीं शताब्दी सिद्ध हुआ है तो फिर उस जनश्रुति का क्या कि ये भगवान महावीर के शिष्य थे, क्या दो वीरभद्र हुए हैं ? या ११वीं शताब्दी वाले वीरभद्र ने भक्तपरिज्ञा को छोड़कर बाकी उक्त तीन प्राचीन प्रकीर्णकों का विस्तृत संस्करण ही किया ? लेखक के इस मन्तव्य से हम सहमत नहीं हैं, क्योंकि कुशलानुबंधिचतुःशरण (गाथा 63) और भक्तपरिज्ञा (गाथा 172) में ग्रन्थकर्ता के रूप में वीरभद्र के नाम का स्पष्ट उल्लेख है तथा आराधनापताका (गाथा 51) में ग्रन्धकार का यह कहना कि आराधनाविधि का वर्णन हमने पहले भक्तपरिज्ञा में कर दिया है, यही प्रमाणित करता है कि आराधनापताका के रचयिता वीरभद्र ही हैं। -सम्पादक . Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 : जौहरीमल पारख . A-8 - महाप्रत्याख्यान-यह ग्रन्थ भी अन्त समय की आराधना के विषय पर है। प्रकीर्णकों का अधिकांश भाग अंतिम आराधना को लेकर क्यों है ? इस प्रश्न के निम्न उत्तर सुझाये जा सकते हैं (1) जैनागमों के अवलोकन मात्र से यह सिद्ध है कि साधु-साध्वियों के लिये संथारा या समाधिमरण उत्सर्ग मार्ग था, अपवाद मार्ग नहीं। __(1) सम्पूर्ण जीवन की साधना मृत्यु के समय सफल हो, अन्तिम समय में शिथिलता नहीं आए, तदर्थ अन्तिम समय में आराधना करने का उपदेश है। (III) यदि व्यक्ति अन्त समय में शुद्ध भाव में या कम से कम शुभभाव में भी रहे तो उसकी दुर्गति नहीं होती, यह सिद्धान्त-वचन है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को पंडितमरण का प्रयास करना ही चाहिये / A-9- वीरस्तव-यह प्रकीर्णक सूत्रकृताङ्ग के वीरस्तुति' नामक छठे अध्याय की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है / ललितविस्तरा की भांति इसकी भी दार्शनिक टीका अपेक्षित है / इस शैली का 22 गाथाओं का एक महावीर स्तवन अभयदेवसूरि विरचित भी मिलता है। ___A-10 - संस्तारक-प्राकृत की संस्कृत छाया करने से किसप्रकार विषय या अर्थ क्लिष्ट बन जाता है उसका यह एक उदाहरण है, क्योंकि 'संथारा' शब्द जनसाधारण को बिल्कुल आसानी से समझ में आ जाता है जबकि 'संस्तारक' मुश्किल से / इस ग्रन्थ में जो दृष्टान्त दिये गये हैं उनका बहुत ऐतिहासिक महत्त्व है / . B-1 - अङ्गविद्या भारतीय वाङ्गमय में अपनी तरह का यह एक ही ग्रन्थ है / इस पर जैन धर्मावलम्बी गर्व कर सकते हैं / इसमें मनुष्य की शारीरिक क्रिया व चेष्टा के आधार पर फलादेश दिये गये हैं / यह मानस व अंगशास्त्र निमित्त की अतिदीर्घकाय रचना है परन्तु इसका और जयपाहुड नामक प्रश्नव्याकरण का अनुवाद करने में कोई सफल नहीं हुआ है / प्राकृतज्ञों की पुरानी पीढी के चले जाने पर भविष्य में तो इसके अनुवाद की संभावना और क्षीणतर हो जावेगी। B-2 - अजीवकल्प-यद्यपि प्रस्तावना में महावीर जैन विद्यालय, बम्बई वालों ने इसका उल्लेख किया है परन्तु इसका मुद्रण नहीं किया है / अन्यत्र कहीं से भी मुद्रण हुआ हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। हालांकि जैसलमेर, पाटण आदि भंडारों में यह सुलभ्य है / साधु समाचारी (एषणा समिति) इसका विषय है और प्रारंभ के पद हैं, 'आहारे उवहम्मिय उवस्सए तहइ पस्सचणाएय' / ____B-3 - आराधनापताका-आराधना नामक अर्थात् मुख्यतः अन्त समय साधना विषयक ग्रन्थ, ग्रन्थ भण्डारों में सैकड़ों की संख्या में मिलते हैं, यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा / अतएव कौनसा ग्रन्थ प्रकीर्णक गिना जाय-यह निर्णय आसान नहीं है / मुनि Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकों की पाण्डुलिपियाँ और प्रकाशित संस्करण : 73 पुण्यविजयजी ने 932 गाथा वाली आराधनापताका ( जैसलमेर की मूलप्रति में आराधनापताका भगवती' ऐसा लिखा है और प्रारंभ 'पणमिय नां देविंद वंदिय' इसप्रकार है) को प्रथम स्थान दिया है और इसे चिरंतनाचार्य रचित बताया है / इस ग्रंथ में विषय का 48 द्वारों से वर्णन है / बृहटिप्पनिका में इस पताका को आचंलिक विशेषण दिया गया है (संभवतः यह अंचल गच्छाचार्य की कृति हो) और यह भी कहा गया है कि कई प्रतियों में आराधना' इतना ही नाम है / प्राकृत के अलावा संस्कृत व मरुगुर्जर भाषा में भी इसी नाम की कई भित्र-भित्र रचनायें मिलती हैं परन्तु भाषा कोई भी हो, प्रायः करके वही अंत समय की साधना विभिन्न द्वारों में वर्णित है। लेकिन यह उल्लेखनीय है कि नंदीसूत्र आदि सूत्रों में प्रमाणरूप इस नाम का कहीं उल्लेख नहीं है / वीरभद्र की 989 गाथा वाली आराधनापताका भी प्रसिद्ध और मान्य है / यापनीय ग्रंथमूल (भगवती) आराधना भी इनके जैसा ही ग्रंथ है / प्रर्याप्त मात्रा में इनकी गाथायें मिलती-जुलती हैं। B-4 गच्छाचार-यह प्रकीर्णक छेदसूत्रों के आधार पर रचा गया है और चन्द्रवेध्यक से भी अधिक विस्तार में आचार्य, साधु साध्वी ऐसेतीन भागों में उनकी योग्यता तथा गुणों का सांगोपांग वर्णन इसमें मिलता है / - B-5 ज्योतिषकरण्डक-यह ग्रंथ गणित-ज्योतिष की अति प्राचीन व मौलिक सामग्री लिये हुए है / हाल ही में वेदान्त-ज्योतिष की कई गुत्थियाँ सुलझाने में इसकी मदद ली गई है / यद्यपिमलयगिरि ने यह बात नहीं मानी है तो भी मुनिपुण्यविजयजी ने यह सिद्ध किया है कि यह ग्रन्थ पादलिप्ताचार्य की ही कृति है और उनकी स्वोपज्ञ या अन्य किसी आचार्य की इस पर चूर्णि भी है / वाचक शिवनंदि के टिप्पण सहित यह ग्रन्थ भी महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से पुनः तीसरे खंड में प्रकाशित हुआ है / इसमें समय व मान का परिमाण भी विस्तार से बताया गया है / हमारा मन्तव्य है कि चन्द्रमा पर मानव पहुंच से उत्पत्र चुनौती को दृष्टिगत करते हुए समग्र ज्योतिष साहित्य का विद्वतापूर्ण संपादन आवश्यक है। . .. B-6 तिथिप्रकीर्णक-यह ग्रन्थ किसी भी ग्रन्थ भण्डार में उपलब्ध नहीं है। जैन ग्रंथावली में इसका पूना में उपलब्ध होना लिखा है, परन्तु हमारे ध्यान में नहीं आया / यद्यपि भण्डारकर संस्थान में रहकर हमने 5-6 जैन सूची-पत्रों की प्रेस कापियों को कुछ वर्ष पूर्व अंतिम रूप दिया था। किन्तु यदि खोज की जाय तो ग्रंथ के मिलने की संभावना है वरना इसे गिनती में नहीं लेते। ____B-7 तीर्थोद्गालिक-कथानुयोग के इस ग्रंथ की कुछ सामग्री विवादास्पद बन गई है अतः इसकाशोधपूर्ण पुनः संपादन आवश्यक है / हमारे ध्यान में इस ग्रंथकी १६वीं शती से प्राचीन प्रति कहीं भी नहीं है, हो सकता है कुछ पाठ इसमें प्रक्षिप्त भी हो / ___B-8 द्वीपसागरप्रज्ञप्ति-यह ग्रंथ श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों परम्पराओं में उल्लेखित है, इसे द्वीपसागर संग्रहणी भी कहा जाता है, जो सार्थक भी है। क्योंकि प्रकीर्णको का अधिकांश भाग प्राचीन गाथाओं का संकलन ही है / हो सकता है विधिमार्गप्रपा में जो Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 : जौहरीमल पारख 'संग्रहणी' नामक 13 वाँ प्रकीर्णक अलग गिनाया गया है, वह इसी के नाम का भाग हो / महावीर जैन विद्यालय, बम्बई के संस्करण में पूरा नाम 'दीवसागरपण्णत्तिसंगहणीगाहाओ' ही लिखा है। B-9 मरणसमाधि-यह भी अन्त समय साधना का एक आकर ग्रन्थ है और कथा उदाहरणों से भरपूर है / कथाओं के प्रसंग से रोचकता उत्पन्न होती है और मृत्यु शय्या पर पड़े हुए व्यक्ति के लिये सरल वस्तु ही ग्राह्य होती है / ___B-10 सिद्धप्राभृत-यद्यपि नाम दिगम्बर कृति जैसा है परन्तु यह श्वेताम्बर रचना है और इसमें सिद्धों का वर्णन है / वृत्ति सहित इसकी प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति जैसलमेर वखंभात के भंडारों में प्राप्य है / मलयगिरि एवं हरिभद्राचार्य के ग्रंथों में इस वृत्ति के उल्लेख भी मिलते हैं / बहुत संभव है कि इस पर एक से अधिक भी प्राचीन वृत्तियाँ हों / C-1 अङ्गचूलिका-ठाणांग, व्यवहार, नंदीसूत्र व पाक्षिकसूत्र में उल्लेखित यह ग्रन्थ अद्यावधि अमुद्रित है यद्यपि इसकी प्रतियाँ कई भंडारों में उपलब्ध हैं / इसमें साधु द्वारा आगम स्वाध्याय विधि-नियम और उनकी विषयवस्तु का वर्णन है / उ० यशोविजयजी आदि ने इसके आधार पर सज्झायों की रचना की है। इसके कर्त्तारूप में यशोभद्र का माम लिया जाता है। C-2&c-3 कवच और जीवविभक्ति-ये दोनों ग्रन्थ जिनचंद्रसूरि की अर्वाचीन रचनायें हैं परन्तु प्राचीन आगम आलापकों के ही संकलन होने से प्रामाणिक है / इनका भी अभी तक मुद्रण-प्रकाशन नहीं हुआ है / C-4 पर्यन्त आराधना-यह ग्रन्थ भी ऊपरB-३ में आराधनापताका का परिचय दिया है उसी तरह का है और वह टिप्पणी यहाँ भी लागू पड़ती है / यद्यपि इन नामों के बीसों ग्रन्थ परस्पर बढ़कर हैं परन्तु केवल दो ही प्रकीर्णकों में शुमार किये जाने हैं और वो कौनसे लिये जाएँ, यह निर्णय सरल नहीं हैं और वह निर्णय एकमत हो, ऐसा शक्य भी नहीं है / यद्यपि सोमसूरि रचित इस नाम का ग्रंथ लगभग हर ग्रन्थ भंडार में बहुतायत से मिलता है तो भी मुनि पुण्यविजयजी के देहान्त के बाद उनके सहायक श्री अमृतभाई भोजक ने जो प्रकीर्णक संग्रह महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित करवाये हैं उनमें इसको शामिल नहीं किया है और बदले में जैसलमेर आदि भंडारों में प्राप्य 263 गाथा की प्राचीन अज्ञात रचना को स्थान दिया है तथा साथ में कई अन्य आराधनायें व कुलक भी छाप दिये हैं / सोमसूरि के ग्रंथ पर वृत्तियाँ भी कई जगह मिलती हैं। अधिक प्रचलित होने के कारण मूल या अनुवाद सहित कई जगहों से यह ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चुका है। ___C-5 पिण्डविशुद्धि-जिनवल्लभ रचित यह प्रकीर्णक सांप्रदायिक व्यामोह का शिकार हुआ है। इसमें संकलित गाथाएँ आगम आधारित हैं और चउसरण (कुशलानुबंधि) को छोड़कर सबसे अधिक व्याख्या साहित्य इस प्रकीर्णक पर रचा गया है / ये आचार्य प्रकाण्ड विद्वान थे और इनकी कई प्रौढ उच्च स्तरीय रचनाएँ मिलती हैं। इनके द्वारा रचित प्राचीन कर्म ग्रन्थ (चतुर्थ) षडशीति पर मलयगिरि ने टीका लिखी है इससे भी हम अनुमान Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकों की पाण्डुलिपियाँ और प्रकाशित संस्करण : 75 लगा सकते हैं कि यह ग्रन्थ सर्वथा प्रामाणिक व अधिकारिक है / पाटण, जैसलमेर आदि प्रमुख भंडारों में जितने भी पइनासंगह मिलते हैं उनमें प्रायः इसको शामिल किया गया है। ऐसी स्थिति में इसकी गणना प्रकीर्णकों में नहीं करना अनुचित प्रतीत होता है / C-6 बङ्गचूलिका-अङ्गचूलिका की भांति यह प्रकीर्णक भी ठाणांग, व्यवहार, नंदीसूत्र व पाक्षिकसूत्र से प्रमाणित है / यद्यपि इस नाम का एक प्रकाशन फलोदी (मारवाड़) से प्रकाशित हुआ है किन्तु उसका स्तर संतोषजनक नहीं कहा जा सकता, अतः पुनः प्रयास जरूरी है / इसका वर्गचूलिका या वङ्गचूलिका नाम भी मिलता है / ग्रन्थ का संपादन पूरी शोध के बाद ही कर्तव्य है। C-7 योनिप्राभृत-यह दिगम्बर धरसेनाचार्य की रचना है और श्वेताम्बरों में प्रकीर्णक रूप में मान्य है / इसकी एकमात्र प्राचीन ताडपत्रीय प्रति पूना में है परन्तु वह अब खंडित अवस्था में है और अन्य श्वेताम्बर भंडारों में यह उपलब्ध नहीं है, अतः दिगम्बर भण्डारों में इसका अन्वेषण करना चाहिये, विषयवस्तु शीर्षकानुसार है / __C-8 सुप्राणिधान चतुःशरण-ऊपर क्रमांक-३ में इसी नाम की वीरभद्र की रचना हम गिना चुके हैं / अतः इसको सुप्राणिधान विशेषण लगा है / यह उसकी अपेक्षा बृहत् नहीं है बल्कि वृद्ध (प्राचीन) है / छः आवश्यक को छोड़कर दोनों चतुःशरणों में विषयवस्तु एकसी ही है परन्तु पाठ सर्वथा स्वतंत्र हैं / इसकी कई प्राचीन प्रतियाँ भंडारों में मिलती हैं / इसी नाम की 90 गाथाओं की एक रचना देवेन्द्रसाधु की भी मिलती है, परन्तु वह अर्वाचीन है। C-9 सारावली-इसमें अतिमुक्तक केवली द्वारा नारदऋषि को प्रतिबोध देने की कथा है और साथ में नारद का मोक्षगमन, पुण्डरिक (शत्रुञ्जय) गिरि, पंचपरमेष्ठिभक्ति, जीवदया व ज्ञान के फल का भी वर्णन है / अन्य लिंगी मोक्ष जाते हैं, उत्तराध्ययन की उन गाथाओं का यह सुन्दर दृष्टान्त है जिसका दर्शन, ज्ञान व चारित्र सम्य है, वह मोक्ष मार्ग पर है-मुक्त हो सकता है / सम्यक्त्वी भक्ति (अभ्यन्तर तप का 1 प्रकार-विनय) करे ही, ऐसां नियम नहीं है। ___C-10 जंबूप्रकीर्णक-इस नाम के दो ग्रन्थ दावेदार हैं एक है जम्बूस्वामी का चरित्र, जो 31 अध्यायों में पद्मसुन्दर द्वारा संकलित है / इसमें उनके पूर्व भव की कथायें हैं / ग्रन्थ की शैली (तेणं कालेणं तेणं समएणं), भाषा व प्राचीन प्रतियों को देखते हुए इस ग्रंथ की विषयवस्तु व रचना पुरानी है / बहुत से विद्वान इसको ही प्रकीर्णक गिनने के पक्ष में हैं। किन्तु दूसरा ग्रंथ जो जंबूप्रकरण या जंबूद्वीपसमास के नाम से मिलता है वह जंबूद्वीप का भूगोल है और इसकी भी कई ताड़पत्रीय व कागज की प्रतियाँ पाटण आदि भंडारों में मिलती हैं / निर्णय होकर दोनों का मुद्रण आवश्यक है / जिनरत्नकोश में जंबूचरित्र के तीन और नाम भी दिये गये हैं - आलापक स्वरूप, जम्बूदृष्टान्त और जंबूअध्ययन, जो प्रकीर्णक होने के द्योतक हैं। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 : जौहरीमल पारख ऋषिभाषित-यद्यपि 10-10 प्रकीर्णकों के तीनों जोड़ों में इसे स्थान नहीं दिया . गया है परन्तु इस प्रकीर्णक की प्राचीनता व विषयवस्तु आदि की दृष्टि से बहुत महत्ता है। इसके स्वयं के संदर्भो के बल पर यह प्रकीर्णक आगम में शुमार होने योग्य है / यह ग्रन्थ पॉच जगहों से प्रकाशित हो चुका है परन्तु हमारा मंतव्य है कि पाठ, अर्थ व अन्य दृष्टि से पूरा ग्रन्थ अभी उच्चतर संपादन कर्तव्य है / हमें लगता है कि पूरा ग्रन्थदो भागों में विभाजित होना चाहिये, उस-उस ऋषि के मूलवचन और उस सूत्र पर व्याख्या / व्याख्या किसप्रकार की है (नियुक्ति तो भद्रबाहुकृत है उस शैली की नहीं है) भाष्य, चूर्णि, वृत्ति या अन्य किस्म की ? इस प्रश्न का निर्णय स्थगित हो तो भी सब अध्यायों का व्याख्याकार एक ही व्यक्ति . है और उसका दर्शन जैन है। दो चार अध्यायों को छोड़ भी दें (यद्यपि वैसा करना आवश्यक नहीं है) तो मूल व व्याख्या की यह भित्रता सहज में दृष्टिगोचर होती है / इस दृष्टिकोण से विद्वानों द्वारा अनुसंधान कर्तव्य है क्योंकि मूलपाठ तो उन-उन ऋषियों की रचनाओं में मिल जावेंगे (संस्कृत, प्राकृत या अन्य भाषा में) परन्तु बाकी का जो भान वहाँ प्राप्य नहीं है उसे व्याख्या ही समझना चाहिये / यह विभाजन अधिकतर तो गवभाग जो इसिणाबुइप' तक है कहीं पद्यभाग, कहीं पूरा अध्याय भी हो सकता है जहाँ व्याख्या नहीं है। परन्तु यह विभाजन सर्वसम्मत होने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होगी / मूल बात यह है कि सारा का सारा अध्याय उस ऋषि की रचना हो, यह बात उचित प्रतीत नहीं होती है। अंतिम वाक्य सर्वत्र एकसा है / अनुसंधान कर्तव्य है क्योंकि यह ग्रंथ धार्मिक साहित्य में अद्वितीय है। इसकी पाण्डुलिपियों की भी सघन खोज होनी चाहिये / - इन सब प्रकीर्णकों की हस्तलिखित प्रतियाँ (पाण्डुलिपियाँ) कहाँ-कहाँ उपलब्ध है, उसकी १७वीं व उससे प्राचीन सदियों की (जहाँ नहीं है वहाँ अर्वाचीन भी ली है) ग्रंथकार सूची हमने बना रखी है परन्तु उसे इस लेख के सापसंलग्न करना अनावश्यक प्रतीत होता है-केवल मोटे रूप में जानकारी दे रहे हैं कि सर्वप्रथम जैन श्वे० कॉन्सपायधुनी, मुम्बई वालों ने बहुत ही परिश्रमकर जैन ग्रंथावली नामक पुस्तक छपाई थी उसमें जहाँ-जहाँ प्रतियाँ उपलब्ध है, उसकी बीगतवार सूचना है / उसके बाद बड़ौदा से पाटण, जैसलमेर, खंभात आदि प्रमुख भंडारों के सूची पत्र छपे और मुंबई सरकार की रिपोर्ट भी पीटरसन भंडारकर वूलर आदि ने छपाईं / उन सबकी जानकारी का संकलन करके प्रो. चेतनकर ने जिनरत्नकोश नामक ग्रन्थ 1944 में भण्डारकर शोध संस्थान, पूना से प्रकाशित करवाया / लेकिन उस बात को आज पचास वर्ष हो गये हैं और उस दरम्यान सैकड़ों नये सूचीपत्र जिनमें जैन ग्रंथों के पर्याप्त उल्लेख हैं, पूना, जोधपुर, अहमदाबाद, जयपुर, पाटण, आरा, दिल्ली, सूरत व अन्य स्थानों से छप चुके हैं और भारत सरकार की सहायता से मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा प्राकृत व संस्कृत ग्रंथों का केटेलोगस भी छपा है, हम जिज्ञासुजनों को इन सबका अवलोकन करने का सुझाव देते हैं / अन्त में अपेक्षा है कि जैन प्रकीर्णक हों चाहे अन्य कोई ग्रन्थ, नया प्रकाशन करने के पहिले अद्यावधि मुद्रित व उपलब्ध हस्तलिखित प्रतियों का अवलोकनसूक्ष्म दृष्टि से करना लाभप्रद रहता है, विशेषतः अनुवाद आदि छापते समय अनुवादकों से एक और अनुरोध Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकों की पाण्डुलिपियाँ और प्रकाशित संस्करण : 77 है कि उनका एकमात्र कर्त्तव्य है -भाषा का अवरोध दूर करना / मूल कृति को संशोधित, परिवर्धित या परिवर्तितकर, किंवा तोड़ मरोड़कर या अपनी ओर से कुछ जोड़कर अथवा छोड़कर प्रस्तुत करना अनुवादक के कार्य क्षेत्र के बाहर की वस्तु है / शब्दशः अनुवाद के माध्यम से ग्रन्थकर्ता के शुद्ध आशय, सही अर्थ एवं यथार्थ भावों को प्रकट कर देना, यही तो अनुवादक की कुशलता है / बिना भेलसेल असल को जानने की प्रवृति इन दिनों लोगों में बलवती हो रही है और उस आवश्यकता की पूर्ति में ही अनुवादक की सफलता है। बिना पूरी प्रतिभा लगाये आगम-अनुवादन कर्मबन्धन का कारण हो सकता है / बड़ा उपयुक्त रहेगा यदि अनुवाद अन्तर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी व राष्ट्रीय भाषा हिन्दी में भी हो / प्रकीर्णकों की मान्यता सन्देह से परे हो जाय, इसलिये जहाँ तक संभव हो प्रत्येक गाथा को अन्यत्र संदर्भ से जोड़ दें-अंगों में, अंगबाह्य आगमों में, श्वेताम्बर या दिगम्बर सर्वमान्य प्राचीन श्रेण्य ग्रंथों व शास्त्रों में, व्याख्या सहित्य में, जैनतर ग्रंथों में या जहाँ कहीं भी हों, मिलान कर दें- भाषायी व शाब्दिक भित्रता हो परन्तु भाव साम्य हो तो भी चलेगा / पहिले यह कार्य बहुश्रुतों का था जो अब कम्प्यूटरों द्वारा पर्याप्त मात्रा में आसान हो गया है और भविष्य में और भी आसान होने की आशा है, कठिन हो तो भी कर्तव्य है क्योंकि यह मिलान जैन धर्म के विभित्र सम्प्रदायों, आम्नायों, गणगच्छों को एकता के मंच पर ला खड़ा करेगा। 2. 3. . ... सन्दर्भ-सूची नन्दीसूत्रचूर्णीः सम्पा० मुनि पुण्यविजय, प्रका० प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद, वर्ष 1966, पृष्ठ 60 नन्दीसूत्रः सम्पा० मुनि मधुकर, प्रका० आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, सूत्र 81, पृष्ठ 163 ठाणाङ्गसूत्रः प्रका० आगमोदय समिति, सूरत, सूत्र 755 व्यवहारसूत्र : सम्पा० कन्हैयालाल कमल', प्रका० आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद, उद्देशक 10 पाक्षिकसूत्र : प्रका० देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार समिति, पृष्ठ 76-77 षट्खण्डागम : सम्पा० हीरालाल जैन, प्रका० जैन सहित्योद्धार फण्ड, अमरावती, सूत्र 1/1/2, पृष्ठ 109 विधिमार्गप्रपा : सम्पा० जिनविजय, पृष्ठ 57-58 ॐ ॐ 7. * सेवामंदिर रावटी जोधपुर (राज.) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकों का पाठ निर्धारण प्रो० के० आर० चन्द्र . किसी भी प्राचीन ग्रंथ के पाठ निर्धारण में उस ग्रंथ की उपलब्ध हस्तप्रतों का सहारा लिया जाता है और अन्य प्राचीन ग्रंथों में उस ग्रंथ के उद्धरण या पद्यात्मक हो तो समान पद्यों के पाठों की जाँच करनी पड़ती है कि कौनसा पाठ भाषा की दृष्टि से पुराना हो सकता है / साथ ही साथ अर्थ की समीचीनता और पद्यात्मक रचना हो तो छन्दोबद्भता का भी ध्यान रखना पड़ता है। यहाँ पर जैन श्वेताम्बर परंपरा के आगम ग्रंथों में से महापच्चक्खांण-पइण्णयं की कुछ गाथाओं के पाठ-निर्धारण का प्रयत्न किया गया है / महापच्चक्खाणमें जो गाथाएँ मिलती हैं वे अन्य श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रंथों में भी समानरूप में या कुछ परिवर्तन के साथ उपलब्ध होती हैं / प्रस्तुत लेख में उन गाथाओं के पाठों की समीक्षा दो तरह से की गयी है / एक भाषिक दृष्टि से और दूसरी छन्द की दृष्टि से / कहीं-कहीं पर अर्थ की दृष्टि से भी समीक्षा की गयी है और इन तीनों कसौटियों से जो पाठ उपयुक्त प्रतीत हुआ है उसे : प्राचीन और मान्य रखा गया है। ... हमारे अध्ययन का आधार महापच्चक्खाण-पइण्णय' का महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित संस्करण ही है जो अनेक हस्तप्रतों के आधार से प्रकाशित किया गया है / अतः पाठान्तरों पर यहाँ पर विचार करने की आवश्यकता हमें प्रतीत नहीं हुई है। (1) महापच्चक्खाण-पइण्णयं की गाथा-१ का पाठ इस प्रकार है: एस करेमि पणामं तित्थयराणं अणुत्तरगईणं / सव्वेसिं च जिणाणं सिद्धाणं संजयाणं च / / मूलाचार की गाधा-१०८ का पाठ इस प्रकार है :एस करेमि पणामं जिणवसहस्स वड्डमाणस्स / सेसाणं च जिणाणं सगणगणधराणं च सव्वेसि / / 1. छन्द की दृष्टि से विश्लेषण छन्द की दृष्टि से महापच्चक्खाण की गाथा छन्द में सही है जबकि मूलाचार की गाथा के दूसरे पाद का छठा और सातवां गण सही नहीं है और 12+ 15 के बदले में 12 + 17 मात्राएँ मिलती हैं। 1. आगम संस्थान ग्रन्थमाला 7, आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, 1991-92 / Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकों का पाठ निर्धारण : 79 2. अर्थ की दृष्टि से विश्लेषण अर्थ की दृष्टि से मूलाचार के 'जिणवरसहस्स' पद की उपयुक्तता क्या होगी, यह समझ में नहीं आता है / * अतः महापच्चक्खाण की गाथा ही उपयुक्त लगती है / (2) महापच्चक्खाण-पइण्णयं की गाथा 2 का पाठ इस प्रकार है : सव्वदुक्खप्पहीणाणं सिद्धाणं अरहओ नमो / सदहे जिणपत्रत्तं, पच्चक्खामि य पावगं / / आउरपच्चक्खाण की गाथा 17 का भी यही पाठ है। मूलाचार की गाथा 37 का पाठ इस प्रकार है : सव्वदुक्खप्पहीणाणं, सिद्धाणं अरहदो णमो / सहहे जिणपण्णत्तं, पच्चक्खामि य पावगं / / . 1. छन्द की दृष्टि से विश्लेषण (अ) महापच्चक्खाण की गाथा की मात्राएं 14+14 एवं 13 + 13 हैं / (ब) आउरपच्चक्खाण की भी यही स्थिति है। (स) मूलाचार में भी यही स्थिति है / अतः यह.गाथा छन्द नहीं है। वर्गों की दृष्टि से हरेक ग्रंथ की गाथा में 8+ 9 एवं 8+ 8 वर्ण हैं, अतः यह अनुष्टप छन्द में है जिसमें कभी-कभी किसी पद में 8 के बदले में 9 वर्ण भी होते हैं जो प्राचीनता का एक लक्षण है। 2. भाषा की दृष्टि से विश्लेषण - महापच्चक्खाण और आउरपच्चक्खाण में अरहओ, नमो, और पत्रत्तं' शब्दों का प्रयोग है जबकि मूलाचार में उनके स्थान पर अरहदो, णमो और पण्णत्तं' शब्दों का प्रयोग ऐसा प्रतीत होता है कि मूलरूप में प्राचीन गाथा की रचना इस प्रकार रही होगी, परवर्ती काल में इन ग्रंथों में भाषिक दृष्टि से उसका पाठ बदल गया है सव्वदुक्खपहीणाणं, सिद्भाणं अरहतो नमो | सदहे जिणपत्रतं, पच्चक्खामि य पावगं // * मूलाचार के दो संस्करणों-(१) मूलाचार, सम्पा० पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री, प्रका० भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1984, गाथा 108 एवं (2) मूलाचार, सम्पा० पं० पन्नालाल, प्रका० माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई, वि० सं० 1977, गाथा 3/108 में हमें 'जिणवरवसहस्स' पाठ ही मिला है / संभव है मूलाचार का एक अन्य संस्करण जो पत्राकार में छपा है, उसमें जिणवर सहस्स' पाठ मिलता हो और लेखक ने प्रस्तुत लेख हेतु उसी संस्करण का उपयोग किया हो। -सम्पादक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 : प्रो० के० आर० चन्द्र उपरोक्त सभी ग्रंथों में मध्यवर्ती 'क' का 'ग' (पावगं) मिलता है जो अर्धमागधी भाषा की एक लाक्षणिकता है / 'नमो' का प्रारंभिक 'न' भी प्राचीनता का लक्षण है / इसी प्रकार 'ज्ञ'-'न्न' भी भाषिक दृष्टि से प्राचीन है, जबकि 'ज्ञ'-'ण' तो महाराष्ट्री प्राकृत का रूपहोने से परवर्ती है / अरहओ' और अरहदो' रूपमूल अरहतो' से परवर्ती काल में निष्पत्र हुए हैं, अरहदो' शौरसेनी रूप है तो अरहमओ' महाराष्ट्री प्राकृत का रूप है। (3) महापच्चक्खाण पइण्णयं की गाथा-३ का पाठ इस प्रकार है :___ जं किंचि वि दुच्चरियं तमहं निंदामि सव्वभावेणं / सामाइयं च तिविहं करेमि सव्वं निरागारं / / नियमसार की गाथा 103 का पाठ इस प्रकार है: जं किंचि मे दुच्चरितं सव्वं तिविहेण वोसरे / सामाइयं तु तिविहं करेमि सव्वं णिरायारं / / मूलाचार की गाथा 39 का पाठ इस प्रकार है: जं किंचि में दुच्चरियं सव्वं तिविहेण वोसरे / सामाइयं च तिविहं करेमि सव्वं णिरायारं / / 1. छन्द की दृष्टि से विश्लेषण (अ) महापच्चक्खाण की गाथा में 8+ 11 और 8+ 9 वर्ण हैं, अनुष्टुप छन्द की दृष्टि से मात्राओं का नियमन भी त्रुटिपूर्ण है जबकि मात्रा छन्द की दृष्टि से यह गाथा-छन्द है (मात्राएँ 12+ 18 एवं 12+ 15 हैं और सभी मात्रा-गण सही हैं)। (ब) नियमसार की गाथा में 8+ ९एवं 8+ 9 वर्ण हैं परंतु अनुष्टुप छन्दकी दृष्टि से छन्दोभंग हो रहा है। मात्रा की दृष्टि से 14+14 एवं 12+15 मात्राएँ हैं और पहले पाद का दूसरा एवं तीसरा मात्रा-गण भी गलत है, अतः यह गाथा-छन्द भी नहीं है। (स) मूलाचार की गाथा में 8+ 9 एवं 8+ 9 वर्ण हैं परंतु अनुष्टुप छन्द की दृष्टि से मात्राओं का नियमन गलत है / उसी प्रकार मात्राओं की दृष्टि से इसमें 13+14 और 12 + 15 मात्राएँ हैं और पहले पाद का द्वितीय मात्रा-गण भी गलत है / अतः महापच्चक्खाण की गाथा ही छन्द ही दृष्टि से सही है / 2. भाषा की दृष्टि से विश्लेषण महापच्चक्खाण का 'निरागारं' पाठ भाषिक दष्टि से अन्य दो ग्रंथों के 'णिरायारं' पाठ से प्राचीन है। 3. अर्थ की दृष्टि से विश्लेषण अर्थ की दृष्टि से 'दुच्चरित्तं' तो हो सकता है लेकिन मेरा अपना (नियमसार के अनुसार) 'दुच्चरितं' क्या होगा, जिसे त्याग देना पड़े उसी प्रकार (मूलाचार के अनुसार) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकों का पाठ निर्धारण : 81 जो 'दुच्चरियं' हो गया है उसे क्या त्यागना, उसकी तो निंदा ही की जा सकती है, अतः अर्थ की दृष्टि से भी महापच्चक्खाण की गाथा का पाठ समीचीन ठहरता है / अतः महापच्चक्खाण-पइण्णयं की गाथा मूलतः प्राचीन प्रतीत होती है / (4) महापच्चक्खाण-पइण्णयं की गाथा 4 का पाठ इस प्रकार है : बाहिरऽब्भंतरं उवहिं, सरीरादि सभोयणं / मणसा वय काएणं, सव्वं तिविहेण वोसिरे / / मूलाचार की गाथा 40 का पाठ इस प्रकार है : बज्झब्भंतरमुवहिं, सरीराइं च सभोयणं / मणसा वचि कायेण, सव्वं तिविहेण वोसरे / / 1. वर्ण और मात्राओं की दृष्टि से विश्लेषण (अ) महापच्चक्खाण, वर्ण 9+ 8, 8+ 9, मात्राएँ 14 + 12, 12 + 14 हैं / (ब) मूलाचार, वर्ण 8+ 9,8+ 9, मात्राएँ 12+ 14, 11+14 हैं / अतः स्पष्ट है कि यह गाथा-छन्द की रचना नहीं है बल्कि अनुष्टुप छन्द की रचना है / 2. छन्द की दृष्टि से विश्लेषण (अ) महापच्चक्खाण की गाथा के प्रथम पाद के वर्ण नं. 5,6,7 की मात्रा ल०,गु०,ल० है और वर्ण नं. 6,7,8 की मात्रा गु०, ल०, ल० है / इस प्रकार दोनों ही तरह से यह अनुष्टुप छन्द की दृष्टि से गलत है। इसके द्वितीय पाद के वर्ण नं. 5,6,7 की मात्रा ल०, गु०, ल० है / जो अनुष्टुप छन्द की दृष्टि से सही है। इसके तीसरे पाद के वर्ण नं. 5,6,7 की मात्रा ल०, गु०, गु०, है / जो छन्द की दृष्टि से सही है / इसके चौथे पाद के वर्णनं. 6,7,8 की मात्रा ल०, गु०, ल० है, जो छन्द की दृष्टि से सही है / अर्थात् इसका पहला पाद छन्द की दृष्टि से त्रुटियुक्त जान पड़ता है। . . (ब) मूलाचार के प्रथम पाद के वर्णनं. 5,6,7 की मात्रा ल०, ल०, ल० है, जो छन्द की दृष्टि से गलत हैं। द्वितीय पाद के वर्ण नं. 6,7,8 की मात्रा ल०, गु०, ल० है, जो सही है / तृतीय पाद के वर्ण नं. 5,6,7 की मात्रा ल०, गु०, गु० है, जो सही है / चतुर्थ पाद के वर्ण नं. 6,7,8 की मात्रा ल०, गु०, ल० है, जो सही है। अर्थात् इसका भी पहला पाद छन्द की दृष्टि से गलत जान पड़ता है / महापच्चक्खाण की गाथा का प्रथम पाद यदि निम्न प्रकार से सुधारा जाय तो छन्द की दृष्टि से सही बन जाता है 'बाहिरऽन्भंतरं. ओवहिं (उवहिं के बदले में)' इसमें वर्ण नं. 5,6,7 की मात्रा ल०, गु०, गु० बन जाती है / प्राकृत भाषा में ऐसे कितने ही शब्द मिलेंगे जिनमें प्रारंभिक 'उ' Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 : प्रो० के० आर० चन्द्र का ओ' भी मिलता है / अतः इस प्रकार के संशोधन की उपयुक्तता में कोई भाषिक बाधा उपस्थित होती हो, ऐसा मानने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है / ___ 3. भाषा की दृष्टि से विश्लेषण महापच्चक्खाण में द्वितीय पाद में 'सरीरादि' पाठ है जबकि मूलाचार में 'सरीराई' (मध्यवर्ती द का लोप) पाठ है अतः महापच्चक्खाण के विभक्ति रहित पाठ के बदले में विभक्ति युक्त पाठ 'सरीरादिं' अधिक उपयुक्त लगता है / महापच्चक्खाण के 'सरीरादि सभोयणं' और मूलाचार के सरीराइं च सभोयण में 'सभोयणं' में जो प्रारंभ में 'स' है इसका कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता है / अतः यह अंश या तो एक साथ 'सरीरादिसभोयणं' होना चाहिए या 'सरीरादिं च भोयणं' अलग-अलग होने चाहिए / दोनों प्रकार के पाठों में छन्द की दृष्टि से कोई त्रुटि नहीं आती है और इस पद के वर्गों की संख्या भी आठ बन जाती है / महापच्चक्खाण के तीसरे पाद में 'वय' शब्द विभक्ति रहित है अतः यहाँ पर 'वयकाएणं' की संभावना की जा सकती है और मूलाचार में 'वचि' का प्रयोग भी भाषिक दृष्टि से उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है। . महापच्चक्खाण में कारणं' का जो प्रयोग है, वह भाषिक दृष्टि से परवर्ती है / मूलाचार का 'काएण' प्रयोग पुराना है / अतः भाषा और छन्द की दृष्टि से इस गाथा का रूप पूर्वकाल में निम्नप्रकार से रहा होगा, जो परवर्ती काल में दोनों ग्रंथों में बदल गया- . बाहिरऽब्भंतरं ओवहिं, सरीरादि च भोयणं / मणसा वयकाएण, सव्वं तिविहेण वोसरे / / प्राचीन अनुष्टुप छन्द में पद्य के किसी-किसी पद में 8 के बदले में 9 वर्गों की भी परंपरा प्राप्त होती है, यह पहले ही स्पष्ट कर दिया गया है / (5) महापच्चक्खाण-पइण्णयं की गाथा 5 का पाठ इस प्रकार है : रागं बंधं पओसं च हरिसं दीणभातयं / उस्सुगत्तं भयं सोगं, रइमरइं च वोसिरे / / आउरपच्चक्खाण की गाथा 23 में रइमरइं' के बदले में 'रइं अरइं' पाठ है अन्यथा पूरी गाथा महापच्चक्खाण की गाथा के समान ही है / मूलाचार की गाथा 44 का पाठ इस प्रकार है : रायबंधं पदोसं च, हरिसं दीणभावयं / उस्सुगत्तं भयं सोगं, रदिमरदिं च वोसरे / / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकों का पाठ निर्धारण : 83 1. छन्द की दृष्टि से विश्लेषण (अ) महापच्चक्खाण की गाथा में मात्राएँ 14 + 12, 14 + 12 हैं, आउर- . पच्चक्खाण में 14 + 12 एवं 14+ 13 हैं / मूलाचार में 13+ 12 एवं 14+ 12 हैं। अतः यह गाथा-छन्द नहीं है। (ब) महापच्चक्खाण में 8+ 8 एवं 8+ 9 वर्ण हैं, आउरपच्चक्खाण और मूलाचार में भी ऐसी ही वर्ण व्यवथा है / अतः यह पद्य अनुष्टुप छन्द में मिलता है / 2. भाषा की दृष्टि से विश्लेषण मूलाचार की गाथा में रायबंध' शब्द में राय' शब्द 'रागं' की अपेक्षा परवर्ती है जबकि 'पदोसं' शब्द पओसं' की अपेक्षा और रदिमरदिं' 'रइमरई' या रइं अरइं' की अपेक्षा प्राचीन है / इस दृष्टि से इस गाथा का मूल पाठ निम्न प्रकार से रहा होगा, जो परवर्तीकाल में विभिन्न ग्रंथों में बदलता गया. रागं बंधं पदोसं च हरिसं दीणभावयं / उस्सुगत्तं भयं सोगं, रतिमरतिं च वोसरे / / इस गाथा में मूल ‘रतिमरति' का महापच्चक्खाण में महाराष्ट्री रूप 'रइमरइं' बन गया हो और मूलाचार में शौरसेनी रूप 'रदिमरदिं' बन गया हो, ऐसा लगता है / (6) महापच्चक्खाण-पइण्णयं की गाथा 8 का पाठ इस प्रकार है : निंदामि निंदणिज्जं, गरहामि य जं च मे गरहणिज्जं / 'आलोएमि य सव्वं, जिणेहिं जं जं च पडिकुटुं / / आउरपच्चक्खाण की गाथा 32 में दूसरे पाद के परवर्ती भाग का पाठ महापच्चक्खाण से अलग है, वह इस प्रकार है / / सब्भिंतर बाहिरं उवहिं / / मूलाचार की गाथा 55 का पाठ इस प्रकार है :जिंदामि णिंदणिज्ज गरहामि य जं च मे गरहणीयं / . आलोचेमि य सवं, सब्भंतरबाहिरं उवहिं / / 1. छन्द की दृष्टि से विश्लेषण तीनों ग्रंथों की यह गाथा गाथा-छन्द में है / महापच्चक्खाण में जिणेहिं' के बदले में 'जिणेहि' (4 मात्रिक गण) पाठ होना चाहिए जो छन्द की दृष्टि से ही नहीं परन्तु भाषा की प्राचीनता की दृष्टि से भी उपयुक्त है। 2. भाषा की दृष्टि से विश्लेषण . मूलाचार में 'निंदामि' और 'निंदणिज्ज' के बदले में 'जिंदामि' और 'जिंदणिज्जं' पाठ भाषिक दृष्टि से परवर्ती काल के हैं और महापच्चक्खाण एवं आउरपच्चक्खाण में Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 : प्रो० के० आर० चन्द्र आलोएमि' पाठ मूलाचार के आलोचेमि' पाठ से परवर्ती काल का है / मूलाचार का गरहणीयं'. पाठ 'गरहणिज्ज' से पुराना है / अतः मूल गाथा का प्राचीन पाठ इस प्रकार होना चाहिए निंदामि निंदणिज्जं, गरहामि य जं च मे गरहणीयं / आलोचेमि य सव्वं, जिणेहि जं जं च पडिकुटुं / / अथवा दूसरे पद का परवर्ती भाग होगा . 'सन्भंतरबाहिरं उवहिं' (7) महापच्चक्खाण-पइण्णयं की गाथा 20 का पाठ इस प्रकार है : जे मे जाणंति जिणा अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु। ते हं आलोएमी उवढिओ सव्वभावेणं / चन्द्रवेध्यक की गाथा 132 का पाठ इस प्रकार है : जे मे जाणंति जिणा अवराहे नाण-दंसण-चरित्ते / ते सव्वे आलोए उवढिओ सव्वभावेणं / / मरणविभक्ति की गाथा 120 का पाठ महापच्चक्खाण की गाथा 20 के समान ही है। - आतुरप्रत्याख्यान (2) की गाथा 31 का पाठ 'तेसु तेसु' उपयुक्त नहीं लगता है, 'जेसु जेसु' पाठ ही सार्थक है। आराधनापताका (1) की गाथा 207 में आलोएमी' के स्थान पर आलोएउं' पाठ मिलता है। निशीथसूत्र भाष्य की गाथा 3873 का पाठ इस प्रकार है : जे मे जाणंति जिणा अवराहे जेसु जेसु ठाणेसु / / तेहं आलोएतुं उवट्ठितो सव्वभावेण || 1. छन्द की दृष्टि से विश्लेषण छन्द की दृष्टि से सभी गाथाएँ गाथा-छन्द में हैं। 2. भाषा की दृष्टि से विश्लेषण भाषिक दृष्टि से 'सव्वभावेणं' के स्थान पर निशीथसूत्र भाष्य का 'सव्वभावेणं' पाठ प्राचीन है, इसी प्रकार द्वितीया बहुवचन के लिए अवराहा' के बदले में उसका अवराहे' पाठ भी उचित ही है, उवढिओ' के बदले में उवहितो' पाठ भी उसमें पुराना है और जब उवट्ठितो' शब्द सभी ग्रन्थों में प्रयुक्त हुआ है तब सार्थक यही है कि 'ते हं आलोएमी' अथवा 'ते सव्वे आलोए' के स्थान पर निशीथसूत्र भाष्य का 'ते हं आलोएतुं उवट्ठितो' पाठ समीचीन लगता है। अर्थात् इस गाथा का प्राचीन रूप इस प्रकार होगा, जो कालान्तर में विविध ग्रंथों में बदले हुए रूप में मिलता है - Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकों का पाठ निर्धारण : 85 .. जे मे जाणंति जिणा अवराहे जेसु जेसु ठाणेसु / ... ते हं आलोएतुं उवट्ठितो सव्वभावेण / / कहने का तात्पर्य यह है कि इस गाथा का प्राचीन रूप निशीथसूत्र भाष्य में ही विद्यमान है। (8) महापच्चक्खाण-पइण्णयं की गाथा 82 का पाठ इस प्रकार है : किं पुण अणगार सहायगेण अण्णोण्णसंगहबलेणं / परलोएणं सक्का साहेउं अप्पणो अटुं / / आराधनापताका की गाथा 9 का पाठ इस प्रकार है :किं पण अणगार सहायगेण अन्नोत्रसंगहबलेण / परलोइए न सक्का साहेउं अप्पणो अटुं / / निशीथसूत्र भाष्य की गाथा 3913 का पाठ इस प्रकार है : किं पुण अणगार सहायएण अण्णोण्णसंगहबलेण / परलोइयं ण सक्कइ साहेउं उत्तिमो अट्ठो / / भगवती आराधना की गाथा 1554 का पाठ इस प्रकार है : किं पुण * अणयारसहायगेण कीरयंत पडिकम्मो / संघे आलग्गंते आराधेदुं ण सक्केज्ज / / 1. छन्द की दृष्टि से विश्लेषण छन्द की दृष्टि से भगवती आराधना के सिवाय अन्य तीनों ग्रन्थो की गाथाएँ गाथाछन्द में उपलब्ध हो रही हैं / भगवती आराधना में प्रथम पाद में 28 मात्राएँ हैं जो छन्द की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है और 'कीरयंत पडिकम्मो' भाषा की दृष्टि से अस्पष्ट है और सही नहीं 2. भाषा की दृष्टि से विश्लेषण भाषिक दृष्टि से अणगारसहायगेण' पाठ अणगारसहायएण' से, अत्रोत्र-' पाठ अण्णोण्ण-'से, 'संगहबलेण' पाठ-'संगहबलेणं' से तथा 'न' पाठ 'ण' से प्राचीन है। ____3. अर्थ की दृष्टि से विश्लेषण (अ) अर्थकी दष्टि से महापच्चक्खाण की गाथा 80 से 84 तक आत्मार्थसाधना' के लिए सर्वत्र अप्पणो अटुं' का प्रयोग है, अतः निशीथसूत्र भाष्य का 'उत्तिमो अट्ठो' पाठ परवर्ती प्रतीत होता है और व्याकरण की दृष्टि से यहाँ पर 'उत्तिमं अटुं' होना चाहिए था। - (ब) महापच्चक्खाण में अव्यय 'न' का अभाव है जो अर्थ की दृष्टि से आवश्यक लगता है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 : प्रो० के० आर० चन्द्र (स) महापच्चक्खाण के ‘परलोएणं' और आराधनापताका के 'परलोइए' पाठों के बदले में 'परलोइयं' पाठ अप्पणो अटुं' के साथ उपयुक्त ठहरता है / अतः इस गाथा का पाठ मूलतः इस प्रकार होना चाहिए, जो परवर्ती काल में विविध ग्रंथों में बदल गया लगता है - किं. पुण अणगारसहायगेण अनोत्रसंगहबलेण / परलोइयं न सक्कइ साहेउं अप्पणो अटुं ? || महापच्चक्खाण-पइण्ण्यं की उपरोक्त गाथाओं के समीक्षात्मक अध्ययन से निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट होते हैं : (i) महापच्चक्खाण की गाथा 1 सही है जबकि मूलाचार की गाथा छन्द और अर्थ की दृष्टि से उपयुक्त नहीं लगती है / (ii) महापच्चक्खाण की गाथा 2 में अरहओ' पाठ है जबकि मूलाचार में अरहदो' पाठ है जो प्राचीन है / इस आधार पर ऐसा लगता है कि मूल पाठ अरहतो' होगा जो श्वेताम्बर परम्परा के ग्रंथों में अरहओ' और दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में अरहदो' हो गया है / (iii) महापच्चक्खाण की गाथा 4 को सुधारने में मूलाचार का पाठ सहायक बन रहा है। (iv) महापच्चक्खाण की गाथा 5 को सुधारने में भी मूलाचार का पाठ सहायक बन रहा है। (v) महापच्चक्खाण की गाथा 8 को सुधारने में भी मूलाचार का पाठ सहायक बन रहा है / ... (vi) महापच्चक्खाण की गाथा 20 को सुधारने में निशीथसूत्र भाष्य से सहायता मिलती है। (vii) महापच्चक्खाण की गाथा 82 को सुधारने में आराधनापताका और निशीथसूत्र भाष्य से सहायता मिलती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि अनेक गाथाओं में मूलाचार का पाठ, छन्द और अर्थ की दृष्टि से उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है / अनेक गाथाओं के सन्दर्भ में मूलाचार और नियमसार के पाठ परवर्तीकाल के भी प्रतीत होते हैं / कुछ गाथाएँ ऐसी भी हैं जिनमें मूलाचार आदि का पाठ प्राचीन प्रतीत होता है और कुछ गाथाओं में महापच्चक्खाण के पाठ को सुधारने में मूलाचार, निशीथसूत्र भाष्य और आराधनापताका के पाठों से सहायता मिलती है / अतः यह कहना कि अमुक सम्प्रदाय के ग्रंथों में से अमुक संप्रदाय के ग्रंथों में गाथाएँ ली गयी हैं, पूर्णतः सत्य नहीं लगता है / वस्तुतः ऐसा प्रतीत होता है कि परंपरा से चली आयी गाथाओं की मूल रचना और भाषा कुछ और ही थी परंतु परवर्ती काल में अलग-अलग सम्प्रदायों द्वारा उन्हें ग्रहण करते समय उनमें परिवर्तन आ गये / विशेष रूप से श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उन पर महाराष्ट्री का और दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उन पर शौरसेनी का प्रभाव आया है / इस सारे समीक्षात्मक अध्ययन से यही तथ्य उजागर होता है / * भूतपूर्व विभागाध्यक्ष प्राकृत विभाग गुजरात युनिवर्सिटी अहमदाबाद Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक साहित्य का कथात्मक वैशिष्ट्रय (संक्षिप्त-सार) * डॉ० प्रेमसुमन जैन प्राचीन जैन आगमों की परम्परा में प्रकीर्णक ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है / आगम के प्रमुख विषयों को संकलित रूप में इन ग्रन्थों में प्रस्तुत किया गया है / आगम और व्याख्या साहित्य के बीच की कड़ी के रूप में प्रकीर्णकों का महत्त्व है / प्रकीर्णकों की संख्या, रचना, विषयवस्तु एवं काल आदि के सम्बन्ध में विद्वानों ने अपने ढंग से प्रकाश डाला है / यद्यपि यह विषय गहन और तुलनात्मक अध्ययन तथा उदार समदृष्टि की अपेक्षा रखता है / प्रमुख रूप में मान्य जो दस प्रकीर्णक हैं उनमें 1. मरणसमाधि, 2. संस्तारक और 3. भक्तपरिज्ञा दृष्टान्त और कथात्मक दृष्टि से विशेष महत्त्व के हैं | आराधनापताका नाम से संकलित प्रकीर्णक में भी कतिपय कथाओं/ दृष्टान्तों का उल्लेख है / प्रस्तुत आलेख में इन्हीं प्रमुख प्रकीर्णकों के कतिपय कथाप्रसंगों पर चिंतन किया गया है / मरणसमाधि प्रकीर्णक में चरित्रपालन/ध्यान के समय उपसर्गों को शान्तिपूर्वक सहन करने वाले जिन साधकों का उल्लेख किया गया है, वे हैं-जिनधर्म श्रेष्ठि, मेतार्यऋषि, चिलातीपुत्र, गजसुकुमाल, सागरचन्द्र, अवंतिसुकुमाल, चन्द्रवतंसकनृप, दमदन्तमहर्षि, खंदक मुनि, धन्य शालिभद्र, पांचपांडव, दंड अनगार, सुकोशलमुनि, वज्र ऋषि, अर्हत्रक, चाणक्य तथा इलापुत्र आदि / (गाथा 413 से 484 ) ... इसी ग्रन्थ की गाथा 486 से 503 के अन्तर्गत 22 परीषहों को सहनकर ध्यान करने वाले साधकों के नाम हैं-हस्तिमित्र, धनमित्र, मुनिचतुष्क, अर्हत्रक, सुमनोभद्र मुनि, आर्यरक्षित क्षमाश्रमण के पिता, जातिभूज, स्थूलभद्रमुनि, दत्त, कुरूदत्त पुत्र, सोमदत्तसोमदेव, माथुर क्षपक, स्कंदक मुनि के शिष्य, बलभद्र, ढंढमुनि, काल वैश्यक, भद्रमुनि, सुनंद, इन्द्रदत्त, आर्यकालक के शिष्य सागरचन्द्र, असकटपिता और आषाढ़भूति आचार्य। - इसी ग्रन्थ में धर्मपालन करने वाले तिर्यंचों के उदाहरणों में मत्स्य, वानरयूधपति, सिंहश्येनहस्ति, गंधहस्ति, सर्पयुगल और भद्रकमहर्षि का भी गुणगान किया गया है (गाथा 507-524) / - संस्तारक प्रकीर्णक में संधारा लेने वाले जिन प्रमुख साधकों की महिमा वर्णित है, उनमें अत्रियापुत्त, स्कंदकमुनि शिष्य, दंडमुनि, सुकौशलमुनि, अवंति सुकुमार, कर्तिकार्य, धर्मसिंह, चाणक्य, अभयघोष, ललितघटा, सिंहसेन, कुरुदत्त, चिलातीपुत्र, गजसुकुमाल एवं महावीरशिष्य आदि प्रमुख हैं। . * लेखक से प्राप्त संक्षिप्त-सार प्रस्तुत है / -सम्पादक Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 : डॉ० प्रेमसुमन जैन भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक में विभिन्न धार्मिक कार्यों में श्रेष्ठता प्रतिपादित करने वाले व्यक्तियों के नामोल्लेख हैं / मुनिवन्दना के लिए रानी मृगावती, मुनिनिन्दा के फल के लिए. दत्त, सम्यक्त्व के लाभ के लिए हरिकुलप्रभु, श्रेणिक आदि, भक्ति के लिए दर्दुरक मणिकार श्रेष्ठि, जिन नमस्कार फल के लिए मिंढ चोर आदि की कथा के संकेत हैं / अहिंसा आदि पांच व्रतों के पालन और उनका स्खलन करने वालों की कथाएं भी इसमें हैं / कषायविजय के लिए जो सक्षम नहीं हुए उनके दुष्परिणामों की कथा इसमें दी गयी है / पंचेंन्द्रियों के वशीभूत व्यक्तियों को क्या फल मिलता है, इसके लिए पवसियपिया, माहुर वणिक, राजपुत्र, सोदास और सोमालिया राजा के प्रसंग वर्णित हैं / प्राचीन आचार्य विरचित आराधनापताका प्रकीर्णक में आठ प्रकार के मदों का विवेचन करते हुए जातिमद-हरिकेशी, कुलमद-मरीचि, बलमद,-विषभूति, रूपमदसनत्कुमार, तपमद-कूटघटक्षपक, धनमद-दसत्रभद्र, श्रुतमद-स्थूलभद्र एवं लाभमद के लिए भरुकक्ष आर्य के दृष्टान्त दिये गये हैं / इंद्रियविजय, कषायविजय आदि की भी कुछ कथाएँ यहां वर्णित हैं। प्रकीर्णकों मे उल्लिखित ये कथाएं अत्यन्त संक्षिप्त हैं / इससे सपष्ट है कि ये कथाएं पूर्वग्रन्थों मे विस्तार से आ चुकी होंगी और परम्परा में भी उनकी प्रसिद्धि रही होगी / इन कधाओं के मूल स्रोत एवं विकासक्रम को खोजने का कार्य अनुसंधान का नया विषय बन सकता है / व्याख्यासाहित्य, वडाराधना, बृहत्कथाकोश आदि ग्रन्थों का आलोड़न इस दिशा में उपयोगी होगा / इन कथाओं में अंकित सांस्कृतिक महत्त्व के संकेतों का भी अध्ययन किया जा सकता है / हम्बर्ग(जर्मनी) के कुर्टवान कम्टज नामक विद्वान एवं डॉ० ए० एन० उपाध्ये द्वारा किये गये कार्य भी इस दिशा में उपयोगी होंगे। भाषात्मक एवं पाठ संशोधन अध्ययन तो किया ही जाना चाहिए / धर्म-दर्शन के स्वरूप एवं विकास पर भी ये कथाएं कुछ प्रकाश डालेंगी। * विभागाध्यक्ष जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा * डॉ० धर्मचन्द जैन आध्यात्मिक साधना से संपृक्त प्रकीर्णक साहित्य में समाधिमरण प्रमुख प्रतिपाद्य रहा है / महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान (वीरभद्र), संस्तारक, संलेखनाश्रुत, भक्तपरिज्ञा (वीरभद्र), मरणविभक्ति, मरणविशुद्धि, मरणसमाधि और आराधनापताका आदि अनेक आराधनाएं समाधिमरण का ही प्रतिपादन करती हैं / समाधिमरण से सम्बद्ध आठ प्रकीर्णकों को संकलित कर उसे मरणविभक्ति या मरणसमाधि नाम दिया गया है / इस संकलन में जो प्रकीर्णक संग्रहीत हैं, वे हैं-मरणविभक्ति, मरणविशुद्धि, मरणसमाधि, संलेखना श्रुत, भक्तपरिज्ञा, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और आराधना प्रकीर्णक / ये समस्त प्रकीर्णक समाधिपूर्वक मरण करने की प्रक्रिया एवं उसके महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं / एक प्रकीर्णक है-चन्द्रवेध्यक / इस प्रकीर्णक में विनय, आचार्य, शिष्य, विनयनिग्रह, ज्ञान और चारित्र गुणों का विवेचन करने के साथ मरणगुण पर भी विस्तार से प्रकाश डाला गया है / ऋषिभाषित प्रकीर्णक के तेवीसवें अध्ययन में भी मरण की चर्चा है / वीरभद्र (१०वीं शती) की आराधनापताका, अभयदेवसूरि (११वीं शती) का आराधना प्रकरण, जिनभद्र का कवचप्रकरण एक अज्ञातकर्तृक आराधनापताका तथा पर्यन्ताराधना आदि अनेक आराधनाएं भी प्रकीर्णकों के रूप में स्वीकार की गई हैं / इसप्रकार प्रकीर्णकों की विषयवस्तु में मरण अथवा समाधिमरण को प्रमुख स्थान मिला है। प्रकीर्णकों में निरूपित समाधिमरण के वैशिष्टय को जानने से पूर्व यह विचार कर लिया जाय कि अंग-आगमों में इसके सन्दर्भ में क्या विवेचन हुआ है / समवायांगसूत्र में मरण के 17 प्रकार निरूपित हैं-आवीचिमरण, अवधिमरण आदि / इन सतरह प्रकारों में बालमरण, पंडितमरण, बालपंडितमरण, केवलिमरण, भक्तप्रत्याख्यानमरण, इंगिनीमरण और पादपोपगमन मरण भी समाहित हैं / ये भेद मरण के समाधिरूप एवं असमाधिरूप दोनों का प्रतिपादन करते हैं समवायांगसूत्र में ही समाधि के दस स्थानों का कथन है, उनमें * केवलिमरण को भी समाधि का एक स्थान माना गया है। यह केवलिमरण व्यक्ति को सब प्रकार के दुःखों से रहित कर देता है, इसलिए समाधिरूप है / भगवतीसूत्र में मरण के बालमरण एवं पण्डितमरण ये दो भेद बतलाकर बालमरण के वलयमरण, वशार्तमरण आदि 12 भेद किए गए हैं जो मरण के विभित्र निमित्तों के द्योतक हैं, यथा गिरिपतन, तरुपतन, जल प्रवेश, अग्नि प्रवेश, विषभक्षण आदि / वहां पंडितमरण के प्रायोपगमन एवं भक्त प्रत्याख्यान ये दो भेद किए गए हैं / इंगिनीमरण* का समावेश वहां भक्तप्रत्याख्यान में * जैन आगम साहित्य में प्रस्तुत शब्द के तीन रूप मिलते हैं और ये तीनों ही रूप समानार्थक है. (1) पादपोपगमन, (2) पादोपगमन और (3) प्रायोपगमन | ** अवधेय है कि जैन आगम साहित्य में प्रस्तुत शब्द के भी तीन रूप मिलते हैं और ये तीनों ही रूप समानार्थक है-(१) इंगिनीमरण, (2) इंगितमरण और (3) इंगिणीमरण | .-सम्पादक Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 : डॉ० धर्मचन्द जैन कर लिया गया है। स्थानाङ्गसूत्र के द्वितीय स्थान में वलयमरण, वशार्त्तमरण, निदानमरण, तद्भवमरण, गिरिपतनमरण, तरुपतनमरण, जलप्रवेशमरण, अग्निप्रवेशमरण, विषभक्षणमरण एवं शस्त्रावपाटनमरण को भगवान महावीर के द्वारा अवर्णित, अकीर्तित, अप्रशंसित एवं अनभ्यनुज्ञात बतलाया है / कारणवश दो मरण अभ्यनुज्ञात हैं-वैहायसमरण और गिद्धपिट्ठमरण / भगवान महावीर द्वारा दो मरण वर्णित, कीर्तित, प्रशंसित और अभ्यनुज्ञात हैं-१. पादोपगमनमरण और 2. भक्तप्रत्याख्यानमरण / जो मरण महावीर के द्वारा अभ्यनुज्ञात नहीं हैं उन्हें बालमरण तथा अभ्यनुज्ञात मरणों को पण्डितमरण की श्रेणी में रखा जा सकता है / वैसे स्थानांगसूत्र में मरण के तीन प्रकार भी निरूपित हैं- 1. बालमरण, 2. पंडितमरण और 3. बालपंडितमरण / 5 असंयमी जीवों का मरण बालमरण, संयमियों - का मरण पंडितमरण तथा संयतासंयत अर्थात् श्रावकों का मरण बालपंडितमरण होता है। इन मरणों का सम्बन्ध लेश्या से जोड़ते हुए स्थानाङ्गसूत्र में कहा गया है कि ये तीनों मरण तीन-तीन प्रकार के होते हैं / बालमरण के तीन प्रकार हैं-१. स्थितलेश्य, 2. संक्लिष्टलेश्य और 3. पर्यवजातलेश्य / पंडितमरण में लेश्या संक्लिष्ट नहीं होती अतः उसके 1. स्थित लेश्य, 2. असंक्लिष्ट लेश्य एवं 3. पर्यवजात (विशुद्धि की वृद्धि से युक्त) लेश्य ये तीन भेद होते हैं। बालपंडितमरण में 1. स्थितलेश्य, 2. असंक्लिष्ट लेश्य एवं 3. अपर्यवजात लेश्य ये तीन भेद होते हैं।६ उत्तराध्ययनसूत्र (मूलसूत्र) में मरण के दो भेद प्रतिपादित हैं-१. अकाममरण एवं 2. सकाममरण / बाल जीवों अर्थात् अज्ञानियों का मरण अकाममरण तथा पंडित जीवों अर्थात् ज्ञानियों का मरण सकाममरण होता है / आचारांगसूत्र जो प्रथम अंग आगम है, उसके विमोक्ष नामक अष्टम अध्ययन में संलेखना, संथारा और मरण विधि का विस्तृत वर्णन है / नियुक्तिकार एवं टीकाकारों ने भक्तप्रत्याख्यान, इंगितमरण एवं पादोपगमनमरण के रूप में आचारांग में वर्णित मरण विधि की व्याख्या की है / उपधि-विमोक्ष, वस्त्र-विमोक्ष, आहार-विमोक्ष, स्वाद-विमोक्ष, सहाय-विमोक्ष आदि विभिन्न चरणों के साथ आचारांगसूत्र में शरीर-विमोक्ष का निरूपण हुआ है / संलेखना के अन्तर्गत शरीर एवं कषाय दोनों को कृश करने का उल्लेख है / अंतिम समय में जब व्यक्ति ग्लान हो जाए, शरीर को वहन करने में असमर्थ हो जाय तो तृण अर्थात् सूखा घास माँगकर उन पर संथारा करने का विधान है / आचारांगसूत्र में भक्तप्रत्याख्यान आदि त्रिविध मरणों के अतिरिक्त वैहायसमरण को भी उचित बतलाया गया है, जिसके अनुसार संकटापत्र स्थिति आने पर कोई साधु संयम की रक्षा के लिए प्राणत्याग कर देता है / संयम मार्ग पर दृढ़ रहकर अकस्मात् मृत्यु का वरण करने वाला साधु एक प्रकार से हितकर, सुखकर, कालोपयुक्त एवं निःश्रेयस्कर मरण मरता है। प्रकीर्णकों में वैहायसमरण की उपेक्षा की गई है तथा भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी एवं पादोपगमन मरणों का ही प्रतिपादन किया गया है। समाधिमरण का निरूपण भगवती आराधना एवं मूलाचार में भी हुआ है किन्तु डॉ० सागरमल जैन के अनुसार प्रकीर्णकों की गाथाएं ही भगवती आराधना एवं मूलाचार में आई Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा : 91 हैं / मैं इनके पूर्वापर होने की चर्चा में न जाकर इतना ही कहूँगा कि समाधिमरण के प्रतिपादन की दृष्टि से यापनीय परम्परा के ये दोनों ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं | प्रकीर्णक साहित्य पर दृष्टिपात करने के अनन्तर ज्ञात होता है कि उसमें सर्वत्र पंडितमरण, अभ्युद्यतमरण किंवा समाधिमरण से मरने की प्रेरणा दी गई है / सर्वत्र यह ध्वनि गूंजती है - इक्कं पंडियमरणं छिण्णइ जाईसयाई बहुयाइं / तं मरणं मरियव्वं जेण मओ सुम्मओ होई // 10 __ अर्थात् पंडितमरण सैंकड़ों जन्मों का बंधन काट देता है, इसलिए उस मरण से मरना चाहिए, जिससे मरना सार्थक हो जाय / मरण उसी का सार्थक है जो पंडितमरण से देह त्याग करता है / इसके लिए पर्याप्त तैयारी अथवा तत्परता की आवश्यकता होती है, इसलिए इस मरण को अभ्युद्यतमरण कहा गया है तथा इस मरण के समय चित्त में समाधि रहती है, आत्मा, देह एवं शरीर में भिन्नता का अनुभवकर तीव्र वेदना काल में भी शान्त एवं अनाकुल रहता है, इसलिए इसे समाधिमरण कहते हैं। यह मरण पण्डा अर्थात् सद्-असद् विवेकिनी बुद्धि से सम्पन्न किंवा सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न संयती ही कर सकता है, इसलिए इस मरण को पण्डितमरण कहते हैं / प्रकीर्णकों में ये तीनों शब्द एक ही अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं / ज्ञानपूर्वक मरने वाला एक उच्छ्वास मात्र काल में उतने कर्मों को क्षय कर देता है जितने अज्ञानी जीव बहुत से करोड़ों वर्षों में भी क्षय नहीं कर सकता।११ इसलिए कर्म-निर्जरा की दृष्टि से पण्डितमरण अत्यन्त उपादेय है / : प्रकीर्णक-रचयिता आचार्यों की दृष्टि में पंडितमरण साधना का उत्कृष्ट रूप है। इसके लिए जीवन में साधना के अभ्यास की आवश्यकता होती है / जो साधक अपने जीवन में योग साधना का अभ्यास नहीं करते हैं वे मरणकाल में परीषहों को सहन करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं / यही नहीं बहिर्मुखी वृत्तियों वाला, ज्ञानपूर्वक आचरण न करने वाला तथा पूर्व में साधना न किया हुआ जीव आराधना काल में अर्थात् समाधिमरण के अवसर पर विचलित हो जाता है / इसलिए मुक्ति रूपी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अप्रमादी होकर निरन्तर सद्गुण सम्पत्र होने का प्रयत्न करना चाहिए / इसका अर्थ यह नहीं कि मरणकाल के उपस्थित होने पर कोई साधक अपने को बदल नहीं सकता / यद्यपि विशिष्ट साधक मरणकाल मे भी अपने को बदल सकता है किन्तु सामान्य साधकों को पर्याप्त समय एवं प्रतिबोध की आवश्यकता होती है / चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक के रचयिता ने मृत्युकाल उपस्थित होने पर मिथ्यात्व का वमनकर सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए कामना की है तथा उन्हें धन्य कहा है जो इन्द्रिय-सुखों के अधीन न होकर मरणसमुद्घात के द्वारा मिथ्यात्व की निर्जरा कर देते हैं / 13 यहाँ एक बात यह स्पष्ट हो जाती है कि साधुवेश अंगीकार कर लेने मात्र से प्रत्येक श्रमण सम्यक्त्वी नहीं हो जाता / जब तक वह बहिर्मुखी है, ऐन्द्रियक सुखों के अधीन एवं रसलोलुप है, जब तक शरीर के साथ वह ममत्व को उचित मानता है तब तक वह सम्यक्त्वी नहीं होता। सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यक् होता है तथा ज्ञान सम्यक् होने पर ही चारित्र एवं तप सम्यक् होते हैं / इन चारों को आराधना के चार स्कन्धं माना Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 : डॉ० धर्मचन्द जैन गया है / " आराधना भी अभ्युद्यत मरण की तैयारी है / जो पंडितमरण पूर्वक मरते हैं वे आराधक कहलाते हैं तथा जो अज्ञानपूर्वक मरण करते हैं वे अनाराधक कहलाते हैं। दीर्घकाल तक पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करने वाला मुनि भी यदि मृत्यु के .. समय विराधना करता है तो उसे धर्म का अनाराधक कहा जाता है तथा अत्यधिक मोही व्यक्ति भी यदि जीवन की सन्ध्यावेला में संयमी और अप्रमत्त हो जाता है तो उसे आराधक. कहा जाता है / 15 दूसरे शब्दों में जो समाधिपूर्वक मरता है वह आराधक एवं जो असमाधि पूर्वक मरता है वह अनाराधक कहा गया है। मरण के प्रकार आतुरप्रत्याख्यान आदि प्रकीर्णकों में स्थानाङ्ग सूत्र की भाँति मरण के तीन प्रकार निरूपित हैं - 1. बालमरण, 2. बालपंडितमरण और 3. पंडितमरण / 16 आराधनापताका में आचार्य वीरभद्र ने मरण के पाँच प्रकार बतलाए हैं- 1. पंडितपंडितमरण, 2. पंडितमरण, 3. बालपंडितमरण, 4. बालमरण और 5. बालबालमरण / 17 केवलियों का मरण पंडितपंडितमरण कहलाता है / मुनियों का भक्तपरिज्ञा आदि मरण पंडितमरण है / देशविरत एवं अविरत सम्यग्दृष्टियों का मरण बालपंडितमरण कहलाता है / उपशम युक्त मिथ्यादृष्टियों का मरण बालमरण है तथा कषाय से कलुषित जीवों का जघन्य मरण बालबालमरण कहलाता है / इनमें से प्रथम तीन मरण सम्यग्दृष्टियों को होते हैं अतः वे तीनों पंडितमरण की श्रेणी में आते हैं तथा अंतिम दो मरण मिध्यादृष्टियों को होने से बालमरण की श्रेणी में आते हैं।१८ बालमरण के भेद . बालमरण के भेदों का निरूपण प्रकीर्णकों में नहीं है किन्तु जल प्रवेश, अग्नि प्रवेश, विषभक्षण आदि के आधार पर वह अनेक प्रकार का हो सकता है / आतुरप्रत्याख्यान में कुछ प्रकारों का उल्लेख किया है / 19 आधुनिक काल में तो बालमरण के अनेक रूप हैं, विशेषतः अकालमृत्यु में अकस्मात् जो मरण होता है वह प्रायः बालमरण ही होता है / इसके अन्तर्गत विमान दुर्घटना, रेल दुर्घटना, सड़क दुर्घटना, भूकम्प, बाढ़, बिजली के झटके, आग लगने आदि के कारण होने वाली मृत्यु एवं शस्त्राशस्त्र के द्वारा हुई मृत्यु सम्मिलित है / अकालमृत्यु आगमसम्मत है / स्थानाङ्गसूत्र में आयुभेद के दिए गए सात कारण२° एवं तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित अपवर्त्य आयु इसके प्रमाण हैं / साधारण रोग या असाध्य रोगों के कारण भी अज्ञान दशा में जो मृत्यु होती है वह बालमरण की श्रेणी में आती है। पंडितमरण के भेद मृत्यु जीवन का एक अनिवार्य पहलू है, इससे कोई बच नहीं सकता / इसलिए प्रकीर्णकों का संदेश है कि जब मरना है तो धीरतापूर्वक पंडितमरण से ही क्यों न मरा जाय। वह पंडितमरण भी तीन प्रकार का प्रतिपादित है-१. भक्तपरिज्ञामरण, 2. इंगिनीमरण और 3. पादोपगमन या प्रायोग्यमरण / 21 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा : 93 (1) भक्तपरिज्ञामरण भक्तप्रत्याख्यान अथवा भक्तपरिज्ञामरण की विधि, स्वरूप एवं भेदों का विवेचन 'भक्तपरिज्ञा' प्रकीर्णक में तथा वीरभद्राचार्य की आराधनापताका' में विस्तार से मिलता है / भक्तपरिज्ञामरण के दो भेद किए गए हैं- 1. सविचार और 2. अविचार / समय रहते संलेखना पूर्वक पराक्रम के साथ जो भक्तपरिज्ञामरण है वह सविचार भक्तपरिज्ञामरण है तथा अल्पकाल रहने पर बिना शरीर संलेखना विधि के जो भक्तपरिज्ञामरण किया जाता है वह अविचार भक्तपरिज्ञामरण है / 22 भक्तप्रत्याख्यान शब्द से ऐसा लगता है कि इसमें मात्र अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम रूप चार आहारों का त्याग किया जाता होगा, किन्तु ऐसा ही नहीं है / इसमें भी भीतरी शुद्धि अर्थात् आत्मिक शुद्धि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आहार त्याग तो इसमें सागारी एवं अनागारी दोनों प्रकार से किया जाता है / प्रारम्भ में त्रिविध आहार का त्याग किया जाता है तथा बाद में यथास्थिति चौथे आहार पान' का भी त्याग कर दिया जाता है / इस मरण में गुरुजनों एवं केवलियों के प्रति विनय, श्रद्धा अथवा भक्ति भाव भी पाया जाता है, इसलिए भी इसका भक्तपरिज्ञा नाम सार्थक है / अब भक्तपरिज्ञामरण के दोनों प्रकारों पर विचार किया जा रहा है(i) सविचार भक्तपरिज्ञामरण२३ वीरभद्राचार्य ने सविचार भक्तपरिज्ञामरण के चार द्वार निरूपित किए हैं- 1. परिकर्म विधि 2. गणसंक्रमण 3. ममत्व-व्युच्छेद और 4. समाधिलाभ / परिकर्म विधि के भी उन्होंने ग्यारह प्रतिद्वार बतलाए हैं - 1. अर्ह 2. लिंग 3. शिक्षा 4. विनय ५.समाधि ६.अनियत विहार 7. परिणाम 8. त्याग 9. शीति 10. भावना और ११.संलेखना / यह भक्तपरिज्ञामरण वह साधक करता है जो संयम में हानि पहुँचाने वाली दुःसाध्य व्याधि से पीड़ित हो, जरा अवस्था से पीड़ित हो, देव-मनुष्य-तिर्यञ्च आदि से उत्पन्न उपसर्ग आ गया हो, दुर्भिक्ष काल हो, मार्ग भटक गया हो, जंघाओं में चलने का सामर्थ्य न रहा हो, और जिसकी आंखें कमजोर हो गई हों / इस सविचार भक्तपरिज्ञामरण के लिए रजोहरण, अचेलकता, केशलोच आदि जो बाह्य लिंग दिए गए हैं उनसे पता चलता है कि यह मरण साधु-साध्वी ही स्वीकार करते थे। जबकि भक्तपरिज्ञा का अविचार भेद गृहस्थों के द्वारा भी स्वीकार्य रहा है। शिक्षा, विनय आदि प्रतिद्वारों के निरूपणसे सविचारमरण का वैशिष्ट्य स्पष्ट होता है। ... परिकर्म विधि के पश्चात् गणसंक्रमण द्वार का निरूपण करते हुए आचार्य वीरभद्र ने उसके 10 प्रतिद्वार बतलाए हैं- 1. दिशा 2. क्षमापना 3. अनुशिष्टि 4. परगण 5. सुस्थित गवेषणा 6. उपसंपदा 7. परीक्षा 8. प्रतिलेखा 9. आपृच्छना 10. प्रतीच्छा / इस गणसंक्रमण द्वार में अपने गण के साधु-साध्वियों से क्षमायाचना की जाती है / आराधना के निमित्त वह साधक दूसरे गण में भी जा सकता है, जैसा कि कहा है एवं आपुच्छित्ता सगणं अब्भुज्जयं पविहरंतो / आराहणानिमित्तं परगणगमणे मइं कुणइ / / ( आराधनापताका, गाथा 231) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 : डॉ० धर्मचन्द जैन वह माया, मिथ्यादर्शन एवं निदान शल्यों को छोड़कर आत्मशुद्धि करता है / वह साधु तप आदि करके संलेखनां भी करता है / गण का अधिपति भी इस मरण को अपनाता है। सविचार भक्तपरिज्ञामरण का तृतीय द्वार है-ममत्वव्युच्छेद / इस ममत्वव्युच्छेद द्वार में मात्र शरीरादि से ममत्व छोड़ने की बात नहीं है, अपितु इसके भी 10 प्रतिद्वार हैं१. आलोचना 2. गुण-दोष 3. शय्या 4. संस्तारक 5. निर्यापक 6. दर्शन 7. हानि 8. प्रत्याख्यान 9. क्षमणा 10. क्षमादान / इन द्वारों से मरण की विधि प्रकट होती है / सविचारमरण का चौथा द्वार है-समाधिलाभ / इसके आठ प्रतिद्वार हैं१. अनुशिष्टि 2 सारणा 3. कवच 4. समता ५.ध्यान 6. लेश्या ७.आराधना 8. परित्याग। संस्तारकगत क्षपक को निर्यापक (चित्त में ममाधि लाने वाले योग्य उपदेशक साधु) नौ प्रकार की भाव संलेखना का उपदेश देते हैं जिसमें मिथ्यात्व का वमन, सम्यक्त्व का ग्रहण, पञ्चमहाव्रत की रक्षा आदि सम्मिलित हैं। धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान तथा प्रशस्त लेश्याओं को इसमें अपनाया जाता है / अन्त में शरीरत्याग करने के सम्बन्ध में उल्लेख हैं। (ii) अविचार भक्तपरिज्ञामरण यह मरण साधु एवं गृहस्थ दोनों के लिए है / आचार्य वीरभद्र ने इसके 3 भेद किए हैं-१. निरुद्ध २.निरुद्धतर और 3. परमनिरुद्ध / 24 जंघाबल के क्षीण हो जाने पर अथवा रोगादि के कारण कृश शरीर वाले साधु का बिना शरीर संलेखना किए जो समाधिमरण होता है उसे निरुद्ध अविचार भक्तपरितामरण कहते हैं / वह मरण यदि लोगों को ज्ञात हो जाय तो उसे प्रकाश और ज्ञात न होने पर अप्रकाश कहा जाता है / व्याल (सर्प), अग्नि, व्याघ्र आदि के कारण अथवा शूल, मूर्छा एवं दस्त लगने आदि के कारण अपनी आयु को उपस्थित समझकर समाधिमरण की जो क्रिया करता है वह निरुद्भतर कहलाती है। जबभिक्षु की वाणी भी वातादि के कारण रूक जाय तो वह मृत्युको उपस्थित समझकर परमनिरुद्धमरण मरता है / 25 भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक में अविचारमरण का विस्तृत विवेचन है किन्तु वहां निरुद्ध, निरुद्धतर एवं परमनिरुद्ध भेद नहीं किए गए हैं / भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक के रचयिता आचार्य वीरभद्र के अनुसार साधु एवं गृहस्थ दोनों के द्वारा इस मरण को ग्रहण किया जाता है / 26 जब व्याधि, जरा और मरण के मगरमच्छों की निरन्तर उत्पत्ति से युक्त संसारसमुद्र दुःखद प्रतीत हो तथा मृत्यु नजदीक प्रतीत हो तो शिष्य गुरु के चरणों में जाकर कहे कि मैं संसार समुद्र को तैरना चाहता हूँ आप मुझे भक्तपरिज्ञा में आरूढ़ कीजिए / वह गुरु भी शिष्य को आलोचना और क्षमापना के साथ भक्तपरिज्ञा में आरूढ़ होने के लिए कहता है / शिष्य फिर वैसा ही करके तीन शल्यों से भी रहित होता है / गुरु उस शिष्य को महाव्रतों में आरूढ़ करता है / यदि शिष्य देशविरत अर्थात् श्रावक हो तो गुरु उसे अणुव्रतों में आरूढ़ करता है / वह शिष्य हर्षित होकर गुरु, संघ एवं साधर्मिक की पूजा करता है / गृहस्थ साधक फिर अपने द्रव्य का मन्दिर बनवाने, जिनप्रतिमाओं की स्थापना करवाने आदि कार्यों में उपयोग करता है / यदि वह एवंविरति में अनुराग रखने वाला हो तो वह भी संस्तारक-प्रव्रज्या को Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा : 95 अंगीकारकर सर्वविरति प्रधान सामायिक चारित्र पर आरूढ़ हो जाता है / शिष्य गुरु के द्वारा अनुमत भक्तपरिज्ञामरण का नियम अंगीकार कर लेता है / वह भवपर्यन्त त्रिविध आहार का त्याग कर देता है / फिर उसे संघसमुदाय के समक्ष चतुर्विध आहार का त्याग कराया जाता है किन्तु इससे पूर्व समाधि-पान कराने का उल्लेख है / समाधि-पान एक ऐसा दूध है जिसमें इलायची, तेज, नागकेसर, तमालपत्र एवं शक्कर मिली रहती है / उसे उबालकर ठंडा करके पिलाया जाता है जिससे शरीर में शान्ति बनी रहती है / इसके अनन्तर फोफला आदि द्रव्य देकर विरेचन किया जाता है, इससे पेट की अग्नि का कुछ शमन भी हो जाता है / चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान करने के साथ ही वह आचार्य, उपाध्याय, साधर्मिक, कुल एवं समस्त जीवों आदि से क्षमायाचना करता है / वह सबको आत्मिक शुद्धि के लिए क्षमादान भी करता है / इसप्रकार वंदना, क्षमणा, गर्दा आदि से सैकड़ों भवों में अर्जित कर्मों को वह क्षणभर में निर्जरित कर देता है / इसके लिए मृगावती रानी का उदाहरण दिया गया है।२७ साधु को भी गणाधिपति मिथ्यात्व, शल्य, कषाय आदि के त्याग की प्रेरणा करता हुआ भक्तपरिज्ञामरण में आरूढ़ करता है / (2) इंगिनीमरण यह भक्तपरिज्ञामरण से विशिष्ट है / भक्तपरिज्ञा में की जाने वालो साधना-विधि तो इसमें आ ही जाती हैं किन्तु इसमें साधक दूसरों से किसी प्रकार की सेवा न लेकर संथारा ग्रहण करने के अनन्तर स्वयं ही आकुञ्चन प्रसारण एवं उच्चार आदि की क्रियाएं करता है / यथा सयमेव अप्पणा सो करेइ आउंटणाइकिरियाओ / - उच्चाराइ विगिंचइ एयं च सम्मं निरुवसग्गे / / 28 यदि देवों, मनुष्यों या तिर्यञ्चों के द्वारा किसी प्रकार का उपसर्ग भी उपस्थित किया जाय तो वह निर्भय होकर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं करता।२९ उन उपसर्गों से उसमें आकुलता भी नहीं होती तथा वह उन्हें दूर करने का भी प्रयास नहीं करता है / यदि किनर किंपुरुष देवों की कन्याएं उसे चाहें तो भी वह विचलित नहीं होता है और न ही किसी ऋषि का आश्चर्य करता है / 3deg वह अन्तः एवं बाह्य शुद्धि करके एक स्थान पर तृणों का संस्तारक बिछाता है तथा अरहन्त को प्रणाम करते हुए विशुद्ध मन से आलोचना करता हुआ चारों आहारों का त्याग करता है / द्रव्य एवं भाव से संलेखना करने के अनन्तर ही वह संस्तारक ग्रहण करता है / इस इंगिणीमरण से मरण करने वाला जीव प्रथम संहनन अर्थात् वज्रऋषभ नाराच संहनन से युक्त होता है / 31 ... इंगिनीमरण का साधक इतना निर्भय एवं निराकुल हो जाता है कि यदि संसार के सारे पुद्गल भी दुःख रूप में परिणत हो जाय तब भी उसे दुःखी नहीं कर सकते / वह धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान से आर्त एवं रौद्र ध्यान में नहीं आता है / स्वाध्याय एवं शुभध्यान Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 : डॉ० धर्मचन्द जैन ही उसके जीवन का अंग बन जाते हैं / मौन एवं अभिग्रह धारक उस आराधक से यदि देव एवं मनुष्य कुछ पूछे तो वह धर्मकथा कहता है / 32 (3) पादपोपगमनमरण भक्तप्रत्याख्यान एवं इंगिनीमरणसे भी यह भरण उत्कृष्ट है / इस मरण से मरने वाला साधक पादप के सूखे ढूंठ की तरह एक स्थान पर निश्चेष्ट पड़ा रहता है / वह किसी प्रकार हिलने-डुलने की भी क्रिया नहीं करता है / मरणसमाधि प्रकीर्णक में पादपोपगमन का लक्षण, इस प्रकार दिया है निच्चलनिप्पडिकम्मो निक्खिवए जं जहिं वा अंगं / एवं पाओवगमं सनिहारि वा अनीहारि वा / / 33 अर्थात निश्चल रूप में बिना प्रतिक्रिया के जहां जिस प्रकार अंग स्थिर करके जो मरण किया जाता है वह पादोपगमनमरण है / यह दो प्रकार का होता है-सनिहारी और अनिहारी। जब उपसर्ग के कारण मरण हो जाता है तो उसे सनिहारी एवं बिना उपसर्ग के मरण होने पर उसे अनिहारी कहा जाता है, यथा- . उवसग्गेण वि जं सो साहरिओ कुणइ कालमण्णत्थ / / तो भणियं नीहारिमियरं पुण, निरुवसग्गम्मि / / 34 यह मरण भी प्रथम संहनन अर्थात वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त जीव करता है / वीरभद्राचार्य के मत में संलेखना किया हुआ अथवा संलेखना न किया हुआ भी आत्मा पादोपगमनमरण करता है / 35 पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और त्रसों पर फेंक दिए या डाल दिए जानेपर भी साधक निश्चेष्ट बने रहते हैं / 36 पादोपगमनमरण करने वाले जीवों के अनेक उदाहरण आराधनापताका में दिए गए हैं। मरणसमाधि प्रकीर्णक में चिलातीपुत्र, स्कन्धक शिष्यों, गजसुकुमाल आदि के समाधिमरण के जो उल्लेख हैं वे दिल दहला देने वाले हैं तथा समाधिमरण की साधना का उत्कृष्ट निदर्शन हैं / चिलातीपत्र के शरीर को चीटियों के द्वारा छलनी कर दिया गया किन्तु उन्होंने मन में उनके प्रति थोड़ा भी द्वेष नहीं किया देहो पिपीलियाहिं चिलाइपुत्तस्स चालणिव्व कओ / तणुओ वि मणपओसो न य जाओ तस्स ताणुवरि / / (मरणसमाधि, गाथा 429) स्कन्धक ऋषि के शिष्यों को यन्त्र में पीला गया किन्तु उन्होंने किञ्चित भी द्वेष नहीं किया। गजसुकुमाल के सिर पर श्वसुर के द्वारा अंगारे रखे गए फिर भी वह विचलित नहीं हुआ। इस प्रकार की उत्कृष्ट चित्तसमाधि से मरण को प्राप्त होना जीवन की साधना का उत्कृष्ट निदर्शन है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा : 97 समाधिमरण का फल "भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक में समाधिमरण करते समय चार बातें प्रार्थनीय मानी गई हैं- 1. दुःखक्षय, 2. कर्मक्षय, 3. समाधिमरण, 4. बोधिलाभ / समाधिमरण से मरने वाला उस जीवन में आत्मा की असीम शक्ति से तो साक्षात्कार करता ही है, किन्तु वह उसी भव में या 3-4 भवों में अथवा अधिकतम 7-8 भवों में अवश्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है / समाधिमरण के सोपान समाधिमरण के यद्यपि भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी एवं पादपोपगमन-ये तीन भेद हैं जो उस मरण की विशेषताओं को ही निरूपित करते हैं, किन्तु समाधिमरण की प्रक्रिया के कुछ सामान्य सोपान भी हैं, जिन्हें जानना अत्यन्त आवश्यक है / महाप्रत्याख्यान एवं आतुरप्रत्याख्यान प्रकीर्णक में पादपोपगमन मरण के प्रसंग में पंडितमरण के चार आलम्बन कहे गए हैं-१. अनशन, 2. पादपोपगमन, 3. ध्यान और 4. भावना / 37 अभयदेवसूरि विरचित आराधना प्रकरण में मरणविधि के छः द्वार निरूपित हैं-१. आलोचना, 2. व्रतों का उच्चारण, 3. क्षमापना, 4. अनशन, 5. शुभ भावना और 6. नमस्कार भावना।३८ नन्दन मुनि के द्वारा आराधित आराधना के 6 प्रकार ये हैं-१. दुष्कार्यों की गर्दा, 2. जीवों से क्षमायाचना, 3. शुभ भावना 4. चतुःशरण ग्रहण, 5. पञ्चपरमेष्ठि नमस्कार और . 6. अनशन / 39 पर्यन्ताराधना में आराधना के 24 द्वार दिए गए हैं, जो आराधना का क्रमिक स्वरूप प्रस्तुत करते हैं, वे 24 द्वार हैं- 1. संलेखना द्वार, 2. स्थान द्वार (ध्यानानुकूल स्थान का चयन), 3. विकटना (अतिचारों की आलोचना), 4. सम्यक्त्व द्वार, . 5. अणुव्रत द्वार, 6. गुणव्रत द्वार (श्रावक के लिए), 7. पापस्थान द्वार, 8. सागार द्वार, 9. चतुःशरण गमन द्वार, 10. दुष्कृत गर्दा द्वार, 11. सुकृतानुमोदना द्वार, 12. विषय द्वार, 13. संघादि से क्षमा, 14. चतुर्गति के जीवों से क्षमा द्वार, 15. चैत्य नमन द्वार, 16. अनशन द्वार, 17. अनुशिष्टि द्वार (गुरु द्वारा शिक्षा), 18. भावना द्वार (द्वादश भावनाएं), 19. कवच द्वार (स्थिरीकरणार्थ), 20. नमस्कार द्वार, 21. शुभध्यान द्वार, 22. निदान द्वार, 23. अतिचारनाश द्वार और 24. फलद्वार / इसप्रकार पर्यन्ताराधना में मरणविधि का एक व्यवस्थित क्रम निरूपित है / एक आचार्य (अज्ञात नाम) की आराधना पताका में उत्तम मरणविधि के 32 द्वार दिए हैं।४° उन्होंने अनुशिष्टि द्वार के 17 प्रतिद्वार दिए हैं तथा निर्यामक, असंविग्न, निर्जरणा, द्रव्यदान, स्वजनक्षमा, जिनवरादिक्षमा, शुक्रस्तव और कायोत्सर्ग द्वार-नए जोड़े हैं / वीरभद्राचार्य ने अपनी आराधना पताका में भक्तप्रत्याख्यान आदि त्रिविध मरणों का निरूपण करते हुए प्रसंगानुसार द्वारों का निरूपण किया है। . इन आराधनाओं की अपेक्षा प्राचीन प्रकीर्णकों में मरणविधि तो निरूपित है किन्तु उसे विभिन्न द्वारों में विभक्त नहीं किया गया है / आतुरप्रत्याख्यान नाम के तीन प्रकीर्णक हैं 41 किन्तु एक प्रकीर्णक में ही चार आलम्बन दिए गए हैं और वे भी पादपोपगमन मरण के सम्बन्ध में / इसका अर्थ यह है कि आराधनाओं की रचना प्रकीर्णकों के पश्चात हुई Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 : डॉ० धर्मचन्द जैन है एवं प्रकीर्णकों की विषयवस्तु को ही उनमें स्पष्टतर रूप में प्रतिपादित किया गया है। . हम प्रकीर्णकों को आधार बनाकर समाधिमरण के निम्नांकित प्रमुख सोपान निर्धारित कर सकते हैं 1. संलेखना, 2. आत्म-आलोचन, 3. व्रताधान, 4. संस्तारक, 5. क्षमायाचना, 6 आहार, शरीर एवं उपधि का त्याग, 7. भावनाओं द्वारा दृढीकरण, 8. पंच परमेष्ठि की शरण, 9. देह विसर्जनास्थूल रूप में तो संलेखना, संथारा और मरण ये तीन सोपान ही बनते हैं, किन्तु समाधिमरण का स्वरूप कुछ स्पष्ट हो सके, इसलिए सात सोपानों में इनका विवेचन किया जा रहा है। 1. संलेखना संलेखना का अर्थ है कृश करना / संलेखना दो प्रकार की होती है- 1. बाह्य और 2. आभ्यन्तर / शरीर की संलेखना बाह्य संलेखना कहलाती है तथा कषायों की संलेखना आभ्यन्तर संलेखना होती है।४२ विविध प्रकार के आयम्बिल, उपवास आदि तप करके शरीर को कृश करना शरीर संलेखना है / अल्प, विरस, एवं रूखा आहार ही उस साधक के लिए ग्राह्य है / बेले, तेले, चोले आदि की तपस्याएं एवं प्रतिमा आराधना भी वह कर सकता है / शरीर की इस संलेखना के साथ कषाय की संलेखना आवश्यक है / यदि शरीर कृश होता जाय और अध्यवसायों में विशुद्धि न हो तो शरीर की संलेखना भी निरर्थक हो जाती है।४३ कषायों में कमी करने का साधक निरन्तर प्रयास करें / वह क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से एवं लोभ को संतोष से जीते / / 4 वह राग एवं द्वेष दोनों से बचे तथा निस्संग होकर विचरण करे / शरीर संलेखना जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेदों की अपेक्षा तीन प्रकार की है। जघन्यसंलेखना 12 पक्ष अर्थात् छ: माह, मध्यमसंलेखना 12 माह तथा उत्कृष्ट संलेखना 12 वर्षों तक चलती है / 45 इसका अर्थ है कि समाधिमरण से मरने वाला साधक अपनी तैयारी पर्याप्त समय रहते प्रारम्भ कर देता है / संलेखना साधना का लक्ष्य वस्तुतः कषायों में कमी लाना है / शरीर की संलेखना भी उसी की पूर्ति के लिए की जाती है / जो साधक तपस्या आदि के माध्यम से शरीर को कृश तो कर लेता है किन्तु कषायों को कृश नहीं करता, उसकी साधना निष्फल रहती है। 2. आत्म-आलोचन समाधिमरण का यह दूसरा महत्त्वपूर्ण सोपान है / इसके द्वारा अपने भीतर विद्यमान दोषों का अवलोकन कर उन्हें छोड़ा जाता है / संलेखना करते हुए भी जो दोष साधक के भीतर शेष रह जाते हैं उनका त्याग आत्म-आलोचन के द्वारा ही संभव है / अपनी आलोचना स्वयं भी की जा सकती है तथा गुरु के पास जाकर भी की जा सकती है / गुरुजनों के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करने पर हलकेपन का अनुभव होता है / गुरुजन भी दोषों को छोड़ने की प्रेरणा देकर आत्मा का महत्त्व बतलाते हैं / उस आलोचना के द्वारा प्रमुख रूप से साधक Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा 99 जिन दोषों की गर्दा करता है, वे हैं- सात भय, आठ मद, तीन गारव, तीन शल्य. चार कषाय. मिथ्यात्व, असंयम और ममत्व / 46 सात प्रकार के भयों में इहलोक भय, परलोकभय. आदान भय, अकस्मात भय, अपयश भय, आजीविका भय और मरण भय हैं / समाधिमरण का साधक समस्त भयों को जीतकर निर्भय हो जाता है / मद (घमंड) आठ प्रकार का है-जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, लाभमद, श्रुतमद और ऐश्वर्य मद / गारव तीन हैं-ऋद्भिगारव, रस गारव और साता गारव / इन तीनों की गुरुता को समाधिमरण का इच्छुक साधक त्याग देता है / तीन शल्यों में माया शल्य, मिथ्यादर्शन शल्य एवं निदान शल्य की गणना होती है / ये तीनों शल्य त्यागकर साधक निःशल्य हो जाता है / साधना में ये तीनों कांटे की तरह बाधक हैं / क्रोध, मान, माया एवं लोभ कषाय के त्याग का प्रयास तब तक चलता रहता है जब तक वीतराग अवस्था प्राप्त न हो जाय। मिथ्यात्व, असंयम एवं ममत्व का त्याग किए बिना भी साधना लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ती है / मिथ्यात्व का त्याग तो सबसे अधिक महत्त्व रखता है क्योंकि इसको त्यागे बिना किसी भी दोष का त्याग सर्वांश में नहीं हो सकता / असंयम अर्थात् अविरति का त्याग भी ऐसे साधक के लिए आवश्यक है / हिंसा, असत्य आदि से वह पूर्णतः विरत होता है। अन्त में वह अपने शरीर आदि के ममत्व का भी त्याग कर देता है।४७ आत्मा के निकट पहुँचने अथवा आत्मा में रमण करते हुए देहत्याग करने का यही तरीका है / 48 आत्मालोचन में अपने दोषों की निन्दा एवं गर्दा करके उनसे प्रतिक्रमण भी किया जाता है, यथा मूलगुणे उत्तरगणे जे मे नाराहिया पमाएणं / ... तमहं सव्वं निंदे पडिक्कमे आगमिस्साणं / / 49 प्रमाद के कारण मूलगुण एवं उत्तरगुणों की आराधना न की गई हो तो मैं उनकी निन्दा करता हूँ तथा भावी दोषों से भी प्रतिक्रमण करता हूँ | आहार आदि चार संज्ञाओं, तैंतीस प्रकार की आशातनाओं तथा राग एवं द्वेष की गर्दा का भी उल्लेख मिलता है / ... आलोचना गुरु के समक्ष भी की जाती है / गुरु के समक्ष समाधिमरण का इच्छुक साधक मायामृषावाद को छोड़कर उसीप्रकार सरलता पूर्वक कार्य एवं अकार्य को प्रकट कर देता है जिसप्रकार कि एक बालक कार्य एवं अकार्य का विचार किए बिना सरलतापूर्वक बात कह देता है / 50 3. व्रताधान दोषों के त्याग के साथ महाव्रतों का पुनः आधान किया जाता है। श्रावक अणुव्रतों. गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों को ग्रहण करता है / 51 सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक तथा सर्वविरति रूप त्रिविध सामायिक को बिना आगार के वह स्वीकार करता है / 52 व्रतों का यह ग्रहण गुरु की साक्षी में भी किया जाता है / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 : डॉ० धर्मचन्द जैन 4. संस्तारक प्रकीर्णकों में संस्तरण को अधिक महत्व नहीं मिला है / भगवती आराधना में चार प्रकार के संस्तरणों का उल्लेख है - पुढवि सिलामओ वा फलमओ तणमओ य संथारो / होदि समाधिणिमित्तं उत्तरसिर अहव पुव्वसिरो / / 53. अर्थात् समाधिमरण में चार प्रकार के संस्तरण निमित्त बनते हैं-पृथ्वी, शिलामय, फलमय और तृणमय / साधक अपना सिर पूर्व या उत्तर दिशा में करके संथारा ग्रहण करता है। संस्तरण का अर्थ है बिछौना, लेटने-बैठने का स्थान या संसारसागर से तैरने की शय्या। प्रकीर्णकों की दृष्टि में बाह्य संस्तरण का कोई महत्त्व नहीं है, वस्तुतः आत्मा ही प्रमुख संस्तरण है, यथा न वि कारणं तणमओ संथारो न वि फासुआ भूमी / अप्पा खलु संथारो हवइ, विसुद्धे . चरित्तम्मि / / 54 अर्थात् विशुद्ध चारित्र में न तो तिनकों का बना संथारा या संस्तरण निमित्त है और न प्रासुक भूमि इसमें निमित्त है अपितु आत्मा ही निश्चय में संस्तरण है / संस्तारक प्रकीर्णक में संथारे के सन्दर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण कथन मिलते हैं / वहां कहा गया है कि देवलोक के देवता विविध प्रकार के भोगों को भोगते हुए भी जब संधारे का चिन्तन करते हैं तो वे आसन, शय्या आदि को भी छोड़ देते हैं / 55 जो गारव से मत्त होकर तथा गुरु के समक्ष अपनी आलोचना न करके संथारा ग्रहण करता है उसका संथारा अविशुद्ध होता है / 56 संथारा शुद्ध किसका होता है उसका इस प्रकीर्णक में विस्तृत निरूपण है / जो गुरु के पास आलोचना करके, सम्यग्दर्शन पूर्वक आचरण में निरत रहकर, राग-द्वेष को छोड़ते हुए तीन गुप्तियों से गुप्त एवं तीन शल्यों से रहित होकर, तीन गारवों एवं तीनदण्डों को त्यागकर, चतुर्विधकषाय एवं चार विकथाओं से रहित होकर, पाँच महाव्रतों एवं पाँच समितियों का पालन करता हुआ संथारा ग्रहण करता है उसका संथारा शुद्ध होता है।५७ यही नहीं शुद्ध संथारे पर आरूढ होने वाला साधक षड्जीवकाय की हिंसा से विरत होता है, सात भय स्थानों व आठ मदों से रहित होकर वह नव प्रकार की ब्रह्मचर्यगुप्ति से युक्त होता है एवं दसधर्मों का पालन करता है / 58 संथारा ग्रहण करने के प्रथम दिन ही इतना लाभ होता है कि उसका मूल्य आंकना कठिन है / 59 तृण के संस्तरण पर स्थित एवं राग तथा मोह से रहित मुनिवर को मुक्ति का वह सुख मिलता है जो चक्रवर्ती को भी नहीं मिल सकता / 60 संधारे पर कब आरूढ होना चाहिए, इसके लिए कहा गया है कि वर्षा ऋतु में विविध प्रकार के तप करके हेमंत ऋतु में संथारा ग्रहण करना चाहिए / 61 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा : 101 5. क्षमायाचना ' समाधिमरण का यह भी एक महत्त्वपूर्ण सोपान है / साधु हो तो वह गुरु, गण एवं संघ के साधुओं से क्षमायाचना कर समस्त जीवों से क्षमायाचना करें। श्रावक हो तो वह भी अपने निकटतम जीवों से क्षमायाचना करने के पश्चात् सब जीवों से क्षमाचायना करें। आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल, गण आदि सबसे क्षमायाचना करने का विधान आयरिए उवज्झाए सीसे साहम्मिए कुल गणे य / जे मे केइ कसाया सव्वे तिविहेणं खामेमि / / 62 वह स्वयं मात्र दूसरों से क्षमायाचना ही नहीं करता, अपितु दूसरों को क्षमादान भी करता है / वह सबसे वैर-विरोध त्यागकर मित्रता का भाव रखता है क्योंकि वह सबसे क्षमा याचना कर अपने हृदय को निर्मल बना लेता है खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे / मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झं न केणइ / / 63 महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक में इस गाथा की दूसरी पंक्ति इस प्रकार है-आसवे वोसिरित्ताणं समाहिं पडिसंधए' अर्थात् मैं आसवों को त्यागकर समाधि का प्रतिसंधान करता हूँ। .. 6. आहार, शरीर एवं उपधि का त्याग वैसे तो संलेखना के बाह्य भेद में शरीर को कृश करने का उल्लेख आ गया है, किन्तु - मरण संलेखना पूर्वक हो या बिना संलेखना के, मरणकाल उपस्थित होने पर चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया जाता है / भक्तपरिज्ञामरण में अवश्य प्रारम्भ में त्रिविध आहार का त्याग किया जाता है; किन्तु बाद में चारों आहारों का त्याग कर दिया जाता है / जब देह छूटने का समय एकदम नजदीक है, तब आहार करने से क्या लाभ ? आहार के लिए कहा गया है कि आहार के कारण से मत्स्य सातवीं नरक में जाते हैं, इसलिए सचित्त आहार की तो साधक मन.से भी कामना न करें। आहार के सम्बन्ध में एक बात ध्यातव्य है कि समाधिमरण से मरने वाले साधक के (ओजाहार एवं) रोमाहार तो चाल ही रहता है, केवल कवलाहार का ही त्याग किया जाता है। (ओजाहार तो सम्पूर्ण शरीर के द्वारा ग्रहण किया जाता है तथा) रोमाहार शरीर के रोमों के माध्यम से ग्रहण किया जाता है / कवलाहार के रूप में जिस आहार का त्याग किया जाता है उसमें अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों का ग्रहण हो जाता है / . शरीर के साथ मित्रता का अनुभव करना शरीर का त्याग है / शरीर के साथ ममत्व छोड़ने के पश्चात ही यह संभव है कि शरीर से आत्मा को भित्र अनुभव किया जा सके। अनं इमं सरीरं अत्रो जीव ति' का स्मरण एवं अनुभव सदैव रहना चाहिए / 64 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10? : डॉ० धर्मचन्द जैन उपधि दो प्रकार की होती है-बाह्य और आभ्यन्तर / परिग्रह बाह्य उपधि है तथा कपाय भाव आभ्यन्तर उपधि है / इन दोनों प्रकार की उपधियों का त्याग भी अनिवार्य है। . ये दोनों उपधियां बाह्य एवं आभ्यन्तर परिग्रह की द्योतक हैं। आहार, शरीर एवं उपधि का त्याग तीन प्रकार से अर्थात् मन वचन एवं काय योग से हो, यथा सव् पि असणंपाणं चउव्विहं जो य बाहिरो उवही / अभिंतरं च उवहिं सव्वं तिविहेण वोसिरे / / 65 उवही सरीरगं चेव आहारं च चउव्विहं / / __ मणसा वय कारणं वोसिरामि त्ति भावओ / / 66 वर्तमान में सोते समय जो सागारी संथारा किया जाता है उसमें इन तीनों के त्याग का उल्लेख रहता है, यथा आहार शरीर उपधि पचखू पाप अठारह / मरण पाऊँ तो वोसिरे, जीऊँ तो आगार / / ___7. भावनाओं द्वारा दृढीकरण वैराग्यपरक चिन्तन एवं भावनाओं से चित्त में समाधि सुदृढ़ होती है / अनित्य, अशरण आदि द्वादश भावनाएं भी इसी का अंग हैं / अभयदेवसूरि ने आराधना प्रकरण में एकत्व, अनित्यत्व, अशुचित्व और अन्यत्व का नामतः उल्लेख करके प्रभृति शब्द से अन्य भावनाओं की ओर संकेत किया है / 67 इन भावनाओं की पुष्टि में महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा आदि प्रकीर्णकों में भी अनेक गाथाएं उपलब्ध हैं / यथा एगो मे सासओ अप्पा नाणदंसणसंजुओ / / सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा / / 68 अर्थात ज्ञान एवं दर्शन से युक्त शाश्वत आत्मा ही मेरी है और शेष सब वस्तुएं संयोग लक्षण वाली हैं तथा बाहरी हैं / उनसे आत्मा का संयोग सम्बन्ध है, नित्य सम्बन्ध नहीं है / इसमें एकत्व एवं अन्यत्व दोनों भावनाओं का भाव निहित है / जब समाधिमरण के समय अत्यन्त वेदना हो तो उसे भी इसप्रकार की भावनाओं के आलम्बन से सहज ही सहन किया जा सकता है / साधक सोचता है कि मैंने अनन्तबार नरकादि गतियों में इससे भी तीव्र वेदना सहन की है / जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा फल भोगना पड़ता है एक्को करेइ कम्मं एक्को अणुहवइ दुक्कयविवागं / एक्को संसरइ जिओ जर-मरण-चउग्गई गविलं / / 69 अर्थात जीव अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही अपने दुष्कर्मों का फल भोगता है. वह अकेला ही चतुर्गतियों में भ्रमण करता है / परिवार के लोग उसके शरणभूत नहीं Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा : 103 न वि माया न वि पिया, न बंधना, न वि पियाइं मित्ताइं / पुरिसस्स मरणकाले न होंति, आलंबणं किंचि / / 70 अर्थात् माता-पिता, बन्धुजन और प्रिय मित्र कोई भी मृत्यु के समय पुरुष का सहारा नहीं बनता है। अशुचि भावना का स्वरूप प्रकट करते हुए आराधना प्रकरण में कहा गया है देहो जीवस्स आवासो, सो य सूक्काइसंभवो / धाउरूवो मलाहारो सुई नाम कहं भवे / / 71 अर्थात जीव का आवास यह देह शुक्र आदि से पैदा होता है, धातु इसका रूप है, मल आहार है इसमें शुचिता क्या है ? इसप्रकार की विभिन्न भावनाओं से अपनी आत्मशक्ति को बल मिलता है, वैराग्य में स्थिरता आती है तथा वेदनाओं एवं परीषहों को सहन करने का सामर्थ्य मिलता है / 8. पंच परमेष्ठि की शरण अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए अन्त में साधक पंच परमेष्ठि की शरण ग्रहण करता है / पंच परमेष्ठि को नमस्कार कर उनकी शरण ग्रहण करने का उल्लेख अंग आगमों में कहीं नहीं हुआ है, यह प्रकीर्णकों एवं अराधनाओं की ही देन है / महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक में कहा है मम मंगलमरिहंता सिद्धा साहू स्यं च धम्मो य / तेसिं सरणोतगओ सावज्जं वोसिरामित्ति / / 72 - अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, साधु, श्रुत और धर्म मेरे लिए कल्याणकारी हैं, मैं इनकी शरण में जाकर समस्त पापकर्म त्यांगता हूँ। आचार्य एवं उपाध्यायों को भी इसीप्रकार मंगल माना गया है / भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक में अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन, आचार्य एवं सर्वसाधुओं के प्रति तीनों करणों से भक्ति करने का उल्लेख है / 73 इसी प्रकीर्णक में अरिहंत को किए गए नमस्कार का फल बतलाते हुए कहा है अरिहंतनमुक्कारो वि हविज्ज जो मरणकाले / सो जिणवरेहिं दिट्ठो संसारुच्छेअणसमत्थो / / 74 / / अर्थात् मरणकाल में अरिहंत को किया गया नमस्कार भी जिनवरों के द्वारा संसार उच्छेद करने वाला कहा गया है / नमस्कार महामन्त्र में उसे पापनाशक कहा गया है, ये ही भाव आराधनाप्रकरण में इस प्रकार आए हैं * इय पंचनमुक्कारो पावाण पणासणोऽवसेसाणं / तो सेसं चइऊणं सो गेज्झो मरणकालम्मि / / 75 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 : डॉ० धर्मचन्द जैन आगे कहा हैपंचनमोक्कारवरत्थसंगओ अणसणावरणजत्तो / वयकरिवरखंधगओ मरण रणे होइ दुज्जेओ / / 76 अर्थात् पाँच नमस्काररूपी श्रेष्ठ अस्त्र से युक्त, अनशनरूपी कवच को धारण किया हुआ तथा व्रतरूपी हाथी के स्कन्ध पर आरूढ़ साधक मरणरूपी युद्धक्षेत्र में दुर्जेय होता ___9. देह विसर्जन देह छोड़कर जब आत्मा का महाप्रयाण हो जाता है, तब देह का विसर्जन कब एवं किस प्रकार किया जाना चाहिए इसके सम्बन्ध में प्रकीर्णकों में कोई संकेत नहीं मिलता, किन्तु भगवती आराधना में मरे हुए साधु की देह को वहां से तत्काल हटाने का उल्लेख समाधिमरण और आत्महत्या जैनेतर सम्प्रदाय के लोग या समाधिमरण के स्वरूप से अनभिज्ञ लोग इसे : आत्महत्या की संज्ञा देते हैं, किन्तु उनका यह मन्तव्य उचित नहीं है क्योंकि आत्महत्या करते समय तो कषायों में अभिवृद्धि अर्थात् संक्लेश होता है जबकि समाधिमरण में कषायों पर जय प्राप्त की जाती है / यह साधना का एक उत्कृष्ट प्रकार है, जिसके द्वारा ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप का आराधन किया जाता है / मैंने आत्महत्या एवं समाधिमरण का अन्तर इसप्रकार किया है: आत्महत्या तु सावेशा रागरोषविमिश्रिता। . समाधिमरणं तावत् समभावेन तज्जयः / / 77 अर्थात् आत्महत्या तो आवेशपूर्वक की जाती है / इसमें राग-द्वेष का भाव मौजूद रहता है जबकि समाधिमरण में तो राग-द्वेष को समभावपूर्वक जीता जाता है। युद्ध में जो सैनिक लड़ते हुए मारे जाते हैं वह आत्महत्या तो नहीं है, किन्तु उसमें प्राप्त मरण भी बालमरण अथवा अज्ञानमरण की श्रेणी में ही आता है क्योंकि उसका सम्बन्ध कषायजय से नहीं अपितु राग-द्वेष से ही है / उपसंहार प्रकीर्णक-साहित्य में वर्णित समाधिमरण की अवधारणा के सम्बन्ध में निम्नांकित प्रमुख बिन्दु उभरकर आते हैं 1. अंग-सूत्रों में वर्णित पंडितमरण अथवा समाधिमरण का प्रकीर्णकों में विस्तार से निरूपण हुआ है, किन्तु अंग-सूत्रों में स्थापित मूलस्वरूप एवं लक्ष्य सुरक्षित रहा है। 2. समाधिमरण मुक्ति के मार्ग की एक उत्कृष्ट साधना है / मुख्यतः इसके तीन Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा : 105 प्रकार हैं-भक्तपरिज्ञामरण, इंगिनीमरण एवं पादपोपगमनमरण / इन सभी समाधिमरणों में ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की आराधना की जाती है। 3. मृत्यु होना सुनिश्चित है / धीर पुरुष भी मरता है और कायर पुरुष भी मरता है। जब मरना सुनिश्चित है तो धीर पुरुष की भाँति ही क्यों न मराजाय, ताकि मरना सार्थक हो जाय, यह प्रकीर्णकों की प्रेरणा है / 4. प्रकीर्णकों में समाधिमरण के पूर्व संलेखना की बात कही है और संलेखना को बाह्य एवं आभ्यन्तर अथवा शरीर एवं कषाय के भेद से दो प्रकार का निरूपित किया गया है और कषाय की संलेखना के अभाव में शरीर की संलेखना को निरर्थक प्रतिपादित किया 5. कषाय की संलेखना के साथ सात प्रकार के भय, आठ प्रकार के मद, तीन प्रकार के गारव, तीन प्रकार के शल्य, चार प्रकार की संज्ञाओं और तैंतीस प्रकार की आशातना आदि को त्यागने का उल्लेख प्रकीर्णकों में ही प्राप्त होता है / इनमें ममत्व व्युच्छेद पर भी बल दिया गया है। 6. भक्तपरिज्ञा, इंगिनी एवं पादपोपगमन मरणों के भेदों का स्वरूप सहित वर्णन कर प्रकीर्णकों ने समाधिमरण के प्रत्यय को अधिक आकर्षक एवं स्पष्ट किया है / 7. समाधिमरप्प के पूर्व समस्त जीवों से क्षमायाचना करना (आत्मशुद्धि के लिए) आवश्यक माना गया है। 8. समाधिमरण से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है तथा नवीन कर्मों के आसव का निरोध होता है जिससे मुक्ति का मार्ग सरल हो जाता है / इससे पूर्वबद्ध कर्मों का स्थितिघात एवं रसघात होता है / 9. जो जीव समाधिमरण पूर्वक मरता है वह उसी भव में अथवा अधिकतम 7-8 भवों में मोक्ष प्राप्त कर लेता है / 10. अनशन एवं उपधि के त्याग के साथ शरीर का त्याग भी आवश्यक है / शरीर का त्याग करने का आशय उसके दुःख-सुख से अप्रभावित होने अथवा आत्मा से उसे - भिन्न अनुभव करने से है। 11. समाधिमरण पूर्वक मरने वाला निर्भय होकर मरता है, सबके प्रति मैत्री-भाव रखता हुआ मरता है, उसका किसी के प्रति वैर-भाव नहीं रहता / वह व्याकुल होकर नहीं मरता। वह अनाकुल रहता हुआ समाधिभाव में देह छोड़ देता है। - 12. मरण के विविध प्रकारों में यह सबसे उत्कृष्ट मरण है / 13. यह आत्महत्या एवं युद्ध क्षेत्र में मरने से भित्र है क्योंकि उनमें कषाय के आवेश में मरण होता है जबकि समाधिमरण में कषायों पर जय प्राप्त की जाती है / 14. समाधिमरण एक प्रकार से सजगतापूर्वक मरण है, जिसे पूर्ण तैयारी के साथ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 : डॉ० धर्मचन्द जैन स्वीकार किया जाता है / अचानक मृत्यु का प्रसंग आने पर भी साधक इस मरण को . सजगतापूर्वक अपना सकता है / 15. यदि समाधिमरण काल में कोई साधक विचलित हो जाय एवं चित्त में: असमाधि हो जाय तो उसका मरण समाधिमरण नहीं कहा जा सकता / इसलिए यह पूरे जीवन की साधना की अन्तिम परिणति ही माना जा सकता है / साधना के अभ्यास के अभाव : में इसे अपनाना उतना आसान नहीं है / 16. समस्त साधु या श्रावक इस मरण से नहीं मर पाते, कुछ ही इसे अपना पाते सन्दर्भ सूची द्रष्टव्य, समवायांगसूत्र, सप्तदश स्थानक समवाय द्रष्टव्य, समवायांगसूत्र, दशस्थानक समवाय द्रष्टव्य, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र स्थानाङ्गसूत्र, प्रका० आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, सूत्र 2.4.4 11-414 वही, सूत्र 3.4.519 वही, सूत्र 3.4.520-522 उत्तराध्ययनसूत्र, पंचम अध्ययन, गाथा 2-3 इच्चेवं विमोहायतणं हियं सुहं खमं णिस्सेसं आणुगामियं त्ति बेमि / -आचारांग सूत्र, प्रका० आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, सूत्र 1.8.4.215 द्रष्टव्य, महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक , प्रका० आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, भूमिका पृ० 52 10. महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक, गाथा 49, आराधनापताका प्रकीर्णक, गाथा 50, मरणसमाधि प्रकीर्णक, गाथा 245 जं अन्नाणी कम्मं खवेइ, बहुयाहिं वासकोडीहिं / तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ, ऊसास मित्तेणं / / (महाप्रत्याख्यान, गाथा 101) 12. चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक, गाथा 122 13. वही, गाथा 149-150 14. दंसणनाण चरित्ते तवे य आराहणा चउक्खंधा / सा चेव होइ तिविहा उक्कोसा मज्झिम जहन्ना / / ( महाप्रत्याख्यान, गाथा 137) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा : 107 15. पंचसमिओ तिगुत्तो सुचिरं कालं मुणी विहरिऊणं / मरणे विराहयंतो धम्ममणाराहओ भणिओ / / बहुमोहो विहरित्ता पच्छिमकालम्मि संवुडो सो उ / आराहणोवउत्तो जिणेहिं आराहओ भणिओ / / (चन्द्रवेध्यक, गाथा 157-158) . 16. तिविहं भणंति मरणं बालाणं बालपंडियाणं च / तइयं पंडियमरणं जं केवलिणो अशुमरंति / / (आतुरप्रत्याख्यान, गाथा 36) 17. पंडियपंडियमरणं च पंडियं बालपंडियं तह य / बालमरणं चउत्थं च पंचमं बालबालं तु / / ( आराधनापताका (2), गाथा 43 ) 18. द्रष्टव्य, आराधनापताका (2), गाथा 44-47 1.9. सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं च जलपवेसो य / अणयार भंडसेवी जम्मणमरणाणुबंधीणि / / ( आतुरप्रत्याख्यान, गाथा 46 ) 20. सत्तविधे आउभेदे पण्णत्ते, तं जहा अज्झवसाण णिमित्ते, आहारे वेयणा पराघाते / फासे आणापाणू सत्तविहं भिज्जए आउ / / ___ (स्थानाङ्गसूत्र, 7.72) 21. . भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक, गाथा 9 22.. भत्तपरिनामरणं दुविहं सविआरमो य अवियारं / सपरक्कमस्स मुणिणो संलिहिअतणुस्स सविआरं / / अपरक्कमस्स काले अप्पहुप्पंतंमि जं तमविआरं // ( भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक, गाथा 10-11). सम्पूर्ण विवरण के लिए द्रष्टव्य, आराधनापताका (वीरभद्र) आराधनापताका (वीरभद्र), गाथा 895 द्रष्टव्य, वही, गाथा 896-900 भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक, गाथा 14 27. सम्पूर्ण विवरण के लिए द्रष्टव्य, भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक ..28. आराधनापताका (वीरभद्र), गाथा 908 वही, गाथा 909 . 30. वही, गाथा 910 31. वही, गाथा 905-907 23. 25. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 : डॉ० धर्मचन्द जैन 34. 36. 38. 32. वही, गाथा 911, 919 आदि 33. मरणसमाधि प्रकीर्णक, गाथा 527 आराधनापताका (वीरभद्र), गाथा 926 पढमिल्लुय संघयणो संलिहियप्पाऽहवा असंलिहिओ / नीहारिमियरं वा पाओवगमं कुणइ धीरो // ( आराधनापताका, गाथा 922) आराधनापताका (वीरभद्र), गाथा 924 37. . महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक, गाथा 92 / / आलोयणा वयणं उच्चारो खामणा अणसणं च / सुहभावणा णमोक्कार भावणं च त्ति मरणविही / / . (आराधना प्रकरण, गाथा 1) नन्दनमुनि आराधित आराधना (संस्कृत), श्लोक 37 40. द्रष्टव्य, पइण्णयसुत्ताई भाग-२ (महावीर जैन विद्यालय, बम्बई) 41. द्रष्टव्य, तीनों प्रकीर्णक, पइण्णयसुत्ताई भाग-१ (महावीर जैन विद्यालय, बम्बई 42. संलेहणा उ दुविहा अभिंतरा य बाहिरा चेवे / अभिंतरा कसाएसु बाहिरा होइ हु सरीरे।। __ (पर्यन्ताराधना, गाथा 5) 43. सयला वि सा निरत्था जाव कसाए न संलिहिए / / (पर्यन्ताराधना, गाथा 10) 44. कोहं खमाए माणं महवया अज्जवेण मायं च। संतोसेण य लोहं जिणइ हु चत्तारि वि कसाए।। / ( आराधनापताका (1), गाथा 17 ) 45. तणुसंलेहण तिविहा उक्कोसा मज्झिमा जहन्ना य / बारसवासा बारसमासा पक्खा वि बारस उ // (पर्यन्ताराधना, गाथा 6) सत्त भए अट्ठ मए सन्ना चत्तारि गारवे तिन्नि / आसायणं तेत्तीसं रागं दोसं च गरिहामि / / असंजममत्राणं मिच्छत्तं सव्वमेव य ममत्तं / जीवेसु अजीवेसु य तं निंदे तं च गरिहामि / / (आतुरप्रत्याख्यान, गाथा 29-30) 47. ममत्तं परिवज्जामि, निम्ममत्तं उवढिओ / आलंबणं च मे आया, अवसेसं च वोसिरे / / . ( आतुरप्रत्याख्यान, गाथा 23) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा : 109 48. आया हु महं नाणे आया मे दंसणे चरित्ते य। आया पच्चक्खाणे आया मे संजमे जोगे / / ( आतुरप्रत्याख्यान, गाथा 24) महाप्रत्याख्यान, गाथा 12 49. 56. 50. जह बालो जंपंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ / ___ तं तह आलोइज्जा मायामोसं पमोत्तूणं / / ( आतुरप्रत्याख्यान, गाथा 33) 51. भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक, गाथा 28.29 संथारयपव्वज्जं पडिवज्जइ सो वि निअमनिरवज्जं / सव्वविरइप्पहाणं . सामाइअचरित्तमारुहइ / / __ (भक्तपरिज्ञा, गाथा 33) 53. भगवती आराधना (शिवार्य), गाथा 640 54. महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक, गाथा 96, संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 53 55. संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 27 जो गारवेण मत्तो निच्छइ आलोयणं गुरूसगासे / आरूहइ य संथारं अविसुद्धो तस्स संथारो // (संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 33 ) 57. वही, गाथा 36-40 58. वही, गाथा 41-43 59.. वही, गाथा 46 तणसंथारनिसन्नो वि मुणिवरो भट्ठरागमय मोहो / जं पावइ मुत्तिसुहं कत्तो तं चक्कवट्टीवि / / __ (वही, गाथा 48) 61. . वही, गाथा 55 62. वही, गाथा 104 63. महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक, गाथा 54 64. संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 100 65. महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक, गाथा 34 66. वही, गाथा 109 - 67... इय पडिवण्णाणसणो सम्मं भावेज्ज भावणाओ सुभा / एगत्ताऽणिच्चत्ताऽसुइत्त अण्णत्त पभिईओ / / ( आराधनाप्रकरण, गाथा 63) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 : डॉ० धर्मचन्द जैन 68. 69. 70. 71. 72. 73. महाप्रत्याख्यान, गाथा 16 वही, गाथा 44 चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक, गाथा 167 आराधनाप्रकरण (अभयदेवसूरि), गाथा 66 महाप्रत्याख्यान, गाथा 114 भक्तपरिज्ञा, गाथा 70 वही, गाथा 77 आराधनाप्रकरण, गाथा 79 वही, गाथा 83 स्वाध्याय शिक्षा, जून 1991 74. 75. 76 77. * सहायक आचार्य संस्कृत विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय * जोधपुर (राज.) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य * डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय जैन परंपरा के अनुसार आगम तीर्थकरों के उपदेशों के आधार पर निर्मित माने जाते हैं / महावीर ने उस समय की जन सामान्य की भाषा में अपने उपदेश दिये और उनके साक्षात शिष्य गणधरों ने उनके उपदेशों को सूत्ररूप में निबद्ध कर आगमों की रचना की / यह जन सामान्य की भाषा ही प्राकृत नाम से जानी जाती है, जो सम्पूर्ण जैन आगमों की भाषा है / ईस्वी सन् 11 वीं शताब्दी के जैन विद्वान नमिसाधु ने रूद्रट के काव्यालंकार की टीका लिखते हुए प्राकृत को परिभाषित किया है / उनके अनुसार प्राकृत' शब्द का अर्थ है-व्याकरण आदि संस्कारों से रहित लोगों का स्वाभाविक वचन व्यापार अथवा उससे उत्पत्र भाषा / अथवा जो पहले हो, उसे प्राकृत कहते हैं / यही प्राकृत मेघ मुक्त जल के समान पहले एक रूप होने पर भी देशभेद और संस्कार के कारण भिन्नता को प्राप्त करती हुई पालि, संस्कृत आदि अवांतरभेदों में परिणत होती है / वस्तुतः प्राकृत भाषा अपनी प्रकृति के अनुसार सदा परिवर्तनशील रही है / संस्कृत से भिन्न लोकभाषा प्राकृत कहलायी और जैसे-जैसे लोकभाषा में परिवर्तन होते गये, जैनागमों की भाषा भी परिवर्तित होती गई। जैसे-जैसे जैन धर्म अपने मूल केन्द्रस्थल मगध (उत्तर बिहार) से पश्चिम और दक्षिण की ओर फैलता गया, वैसे-वैसे उन उन क्षेत्रों में प्रचलित भाषा के शब्दों और रूपों का प्राकृत भाषा में समावेश होता गया / इस आधार पर प्राकृत के अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची, चूलिका पैशाची आदि अनेक भेद हुए / भरत (ईसा की तीसरी शताब्दी) के नाट्यशास्त्र में जो मागधी, अवन्तिका, प्राच्या, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, वाहलीका और दाक्षिणात्या आदि प्राकृत के सात भेद गिनाये हैं, वे इन भाषाओं की भौगोलिकता को ही सूचित करते हैं। सामान्यतया अर्धमागधी को जैनागमों की भाषा माना गया है / समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति और प्रज्ञापना आदि सूत्रों में आगमों की भाषा के रूप में अर्धमागधी का ही उल्लेख है। आचार्य हेमचन्द्र ने उसे आर्ष प्राकृत अथवा प्राचीन प्राकृत नाम दिया है। 'नन्दीसुत्तं'और अंनुयोगदाराइं की प्रस्तावना में आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी ने इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि जैनागमों की भाषा प्राचीन काल में अर्धमागधी थी। यह बात स्वयं आगमों के उल्लेख से पता चलती है / परन्तु आज वैयाकरण जिसे महाराष्ट्री प्राकृत कहते हैं, वही प्राकृत आगमों की भाषा के नजदीक है, अतः आधुनिक विद्वान इसे जैन महाराष्ट्री कहते हैं / इस भाषा की समग्र भाव से एकरूपता दिगम्बर ग्रंथों की शौरसैनी की भांति, आगम ग्रंथों में नहीं मिलती और भाषाभेद के स्तर स्पष्टरूप से . विशेषज्ञों को ज्ञात होते हैं / वस्तुतः देखा जाय तो शौरसेनी आगम साहित्य का विकास भी अर्धमागधी साहित्य के प्राचीन स्तर के इन्हीं आगमों के आधार पर हुआ है जो शौरसेनी की अपेक्षा निःसंदेह अधिक प्राचीन है / Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय श्वेताम्बर जैनागम अर्धमागधी में निबद्ध है / श्वेताम्बर परंपरा 45 आगमों को मानती है / जिसमें आचारांग, सूत्रकृतांग, समवायांग आदि 12 अंग, औपपातिक, राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना आदि 12 उपांग, चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान आदि 10 प्रकीर्णक, व्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध आदि चार छेद सूत्र, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आवश्यक और पिण्डनियुक्ति आदि चार मूल सूत्र तथा नन्दी और अनुयोगद्वार इन दो चूलिका सूत्रों का समावेश है। __ दिगम्बर आगम शौरसेनी भाषा में निबद्ध है। शौरसेनी भाषा शूरसेन नामक क्षेत्र (ब्रजमण्डल, मथुरा के आसपास का प्रदेश) में बोली जाने के कारण शौरसेनी कहलाई। . उसी प्रकार जैसे मगध की भाषा मागधी या अर्धमागधी कहलाई / मध्यप्रदेश (गंगा-यमुना की उपत्यका) के साथ शौरसेनी का घनिष्ठ सम्बन्ध था, जो प्राचीन भारतीय संस्कृति का केन्द्र रहा है और जो संस्कृत नाटकों की उत्पत्ति का केन्द्र माना जाता है / मागधी और अर्धमागधी की भाँति शौरसेनी की उत्पत्ति भी प्राचीन भारतीय आर्य भाषाओं से हुई है। वररुचि ने प्राकृत प्रकाश में संस्कृत को शौरसेनी का आधार स्वीकार किया है / ध्वनितत्त्व की दृष्टि से शौरसेनी मध्य भारतीय भाषा के विकास में संक्रमण काल की अवस्था है, महाराष्ट्री इसके बाद आती है / 5 मथुरा जो शौरसेनी का केन्द्रबिन्दु रहा है, जैन आचार्यो की प्रवृत्तियों का मुख्य केन्द्र रहा है / अतएव उनकी रचनाओं में शौरसेनी की प्रमुखता आना स्वाभाविक है / शौरसेनी में रचित आगमों की भाषा में एकरूपता का अभाव दृष्टिगोचर होता है / पिशल ने दिगम्बरीय आगम ग्रंथों की शौरसेनी को जैन शौरसेनी नाम दिया। उनके मतानुसार बोलियाँ अर्थात बोल-चाल की भाषाएं जो व्यवहार में लाई जाती हैं, उनमें शौरसेनी का स्थान प्रथम है / हर्मन याकोबी ने इसे क्लासिकल पूर्व (Pre-Classical) नाम दिया है। इसी शौरसेनी में दिगम्बरों के सम्पूर्ण आगम निबद्ध हैं / दिगम्बर परंपराश्वेताम्बर परंपरा को मान्य 45 आगमों को नहीं मानती / उनके अनुसार आगम साहित्य विच्छिन हो गया है, परन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में भी प्राचीन आगमों के उल्लेख तो मिलते ही हैं / जैसे श्वेताम्बरीय नन्दीसूत्र में आगमों की गणना में 12 उपांगों का उल्लेख नहीं है, वैसे ही दिगम्बर परंपरा में भी उपांगों का उल्लेख नहीं है / किन्तु द्वादशांगों को दिगम्बर भी श्वेताम्बर की भांति अर्धमागधी में गणधरों द्वारा रचित मानते हैं परंतु उनका लोप हो गया है, वे ऐसा मानते हैं। दिगम्बर परंपरा के अनुसार आगमों के दो भेद हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट / अंगबाह्य के 14 भेद हैं- 1 सामायिक, 2 चतुर्विंशतिस्तव, 3 वन्दना, 4 प्रतिक्रमण, 5 वैनयिक, 6 कृतिकर्म, 7 दशवैकालिक, 8 उत्तराध्ययन, 9 कल्पव्यवहार, 10 कल्पाकल्प, 11. महाकल्पिक, 12 पुण्डरीक, 13 महापुण्डरीक और 14 निषिद्धिका / अंगप्रविष्ट के 12 भेद हैं, जो श्वेताम्बरों को मान्य आचारांग आदि 12 अंग ही हैं। जिनका दिगम्बर परंपरा सम्पूर्ण विच्छेद मानती है / दृष्टिवाद का लोप दोनो परंपराएं मानती हैं / दिगम्बरीय परंपरा दृष्टिवाद के पांच अधिकार मानती है-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 113 चूलिका / दिगम्बर परंपरा दृष्टिवाद के कुछ बचे हुए अंशों को षट्खण्डागम के रूप में मानती है। दिगम्बर परंपरा में षट्खण्डागम और कषायप्राभृत ही ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका सम्बन्ध महावीर की द्वादशांग वाणी से बताया जाता है / शेष समस्त श्रुत ज्ञान क्रमशः विलुप्त और विच्छिन्न हुआ माना जाता है / सम्पूर्ण दिगम्बरीय साहित्य को चार भागों में विभक्त किया गया है 1. प्रथमानुयोग-इमसें रविसेन का पद्मपुराण, जिनसेन का हरिवंशपुराण और आदिपुराण तथा जिनसेन के शिष्य गुणभद्र के उत्तरपुराण का अंतर्भाव होता है / 2. करणानुयोग-इसमें सूर्यप्रज्ञप्ति और जयधवला का अंतर्भाव होता है / 3. द्रव्यानुयोग-इसमें कुन्दकुन्दाचार्य की रचनायें-प्रचवनसार, पंचास्तिकाय, समयसार आदि, उमास्वामी के तत्त्वार्धसूत्र और उनकी टीकाएँ, समन्तभद्र की आप्तमीमांसा और अकलंक व विद्यानन्द कृत टीकाओं का समावेश है। __4. चरणानुयोग-इसमें वट्टकेर के मूलाचार और त्रिवर्णाचार तथा समन्तभद्र के रत्नकरंडकश्रावकाचार का अंतर्भाव है। प्रकीर्णक दिगम्बरीय परंपरा प्रकीर्णकों को नहीं मानती / परंतु, श्वेताम्बर परंपरा की चाहे चौरासी आगमों को माननेवाली परंपरा हो या पैंतालीस, दोनों ने प्रकीर्णक ग्रन्थों के स्थान और महत्त्व को स्वीकार किया है। सामान्यतः प्रकीर्णक का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ ही किया जाता है / नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परंपरानुसार यह भी मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णक की रचना करता था / समवायांगसूत्र में 'चौरासीइं पइण्णगं सहस्साई पण्णत्ता' कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के 84 हजार प्रकीर्णकों का उल्लेख किया गया है / महावीर के तीर्थ में 14 हजार साधुओं का उल्लेख प्राप्त होता है / अतः उनके तीर्थ में प्रकीर्णकों की संख्या भी 14 हजार मानी जासकती है-यद्यपि यह मात्र पारम्परिक मान्यता है / वर्तमान में मुख्य प्रकीर्णकों की संख्या 10 है, ये हैं-१ चतुःशरण, 2 आतुरप्रत्याख्यान, 3 महाप्रत्याख्यान, 4 भक्तपरिज्ञा, 5 तन्दुलवैचारिक, 6 संस्तारक, 7 गच्छाचार, 8 गणिविद्या, 9 देवेन्द्रस्तव, 10 मरणसमाधि / प्रकीर्णक नाम से अभिहित समस्त ग्रन्थों का संग्रह करने पर निम्न 22 प्रकीर्णक प्राप्त होते हैं-१ चतुःशरण, 2 आतुरप्रत्याख्यान, 3 महाप्रत्याख्यान, 4 भक्तपरिज्ञा, 5 तन्दुलवैचारिक, 6 संस्तारक, 7 गच्छाचार, 8 गणिविद्या, 9 देवेन्द्रस्तव, 10 मरणसमाधि, 11 चन्द्रावेध्यक, 12 वीरस्तव, 13 अजीवकल्प, 14 ऋषिभाषित, 15 द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, 16 ज्योतिषकरण्डक, 17 अंगविद्या, 18 सिद्धप्राभृत, 19 सारावली, 20 आराधनापताका, 21 तित्थोगाली और 22 जीवविभक्ति / 1deg एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी मिलते हैं, यथा आउरपच्चक्खाण के नाम से तीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं / इनमें Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय से नन्दी और पाक्षिक के उत्कालिकसूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रावेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, मरणसमाधि और महाप्रत्याख्यान ये सात नाम पाये जाते हैं / कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो नाम पाये जाते हैं / इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र में नौ प्रकीर्णकों का ही उल्लेख मिलता है / 11 यद्यपि प्रकीर्णकों का आगम की श्रृंखला में द्वितीय स्थान है। किन्तु यदि हम भाषागत प्राचीनता और आध्यात्मप्रधान विषयवस्तु की दृष्टि से विचार करें तो प्रकीर्णक आगमों की अपेक्षा भी महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं / ऋषिभाषित आदि प्रकीर्णक तो उत्तराध्ययन और दशवैकालिक जैसे प्राचीन आगमों की अपेक्षा भी प्रचीन हैं / 12 उपरोक्त 22 प्रकीर्णकों१३ की गाथाओं को हमने शौरसेनी आगम साहित्य के जिन ग्रंथों में खोजने का प्रयास किया है, उनमें मुख्य हैं-षट्खण्डागम, धवला, वट्टकेर कृत मूलाचार, यतिवृषभ कृत तिलोयपण्णत्ति, शिवार्य अथवा शिवकोटि कृत भगवती आराधना, नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवर्ती कृत गोम्मटसार और त्रिलोकसार, आचार्य कुन्दकुन्द कृत पंचास्तिकाय, समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड-दंसणपाहुड, चरित्तपाहुड, सुत्तपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्खपाहुड, लिंगपाहुड, शीलपाहुड और बारस अणुवेक्खा। आचार्य गुणधर कृत कषायप्राभृत, स्वामी कार्तिकेय कृत कार्तिकेयानुपेक्षा, राजा चामुण्डराय के निमित्त रचित लब्धिसार, क्षपणासार, श्रुतमुनि कृत भावत्रिभंगी, आस्रवत्रिभंगी आदि / इनमें से प्रकीर्णकों की गाथाएँ हमें सभी ग्रंथों में प्राप्त नही हुई हैं, जो मिली हैं, उनके क्रम इस प्रकार हैं-भगवती आराधना में प्रकीर्णकों की सबसे अधिक 174 गाथाएँ मिलती हैं / महाप्रत्याख्यान की 34 गाथाएँ मूलाचार में और 12 गाथाएँ भगवतीआराधना में मिलती हैं। देवेन्द्रस्तव की मूलाचार में 1, तिलोयपण्णत्ति में 1, चन्द्रावेध्यक की मूलाचार में 7, भगवतीआराधना में 6, सूत्तपाहुड में 2, नियमसार में 1 और भावपाहुड में 1 गाथा मिलती है / संथारग की मूलाचार में 1 और भगवतीआराधना में 1, भक्तपरिज्ञा की भगवतीआराधना में 13 और मूलाचार में 1 गाथा मिलती है / आतुरप्रत्याख्यान की भगवती आराधना में 6 और मूलाचार में 7 गाथाएँ मिलती हैं / गच्छाचार प्रकीर्णक की भगवतीआराधना में 4 गाथाएँ मिलती हैं / ज्योतिषकरण्ड की तिलोयपण्णत्ति में 5 गाथाएँ, तित्थोगाली की मूलाचार में 1 एवं तिलोयपण्णत्ति में 1 गाथा मिलती है / आराधनापताका (पाईणायरीय कृत) की भगवतीआराधना में 26 गाथाएँ, मूलाचार में 5 और रयणसार में 1 गाथा मिलती है / आराधनापताका (वीरभदायरिय कृत) की भगवतीआराधना में 107 गाथाएँ और दर्शनप्राभृत में 1, तिलोयपण्णत्ति में 1 एवं मूलाचार में 9 गाथाएँ मिलती हैं। इस प्रकार बारह प्रकीर्णकों की कुल 276 गाथाएँ शौरसेनी आगम साहित्य में मिलती हैं। ये गाथाएँ शौरसेनी और अर्धमागधी भाषाई रूपान्तरण को छोड़कर अधिकांश यथावत रूप में स्वीकार कर ली गई हैं / यद्यपि इस आधार पर यह निश्चित कर पाना तो कठिन है कि ये सभी गाथाएँ प्रकीर्णकों से शौरसेनी आगम साहित्य में गई हैं या शौरसेनी Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 115 प्राकृत साहित्य से प्रकीर्णकों में आई हैं, परन्तु इतना तो निश्चित है कि जिन नौ प्रकीर्णकों के उल्लेख नन्दी और पाक्षिकसूत्र में मिलते हैं उनकी रचना पाँचवीं शताब्दी से पूर्व तो हो चुकी थी / क्योंकि नन्दीसूत्र की चूर्णि का काल ६-७वीं शताब्दी माना जाता है / अतः नन्दीसूत्र पाँचवीं शती का ही है / आराधनापताका (वीरभद्राचार्य १०वी ११वीं शती) आदि प्रकीर्णक जो निश्चितरूप से बाद के हैं, उनमें ये गाथाएँ अन्य प्रकीर्णकों अथवा भगवती आराधना से ली गई हों, यह सम्भव है। वीरभद्राचार्य विरचित आराधनापताका की भगवतीआराधना में 107 गाथाओं का मिलना इसी बात का प्रमाण है / मूलाचार में विभिन्न प्रकीर्णकों की 76 गाथाएँ मिलती हैं / इन दोनों ही ग्रंथों में गाथाएं प्रकीर्णकों से ली गई हैं, यह इन ग्रंथों की विषयवस्तु को देखकर स्पष्ट हो जाता है / इन दोनों ग्रंथों में गुणस्थान की स्पष्ट चर्चा की गई है जो इस बात का प्रमाण है / गुणस्थान सिद्धांत ५वीं शती में आया है। अतः ये ग्रंथ ६ठीं शताब्दी के लगभग की रचनाएँ हैं / यदि ये दोनों ग्रंथ इनके पूर्ववर्ती होते, जैसा कि दिगम्बर सम्प्रदाय के कुछ विद्वान मानते हैं, तो तीसरी-चौथी शती के आचार्य उमास्वाति जो अपने तत्त्वार्थसूत्र में जैन धर्म और दर्शन के लगभग हर विषयों पर प्रकाश डाले हैं, गुणस्थान की चर्चा भी अवश्य ही किए होते / तत्त्वार्थ में गुणस्थान की स्पष्ट चर्चा का न मिलना इसी बात का प्रमाण है / गुणस्थान की चर्चा करने वाले सभी ग्रन्थ चौथी शती के बाद ही कभी निर्मित हुए हैं। प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ कुन्दकुन्द रचित ग्रन्थों में मिलती हैं। महाप्रत्याख्यान की दस गाथाएँ कुन्दकुन्द के विभिन्न ग्रंथों मे मिलती हैं। जिसमें प्रवचनसार में 1, नियमसार में ८और समयसार में 1 गाथा मिलती है / अन्य प्रकीर्णकों से नौ और गाथाएँ कुन्दकुन्द के अन्य ग्रंथों में मिलती हैं / स्पष्ट है कि ये गाथाएँ कुन्दकुन्द ने प्रकीर्णकों से अपनी रचनाओं में ली हैं / क्योंकि प्रकीर्णकों का समय (जिन प्रकीर्णकों का नन्दी और इसकी चूर्णि में उल्लेख मिलता है) पाँचवीं शताब्दी के आसपास का है और कुन्दकुन्द के सम्बन्ध में यह अनेक प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है कि कुन्दकुन्द छठीं शताब्दी के पूर्व के आचार्य नहीं हैं / कुन्दकुन्द को प्रथम शताब्दी का सिद्ध करने वाला मर्कराअभिलेख विद्वानों द्वारा जाली सिद्ध हो चुका है / 14 वैसे भी साहित्यिक साक्ष्य को लें तो अमृतचन्द्राचार्य (१०वीं शताब्दी) के पहले कुन्दकुन्द और उनके अन्वय का कहीं भी कोई उल्लेख नहीं मिलता / इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रकीर्णकों से गाथाएँ कुन्दकुन्द के साहित्य में गई हैं। हमारा यह अध्ययन कम्प्यूटर पर आधारित है, सम्भव है कि पाठान्तर भेद के कारण कतिपय गाथाएँ छूट गयी हों, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता की जिस प्रकार शौरसेनी का मूल अर्द्धमागधी है, यह मानने में कोई बाधा नहीं है / उसी प्रकार यह मानने में भी कोई बाधा नहीं है कि प्रकीर्णकों से ही प्रचुर मात्रा में गाथाएँ शौरसेनी आगम साहित्य में ली गई हैं। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय m 4. सन्दर्भ सूची अत्यंभासइ अरहा सुत्तं गंधति गणहरा निउण-आवश्यकनियुक्ति, गाथा - 92 प्राकृतेति / सकलजगज्जन्तूनांव्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः। सहजो वचनव्यापार प्रकृतिः / तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् ....... मेघनिर्मुक्तजलमिवकस्वरूप तदेव चदेशविशेषात संस्कारणाच्चसमासादित विशेष सत् संस्कृतायुन्तरविभेदानाप्नोति। -रुद्रट - काव्यालंकार, श्लोक 2/12, पृ० 13 मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, संस्करण 1963 / पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृ० 38-39 मुनि पुण्यविजय, नन्दीसुत्त अनुयोगदाराई, प्रस्तावना, पृ० 14 हरगोविन्ददास, टी० सेठ, पाईयसद्दमहण्णवो का उपोद्घात, पृ०३८ पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृ० 39 (i) षट्खण्डागम भाग 1, पृ० 96 (ii) पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि-१/२० (iii) नेमिचन्द, गोम्मटसार - जीवकाण्ड, पृ० 367,368 (iv) जयधवला, पृ० 25, धवला, पृ० 96 हीरालाल जैन, षट्खण्डागम - भाग 1 - प्रस्तावना, मुनि मधुकर, समवायांगसूत्र - समवाय 84 मुनि पुण्यविजय, पइण्णयसुत्ताई भाग 1, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई,संस्करण 1987 मुनि मधुकर, नन्दीसूत्र, पृ० 80-81 / डॉ. सागरमल जैन - ऋषिभाषित : एक अध्ययन मुनि पुण्यविजय, पइण्णयसुत्ताइं भाग 1-2 Prof. M.A. Dhaky, Aspects of Jainology - The Dates of Kundkundacharya, Pt. Dalsukh Malvania Felicitation Vol. 1, P.V. Research Institute, Varanasi--P. 190. 8. 11. 12. 13. 14. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 117 प्रकीर्णकं और शौरसेनी आगम : एक तुलनात्मक विवरण सोहम्मीसाणेसु च सुरवरा होंति कायपवियारा / सणंकुमार-माहिंदेसु फासपवियारया देवा / / ( देविंदत्यओ पइण्णयं, गाथा 200) सोहम्मीसाणेसुं देवा सव्वे वि कायपडिचारा / होंति हु सणक्कुमारप्पहुदी दु फासपडिचारा || (तिलोयपण्णत्ती, गाथा 336 ) थोवा विमाणवासी, भोमेज्जा वाणमंतर मसंखा / ततो संखेज्जगुणा जोइसवासी भवे देवा / / ( देविंदत्यओ पइण्णयं, गाथा 219) थोवा विमाणवासी देवा देवी य होति सव्वेवि / तेहिं असंखेज्जगुणा भवणेसु य दसविहा देवा / / (मूलाचार, गाथा 1/179) पुट्विं परूविओ जिणवरेहिं विणओ अणंतनाणीहिं / सव्वासु कम्मभुमिसु निच्चं चिय मोक्खमग्गम्मि || ... (चंदावेज्झयंपडण्णय, गाथा 61) पुव्वं चेव य विणओ परूविदो जिणवरेहिं सव्वेहिं / सव्वासु कम्मभूमिसु णिच्चं मोक्खमग्गम्मि / (मूलाचार, गाथा 2/581) नाणं पगासगं, सोहओ तवो, संजमो य गत्तिकरो / तिण्हं पि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ // (चंदावेज्झयंपइण्णयं, गाथा 80) नाणं पयासओ तओ साधओ संजमो य गुत्तिकरो / तिण्हं पि संपजोगे होदि हु जिणसासणे मोक्खो // (मूलाचार, गाथा 2/901) नाणं पयासओ साधओ तवो संजमो य गत्तिकरो / तिण्डंपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो / / (भगवती आराधना, गाथा 768) सूई जहा ससुत्ता न नस्सई कयवरम्मि पडिया वि / .. जीवो तहा ससुत्तो न नस्सई गओ वि संसारे // (चंदावेज्झयंपइण्णय, गाथा 83) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय सूई जहा ससुत्ता ण णस्सदि दु पमाददोसेण / एवं ससुत्तपुरिसो ण णस्सदि तहा पमाददोसेण / / (मूलाचार, गाथा 973) पुरिसो वि जो ससुत्तो ण विणासइ सो गओ वि संसारे / सच्चे दण पच्चक्खं णासदि तं सो अदिस्समाणो वि / / (सूत्रपाहुड, गाथा 4) सूई जहा असुत्ता नासइ सुत्ते अदिस्समाणम्मि / . . . जीवो तहा असुत्तो नासई मिच्छत्तसंजुत्तो / / (चंदावेज्झयंपइण्णयं, गाथा 84) सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि / सूई जहा असुत्ता णासदि सत्ते सहा णो वि / / (सूत्रपाहुड, गाथा 3.) बारसविहम्मि वि तवे सब्भिंतर-बाहिरे जिणक्खाए / न वि अस्थि न वि य होही सज्झायसमं तवोकम्मं / / / (चंदावेज्झयंपइण्णयं, गाथा 89) बारसविधिह्मि य तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदिढे / ण वि अत्थि ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवोकम्म।। (भगवती आराधना, गाथा 106) बारसविधिलि य तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदिठे / ण वि अस्थि ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवोकम्मं / / (मूलाचार, गाथा 972) एक्कम्मि वि जम्मि पए संवेगं वीयरागमग्गम्मि / वच्चइ नरो अभिक्खं तं मरणंते न मोत्तव्वं / / (चंदावेज्झयंपइण्णयं, गाथा 94 ) एक्कम्मि व जम्मि पदे संवेगं वीदरागमग्गम्मि। गच्छदि णरो अभिक्खं तं मरणंते ण मोत्तव्वं / / (भगवती आराधना, गाथा 774 ) आराहणोवउत्तो सम्म काऊण सुविहिओ कालं / उक्कोसं तिणि भवे गंतूण लभेज्ज निव्वाणं // (चंदावेज्झयंपइण्णयं, गाथा 98) आराहण उवजुत्तो कालं काऊण सुविहिओ सम्मं / उक्कस्सं तिण्णि भवे गंतूण य लहइ निव्वाणं / / (मूलाचार, गाथा 97) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 119 पुट्विं कारियज़ोगो समाहिकामो य मरणकालम्मि / भवइ य परीसहसहो विसयसहनिवारिओ अप्पा / / (चंदावेज्झयंपइण्णयं, गाथा 120) पुव्वं कारिदजोगो समाधिकामो तहा मरणकाले / होदि परीसहसहो विसयसुहपरम्मुहो जीवो / / (भगवती आराधना, गाथा 195) इंदियसुहसाउलओ घोरपरीसहपरव्वसविउत्तो / अकयपरिकम्म कीवो मुज्झइ आराहणाकाले / / ___(चंदावेज्झयंपइण्णय, गाथा 125) इंदियसुहसाउलओ घोरपरीसहपराजिय परज्झो / अकदपरियम्म कीओ मुज्झदि आराहणाकाले // (भगवती आराधना, गाथा 94 ) तम्हा चंदगवेज्झस्स कारणा अप्पमाइणा निच्चं / अविरहियगुणो अप्पा कायव्वो मोक्खमग्गम्मि / / - (चंदावेज्झयंपइण्णयं, गाथा 130) तह्मा चंदयवेज्झस्स कारणेण उज्जदेण पुरिसेण / जीवो अविरहिदगुणो कादब्वो मोक्खमग्गम्मि / / (मूलाचार, गाथा 85) एगो मे सासओ अप्पा नाण-दसणसंजुओ / सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा || (चंदावेज्झयंपइण्णयं, गाथा 160) एओ मे सस्सओ अप्पा नाणदंसणलक्खणो / सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा / / - (मूलाचार, गाथा 48). एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणा / सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा / / (नियमसार, गाथा 102) एगो मे सस्सदो आदा णाणदंसणलक्खणो / सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा / / ( भावपाहुड, गाथा 59) .. जह सुकुसलो वि वेज्जो अन्नस्स कहेइअप्पणो वाहिं / सो से करइ तिगिच्छं साहू वि तहा गुरूसगासे || . (चंदावेज्झयंपइण्णयं, गाथा 172) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय जह सुकुसलो वि वेज्जो अन्नस्स कहेदि आदुरो रोगं / वेज्जस्स तस्स सोच्चा सो वि य पडिकम्मारभइ // (भगवती आराधना, गाथा 530) एस करेमि पणामं तित्थयराणं अणुत्तरगईणं / सव्वेसिं च जिणाणं सिद्धाणं संजयाणं च // (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 1) एस करेमि पणामं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स / / सेसाणं च जिणाणं सगणगणधराणं च सव्वेसिं / (मूलाचार, गाथा 108) सव्वदुक्खप्पहीणाणं सिद्धाणं अरहओ नमो / सदहे जिणपत्रतं पच्चक्खामि य पावगं || (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 2) सव्वदुक्खप्पहीणाणं सिद्धाणं अरहदो णमो / सहहे जिणपण्णत्तं पच्चक्खामि य पावयं / / (मूलाचार, गाथा 1/37) जं किंचि वि दुच्चरियं तमहं निंदामि सव्वभावेणं / सामाइयं च तिविहं करेमि सव्वं निरागारं // (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 3) जं किंचि मे दुच्चरितं सव्वं तिविहेण वोसरे / सामाइयं तु तिविहं करेमि सव्वं णिरायारं // (नियमसार, गाथा 103) जं किंचि मे दुच्चरियं सव्वं तिविहेण वोसरे / सामाइयं च तिविहं करेमि सव्वं णिरायारं / / (मूलाचार, गाथा 39) बाहिरऽब्भंतरं उवहिं सरीरादि सभोयणं / मणसा वय कारणं सव्वं तिविहेण वोसिरे // (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 4 ) बज्झब्भंतरमुवहिं सरीराइं च सभोयणं / मणसा वचि कायेण सव्वं तिविहेण वोसरे / / (मूलाचार, गाथा 40) रागं बंधं पओसं च हरिसं दीणभावयं / / उस्सुगत्तं भयं सो रइमरइं च वोसिरे // (महापच्यक्खाण पहण्णयं, गाथा 5) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 121 सयबंधं पदोसं च . हरिसं दीणभावयं / उस्सुगत्तं भयं सोगं रदिमरदिं च वोसरे // (मूलाचार, गाथा 44) रोसेण पडिनिवेसेण अकयण्णुयया तहेव सढयाए / जो मे किंचि वि भणिओ तमहं तिविहेण खामेमि / / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 6) रागेण य दोसेंण य जं मे अकदण्हुयं पमादेण / जो मे किंचिवि भणिओ तमहं सव्वं खमावेमि / / (मूलाचार, गाथा 58) खामेमि सव्वजीवे सव्वे जीवा खमंतु मे / आसवे वोसिरित्ताणं समाहिं पडिसंधए / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 7) खमामि सव्वजीवाणं सवे जीवा खमंत मे / मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि || (मूलाचार, गाथा 43) निंदामि निंदणिज्ज गरहामि य जं च मे गरहणिज्जं / आलोएमि य सव्वं जिणेहिं जं जं च पडिकुळें / / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 8) जिंदामि जिंदणिज्जं गरहामि य जं च मे गरहणीयं / आलोचेमि य सव्वं सम्भंतरबाहिरं उवहिं / / ( मूलाचार, गाथा 55) ममत्तं परिजाणामि निम्ममत्ते उवट्ठिओ / आलंबणं च मे आया अवसेसं च वोसिरे // (महापच्चक्खाण पइण्णय, गाथा 10) ममत्तिं . परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो / आलंबणं च मे आदा अवसेसं च वोसरे // (नियमसार, गाथा 99) ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो / आलंबणं च मे आदा अवसेसाई वोसरे / / (मूलाचार, गाथा 45) : आया मज्झं नाणे आया मे दंसणे चरिते य / .. आया पच्चक्खाणे आया मे संजमे जोगे || (महापच्चक्खाण पहण्णयं, गाथा 11) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय आदा हु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य / आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोए / / (मूलाचार, गाथा 46) आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्ते य / आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो / __ (भावापाहुड, गाथा 58) आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरिते य / . आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो || . (नियमसार, गाथा 100) आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं य / आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो // (समयसार, गाथा 277) मूलगुणे उत्तरगणे जे मे नाऽऽराहिया पमाएणं / ते सव्वे निंदामि पडिक्कमे आगमिस्साणं / / / ( महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 12) मूलगुण उत्तरगुणे जो मे णाराहिआ पमाएणं / तमहं सव्वं जिंदे पडिक्कमे आगममिस्साणं / / (मूलाचार, गाथा 50) एक्को उप्पज्जए जीवो, एक्को चेव विवज्जई / एक्कस्स होइ मरणं एक्को. सिज्झइ नीरओ || ( महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 14 ) एगो य मरदि जीवो एगो य जीवदि सयं / एगस्स जादि मरणं एगो सिज्झदि णीरओ / / (नियमसार, गाथा 101) एओ य मरइ जीवो एओ य उववज्जइ / एयस्स जाइमरणं एओ सिज्झइ णीरओ || (मूलाचार, गाथा 47) एक्को करेइ कम्मं, फलमवि तस्सेक्कओ समणुहवइ / एक्को जायइ मरइ य, परलोयं एक्क ओ जाइ // (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 15) एक्को करेइ कम्मं एक्को हिंडदि य दीहसंसारे / एक्को जायदि मरदि य एवं चिंतेहि एयत्तं // (मूलाचार, गापा.१) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 123 एक्को मे सासओ अप्पा नाण-दंसणलक्खणो / सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा / / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 16) एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो / सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा / / (नियमसार, गाथा 102) एओ मे सस्सओ अप्पा णाणदंसणलक्खणओ / सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा / / (मूलाचार, गाथा 48) संजोगमूला जीवेणं पत्ता दुक्खपरपंरा / तम्हा संजोगसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसिरे // . (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 17) संजोयमूलं जीवेण पत्तं दुक्खपरंपरं / ' तम्हा संजोयसंबंध सव्वं तिविहेण वोसरे // . (मूलाचार, गाथा 49) अस्संजममण्णाणं मिच्छत्तं सव्वओ वि य ममत्तं / जीवेसु अजीवेसु य तं निंदे तं च गरिहामि || (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 18) अस्संजममण्णाणं मिच्छत्तं सव्वमेव य ममत्तिं / जीवेसु अजीवेसु य तं जिंदे तं च गरिहामि / / (मूलाचार, गाथा 51) जह बालो जंपंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ / तं तह आलोइज्जा माया-मयविप्पमुक्को उ / / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 22) जह बालो जंपंतो कज्जमकज्जं व उज्जु भणइ / . तह आलोचेयव्वं मायामोसं च मोत्तूण || (भगवती आराधना, गाथा 549) जह बालो जंपंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणदि / तह आलोचेयव्वं माया मोसं च मोत्तूण || (मूलाचार, गाथा 1/56) कयपावो वि मणूसो आलोइय निदिउं गुरुसगासे / होइ अइरेगलहुओ ओहरिय भूरूव्व भारवहो || ( महापच्चक्खाण पहण्णयं, गाथा 30) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 : डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय कदपावो विमणस्सो आलोयणणिंदओ गुरुसयासे / होदि अचिरेण लहुओ उरूहिय भारोव्व भारवहो / / (भगवती आराधना, गाथा 615) / सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामी य अलियवयणं च / सव्वमदिनादाणं अब्बंभ परिग्गहं चेव / / (महापच्चक्खाण पइण्णय, गाथा 33) सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि अलीयवयणं च / सव्वमदत्तादाणं मेहूण परिग्गहं चेव || (मूलाचार, गाथा 1/41) सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि अलीयवयणं च / सव्वमदत्तादाणं मेहूणपरिग्गरं चेव / / (मूलाचार, गाथा 1/109) . रागेण व दोसेण व परिणामेव व न दूसियं जं तु / . .. तं खलु पच्चक्खाणं भावविसुद्धं मुणेयव्वं / / . (महापच्चक्खाण पइण्णय, गाथा 36) रागेण व दोसेण व मणपरिणामे ण दुसिदें तु / तं पुण पच्चक्खाणं भावविसुद्धं तु णादव्वं // (मूलाचार, गाथा 1/645) उड्ढमहे तिरियम्मि य मयाइं बहुयाई बालमरणाई / तो ताइं संभरंतो पंडियमरणं मरीहामि / / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 41) उड्ढमधो तिरियहि दु कदापि बालमरणाणि बहुगाणि / दंसणणाणसहगदो पंडियमरणं आणमरिस्से / / (मूलाचार, गाथा 75) एक्को करेइ कम्मं एक्को अणुहवइ दुक्कयविवागं / एक्को संसरइ जिओ जर-मरण-चउग्गईगुविलं // (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 44 ) एक्को करेइ कम्मं एक्को हिंडदि दीहसंसारे / एक्को जायदि मरदि य एवं चिंतेहि एयत्तं / / (मूलाचार, गाथा 701) उव्वेयणयं जम्मण-मरणं नरऐसु वेयणाओ वा / एयाइं संभरंतो पंडियमरणं मरीहामि / / (महापच्चक्याण पहण्णय, गापा 45) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 125 उव्वेयमरणं जादीमरणं णिरएसु वेदणाओ य / एदाणि संभरंतो पंडियमरणं अणुमरिस्से / / (मूलाचार, गाथा 76) भवसंसारे सव्वे चउविहा पोग्गला मए बद्धा / परिणामपसंगेणं अट्ठविहे कम्मसंघाए / __ (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 51) संसारचक्कवालम्मि मए सव्वेवि पुग्गला बहुसो / आहारिदा य परिणामिदा य ण य मे गदा तित्ती / / (मूलाचार, गाथा 79) संसारचक्कवाले सव्वे ते पोग्गला मए बहुसो / आहारिया य परिणामिया य न य हंगओ तित्तिं // (महांपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 52) संसारचक्कवालम्मि मए सव्वेपि पुग्गला बहुसो / आहारिदा य परिणामिदा य ण मे गदा तित्ती / / . (मूलाचार, गाथा 1/79) . आहारनिमित्तागं मच्छा गच्छंति दारूणे नरए / सच्चित्तो आहारो न खमो मणसा वि पत्थेउं / / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 54) आहारणिमित्तं किर मच्छा गच्छंति सत्तमि पुढवि / सच्चित्तो आहारो ण कप्पदि मणसावि पत्थेदं / / . (मूलाचार, गाथा 82) हंतूण मोहजालें छेतूण य अट्ठकम्मसंकलियं / जम्मण-मरणरहलै भेत्तूण भवाओ मुच्चिहिसि // __ (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 66) हंतूण रांगदोसे छेत्तूण य अट्ठकम्मसंखलियं / . जम्मणमरणरहलै भेतूण भवाहि मुच्चिहसि // (मूलाचार, गाथा 90) किण्हा नीला काऊ लेसा झाणाइं अट्ठ-रोहाइं / परिवज्जितो गुत्तो रक्खामि महव्वए पंच || __ (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 71) किण्हा नीला काओ लेस्साओ तिणि अप्पसत्थाओ / पजहइ . विहायकरणो संवेगंणुत्तरं पत्तो / / (भगवती आराधना, गाथा 1902) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय तेऊ पम्हा सुक्का लेसा झाणाई धम्म-सुक्काई / उवसंपन्नो जुत्तो रक्खामि महव्वए पंच / / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 72) तेओ पम्हा सुक्का लेस्साओ तिण्णि वि दुपसत्थाओ / पडिवज्जेइ य कमसो संवेगंणुत्तरं पत्तो / / (भगवती आराधना, गाथा 1903) किं पुण अणगारसहायगेण अण्णोण्णसंगहबलेण / परलोएणं सक्का साहेउं अप्पणो अठं ? || (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 82) कि पुण अणगारसहायगेण अण्णोण्णसंगहबलेणं / संघे ओलग्गंते आराधेदं ण सक्केज्ज || ___(भगवती आराधना, गाथा 1554) जिणवयणमप्पमेयं महुरं कण्णाहुई सुणंतेणं / सक्का हु साहुमज्झ साहेउं अप्पणो अठं // (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 83) जिणवयणममिदभूदं महुरं कण्णाहुदिं सुणंतेण / सक्का हु संघमज्जे साहेदु उत्तमं अलैं || (भगवती आराधना, गाथा 1555) धीरपुरिसपण्णत्तं सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं / धन्ना सिलायलगया साहिंती अप्पणो अलैं / / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 84 ) धीरपुरिसपण्णत्तं सप्पुरिसणिसेवियं उवणमित्ता / धण्णा णिरावयक्खा संथारगया णिसज्जति / / (भगवती आराधना, गाथा 1671) पुव्वमकारियजोगो समाहिकामो य मरणकालम्मि / न भवइ परीसहसहो विसयसुहसमुइओ अप्पा / / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 86) पुव्वमकारिदजोगो समाधिकामो तहा मरणकाळे / ण भवदि परीसहसहो विसयसुहे मुच्छिदो जीवो || (भगवती आराधना, गाथा 193) पुट्विं कारियजोगो समाहिकामो य मरणकालम्मि / * स भवइ परीसहसहो विसयसुहनिवारिओ अप्पा / / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 87) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 127 पुव्वं कारिदजोगो समाधिकामो तहा मरणकाले / होदि परीसहसहो विसयसुहपरम्मुहो जीवो / / ( भगवती आराधना, गाथा 195) इंदियसुहसाउलओ घोरपरीसहपराइयपरज्झो / अकयपरिकम्म कीवो मुज्झइ आराहणाकाले / / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 93) इदियसुहसाउलओ घोरपरीसहपराजिय परज्झो / अकदपरियम्म कीओ मुज्झदि आराहाणाकाळे / / (भगवती आराधना, गाथा 191) न वि कारणं तणमओ संथारो, न वि य फासुया भूमी / अप्पा खलु संथारो होइ विसुद्धो मणो जस्स // ___- ( महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 96) ण वि कारणं तणादोसंथारो ण वि य संघमवाओ / साधुस्स संकिलेसंतस्स य मरणावसाणम्मि || __(भगवती आराधना, गाथा 1667) जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं / तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं // __ (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 101) . जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं / . - तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेणं / / (प्रवचनसार, गाथा 3/38) एक्कम्मि वि जम्मि पए संवेगं कुणइ वीयरायमए / वच्चइ नरो अभिक्खं तं मरणं तेण मरियव्वं / / (महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 105) एक्कम्मि व जम्मि पदे संवेगं वीदरागमग्गम्मि / / गच्छदि णरो अभिक्खं तं मरणंते ण मोत्तव्वं / / (भगवती आराधना, गाथा 774) एक्कसि बिदियहि पदे संवेगो वीयरायमग्गम्मि / वच्चदि णरो अभिक्खं त मरणंते ण मोत्तव्वं / / (मूलाचार, गाथा 93) समणो मि त्ति य पढम, बीयं सव्वत्थ संजओ मित्ति / सव्वं च वोसिरामि जिणेहिं जं जं च पडिकुळें // ( महापच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 108) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 : डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय समणो मेत्ति य पढमं बिदियं सव्वत्थ संजदो मेत्ति / सव्वं च वोस्सरामि य एवं भणिदं समासेण // (मूलाचार, गाथा 98) आराहणोवउत्तो सम्म काऊण सुविहिओ कालं / उक्कोसं तिन्नि भवे गंतूण य लभेज्ज निव्वाणं // (महापच्चक्खाण पइण्णय, गाथा 131) आराहण उवजुत्तो कालं काऊण सुविहिओ सम्म / उक्कस्सं तिण्णि भवे गंतूण य लहइ निव्वाणं / / .. (मूलाचार, गाथा 97) सम्मं मे सव्वभूएस. वेरं मज्झं न केणइ / खामेमि सव्वजीवे, खमामऽहं सव्वजीवाणं // (महापच्चक्खाण पडण्णयं, गाथा 140) सम्मं मे सव्वभूदेसु वेर मज्झं न केणइ / आसाए वोसरित्ताणं समाधि पडिवज्जए || (मूलाचार, गाथा 1/110) सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि / आसा वोसरित्ताणं समाहिं पडिवज्जए || (मूलाचार, गाथा 1/42) सम्मं मे सवभूदेसु वेरं ममं ण केणवि / आसा वोसरित्ताणं समाहि पडिवज्जए || (नियमसार, गाथा 104) धीरेण वि मरियव्वं काउरिसेण वि अवस्स मरियव् / दोहं पि य मरणाणं वरं खु धीरत्तणे मरिउ // (महापच्यक्खाण पइण्णयं, गाथा 141) धीरेण वि मरिदव्वं णिद्धीरेण वि अवस्स मरिदव्वं / जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि धीरत्तणेण मरिदव्वं // (मूलाचार, गाथा 100) एवं पच्चक्खाणं अणुपालेऊण सुविहिओ सम्म / वेमाणिओ व देवो हविज्ज अहवा वि सिज्झेज्जा || (महापच्चक्खाण पइण्णय, गाथा 142) एदं पच्चक्खाणं जो काहदि मरणसयालम्मि . / धीरो अमूढसण्णो सो गच्छइ उत्तमं ठाणं / / (मूलाचार, गाथा 105) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 129 मा होइ वासगणया, न तत्थ वासाणि परिगणिज्जति / बहवे गच्छं वुत्था जम्मण-मरणं च ते खुत्ता / / (संथारग पइण्णयं, गाथा 51) मा होइ वासगणया ण तत्थवासाणि परिगणिज्जंतिः / बहवो तिरत्तवुत्था सिद्धा धीरा विरग्गपरा समणा / / (मूलाचार, गाथा 1/74) धीरपुरिसपण्णतं सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं / धन्ना सिलायलगया साहंती उत्तमं अठं / / (संथारग पइण्णयं, गाथा 92) धीरपुरिसपण्णत्तं सप्पुरिसणिसेवियं उवणमित्ता / धण्णा णिरावयक्खा संधारगया णिसज्जति / / (भगवती आराधना, गाथा 1696) झावज्जीवं तिविहं आहारं वोसिरीइही खवगो / निज्जवगो आयरिओ संघस्स निवेयणं कुणइ / / (भत्तपरित्रा पइण्णयं, गाथा 43) जावज्जीवं सव्वाहारं तिविहं च वोसरिहिदित्ति / णिज्जवंओ आयरिओ संघस्स णिवेदणं कुज्जा / / __ (भगवती आराधना, गाथा 708) मा कासि तं पमायं सम्मत्ते सव्वदुक्खनासणए / जं सम्मत्तपइट्ठाइं नाण-तव-विरिय-चरणाई // (भत्तपरित्रा पइण्णयं, गाथा 63) मा कासि तं पमादं सम्मत्त सव्वदुक्खणासयरे / सम्मत्तं खु पदिट्ठा णाणचरणवीरियतवाणं / / (भगवती आराधना, गाथा 739) कल्लाणपरंपरयं लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्ता / सम्मइंसणरयणं नऽग्घइ ससुराऽसुरे लोए // (भत्तपरिना पइण्णयं, गाथा 68) कल्लाणपरंपरयं लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्ता / सम्मइंसणरयणं णग्यदि ससुरासुरो ळोऊ // (भगवती आराधना, गाथा 745) विज्जा वि भत्तिमंतस्स सिद्धिमुवयाइ होइ फलया य / किं पुण निव्वुइविज्जा सिज्झिहिइ अभत्तिमंतस्स ? / / (भत्तपरित्रा पइण्णयं, गाथा 72) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय विज्जा वि भत्तिवंतस्स सिद्धिमुवयादि होदि सफला य / किह पुण णिव्वुदिवीजं सिज्झिहदि अभत्तिमंतस्स || (भगवती आराधना, गाथा 652) तेसिं आराहणनायगाण न करिज्ज जो नरो भत्तिं / धणियं पि उज्जमंतो सालिं सो ऊसरे ववइ / / (भत्तपरित्रा पइण्णयं, गाथा 73) तेसिं आराहणणायगाण ण करेज्ज जो णरो भत्तिं / धत्तिं पि संजमं तो सालिं सो ऊसरे ववदि / (भगवती आराधना, गाथा 753) विज्जा जहा पिसायं सुठ्ठवउत्ता करेइ पुरिसवसं / नाण हिययपिसायं सुठुवउत्तं तह करेइ / / (भत्तपरित्रा पइण्णयं, गाथा 82) विज्जा जहा पिसायं सुठ्ठवउत्ता करेदि पुरिसवसं / णाणं हिदयपिसायं सुट्ठवउत्तं तह करेदि || (भगवती आराधना, गाथा 764) उवसमइ किण्हसप्पो जह मंतेण विहिणा पउत्तेणं / तह हिययकिण्हसप्पो सुठुवउत्तेण णाणेणं // (भत्तपरित्रा पइण्णयं, गाथा 83 ) उवसमइ किण्हसप्पो जह मंतेण विधिणा पउत्तेण / / तह हिदयकिण्हसप्पा सुठुवउत्तेण णाणेण / / (भगवती आराधना, गाथा 765) सूई जहा ससुत्ता न नस्सई कयवरम्मि पडिया वि / जीवो वि तह ससुत्तो न नस्सई गओ वि संसारे / (भत्तपरित्रा पइण्णयं, गाथा 86) सूई जहा ससुत्ता ण णस्सदि दु पमाददोसेण / एवं ससुत्तपुरिसो ण णस्सदि तहा पमाददोसेण // (मूलाचार, गाथा 1/80) जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ / ता सव्वजीवहिंसा परिचत्ता अत्तकामेहिं / / - (भत्तपरिना पइण्णयं, गाथा 93) जीववहो अप्पवहो जीवदया होइ अप्पणो दया / / विसकंटवो व्व हिंसा परिहिदव्वा तदो होदि / / (भगवती आराधना, गाथा 797) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 131 जावइयाइं दुक्खाइं होति चउगइगयस्स जीवस्स / सव्वाई ताई हिंसाफलाई निउणं वियाणाहि // (भत्तपरिना पइण्णयं, गाथा 94 ) जावइयाई दुखाई होति लोयम्मि चदुगदिगदाइं / सव्वाणि ताणि हिंसा फळाणि जीवस्स जाणाहि || (भगवती आराधना, गाथा 803) पाणो वि पाडिहेरं पत्तो छूढो वि सुंसुमारदहे / एगेण वि एगदिणऽज्जिएणऽहिंसावयगुणेणं // (भत्तपरिना पइण्णयं, गाथा 96) पाणो वि पाडिहेरं पत्तो छूढो वि सुंसुमारहदे / एगेण वि एक्कदिवसक्कदेण हिंसावदगुणेण || - (भगवती आराधना, गाथा 821) सिंगारतरंगाए विलासवेलाए जोव्वणजलाए / पहसियफेणाए मुणी नारिनईए न वुझंति / / .. (भत्तपरिना पइण्णयं, गाथा 129) सिंगारतरंगाए विलासवेलाए जोवणजळाए / विहसियफेणाए मुणि णारणईए ण उन्भंति / / (भगवती आराधना, गाथा 1111) * संगो महाभयं जं विहेडिओ सावरण संतेणं / पुत्तेण हिए अथम्मि मणिवई कुंचिएण जहा. || (भत्तपरिना पइण्णय, गाथा 133) संगो महाभयं जं विहेडिदो सावरण संतेण / पुत्तेण चेव अत्थे हिदम्मि णिहिदेल्लए साह / / (भगवती आराधना, गाथा 1130) सव्वग्गंथविमुक्को सीईभूओ पसंतचित्तो य / जं पावइ मुत्तिसुहं न. चक्कवट्टी वि तं लहइ / / (भत्तपरित्रा पइण्णयं, गाथा 134) सव्वग्गंथविमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य / जं पावइ पीइसुहं ण चक्कवट्टी वि तं लहदि / / (भगवती आराधना, गाथा 1182) देसिक्कदेसविरओ सम्मट्ठिी मरिज्ज जो जीवो / तं होइ बालपंडियमरणं जिणसासणे भणियं / / ( आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 1) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय देसिक्कदेसविरदो सम्मदिट्ठी मरिज्ज जो जीवो / तं होदि बालपंडिदमरणं जिणसासणे दिट्ठ / / (भगवती आराधना, गाथा 2074 ) पंच य अणुव्वयाइं सत्त उ सिक्खा उदेस-जइधम्मो / सव्वेण व देसेण व तेण जओ होइ देसजई / / ( आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 2) पंच य अणुव्वयाई सत्त य सिक्खाउदेसजदिधम्मो / सव्वेण य देसेण य तेण जुदो होदि देसजदी / / __ (भगवती आराधना, गाथा 2075) जं च दिसावेरमणं अणत्थदंडाउ जं च वेरमणं / देसावगासियं पि य गुणव्वयाइं भवे ताई // (आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 4) जं च दिसावेरमणं अणत्थदंडेहि जं च वेरमणं / ' देसावगासियं पि य गणव्वयाइं भवे ताई / / ___ (भगवती आराधना, गाथा 2078) भोगाणं परिसंखा सामाइय अतिहिसंविभागो. य / पोसहविही य सव्वो चउरो सिक्खाओ वुत्ताओ / / ( आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 5) भोगाणं परिसंखा सामाइयमतिहिसंविभागो य / / पोसहविधी य सव्वो चदुरो सिक्खाओ वुत्ताऊ || -- ( भगवती आराधना, गाथा 2078) वेमाणिएसु कप्पोवगेसु नियमेण तस्स उववाओ / नियमा सिज्झइ उक्कोसएण सो सत्तमम्मि भवे / / (आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 9) वेमाणिएसु कप्पोवगेसु णियमेण तस्स उववादो / णियमा सिज्झदि उक्कस्सएण सो सत्तमम्मि भवे / / (भगवती आराधना, गाथा 2082) सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि ति अलियवयणं च / सव्वमदिनादाणं मेहण्ण परिग्गहं चेव / / ( आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 13) सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि अलीयवयणं च / . सव्वमदत्तादाणं मेहूण परिग्गरं चेव / / (मूलाचार, गाथा 1/41) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : .133 सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि अलीयवयणं च / सव्वमदत्तादाणं मेहूणपरिग्गहं चेव / / (मूलाचार, गाथा 1/109) सम्मं मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झं न केणई / आसाओ वोसिरित्ताणं समाहिमणुपालए | ( आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 14 ) सम्मं मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झ न केणई / आसाए वोसिरित्ताणं समाधिं पडिवज्जए / / (मूलाचार, गाथा 1/110) सम्मं मे सव्वभूएस, वेरं मज्झं न केणई / आसाओ वोसिरित्ताणं समाहिमणुपालए || . ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 564 ) सम्मं मे * सव्वभूएसु वेरं मझं न केणई / आसाओ वोसिरित्ताणं समाहिं पडिवज्जए / (आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 22). सव्वदुक्खप्पहीणाणं सिद्धाणं अरहओ नमो / सदहे जिणपत्रत्तं पच्चक्खामि य पावगं || . ( आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 17) सव्वदुक्खप्पहीणाणं सिद्धाणं अरहदो णमो / सद्दहे जिणपण्णत्तं पच्चक्खामि य पावयं / / (मूलाचार, गाथा 1/37) सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि ति अलियवयणं च / सव्वमदत्तादाणं मेहुणय परिग्गहं चेव / / ___ ( आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 21) सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि अलीयवयणं च / . सव्वमदत्तादाणं मेहूणपरिग्गहं चेव / / (मूलाचार, गाथा 1/109) सत्त भए अट्ठ मए सण्णा चत्तारि गारवे तिनि / आसायण तेत्तीसं राग-दोसं च गरिहामि || . ( आउरपच्चक्खाण पइण्णय, गाथा 30 ) सत्त भए अट्ठ मए सण्णा चत्तारि गारवे तिणि / तेतीसाच्चासणाओ रायरोसं च गरिहामि || . ( मूलाचार, गाथा 1/52) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय जह बालो जंपंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ / तं तह आलोएज्जा मायामोसं पमोत्तूणं / / '. . . (आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 33) जह बालो जंप्पंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणदि / तह अलोचेयव्वं माया मोसं च मोत्तूण || (मूलाचार, गाथा 1/56) तिविहं भणंति मरणं, बालाणं बालपंडियाणं च / तइयं पंडियमरणं जं केवलिणो अणुमरंति / / . .. (आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 36 ) तिविहं भणंति मरणं बालाणं बालपंडियाणं च / तइयं पंडियमरणं जं केवलिणो अणुमरंति || (मूलाचार, गाथा 1/59) सम्मइंसणरत्ता अनियाणा सक्कलेसमोगाढा / इय जे मरंति जीवा तेसिं सुलहा भवे बोही // (आउरपच्चक्खाण पइण्णय, गाथा 42) सम्मइंसणरत्ता अणियाणा सुक्कलेसमोगाढा / इह जे मरंति जीवा तेसिं सुलहा हवे बोही / / (मूलाचार, गाथा 1/70) . जिणवयणे अणुरत्ता गुरुवयणं जे करंति भावेणं / असबल असंकिलिट्ठा ते हुंति परित्तसंसारी / / ( आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 44 ) जियवयणे अणुस्त्ता गुरुवयणं जे करंति भावेण / असबल असंकिलिट्ठा ते होंति परित्तसंसारी // (मूलाचार, गाथा 1/72) बालमरणाणि बहुसो बहुयाणि अकामगाणि मरणाणि / मरिहंति ते वराया जे जिणवयणं न याणंति / / (आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 45) बालमरणाणि बहुसो बहुयाणिअकामयाणिमरणा / मरिहंति ते वराया जे जिणवयणं ण जाणंति / / (मूलाचार, गाथा 1/73) सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं च जलपवेसो य अणयारभंडसेवी जम्मण-मरणाणुबंधीणि / / ( आउरपच्चक्खाण पइण्णय, गाथा 46) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 135 . . जागमल्लाणी / सत्थरगहणं विसभक्खणं च जलणं जलप्पवेसो य / अणयार भंडसेवी जम्मणमरणाणुबंधीणि / / (मूलाचार, गाथा 1/74) जइ उप्पज्जइ दुक्खं तो दट्ठव्वो सहावओ नवरं / किं किं मए न पत्तं संसारे संसरंतेण? || (आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 49 ) जइ उप्पज्जइ दुक्खं तो दट्ठव्वो सभावदो णिरये / कदमं मए ण पत्तं संसारे संसरंतेण || (मूलाचार, गाथा 1/78) संसारचक्कवालम्मि मए सव्वे वि पोग्गलाबहुसो / आहारिया य परिणामिया य नाहं गओ तित्तिं // ( आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 50) संसारचक्कवालम्मिए मए सव्वेपि पुग्गला बहुसो / आहारिदा य परिणामिदा य ण मे गदा तित्ती / / (मूलाचार, गाथा 1/79) बाहिरजोगविरहिओ अभिंतरझाणजोगमल्लीणो / जह तम्मि देसकाले अमुढसनो चयइ देहं / / (आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 56) बाहिरजोगविरहिओअब्भंतरजोगझाणमल्लीणो / जह तम्हि देसयाले अमूढसण्णो जहसु देहं / / . (मूलाचार, गाथा 1/89) लद्धं अलद्धपुव्वं जिणवयणसुभासियं अमियभूयं / गहिओ सुग्ग्इमग्गो नाहं मरणस्स बीहेमि / / ( आउरपच्चक्खाण पइण्णयं, गाथा 64) लद्धं अलद्धपुव्वं जिणवयणसुभासिदं अमिदभूदं / . गहिदो सुग्गइमग्गो णाहं मरणस्स बीहेमि || (मूलाचार, गाथा 1/99) छत्तीसगुणसमन्त्रागएण. तेण वि अवस्स दायव्वा / परसक्खिया विसोही सुठ्ठ वि ववहारकुसलेणं / / (गच्छायार पइण्णयं, गाथा 12) छत्तीसगुणसमण्णो गदेण वि अवस्समेव कायव्वा / परसक्खिया विसोधी सुट्ठ वि ववहारकुसलेण / / __(भगवती आराधना, गाथा 31) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय वज्जेह अप्पमत्ता अज्जासंसग्गि अग्गि-विससरिसी / अज्जाणुचरो साहू लहइ अकित्तिं खु अचिरेण / / (गच्छायार पइण्णयं, गाथा 63) वज्जेह अप्पमत्ता अज्जासंसग्गमग्गिविससरिसं / अज्जाणुवरो साहू लहदि अकित्तिं ख अचिरेण / / __ ( भगवती आराधना, गाथा 335) किं पुण तरुणो अबहुस्सओ य ण य वि हु विगिट्ठतवचरणो / अज्जासंसग्गीए जणजपणयं न पावेज्जा ? || . (गच्छायार पइण्णयं, गाथा 65) किं पुण तरुणो अवहुस्सुदो य अणुकिट्ठतवचरंतो वा / अज्जासंसग्गीए जणजंपणयं ण पावेज्ज // (भगवती आराधना, गाथा 337) सव्वत्थ इत्धिवग्गम्मि अप्पमत्तो सया अवीसत्थो / .. नित्थरइ बंभचेरं, तव्ववरीओ न नित्थरइ / / (गच्छायार पइण्णयं, गाथा 67) सव्वत्थ इत्थिवग्गम्मि अप्पमत्तो सया अवीसत्यो / नित्थरदि बंभचेरं, तविवरीदो - ण णित्थरदि / / (भगवती आराधना, गाथा 339) तिण्णेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विंसाहा य / एते छ णक्खत्ता दिवढखेत्ता मुणेयव्वा / / (जोइसकरंडगं पइण्णयं, गाथा 164) तिण्णेव उत्तराओ पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य / वीसं च अहोरत्ते तिण्णेव य होंति सूरस्स / / (तिलोयपण्णत्ती, गाथा 518) अवसेसा णक्खत्ता पण्णरस वि होंति तीसइमुहुत्ता / चंदम्मि एस जोगो णक्खत्ताणं समक्खाओ / / __ (जोइसकरंडगं पइण्णयं, गाथा 165) अवसेसा णक्खत्ता पण्णरस तीसदिमुहुत्ता य / चंदम्मि एस जोगो णक्खत्ताणं समक्खादं // (तिलोयपण्णत्ती, गाथा 523) तिण्णेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य / / वच्चंति मुहुत्ते तिण्णि चेव वीसं चऽहोरत्ते / / (जोइसकरंडगं पइण्णयं, गाथा 175) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 137 तिण्णेव उत्तराओ पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य / वीसं च अहोरते तिण्णेव य होति सरस्स || (तिलोयपण्णत्ती, गाथा 518) अवसेसा णक्खत्ता पण्णरस वि सूरसहगता जंति / बारस चेव तेरस य समे अहोरते // (जोइसकरंडगं पइण्णयं, गाथा 176) अवसेसा णक्खत्ता पण्णारस वि सुरगदा होति / / बारस चेव मुहुत्ता तेरस य समे अहोरत्ते // (तिलोयपण्णत्ती, गाथा 519) जत्थिच्छसि विक्खंभं मंदरसिहराहि ओवतित्ताणं / एक्कारसहितलद्धो सहस्ससहितो तुविक्खंभो / / (जोइसकरंडगं पइण्णयं, गाथा 199) जत्थिच्छसि विक्खंभं मंदरसिहराउ समवदिण्णाणं / तं एक्कारसभजिदं सहस्ससहिदं च तत्थ वित्थारं / / (तिलोयपण्णत्ती, गाथा 1799) सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स / मज्झिमयाण जिणाणं करणजाए पडिक्कमणं / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 448) सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स / अवराहे पडिकमणं मज्झिमयाणं / जिणवराणं / / (मूलाचार, गाथा 1/628) अठेव गया मोक्खं, सहमो बंभो य सत्तमिं पुढवि / मघवं सणंकुमारो सणंकुमारं गया कप्पं // (तित्थोगालीपइण्णय, गाथा 575) अठेव गया मोक्खं बम्हसुभउमा य सत्तमं पुढविं / मघवस्सणक्कुमारा सणक्कुमारं गआ कप्पं // (तिलोयपण्णत्ती, गाथा 1410) खवयस्स इच्छसंपायणेण देहपडिकम्मकरणेण / अन्नेहिं वा उवाएहिं सो समाहिं कुणइ तस्स . || ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 60) खवयस्स इच्छसंपादणेण देहपडिकम्मकरणेण / अण्णेहिं वा उवाएहिं सो हु समाहिं कुणइ तस्स // (भगवती आराधना, गाथा 449) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय संखित्ता वि य पव (?मुहे जह वड्ढइ वित्थरेण पवहंती / उदहितेण वरनई तह सीलगुणेहिं वड्ढाहि || ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 117) संखित्ता वि य पवहे जह वच्चइ वित्थरेण वड्ढेती / उदधिं तेण वरणदी तह सीलगुणेहिं वुड्ढाहिं / / (भगवती आराधना, गाथा 287) जह बालो जपंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ / . तं तह आलोएज्जा माया-मयविप्पमुक्को य || (आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 172 ) जह बालो जंप्पंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणदि / तह अलोचेयव्वं माया मोसं च मोत्तूण || (मूलाचार, गाथा 1/56) काले विणए बहुमाणे उवहाणे तहा अनिन्हवणे / वंजण अत्थ तभए सुयनाणविराहणं वियडे / / ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 176 ) काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे / वंजण अत्थ तदुभए णाणाचारो दु अट्ठविहो / / (मूलाचार, गाथा 1/269) काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे / वंजणअत्थतदुभयं विणओ णाणम्हि अट्ठविहो / (मूलाचार, गाथा 1/367) सज्झायं कुव्वंतो पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य / भवइ य एयग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खू / / _ ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 591) सज्झायं कुव्वंतो पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य / होइ य एगग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खू / / ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरहया), गाथा 82) सज्झायं कुव्वंतो पंचेंदियसंवुडो तिगुत्तो य / हवदि य एअग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खु / / (मूलाचार, गाथा 1/410) सज्झायं कुव्वंतो पंचेंदियसंवुडो तिगुत्तो य / . हवदि य एयग्गमणो विणयेण समाहिदो भिक्खू / / / (भगवती आराधना, गाथा 6) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 139 सज्झायभावणाए य भाविया हंति सव्वगत्तीओ / गुत्तीहि भावियाहि य मरणे आराहओ होइ / / __ ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 593) सज्झायभावणाए य भाविदा होंति सव्वगुत्तिओ / गुत्तीहिं भाविदाहि य मरणे आराधओ होदि / (भगवती आराधना, गाथा 12) सयणं मित्तं असयमल्लीणं आवईए महईए / पाडेइ चोरियाए अजसे दुक्खम्मि य महल्ले / / __ ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया); गाथा 614 ) सयणं मित्तं आसयमल्लीणं पि य महल्लए दोसे / पाडेदि चोरियाए अयसे दुक्खम्मि य महल्ले // (भगवती आराधना, गाथा 865) अजसमणत्थं दुक्खं इहलोए, दुग्गई य परलोए / संसारं च अपारं न मुणइ विसयाऽऽमिसे. गिद्धो / / . ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 620) अजसमणत्यं दुक्खं इहळोए दुग्गदी यपरळोए / संसारं च अणंतं ण मुणदि विसयामिसे गिध्दो | (भगवती आराधना, गाथा 906) 'कोहो माणो माया लोभो चउरो वि हुंति चउभेया / अण-अप्पच्चक्खाणा पच्चक्खाणा य संजलणा. / / ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 651) कोहो माणो माया लोहोणंतागुंबंधिसण्णा य / अप्पच्छक्खाण तहा पच्चक्खाणो य संजलणो || (मूलाचार, गाथा 2/1234) कोहो माणो माया लोहो वि य चउविहं कसायं खु / मणवचिकाएण पुणो जोगो तिवियप्पमिदि जाणे // (रयणसार, गाथा.४९) सव्वे वि कोहदोसा माणवसायस्स हुंति नायव्वा / माणेण चेव मेहुण-हिंसा-ऽलिय-चुज्जमायरइ / / . ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 658) सव्वे वि कोहदोसा माणकसायस्स होति णादव्वा / - माणेण चेव मिधुणं हिंसालियचोज्जमाचरदि || ... (भगवती आराधना, गाथा 1379) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय सयणस्स जणस्स पिओ नरो अमाणी सया हवइ लोए / नाणं जसं च अत्थं लभइ सकज्जं च साहेइ / / ... ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाधा 659) सयणस्स जणस्स पिऊ णरो अमाणी सदा हदि ळोए / णाणं जसं च अत्थं लभदि सकज्जं च साहेदि / / (भगवती आराधना, गाथा 1380) इह य परत्त य तवसा अइसयपूयाओ लभइ सुकरण / . आकंपिज्जति तहा देवा वि सइंदया तवसा / / ( आराहणापडाया (पायणायरियविरइया), गाथा 694) इह य परत्त य ळोए अदिसयपूयाउ लहइ सुतवेण / आयंपियंति वि तहा देवा वि सईदया तवसा / / (भगवती आराधना, गाथा 1458) कामदहा वरघेणू नरस्स चिंतामणी व होइ तवो / होइ य तवो सुतित्थं सव्वासुह-दोस-मलहरणं / / ( आराहणापडाया ( पापणापरियविरइया), गाथा 695) कामदुहा वरधेणू नरस्स चिंतामणिव्व होइ तवो / तिळऊ व णरस्स तवो माणस्स विहूसणं सुतवो || (भगवती आराधना, गाथा 1465) किं जंपिएण बहुणा ? देवा हु सईदया वि मम विग्धं / तुब्भं पाओवग्गहगुणेण काउं न तरिहिंति / / ( आराहणापडावा ( पायणायरियविरइया), गाथा 556) कि जंपिएण बहुणा देवा वि सइंदया महं विग्घं / तुह्म. पादेवग्गह गुणेण कादं .ण अरिहंति / / (भगवती आराधना, गाथा 1486) किं पुण छुहा व तण्हा परीसहा वाइयाइरोगा वा / काहिंति झाणविग्धं ? इंदियविसया कसाया वा? || ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 757) किं पुण छुहा व तण्हा परिस्समो वादियादिरोगा वा / काहिंति झाणविग्धं इंदियविसया कसाया वा / / (भगवती आराधना, गाथा 1487' तो तस्स तिगिच्छाजाणगेण खवयस्स सव्वसत्तीए / विज्जाऽऽएसेण व से पडिकम्मं होइ कायव्वं / / ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 763) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 141 तो.तस्स तिगिंछाजाणएण खवयस्स सव्वसत्तीए / विज्जादेसवसेण य पडिकम्मं होइ कायव्वं / / (भगवती आराधना, गाथा 1497) को सि तुम ? किनामो ? कऽसी ? को व संपईकालो ? / किं कुणसि तुमं ? किह वा अच्छसि ? किंनामको वा हं ? / / ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 767 ) को सि तुमं किंणामो कत्थ वससि को व संपदी कालो / किं कुणसि तुमं कह व लच्छसि किं णामगो वा हं / / (भगवती आराधना, गाथा 1505) एवं सारिज्जंतो कोई कम्मुवसमेण लहइ सइं / को वि हु न लभिज्ज सई तिब्वे कम्मे उइन्नम्मि || ____ (आराहणापडाया (पायणायरियविरइया), गाथा 769) एवं सारिज्जंतो कोई कम्मवसमेण लभदि सदिं / तह य ण लम्भिज्ज सदि कोई कम्मे उदिण्णम्मि / / (भगवती आराधना, गाथा 1508) गाढप्पहारसंताविया वि सूरा रणे अरिसमक्खं / न मुहं भंजंति सयं, मरंति भिउडीमुहा चेव / / . (आराहणापडाया (पायणायरियविरइया), गाथा 778) गाढप्पहारसंता विदा वि सूरा रणे अरिसमक्खं / ण मुहं भंजंति सयं मरंति भिउडीमुहा चेव / / (भगवती आराधना, गाथा 1526) जं कूडसामलीए दुक्खं पत्तो सि, जं च सूलम्मि / जं असिपत्तवणम्मी जं च कयं गिद्ध-कंकेहिं / / . (आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 848) जं कूडसामलीहि य दुक्खं पत्तो सि जं च सूलम्मि / असिपत्तवणम्मि य जं जं च कयं गिद्भक्केहिं / / (भगवती आराधना, गाथा 1567) कूट्टाकुटिंट चुनाचुनिं मोग्गरघणेहिं मुट्ठीहिं / जं च सि खंडाखंडीकओ तुमं नरयपालेंहिं / / ___ ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 851) कुट्टाकुटिंट चुण्णाचुण्णिं मुग्गरमुसुंढिहत्थेहिं / जं विसखंडाखंडिं कऊ तुमं जणसमुहेण || (भगवती आराधना, गाथा 1571) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय संखिज्जमसंखिज्जं कालं ताई अवीसमंतेणं / दुक्खाई सोढाई, किं पुण अइअप्पकालमिणं ? || ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 877) संखिज्जमसंखिज्जगुणं वा संसारमणुसरित्तूण / दुक्खक्खयं करते जे सम्मत्तेणणसंरति || (भगवती आराधना, गाथा 55) .. तण्हा अणंतखुत्तो संसारे तारिसी तुमं आसी / जं पसमेउं सव्वोदहीणमुदयं न तीरिज्जा / / (आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 879) तण्हा अणंतखुत्तो संसारे तारिसी तुमं आसि / जं पसमेतुं सव्वो दधीणमुदगं पि ण तीरेज्ज || (भगवती आराधना, गाथा 1605) आसी अणंतखुत्तो संसारे ते छुहा वि तारिसिया / जं पसमेउं सव्वो पुग्गलकाओ विन तरिज्जा || (आराहणापडाया (पायणायरियविरइया), गाथा 880) आसी अणंतखुत्तो संसारे ते छुआ वि ताििसया / जं .पसमेदं सव्वो पुग्गलकाऊ ण तीरिज्ज / / (भगवती आराधना, गाथा 1606) जइ तारिसिया तण्हा छुहा य अवसेण सा तए सोढा / धम्मो त्ति इमा सवसेण कहं सोढुं न तीरिज्ज ? || (आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 881) जइ तारिसिया तण्हा छधा य अवसेण ते तदा सोढा / धम्मुत्ति इमा सवसेण कहं सोढुं ण तीरिज्ज // (भगवती आराधना, गाथा 1607) सुइपाणएण अणुसट्ठिभोयणेण य उवग्गहीएण / झाणोसहेण तिव्वा वि वेयणा तीरए सहिउं // ( आराहणापडाया (पायणायरियविरइया), गाथा 882) * सुइपाणएण अणुसिट्ठिभोयणेण य पुणोवगहिएण / झाणोसहेण तिव्वा वि वेदणा तीरदे सहिदं // (भगवती आराधना, गाथा 1608) इय झायंतो खवओ जइया परिहीणवाइओ होज्जा .. आराहणाए तइया इमाणि लिंगाणि दंसेइ // ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 910) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 143 इय झायंतो खवऊ जइया परिहीणवायिऊ होइ / आराधणाइं तइया इमाणि लिंगाणि दंसह / / (भगवती आराधना, गाथा 1901) हुंकारंजलि-भमुहंगुलीहिं दिट्ठीहिं करपयारेहिं / सिरचालणेण य तहा सन्नं दाएइ सो खवओ / / ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 911) हुंकारंजलिभमुहंगुलिहि अच्छीहि वीरमुट्ठीहिं / सिरचालणेण य तहा सण्णं दावेइ सो खवऊ || (भगवती आराधना, गाथा 1902) तेलोक्कसव्वसारं . चउगइसंसारदुक्खनासणयं / आराहणं पवनो सो भयवं मुक्खसोक्खत्थी / / . ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 914 ) तेलोक्कसव्वसारं. चउगइसंसारदुक्खणासयरं / आराहणं पव्वणो सो भयवं मुक्खपडिमुल्लं / / . (भगवती आराधना, गाथा 1923) कि जंपिएण्ण बहणा ? जो सारो केवलस्स लोयस्स / तं अचिरेण लहंती फासित्ताऽऽराहणं सयलं / / ( आराहणापडाया ( पायणायरियविरइया), गाथा 919) कि जंपिएण बहुणा जो सारो केवलस्स लोगस्स / तं अचिरेण लहंते फासित्ताराहणं णिहिलं / / (भगवती आराधना, गाथा 1939) पुव्वमभावियचित्तो आराहइ जइ वि को वि मरणंते / खण्णुयनिहियारहणं, तं चिय सव्वत्थ न पमाणं / / . ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 41.) पुव्वमभाविदजोगो आराधेज्ज मरणे जदि कोई / . खण्णूय णिही दिळं तं खु पमाणं ण सव्वत्थ / / (भगवती आराधना, गाथा 24) अरिहे लिंगे सिक्खा विणय समाही य अणिययविहारो। परिणाम चाय सीई भावण संलेहणा चेव / / (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 57) सुरिहे लिंगे सिक्खा विणयसमाही य अणियदविहारो। परिणामोवधिजहणो सिदी य तह भावणाओ य / / (भगवती आराधना, गाथा 69) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय जिणपडिरूवं विरियायारो रागादिदोसपरिहरणं / इच्चेवमादि बहवे आचेलक्के गुणा हुंति // . ( आराहणापडाया ( वीरभद्दापरियविरइया), गाथा 72 ) जिणपडिरूवं विरियायारो रागादिदोसपरिहरणं / इच्चेवमादिवहुगा आचेलक्के गुणा होति // (भगवती आराधना, गाथा 87) काले विणए बहुमाणे उवहाणे तहा अणिन्हवणे / ... .. वंजण अत्थ तदुभए विणओ नाणस्स अट्ठविहो || ___( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 89) काले विणए उवहाणे तहेव णिण्हवणे / वंजण अत्थ तदुभए णाणाचारो दु अट्ठविहो || (मूलाचार, गाथा 1/269) काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे / वंजणअत्थतदुभयं विणओ णाणम्हि अट्ठविहो || (मूलाचार, गाथा 1/367) विणएण विप्पहीणस्स होइ सिक्खा निरस्थिया तस्स / विणओ - सिक्खामलं, तीइ फलं सबकल्लाणं // ___(आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 94) विणएण विप्पहीणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा / विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं / / (मूलाचार, गाथा 1/385) चित्तं समाहियं जस्स होइ वज्जियविसोत्तियं वसयं / सो वहइ निरइयारं सामण्णधुरं अपरितंतो || __. ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 95) चित्तं समाहिदं जस्स होज्ज वज्जियविसोत्तिय वसियं / सो वहदि णिरदिचारं सामण्णधुरं अपरितंत्तो // (भगवती आराधना, गाथा 37) / दासं व मणं अवसं सवसं जो कुणइ तस्ससामण्णं / होइ समाहियमविसोत्तियं च जिणसासणाणुगयं // ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 99) / दासं व मणं अवसं जो कुणदि तस्स सामण्णं / होदि समाहिदमविसो त्तियं च जिणसासणाणुगदं // (भगवती आराधना, गाथा 46) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 145 तावं खमं मे काउं सरीर निक्खेवणं विउपसत्यं / इय निच्छियपरिणामो वुच्छिण्णसजीवियासो य / / (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 111) ताव खमं मे का, सरीरणिक्खेवणं विदु पसत्थं / समयपडायाहरणं भत्तपइण्णं णियमजण्णं / / (भगवती आराधना, गाथा 65) इत्तिरियं सव्वगणं विहिणा वियरित्तु अणुदिसाए उ / चइऊण संकिलेसं भावेइ असंकिलेसेण // (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 121) इत्तिरियं सव्वगणं विहिणा वित्तिरिय अणुदिसाएदु / जहिदूण संकिलेसं भावेइ असंकिलेसेण // . (भगवती आराधना, गाथा 82) तवभावणा य सुय-सत्तभावणेगत्तभावणा चेव / धिबलियभावणा विय असंकिलिट्ठा वि पंचविहा / / (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 125) तवभावणा य सुदसत्तभावणेगत्तभावणे चेव / धिदिवलविभौवणा वि य असंकिलिट्टा वि पंचविहा / / (भगवती आराधना, गाथा 92) चत्तारि महाविगईओ हुंति नवणीय मंस मज्ज महू / कंखापसंगदप्पासंजमकारीओ एयाओ / / . (आराहणापडाया ( वीरभद्दापरियविरइया), गाथा 141) .. चत्तारि महावियडी य होंति णवणीदमज्जमंसमधू / कंखापसंगदप्पासंजमकारीओ एदाओ / / (मूलाचार, गाथा 1/353) चत्तारि महावियडीओ होति णवणीदमज्जमंसमहू / . कंखा य संगदप्पा संजमकारीउ एदाओ / / (भगवती आराधना, गाथा 218) आणाभिकंखिणा वज्जभीरुणा तवसमाहिकामेणं / ताओ जावज्जीवं निज्जूढाओ पुरा चेव / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरहया), गाथा 142) आणाभिकंखिणा वज्जभीरुणा तवसमाधिकामेण / ताओ जावज्जीवं णिज्जूठाओ पुरा चैव // (भगवती आराधना, गाथा 219) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय आणाभिकंखिणावज्जभीरुणा तवसमाधिकामेण / ताओ जावज्जीवं णिबुड्ढाओ पुरा चेव / / (मूलाचार, गाथा 1/354 ) दंताणि इंदियाणि य अप्पडिबद्धो य देहरतिसक्खे / अणिगूहियवीरियया जीवियतण्हा य वृच्छिण्णा / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 151) दंताणि इंदियाणि य समाधिजोगा य फासिया होति / ' अणिगहिदवीरियदा जीविदतण्हा य वोछिण्णा / / __(भगवती आराधना, गाथा 243 ) अज्झवसाणविसुद्धी कसायकलुसीकयस्स से नत्थि / ता तस्स सुद्धिहेउं संलिहइ तओ कसायकलिं // . ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 159) .. अज्झवसाणविसुद्धी कसायकलुसीकदस्स णत्थित्ति / / अज्झवसाणविसुद्धी कसायसल्लेहणा भणिदा / / (भगवती आराधना, गाथा 264 ) तं वत्थु मुत्तव्वं जं पइ उप्पज्जए कसायमी / तं आयरेज्ज वत्थु जेण कसाया न उट्ठिति / / . ___ ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 162) तं वत्थु मोत्तव्वं जं पडि उप्पज्जए कसायग्गी / तं वत्थुमज्जिएज्जो जत्थोवसमो कसायाणं / / (भगवती आराधना, गाथा 267) संखित्ता वि य पमुहे जह वच्चइ वित्थरेण वड्ढंती / उदहितेण वरनई तह सीलगुणेहिं वड्ढाहि / / __( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 179) संखित्ता वि य पवहे जह वच्चइ वित्थरेण वड्ढंती / उदधिं तेण वरणदी तह सीळगुणेहिं वड्ढाहिं / / (भगवती आराधना, गाथा 287) जो सघरं पि पलित्तं निच्छइ विज्झाविउं पमाएणं / कह सो सद्दहियव्वो परघरदाहं पसामोउं ? || ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 182) जो सघरं पि पलित्तं णेच्छदि विज्झदिदुमलसदोसेण / किह सो सहहिदव्वो परघरदाहं पसामेदं / / (भगवती आराधना, गाथा 289) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 147 एसा गणहरमेरा आयारत्थाण वणिया सुत्ते / सुइयसुईनिरयाणं अप्पच्छंदाण निग्गहणी / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 186) एसा गणहरमेए आयारत्थाण वणिया सुत्ते / लोगसुहाणुरदाणं अप्पच्छंदो जहिच्छाए / / (भगवती आराधना, गाथा 295) सुस्सूसया गुरुणं, चेइयभत्ता य, विणयजुत्ता य / सज्झाए आउत्ता गुरू-पवयणवच्छता होह / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दापरियविरइया), गाथा 192) सुस्सूसया गुरूणं चेदियभत्ता य विणयजुत्ता य / सज्झाये आउत्ता गुरूपवयणवच्छला होइ / / (भगवती आराधना, गाथा 305) धण्णा हु ते मणूसा जे ते विसयाउरम्मि ळोगम्मि / विहरंति विगयसंगा निराउला नाण-चरणम्मि / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 193) धण्णा हु ते मणुस्सा जे ते विसयाउलम्मि ळोयम्मि / विहरंति विगदसंगा णिराउळा णाणचरणजुदा || (भगवती आराधना, गाथा 304 ) तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झियव्वयधुवम्मि / अणिगूहियबल-विरिओ सव्वत्थामेसु उज्जमइ // ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 198) तित्थयरो चदुणाणी सुरमहिदो सिज्झिदव्वयधुवम्मि / अणिगहिदवळविरिओ तवोविधाणम्मि उज्जमदि / / (भगवती आराधना, गाथा 307) वज्जेह अप्पमत्ता अज्जासंसग्गिमग्गि-विससरिसं / अज्जाणुचरो साहू पावइ वयणिज्जमचिरेण || ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 203) वज्जेह अप्पमत्ता अज्जासंसग्गमग्गिविससरिसं / अज्जाणुवरी साहू लहदि अकित्तिं खु अचिरेण // (भगवती आराधना, गाथा 335) सव्वत्थ इथिवग्गम्मि अप्पमत्तो सया अवीसत्यो / नित्थरइ बंभचेरं, तविवरीओ न नित्थरइ / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 206) / Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय सव्वत्थ इथिवग्गम्मि अप्पमत्तो सया अवीसत्थो / णित्थरदि बंभचेरं तबिवरीदो ण णित्थरदि / / (भगवती आराधना, गाथा 339) सगणे आणाकोवो फरूसवई कलहकरण-परियावा / निब्भय सिणेह कोलुणिय झाणविग्यो य असमाही / / .. (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 232) सगणे आणाकोवो फरूसं कलहपरिदावणादी य / णिब्भयसिणेहकोलुणि य झाणविग्यो य असमाधी / / (भगवती आराधना, गाथा 390) आवस्सयठाणाइसु पडिलेहण-वयण-गहण-निक्खेवे / भिक्खग्गह सज्झाए वियारगमणे परिच्छिज्जा // . (आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 250) आवस्सयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्खेवे / सज्झाये य विहारे भिक्खग्गहणे परिच्छति || (भगवती आराधना, गाथा 417 ) संसारसायरम्मी अणंतभवतिक्खदुक्खसलिलम्मि / संसरमाणो दुक्खेण लहइ जीवो मणुस्सत्तं / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाधा 260) संसारसायरम्मि य अणंतबहुतिव्वदुक्खसलिलम्मि / संसरमाणो दुक्खेण लहदि जीवो * मणुस्सत्तं / / - (भगवती आराधना, गाथा 437) पंचविहं ववहारं जो जाणइ तत्तओ सवित्थारं / बहुसो य दिट्ठपट्ठावओ य ववहारवं नाम || ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 272) पंचविहं ववहारं जो जाणइ तच्चदो सवित्थारं / बहुसो य टिट्ठकप्पट्ठवणो ववहारवं होइ / (भगवती आराधना, गाथा 454 ) तो उप्पीलेयव्वो गुरूणा उप्पीलएण दोसे सो / जह उयरत्यं मंसं वमयइ सीही सियालीए || ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 279) तो उप्पीलेदव्वा खवयस्सोपीलएण दोसा, से / वामेइ मंसमुदरम वि गदं सीहो जह सियाळं / / (भगवती आराधना, गाथा 483) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 149 उप्पाडित्ता धीरा मूलमसेसं पुणब्भवलयाए / उम्मुक्कभया सल्लं तरंति भवसायरमणंतं / / (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 298) उप्पाडित्ता धीरा मूलमसेसं पुणब्भवलयाए / संवेगजणियकरणा तरंति भवसायरमणंतं / / (भगवती आराधना, गाथा 477) इच्चेवमादिदोसा न हुंति गणिणो रहस्सधारिस्स / तम्हा आलोएज्जा अपरिस्साविस्स पामूले / / (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 303) इच्चेवमादिदोसा ण होति गुरूणो रहस्सधारिस्स / पुढे व अपुढे वा अपरिस्साइस्स धीरस्स / / (भगवती आराधना, गाथा 501) एवं परिमग्गित्ता 'निज्जवयगुणेहिं जुत्तमायरियं / उवसंपज्जइ विज्जा-चरणसमग्गं तओ साहू / / (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 305) एवं परिमग्गित्ता णिज्जवयगुणेहि जुत्तमायरियं / उवसंपज्जइ विज्जा चरणसमग्गो तगो साहू // (भगवती आराधना, गाथा 510) एगो संधारगओ चयइ सरीरं जिणोवएसेणं / अण्णो संलिहइ मुणी तुंगेहिं तवोवहाणेहिं // ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 312) एगो संथारगदो चयइ सरीरं जिणोवएसेणं / एगो सल्लिहदि मुणी उग्गेहि तवोविधाणेहिं / / (भगवती आराधना, गाथा 25) छत्तीसगुणसमण्णागएण तेण वि अवस्स कायव्वा / परसक्खिया य सोही सुठ्ठ वि ववहारकुसलेण / / (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 323) छत्तीसगुणसमण्णो गदेण वि अवस्समेव कायव्वा / परसक्खिया विसोधी सुठु वि ववहारकुसलेण || (भगवती आराधना, गाथा 31) जह बालो जंपंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ / तं तह आलोयव्वं माया-मयविप्पमुक्केणं / / (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 332) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय जह बालो जंप्पंतो कज्जमकज्जं च उज्जयं भणदि / तह अलोचेयव्वं माया मोसं च मोत्तूण / / (मूलाचार, गाथा 1/56) भत्तेण व पाणेण व उवगरणेणं व कीइकम्मेणं / आकंपेऊण गणिं करेइ आळोयणं कोई / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 345) भत्तेण व पाणेण व उवकरणेणं व किरिकम्मकरणेण / अणुकंपेऊण गणी करेइ आलोचणं कोई / / (भगवती आराधना, गाथा 69) जह कंसियभिंगारो अंतो मइलो विसुद्धओ बाहिं / . अंतो ससल्लदोसो सल्लविसोही तहेसा वि / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 355) जह कंसियभिंगारो अंतो णीलमइलो वहिं चोक्खो / अंतो ससल्लदोसा तधिमा सल्लुद्धरणसोधी / / (भगवती आराधना, गाथा 85) अरहट्टघडीसरिसी अहवा बुंदंछिओवमा होइ / भिण्णघडसरिच्छा वा सल्लविसोही इमा तस्स || ___ ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 363) अरहट्टघडीसरिसी अहवा चंदच्चुदोवमा . होई / भिण्णगडिसरिच्छा वा इमा हु सल्लुद्धरणसुद्धी / / (भगवती आराधना, गाथा 98) इय पयविभागियं ओघियं च आलोयणं स दाऊणं / सवगणसोहिकंखी गुरूवएसं समारूहइ / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 377) इय पयविभागियाए व ओघियाए व सल्लमुध्दरिय / सव्वगुणसोधिकंखी गुरूवएसं समाचरइ / / (भगवती आराधना, गाथा 618) पडिसेवित्ता कोई पच्छायावेण डज्झमाणमणो / संवेगजणियकरणो देसं घाएज्ज सव्वं वा / / ___ ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 386) पडिसेवित्ता कोई पच्छत्तावेण डज्झमाणमणो / संवेगजदिकरणो देसं घाएज्ज सव्वं वा / / (भगवती आराधना, गाथा 628) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 151 जुत्तो पमाणरइओ उभओकालपडिलेहणासद्धो / विहिविहिओ संथारो आरूहियव्वो तिगुत्तेणं / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 396 ) जुत्तो पमाणरइओ उभयकाळपडिलेहणासुद्धो / विधिविहिदो संथारो आरोहव्वो तिगुत्तेण / / . ( भगवती आराधना, गाथा 648) पियधम्मा दढधम्मा संविग्गा वज्जभीरूणो धीरा / छंदण्णू पच्चइया पच्चक्खाणम्मि य विहिण्ण / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 397 ) पियधम्मा दढधम्मा संविग्गावज्जभीरूणो धीरा / छंदण्हू णच्चइया पच्चक्खाणम्मि य विदण्हू / / - (भगवती आराधना, गाथा 650) जुत्तस्स तवधुराए अब्भूज्जयमरणधेणुसीसम्मि / तह ते कहिँति धीरा जह सो आराहओ होइ / / . ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 402) जुत्तस्स, तवधुराए अब्भुज्जदमरणवेणुसीसम्मि / तह ते काहिंति धीरा जह सो आराधउ होदि / / ( भगवती आराधना, गाथा 664 ) * चत्तारि जणा पाणयमुवकप्पंति अगिलाइपाउग्गं / चत्तारि जणा रक्खंति दवियमवक्कप्पियं तेहिं / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 404 ) चत्तारि जणा पाणयमुवकप्पंति अगिलाणए पाउग्गं / छंदियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा / / (भगवती आराधना, गाथा 666) चंत्तारि जणा रक्खं ति दवियमुवकप्पियं तयं तेहिं / अगियाए अप्पमत्ता खवयस्स समाधिमिच्छति / / (भगवती आराधना, गाथा 667) पासित्तु कोइ ताई 'तीरं पत्तस्सिमेहिं' किं मज्झ ? | वेरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरो स चिंतेइ / / ... ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 417 ) पासित्तु कोइ तादी तीरं पत्तस्सिमेहिं किं मित्ति / वेराग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होई / / (भगवती आराधना, गाथा 695) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय अणुसज्जमाणए पुण समाहिकामस्स सव्वमुवहरिय / इक्किक्कं भाविंतो ठवेइ पोराणयाहारे / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 421) अणुसज्जमाणए पुण समाधिकामस्स सव्वमुवहरिय / एक्केक्कं हावंति ठवेदि पोराणआहारे / / (भगवती आराधना, गाथा 702) अणुपुब्वेणठवेइ य संवट्टेऊण सव्वमाहारं / . पाणयपरिकम्मेण य पच्छा भावेइ अप्पाणं / / . ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 422) अणुपुव्वेण य ठविदे संवट्टेदूण सव्वमाहारं / पाणयपरिक्कमेण दू पच्छा भावेदि अप्पाणं // (भगवती आराधना, गाथा 703) तो पाणएण परिभावियस्स उयरमलसोहणट्ठाए / महुरं पज्जेयव्वो मंदं य विरेयणं खवओ || (आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 425) तो पाणएण परिभावियस्स उदरमळसोधणत्थाए'। मधुरं पज्जेदव्वो मंदं च विरेयणं खवओ || (भगवती आराधना, गाथा 706) मिच्छत्तस्स य वमणं, सम्मत्ते भावणा, परा भत्ती / पंचनमुक्काररई, नाणुवउत्तो सया होहि / / ___ ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 444 ) मिच्छत्तस्स य वमणं, सम्मत्ते भावणा परां भत्ती / भावणमोक्काररदिं णाणुवजुत्तो सदा कुणह / (भगवती आराधना, गाथा 726) मिच्छत्तसल्लविद्धा तिव्वाओ वेयणाओ पाविति / विसलित्तकंटविद्धा जह परिसा निप्पडीयारा || ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 451) मिच्छत्तसल्लविद्धा तिव्वाऊ वेदणाउ वेदंति / विसलित्तकंडविद्धा जह पुरिसा णिप्पडीकारा / / (भगवती आराधना, गाथा 735) अच्छीणि संघसिरिणो मिच्छत्तनिकायणेण पडियाइं / / कालगओ चिय संतो जाओ सो दीहसंसारे // ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 452) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 153 अच्छीणि संघसिरिणो मिच्छत्तणिकाचणेण पडिदाई / काळगदो वि य संतो जादो सो दीहसंसारे / / (भगवती आराधना, गाथा 736) मा कासि तं पमायं सम्मत्ते सव्वदुक्खनासणए / सम्मत्तपविट्ठाइं नाणं-तव-विरिय-चरणाई // ___( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 454 ) मा कासि तं पमादं सम्मत्त सव्वदुक्खणासयरे / सम्मत्तं खु पदिट्ठा णाणचरणवीरियतवाणं / / (भगवती आराधना, गाथा 739) कल्लाणपरंपरयं लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्ता / सम्मदंसणरयणं नऽग्घइ ससुराऽसुरो लोओ / / .( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 460 ) कल्लाणपरंपरयं लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्ता / सम्मइंसणरयणं णग्यदि ससुरासुरो लोऊ || - (भगवती आराधना, गाथा 745) कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं / सम्मइंसणरयणं अग्घेदि सुरासुरे लोए // (दर्शनप्राभृत, गाथा 33) विज्जा वि भत्तिमंतस्स सिद्धिमुवयति होइ फलदा य / किं पुण निव्वुइविज्जा सिज्झिहिंति अभत्तिमंतस्स ? || ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 464) विज्जा वि भत्तिमंतस्स सिद्धिमुवयादि होदि सफला य / किह पुण णिव्वुदिवीजं सिज्झिहदि अभत्तिमंतस्स / / (भगवती आराधना, गाथा 652) . तेसिं आराहणनायगाण न करिज्ज जो नरोभत्तिं / धंतं पि संजमंतो सालिं सो ऊसरे ववइ || ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 465) तेसिं आराहणणायगाण ण करेज्ज जो णरो भत्तिं / धत्तिं पि संजमं तो सालिं सो ऊसरे ववदि / / (भगवती आराधना, गाथा 753) वंदणभत्तीमित्तेण चेवमहिलाहिवो उ पउमरहो / देविंदपाडिहरं पत्तो जाओ गणहरो य // . ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 467) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय वंदणभत्तीमत्तेण चेव मिहिलाहिवो पउम्मरहो / देविंदपाडिहेरं पत्तो जादो गणधरो य / / (भगवती आराधना, गाथा 756) विज्जा जहा पिसायं सुटुवउत्ता करेइ पुरिसवसं / नाणं हिययपिसायं सट्ठवउत्तं तह करेइ / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 475) विज्जा जहा पिसायं सुठुवउत्ता करेदि पुरिसवसं / . णाणं हिदयपिसायं सुठुवउत्तं तह करेइ / / . (भगवती आराधना, गाथा 764) उवसमइ किण्हसप्पो जह मंतेण विहिणा पउत्तेण / तह हिययकिण्हसप्पो सुठुवउत्तेण नाणेण / / . ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 476) उवसमइ किण्हसप्पो जह मंतेण विधिणा पउत्तेण / . तह हिदयकिण्हसप्पो सुठ्ठवउत्तेण णाणेण / / (भगवती आराधना, गाथा 765) दढसुप्पो सूलहओ पंचनमुक्कारमित्तसुयनाणौ / उवउत्तो कालगओ जाओ देवो महिड्ढीओ / / ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 487) दढसुप्पो सूलहदो पंचणमोक्कारमित्तसुदणाणे / उवजुत्तो कालगदो देवो. जाऊ महद्धीऊं // (भगवती आराधना, गाथा 776) सव्वे वि य संबंधा पत्ता जीवेण सव्वजीवेहि / तो मारितो जीवे मारइ संबंधिणो सब्वे / / ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 507) सव्वे वि य संबंधा पत्ता सव्वेण सव्वजीवेहिं / तो मारंतो जीवो . संबंधी चेव मारेइ / / (भगवती आराधना, गाथा 796) जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ / ता सव्वजीवहिंसा परिचत्ता अप्पकामेहिं / / (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 508) जीववहो अप्पवहो जीवदया होइ अप्पणो हु दया / / विसकंटवो व्व हिंसा परिहिदव्वा तदो होदि / / (भागवती आराधना, गाथा 797) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 155 * जावइयाइं दुक्खाई हुंति चउगइगयस्स जीवस्स / सव्वाइं ताइं हिंसाफलाइं निउणं वियाणाहि / / ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 513) जावइयाइं दुक्खाइं होति लोयम्मि चदुगदिगदाइं / सव्वाणि ताणि हिंसा फळाणि जीवस्स जाणाहि / / (भगवती आराधना, गाथा 803) पाणो वि पाडिहेरं पत्तो वूढो वि सुंसुमारदहे / एगेण वि एगदिणऽज्जिएणऽहिंसावयगुणेणं / (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 516) पाणो वि पाडिहेरं पत्तो छूडो वि सुंसुमारहदे / एगेण एक्कदिवसक्कदेण हिंसावदगुणेण / (भगवती आराधना, गाथा 821) जह परमण्णस्स विसं विणासयं, जह य जोव्वणस्स जरा / तह जाण अहिंसादी गुणे असच्चं विणासेइ / / . ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 526) जह परमण्णस्स विसं विणासयं जह व जोव्वणस्स जरा / तह जाण अहिंसादी गुणाण य विणासयमसच्चं / / (भगवती आराधना, गाथा 844) जावइया किर दोसा इय-परलोए दुहावहा हुंति / आवहइ ते उ सव्वे मेहुणसण्णा मणूसस्स / / (आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 545) जावइया किर दोसा इहपरळोए दुहावहा होति / सव्वे वि आवहदि ते मेहणसण्णा मणुस्सस्स // (भगवती आराधना, गाथा 882) सूरग्गी दहइ दिया, रत्तिं य डहइ कामग्गी / सूरस्स अस्थि उज्झा ( ?च्छा) यणं पि, कामग्गिणो नत्थि / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 555) सूरग्गी दहदि रत्तिं च दिवा य डहइ कामग्गी / सूरस्स अस्थि उच्छागारो. कामग्गिणो णस्थि / / (भगवती आराधना, गाथा 896) कामपिसायग्गहिओ हियमहियं वा न अप्पणो मुणइ / पिच्छइ कामग्घत्थो हियं भणंतं पि सत्तुं व / / ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 556) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 : डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय कामपिसायग्गहिदो हिदमहिदं वा ण अप्पणो मुणदि / . होइ पिसायग्गहिदो व सदा परिसो अणप्पवसो || (भगवती आराधना, गाथा 889) माणुण्णयस्स पुरिसहमस्स नीओ वि आरुहइ सीसं / महिलानिस्सेणीए सुहेण फलभारमियस्स || ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 565) माणुण्णयस्स पुरिस दुमस्स णीचो वि आउहदि सीसं / . महिलाणिस्सेणीए णिस्सेणीए व दीहदुमं // (भगवती आराधना, गाथा 938) महिलाणं जे दोसा ते पुरिसाणं च हुंति नीयाणं / तत्तो अहिगतरा वा, तत्तो बल-सत्तिमंताण || - ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 584.) महिलाणं जे दोसा ते पुरिसाणं पि होति णीयाणं / तत्तो अहियदरा वा तेसिं बलसत्तिजुत्ताणं // (भगवती आराधना, गाथा 993) देहस्स सुक्क-सोणियमसुई उप्पत्तिकारणं जम्हा / तम्हा देहो असुई अमेज्झघडिओ घडो चेव // ___ (आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 592) देहस्स सुक्कसोणिय असुईपरिणामकारणं जह्मा / देहो वि होइ असुई अमेज्झघडपूरई वव्व तदो || (भगवती आराधना, गाथा 1003) चत्तारि सिराजालाणि हुंति, सोलस य कंदराईणि / छ च्चेव सिराकुच्चा देहे, दो मंसरज्जूणि / / __(आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 604 ) चत्तारि सिराजालाणि होति सोलस य कंडराणि तहा / छच्चेव सिराकुच्चा देहे दो मंसरज्जू य // . (भगवती आराधना, गाथा 1028) तिण्णि य वसंजलीओ, छ च्चेव य अंजलीओ पित्तस्स / सिंहो पित्तसमाणो, लोहियमद्भाढयं होइ / / . . ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 608) तिणि य वसंजलीऊ छच्चेव य अंजलीउ पित्तस्स / सिंभो पित्तसमाणो लोहिदमदाढयं हवदि / (भगवती आराधना, गाथा 1033) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 157 ज़ा सव्वसुंदरंगी सविलासा पढमजुव्वणक्कंता / स च्चेव जराजुण्णा अमणुण्णा होइ लोयस्स / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दापरियविरइया), गाथा 621) जा सव्वसुंदरंगी सविलासा पढमजोव्वणे कंता / सा चेव मुदा संती होदि हु विरसा य वीभच्छा / (भगवती आराधना, गाथा 1056) खोभेइ पत्थरो जह दहे पडतो पसण्णमवि पंकं / खोभेइ तहायं कम (?) पसण्णमवि तरुणसंसग्गी // ( आराहणापडाया ( वीरभद्दापरियविरइया), गाथा 625) खोभेइ पत्थरो जह दहं पडंतो पसण्णमवि पंकं / खोभेइ तहा मोहं पसण्णमवि तरुणसंसग्गी // . (भगवती आराधना, गाथा 1072) पुरिसस्स अप्पसत्थो भावो तिहिं कारणेहिं संभवइ / विरहम्मि अंधयारे कुसीलसेवाइ सयराहं // (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 627) पुरिसस्स अप्पसत्थो भावो तिहिं कारणेहिं संभवइ / विरहम्मि अंधयारे कुसीलसेवाए ससमक्खं / / (भगवती आराधना, गाथा 1080) सिंगारतरंगाए विलासवेलाइ जुव्वणजलाए / - पहसियफेणाइ मुणी नारिनईए न वुब्भंति / / ___ ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 644) सिंगारतरंगाए विलासवेगाए जोव्वणजळाए / विहसियफेणाए मुणि णारणईए ण उन्भंति // (भगवती आराधना, गाथा 1111) * संगो महाभयं जं विहेडिओ सावरण संतेण / पुत्तेण हिए अत्यम्मिमणिवईकुंचिएण जहा / / __ ( आराहणापडाया ( वीरभद्दापरियविरइया), गाथा 657) संगो महाभयं जं विहेडिदो सावरण संतेण / पुत्तेण चेव अत्थे हिदम्मि णिहिदेल्लए साहू // (भगवती आराधना, गाथा 1130) जह इंधणेण अग्गी, जह य समुद्दो नईसहस्सेहिं / तह.जीवस्स न तित्ती अस्थि तिलोए वि लद्भम्मि // ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 662) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय जह इंधणेण अग्गी जह य समुद्दो णदीसहस्सेहिं / आहारेण ण सक्को तह तिप्पे, इमो जीवो / / (भगवती आराधना, गाथा 1654 ) इंदियमयं सरीरं गिण्हइ गंथं च देहसुक्खत्थं / इंदियसुहाभिलासो गंथग्गहणे तओ सिद्धो / / ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 667) इंदियमयं सरीरं गंथे गिण्हदि य देहसुक्खत्थं / इंदियसुहाभिलासो गंथग्गहणे तो सिद्धो | (भगवती आराधना, गाथा 1163 ) गंथेसु घडियहियओ होइ दरिदो भवेसु बहुएसु / गंथनिमित्तं कम्मं किलिट्ठहियओ समाइयइ / / . ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 668) गंथेसु घडिदहिदऊ होइ दरिदो भवेसु बहुगेसु / होदि कुणंतो णिच्चं कम्मं आहारहेदुम्मि || (भगवती आराधना, गाथा 1165) सव्वत्थ होइ लहुओ रूवं वेसासियं हवइ तस्स / गुरुओ खु संगसत्तो संकिज्जइ चेव सव्वत्थ / / ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 674) सव्वत्थ होइ लहुगो रूवं विस्सासियं हवइ तस्स / गुरूगो हि संगसत्तो संकिज्जइ चावि सव्वत्थ / / (भगवती आराधना, गाथा 1176) सव्वग्गंधविमुक्को सीईभूओ पसंतचित्तो य / जं पावइ मुत्तिसुहं न चक्कवट्टी वि तं लहइ // ___( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 677) सवग्गंधविमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य / जं पावइ पीइसुहं न चक्कवट्टी वि तं लहदि / / ____ (भगवती आराधना, गाथा 1182) साहति जं महत्थं, आयरियाइं च जं महल्लेहिं / जं च महल्लाइं तओ महव्वयाइं भवे ताई // ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 678) साहति जं महत्थं आचरिदाणी य जं महल्लेहिं / . जं च महल्लाणि तदो महव्वयाइं भवे ताई / / (मूलाचार, गाथा 1/97) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 159 साहति जं महल्ला आयरियं / महल्लपुव्वेहिं / जं च महल्लाणि तदो महल्लया इत्तहे याइं / / (चारित्रप्राभृत, गाथा 30 ) तेसिं चेव वयाणं रक्खटुं राइभोयणनिवित्ती / अटु य पवयणमायाओ भावणाओ य सव्वाओ / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 679) तेसिं चेव वदाणं रक्खड़े रादिभोयणणियत्ती / अट्ठय पवयणमादा य भावणाओ य सव्वाओ / / (मूलाचार, गाथा 1/98) संजमसिहरारूढो घोरतवपरक्कमो तिगुत्तो वि / इति जो कुणइ नियाणं संसारं सो पवड्ढेइ / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दापरियविरइया), गाथा 686) संजमसिहरारूढो घोरतवपरक्कमो तिगुत्तो वि / पकरेज्ज जइ णिदाणं सो विय वट्टेइ दीहसंसारं / / (भगवती आराधना, गाथा 1221) मिच्छत्तसल्लदोसा पियधम्मो साहुवच्छलो संतो / बहुदुक्खे संसारे सुइरं भमिओ मिरीई वि || ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 691) मिच्छत्तसल्लदोसा पियधम्मो साधुवच्छलो संतो / बहुदुक्खे संसारे सुचिरं परिहिंडिउ मरिची / / (भगवती आराधना, गाथा 1288 ) तो तस्स तिगिच्छाजाणएण खमगस्स सव्वसत्तीए / विज्जाएसेणऽहवा परिकम्मं होइ कायव्वं / / . ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 720) तो तस्स तिगिंछाजाणएण खवयस्स सव्वसत्तीए / विज्जादेसवसेण य पडिकम्मं होइ कायव्वं / / (भगवती आराधना, गाथा 1497) को सि तुमं ? किनामो ? कत्थ वससि को व संपयं कालो / किं कुणसि ? कह व अच्छसि ? को वा हं ? सुयणु ! चिंतेसु / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 725) को सि तुमं किंणामो कत्थ वससि को व संपदी कालो / किं कुणसि तुमं कह वा लच्छसि किं णामगो वा हं / / (भगवती आराधना, गाथा 1505) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय समणस्स माणिणो संजयस्स निहणगमणं पि होउ वरं / न य जंपणयं काउं कायरया-दीण-किवणतं / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 734) . समणस्स माणिणो संजदस्स णिहणगमणं पि होइ वरं / ण य लज्जणयं काउं कायरदा दीणकिविणत्तं / / (भगवती आराधना, गाथा 1523) गाढप्पहारविद्धो मूइंगलियाहिं चालणि व्व कओ / भयवं चिलाइपुत्तो पडिवण्णो उत्तिमं अटुं | . (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 750) गाढप्पहारविद्धो मूइंगलियाहि चालणीव कदो / तध वि य चिलादिपुत्तो पडिवण्णो उत्तमं अटुं // (भगवती आराधना, गाथा 1553) .. किं पुण अणगारसहायएण करंतयम्मि परिकम्मे / संघे वोलग्गंते आराहेउं न सक्किज्जा ? || ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 755) / किं पुण अणयारसहायगेण कीरंतयम्मि पडिकम्मे / संघे ऊलग्गंते आराधेदुं ण सकिज्ज || (भगवती आराधना, गाथा 1559) तण्हा अणंतखुत्तो संसारे तारिसी तुमं आसी / जं पसमेउं सव्वोदहीणमुदयं न तीरिज्जा || ( आराहणापडाया ( वीरभद्दापरियविरइया), गाथा 782) तण्हा अणंतखुत्तो संसारे तारिसी तुमं आसि / जं पसमेतुं सव्वो दधीणमुदगं पि ण तीरेज्ज || (भगवती आराधना, गाथा 1605) आसी अणंतखुत्तो संसारे ते खुहा वि तारिसिया / जं पसमेउ सव्वो पुग्लकाओ वि न तरिज्जा / ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरहया), गाथा 783) आसी अणंतखुत्तो संसारे ते छधा व तारिसिया / जं पसमेदं सव्वो पुग्लकाऊ ण तीरिज्ज || (भगवती आराधना, गाथा 1606) जइ तारिसिया तण्हा छुहा य अवसेण ते तया सोढा / . धम्मो ति इमा सवसो कह पुण सोढुं न तरिज्जा ? || __ ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरहया), गाथा 784) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 161 जइ तारिसिया तण्हा छुधा य अवसेण ते तदा सोढा / धम्मुत्ति इमा सवसेण कहं सोढुं ण तीरिज्ज / / (भगवती आराधना, गाथा 1607) सुइपाणएण अणुसट्ठिभोयणेण य सया उवम्गहिओ / झाणोसहेण तिव्वा वि वेयणा तीरए सोढुं / / (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 785) सुइपाणएण अणुसिट्ठिभोयणेण य पुणोवगहिएण / झाणोसहेण तिव्वा वि वेदणा तीरदे सहिदुं / / (भगवती आराधना, गाथा 1608) धीरपुरिसपण्णत्तं सप्पुरिसनिसेवियं उवणमित्ता / धण्णा निरावयक्खा संथारगया विवज्जंति / / ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 791) धीरपुरिसपण्णत्तं सप्पुरिसणिसेवियं उवणमित्ता / धण्णा णिरावयंक्खा संधारगया णिसज्जंति / / (भगवती आराधना, गाथा 1676) एवं सव्वत्थेसु वि समभावं उवगओ विसुद्धप्पा / मित्तिं करुणं मुइयं उवेइ समयं उवेहं च / / .. ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 800) एवं सव्वत्थेसु वि समभावं उवगऊ विसुद्धप्पा / मित्ती करुणं मुदिदमुविखं खवऊ पुण उवेदि | (भगवती आराधना, गाथा 1695) धम्मं चउप्पयारं, सुक्कं च चउव्विहं किलेसहरं / संसारदुक्खभीओ झायइ झाणाइं सो दुण्णि / / . ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 804 ) धम्मं चउप्पयारं सुक्कं च चदुविधं किलेसहरं / संसारदुक्खभीऊ दुण्णि वि झाणाणि सो झादि / / (भगवती आराधना, गाथा 1699) अट्टे चउप्पयारे रोइम्मि चउविहम्मि जे भेया / ते सव्वे परियाण संथारगओ तओ खवओ || .. ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 808) अढे चउप्पयारे रुद्दे य चउविधे य जे भेदा / ते सव्वे परियाणइ संधारगऊ तऊ खवऊ || (भगवती आराधना, गाथा 1701) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय अत्थाण वंजणाण य जोगाणं संकमो उ वीयारो / तब्भावेण तयं खलु सत्ते वृत्तं सवीयारं / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 827) अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो ह वीचारो / तस्स य भावेण तयं सुत्ते उत्तं सवीचारं / / ( भगवती आराधना, गाथा 1880) एवं कसायजुज्झम्मि होइ खवयस्स आउहं झाणं / झाणविहुणो न जिणइ जुद्धं व निराउहो सुहडो / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 831) ' एवं कसायजुद्धम्मि होइ खवयस्स आउहं झाणं / . झाणविहुणो खवऊ रंगे व अणाउहो मल्लो || ( भगवती आराधना, गाथा 1890). हुंकारंजलि-भमुहंजलीहिं अच्छीहिं वीरमुट्ठीहिं / सिरचालणेण य तहा सणं दावेइ सो खवओ / / __ ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 833 ) हुंकारंजलिभमुहंगुलिहि अच्छीहिं वीरमुट्ठीहिं / सिरचालणेण य तहा सण्णं दावेइ सो खवऊ / / (भगवती आराधना, गाथा 1902) तो पडिचरया खवयस्स दिति आराहणाइ उवओगं / झाणंति सुयरहस्स कयसण्णा तस्स माणसियं / / __ ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 834 ) तो पडिचरया खवयस्स दिति आराधणाए उवऊगं / जाणंति सुदरहस्सा कदसण्णा कायखवएण / / (भगवती आराधना, गाथा 1903) भोगे अणुत्तरे भुंजिऊण तत्तो चुया सुमाणुस्से / इढिमउलं चइत्ता चरंति जिणदेसियं धम्मं / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 853) भोगे अणुत्तरे भुंजिऊण तत्तो चुदा सुमणुस्से / इड्डिमतुलं चउत्ता चरंति जिणदेसियं घम्मं / / (भगवती आराधना, गाथा 1940) एवं संथारगओ विसोहइत्ता वि दंसण-चरितं / परिवडइ पुणो कोई झायंतो अट्ठ-रोदाई / / ( आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 856) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 163 एवं संथारगदो विसोधइत्ता वि दंसणचरितं / परिवडदि पुणो कोई झायंतो अट्ठरुदाणि / / ___( भगवती आराधना, गाथा 1944 ) किं पुण जे ओसण्णा निच्चं जे यावि हुंति पासत्था / नीया य कुसीला वि य अभावियप्पा न सीयंति ? / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 858) किं पण जे ऊसण्णा णिच्चं जे चावि णिच्चपासत्था / जे वा सदा कुसीला संसत्ता वा जहाउंदा || (भगवती आराधना, गाथा 1947) तिण्णेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य / एते छत्रक्खत्ता पणयालमुहत्तसंजोगा / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 874 ) तिण्णेव उत्तराओ पणव्वसू रोहिणी विसाहा य / वीसं च अहोरत्ते तिण्णेव य होंति सूरस्स / / (तिलोयपण्णत्ती, गाथा 518) सयमेव अप्पणा सो करेइ आउंटणाइकिरियाओ / उच्चाराइ विगिंचइ सयं च सम्मं निरुवसग्गे / / __ (आराहणापडाया ( वीरभदायरियविरइया), गाथा 908) .. सयमेव अप्पणो सो करेदि अउंटणादिकिरियाऊ / उच्चारदीणि तधा सयमेव विकिंचदे विधिणा / / (भगवती आराधना, गाथा 2038 ) आगाढे उवसग्गे दुब्भिक्खे सव्वओ दुरूत्तारे / अविहिमरणं पि दि; कज्जे कडजोगिणो सद्धं / / (आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 927) 'आगाढे उवसग्गे दुभिक्खे सव्वदोऽवि दुत्तारे / कदजोगिसमधियासिय कारमजादेहि वि मरंति // (भगवती आराधना, गाथा 2068 ) उल्लं संतं वत्थं विरिल्लियं जह लहुं विनिव्वाइ / संविल्लियं तु न तहा, तहेव कम्मं मुणेयव्वं / / . (आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 937) उल्लं संतं वत्थं विरल्लिदं जह लहुं विणिव्वाइ / संवेढ़ियं तु ण तधा तधेव कम्मं वि णादव्वं // (भगवती आराधना, गाथा 2109) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय सुहमकिरिएण झाणेण निरूद्ध सुहमकायजोगे वि / सेलेसी होइ तओ अबंधओ निच्चलपएसो / / / ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 944) सहमकिरिएण झाणेण णिरुद्धे सहमकायजोगेऽवि / सेलेसिं होदि तदो अबंधवो णिच्चलपदेसो / / (भगवती आराधना, गाथा 2116 ) सो तेण पंचमत्ताकालेण खवेइ चरिमझाणेण / अणुइण्णाओ दुचरिमसमए सव्वाओ पयडीओ || . . ( आराहणापडाया ( वीरभद्दायरियविरइया), गाथा 946) . सो तेण पंचमत्ताकालेण खवेदि चरिमझाणेण / अणुदिण्णाऊ दुचरिमसमए सव्वाइ पयडीऊ || (भगवती आराधना, गाथा 2120) पाणिवह मुसावायं अदत्त मेहुण परिग्गहं थूलं / .. जावज्जीवं दुविहा गिण्हामि अणुव्वए. पंच / / . (पज्जंताराहणा पइण्णयं, गाथा 19) पाणिवह मुसावादं अदत्त मेहुण परिग्गहं चेव / कोहमदमायालोहा भय अरदि रदी दुगुंछा य || (मूलाचार, गाथा 1/288) * प्रवक्ता पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई० टी० आई० रोड़ वाराणसी - 5 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छाचार ( प्रकीर्णक) का समीक्षात्मक अध्ययन * डॉ. सुरेश सिसोदिया प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ का एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है / हिन्दुओं के लिए वेद, बौद्धों के लिए पिटक, पारसियों के लिए अवेस्ता, ईसाइयों के लिए बाइबिल और मुसलमानों के लिए कुरान का जो स्थान और महत्त्व है, वही स्थान और महत्त्व जैनों के लिए आगम साहित्य का है / जैन आगम साहित्य-अर्द्धमागधी आगम साहित्य और शौरसेनी आगम साहित्य ऐसी दो शाखाओं में विभक्त है। इनमें अर्द्धमागधी आगम साहित्य न केवल प्राचीन है अपितु वह महावीर की मूलवाणी के निकट भी है / शौरसेनी आगम साहित्य का विकास भी अर्द्धमागधी आगम साहित्य के प्राचीन स्तर के इन्हीं आगम ग्रन्थों के आधार पर हुआ है / अतः अर्द्धमागधी आगम साहित्य शौरसेनी आगम साहित्य का आधार एवं उसकी अपेक्षा प्राचीन भी है / __प्राचीन काल में अर्द्धमागधी आगम साहित्य-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ऐसे दो विभागों में विभाजित किया जाता था। अंगप्रविष्ट में ग्यारह अंग आगमों और बारहवें दृष्टिवाद को समाहित किया जाता था / जबकि अंगबाह्य में इनके अतिरिक्त वे सभी आगम ग्रन्थ समाहित किये जाते थे, जो श्रुतकेवली एवं पूर्वधर स्थविरों की रचनाएँ माने जाते थे। ____ नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में मिलने वाले वर्गीकरण में उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान-येसात नामतथाकालिक सूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित औरद्वीपसागरप्रज्ञप्ति-ये दो नाम, अर्थात् वहाँ कुल नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है। किन्तु वहाँ गच्छायारपइण्णयं (गच्छाचार-प्रकीर्णक) का कहीं भी उल्लेख नहीं है / तत्त्वार्थभाष्य और दिगम्बर परम्परा की तत्त्वार्थ की टीका सर्वार्थसिद्धि में जहाँ अंगबाह्य चौदह ग्रन्थों का उल्लेख है, उनमें भी गच्छाचार का उल्लेख नहीं हुआ है / इसी प्रकार यापनीय परम्परा के ग्रन्थों मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, दशाश्रुतस्कन्ध व्यवहार, वृहत्कल्प, जीतकल्प और निशीथसूत्र आदि ग्रन्थों के उल्लेख तो मिलते हैं, किन्तु उनमें भी कहीं भी गच्छाचार प्रकीर्णक का उल्लेख नहीं मिलता है। ___ गच्छाचार प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख हमें विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ, १४वीं शताब्दी) में उपलब्ध होता है। उसमें प्रकीर्णकों में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, मरणसमाधि, महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, संस्तारक, चन्द्रवेध्यक, भक्तपरिज्ञा, चतुःशरण, वीरस्तव, गणिविद्या, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, संग्रहणी और सबसे अन्त में गच्छाचार का उल्लेख हुआ है। विधिमार्गप्रपा में आगम ग्रन्थों के अध्ययन की जो विधि प्रज्ञप्त की गई है उसमें गच्छाचार के पश्चात महानिशीथ के अध्ययन का उल्लेख है। विधिमार्गप्रपा में गच्छाचार Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 : डॉ० सुरेश सिसोदिया का उल्लेख होना यह सिद्ध करता है कि उसे १४वीं शती में एक प्रकीर्णक के रूप में मान्यता प्राप्त थी। सामान्यतया प्रकीर्णकों का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ ही किया जाता है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि के अनुसार तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे / परम्परागत मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णक की रचना करता था / समवायांगसूत्र में 'चौरासीइं पइण्णगं सहस्साई' कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के चौरासी हजार प्रकीर्णकों की ओर संकेत किया गया है / आज यद्यपि प्रकीर्णकों की संख्या निश्चित नहीं है, किन्तु वर्तमान में 45 आगमों में दस प्रकीर्णक माने जाते हैं / ये दस प्रकीर्णक निम्नलिखित हैं : (1) चतुःशरण, (2) आतुरप्रत्याख्यान, (3) महाप्रत्याख्यान, (4) भक्तपरिज्ञा, (5) तन्दुलवैचारिक, (6) संस्तारक, (7) गच्छाचार, (8) गणिविद्या, (9) देवेन्द्रस्तव और (10) मरणसमाधि। इन दस प्रकीर्णकों के नामों में भी भित्रता देखी जा सकती है / कुछ ग्रन्थों में गच्छाचार और मरणसमाधि के स्थान पर चन्द्रवेध्यक और वीरस्तव को गिना गया है। कहीं भक्तपरिज्ञा को नहीं गिनकर चन्द्रवेध्यक को गिना गया है। इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं यथा-'आउरपच्चक्खाणं' (आतुर प्रत्याख्यान) के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं / दस प्रकीर्णकों को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय आगमों की श्रेणी में मानता है। मुनि श्री पुण्यविजयजी के अनुसार प्रकीर्णक नाम से अभिहित इन ग्रन्थों का संग्रह किया जाय तो निम्न बाईस नाम प्राप्त होते हैं (1) चतुःशरण, (2) आतुरप्रत्याख्यान, (3) भक्तपरिज्ञा, (4) संस्तारक, (5) तंदुलवैचारिक, (6) चन्द्रवेध्यक, (7) देवेन्द्रस्तव, (8) गणिविद्या, (9) महाप्रत्याख्यान, (10) वीरस्तव, (11) ऋषिभाषित, (12) अजीवकल्प, (13) गच्छाचार, (14) मरणसमाधि, (15) तीर्थोद्गालिक, (16) आराधनापताका, (17) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, (18) ज्योतिष्करण्डक, (19) अंगविद्या, (20) सिद्धप्राभृत, (21) सारावली और (22) जीवविभक्ति। ___इस प्रकार मुनि श्री पुण्यविजयजी ने बाईस प्रकीर्णकों में गच्छाचार का भी उल्लेख किया है / आचार्य जिनप्रभ के दूसरे ग्रन्थ सिद्धान्तागमस्तव की विशालराजकृत वृत्ति में भी गच्छाचार का स्पष्ट उल्लेख मिलता है / इस प्रकार जहाँ नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र की सूचियों में गच्छाचार का उल्लेख नहीं है वहाँ आचार्य जिनप्रभ की सूचियों में गच्छाचार का स्पष्ट उल्लेख है / इसका तात्पर्य यह है कि गच्छाचार नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र से परवर्ती किन्तु विधिमार्गप्रपा से पूर्ववर्ती है / Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छाचार ( प्रकीर्णक ) का समीक्षात्मक अध्ययन : 167 गच्छाचार प्रकीर्णक गच्छाचार प्रकीर्णक प्राकृत भाषा में निबद्ध एक पद्यात्मक रचना है / 'गच्छाचार' शब्द 'गच्छ' और आचार'-इन दो शब्दों से मिलकर बना है / प्रस्तुत प्रकीर्णक के संबंध में विचार करने के लिए हमें गच्छ' शब्द के इतिहास पर भी कुछ विचार करना होगा / यद्यपि वर्तमान काल में जैन सम्प्रदायों के मुनि संघों का वर्गीकरण गच्छों के आधार पर होता है जैसे-खरतरगच्छ, तपागच्छ, पायचन्दगच्छ आदि / किन्तु गच्छों के रूप में वर्गीकरण की यह शैली अति प्राचीन नहीं है / प्राचीनकाल में हमें निर्ग्रन्थसंघों के विभिन्न गणों में विभाजित होने की सूचना मिलती है। समवायांगसूत्र में महावीर के मुनि संघ के निम्न नौ गणों का उल्लेख मिलता है-(१) गोदासगण, (2) उत्तरबलिस्सहगण, (3) उद्देहगण, (4) चारणगण, (5) उद्दकाइयगण, (6) विस्सवाइयगण, (7) कामर्धिकगण, (8) मानवगण और (9) कोटिकगण। कल्पसूत्र स्थविरावली में इन गणों का उल्लेख ही नहीं है वरन ये गण आगे चलकर शाखाओं एवं कुलों आदि में किसप्रकार विभक्त हुए, यह भी उल्लिखित है 11 / कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्य यशोभद्र के शिष्य आर्य भद्रबाहु के चार शिष्य हुए, उनमें से आर्य गोदास से गोदासगण निकला / उस गोदासगण की चार शाखाएँ हुई-(१) ताम्रलिप्तिका, (2) कोटिवर्षिका, (3) पौण्ड्रवर्द्धनिका और (4) दासी खर्बटिका / आर्य यशोभद्र के दूसरे शिष्य सम्भूतिविजय के बारह शिष्य हुए, उनमें से आर्य स्थूलिभद्र के दो शिष्य हुए-(१) आर्य महागिरि और (2) आर्य सुहस्ति / आर्य महागिरि के स्थविर उत्तरबलिस्सह आदि आठ शिष्य हुए, इनमें स्थविर उत्तरबलिस्सह से उत्तरबलिस्सहगण निकला / इस उत्तरबलिस्सह गण की भी चार शाखाएँ हुईं-(१) कोशाम्बिका, (2) सूक्तमुक्तिका, (3) कौटुम्बिका और (4) चन्द्रनागरी / __आर्य सुहस्ति के आर्य रोहण आदि बारह शिष्य हुए, उनमें काश्यपगोत्रीय आर्य रोहण से 'उद्देह' नामक गण हुआ / उस गण की भी चार शाखाएँ हुई-(१) औदुम्बरिका, (2) मासपूरिका, (3) मतिपत्रिका और (4) पूर्णपत्रिका | उद्देहगण की उपरोक्त चार शाखाओं के अतिरिक्त छः कुल भी हुए-(१) नागभूतिक, (2) सोमभूतिक, (3) आर्द्र, (4) हस्तलीय, (5) नन्दीय और (6) पारिहासिक / - आर्य सुहस्ति के एक शिष्य स्थविर श्रीगुप्त से चारणगण निकला / चारणगण की चार शाखाएँ हुई-(१) हरितमालाकारी, (2) शंकाशिया, (3) गवेधुका और (4) वज्रनागरी / चारणगण की चार शाखाओं के अतिरिक्त सात कुल भी हुए-(१) वस्त्रालय, (2) प्रीतिधार्मिक, (3) हालीय, (4) पुष्पमैत्रीय, (5) मालीय, (6) आर्य चेटक और (7) कृष्णसह / आर्य सुहस्ति के ही अन्य शिष्य स्थविर भद्रयश से उडुवाटिकगण निकला, उसकी चार शाखाएँ हुई-(१) चम्पिका, (2) भद्रिका, (3) काकंदिका, (4) और मेखलिका / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 : डॉ. सुरेश सिसोदिया उडुवाटिकगण की चार शाखाओं के अतिरिक्त तीन कुल हुए-(१) भद्रयशस्क, (2) भद्रगुप्तिक और (3) यशोभद्रिक / आर्य सहस्ति के अन्य शिष्य स्थविर कामद्धिं से वेशवाटिकगण निकला, उसकी भी चार शाखाएँ हुईं-(१) श्रावस्तिका, (2) राज्यपालिका, (3) अन्तरिजिका और (4) क्षेमलिज्जिका / वेशवाटिकगण के कुल भी चार हुए-(१) गणिक, (2) मेधिक, (3) कामर्द्धिक और (4) इन्द्रपुरक / आर्य सुहस्ति के ही एक अन्य शिष्य स्थविर तिष्यगुप्त से मानवगण निकला, उसकी चार शाखाएँ हुईं-(१) काश्यपीयका, (2) गौतमीयका, (3) वशिष्टिका और (4) सौराष्ट्रिका / मानवगण के तीन कुल भी हुए -(1) ऋषिगप्तिय, (2) ऋषिदत्तिक और (3) अभिजयंत / आर्य सुहस्ति के ही दो अन्य शिष्यों सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध से कोटिकगण निकला, उसकी भी चार शाखाएँ हुई-(१) उच्चै गरी, (2) विद्याधरी, (3) वज़ी और (4) माध्यमिका। इस कोटिकगण के चार कुल धे-(१) ब्रह्मलीय, (2) वस्त्रलीय, (3) वाणिज्य तथा (4) प्रश्नवाहन / स्थविर सुस्थित एवं सुप्रतिबुद्ध के पाँच शिष्य हुए, उनमें से स्थविर प्रियग्रन्थ से कोटिकगण की मध्यमाशाखा निकली / स्थविर विद्याधर गोपाल से विद्याधरी शाखा निकली। स्थविर आर्य शान्ति श्रेणिक से उच्चै गरी शाखा निकली / स्थविर आर्य शान्तिश्रेणिक के चार शिष्य हुए-(१) स्थविर आर्य श्रेणिक, (2) स्थविर आर्यतापस, (3) स्थविर आर्य कबेर और (4) स्थविर आर्य ऋषिपालित / इन चारों शिष्यों से क्रमशः चार शाखाएँ निकलीं-(१) आर्य श्रेणिका, (2) आर्य तापसी, (3) आर्य कुबेरी और (4) आर्य ऋषिपालिता। स्थविर आर्य सिंहगिरि के चार शिष्य हुए-(१) स्थविर आर्य धनगिरि, (2) स्थविर आर्य वज्र, (3) स्थविर आर्य सुमित और (4) स्थविर आर्य अर्हद्दत / स्थविर आर्य सुमितसूरि से ब्रह्मदीपिका तथा स्थविर आर्य वज्रस्वामी से वज़ीशाखा निकली / आर्य वज्र स्वामी के तीन शिष्य हुए-(१) स्थविर आर्य वज्रसेन, (2) स्थविर आर्य पद्म और (3) स्थविर आर्य रथ / इन तीनों से क्रमशः तीन शाखाएँ निकलीं-(१) आर्य नागिला, (2) आर्य पद्मा और (3) आर्य जयन्ती। इसप्रकार कल्पसूत्र स्थविरावली में मुनिसंघों के विविध गणों, कलों और शाखाओं के उल्लेख तो उपलब्ध होते हैं, किन्तु उसमें कहीं भी 'गच्छ' शब्द का उल्लेख नहीं हुआ है / अर्द्धमागधी आगम साहित्य के अंग-उपांग ग्रन्थों में हमें कहीं भी 'गच्छ' शब्द का प्रयोग मुनियों के समूह के अर्थ में नहीं मिला है, अपितु उनमें सर्वत्र 'गच्छ' शब्द का प्रयोग 'गमन' अर्थ में ही हुआ है। ईसा की पहली शताब्दी से लेकर पाँचवीं-छठीं शताब्दी तक के मथुरा आदि स्थानों के जो अभिलेख उपलब्ध होते हैं उनमें भी कहीं भी 'गच्छ' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। वहाँ सर्वत्र गण, कुल, शाखा और अन्वय के ही उल्लेख पाये जाते हैं / दिगम्बर एवं यापनीय Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छाचार (प्रकीर्णक ) का समीक्षात्मक अध्ययन : 169 परम्परा के भी जो प्राचीन अभिलेख एवं ग्रन्थ पाये जाते हैं, उनमें भी गण, कुल, शाखा एवं अन्वय के उल्लेख ही मिलते हैं / गच्छ के उल्लेख तो ९वीं शताब्दी के बाद के ही मिलते हैं 12 / इस आधार पर हम निश्चित रूप से इतना तो कह ही सकते हैं कि 'गच्छ' शब्द का मुनियों के समूह अर्थ में प्रयोग छठी शताब्दी के बाद ही कभी प्रारम्भ हुआ है। __ अभिलेखीय साक्ष्य की दृष्टि से प्राचीनतम अभिलेख वि०सं०१०११ अर्थात् ईस्वी सन् 954 का उपलब्ध होता है जिसमें 'बृहद्गच्छ' का नामोल्लेख हुआ है 13 / साहित्यिक साक्ष्य के रूप में गच्छ' शब्द का इस अर्थ में उल्लेख हमें सर्वप्रथम ओघनियुक्ति (लगभग ६ठी-७वीं शताब्दी) में मिलता है जहाँ कहा गया है-"जिसप्रकार समुद्र में स्थित समुद्र की लहरों के थपेड़ों को सहन नहीं करने वाली सखाभिलाषी मछली किनारे चली जाती है और मृत्यु प्राप्त करती है उसीप्रकार गच्छ रूपी समुद्र में स्थित सुखाभिलाषी साधक भी गुरूजनों की प्रेरणा आदि को त्यागकर गच्छ से बाहर चला जाता है तो वह अवश्य ही विनाश को प्राप्त होता है"१४ / यद्यपि ओघनियुक्ति का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में उल्लिखित दस नियुक्तियों में नहीं है क्योंकि सामान्यतः यह माना जाता है कि ओघनियुक्ति आवश्यकनियुक्ति का ही एक विभाग है, किन्तु वर्तमान में उपलब्ध ओघनियुक्ति की सभी गाथायें आवश्यकनियुक्ति में रही हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता / हमारी दृष्टि में ओघनियुक्ति की अधिकांश गाथायें आवश्यक मूल भाष्य और विशेषावश्यक भाष्य के रचनाकाल के मध्य कभी निर्मित हुई हैं। ओघनियुक्ति के पश्चात् गच्छ' का उल्लेख हमें सर्वप्रथम हरिभद्र के पंचवस्तु (८वीं शताब्दी) में मिलता है, जहाँ न केवल 'गच्छ' शब्द का प्रयोग मुनियों के समूह विशेष के लिए हुआ है, अपितु उसमें 'गच्छ' किसे कहते हैं ? यह भी स्पष्ट किया गया है / हरिभद्रसरि के अनुसार एक गुरु के शिष्यों का समूह गच्छ कहलाता है 15 / वैसे शाब्दिक दृष्टि से 'गच्छ' शब्द का अर्थ एक साथ विहार आदि करने वाले मुनियों के समूह से किया जाता है और यह भी निश्चित है कि इस अर्थ में 'गच्छ' शब्द का प्रचलन ७वीं शताब्दी के बाद ही कभी प्रारम्भ हुआ होगा, क्योंकि इससे पूर्व का ऐसा कोई भी अभिलेखीय अथवा साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता जिसमें 'गच्छ' शब्द का प्रयोग मुनियों के समूह के लिए हुआ हो। प्राचीन काल में तो मुनि संघ के वर्गीकरण के लिए गण, शाखा, कुल और अन्वय के ही उल्लेख मिलते हैं / कल्पसूत्र स्थविरावली के अन्तिम भाग में वीर निर्वाण के लगभग६०० वर्ष पश्चात निवृत्तिकुल, चन्द्रकुल, विद्याधरकुल और नागेन्द्रकुल-इन चार कुलों से निवृत्तिगच्छ, चन्द्रगच्छ आदि गच्छ निकले। इसप्रकार प्राचीन काल में जिन्हें 'कुल' कहा जाता था वे ही आगे चलकर 'गच्छ' नाम से अभिहित किये जाने लगे / जहाँ प्राचीन . समय में 'गच्छ' शब्द एक साथ विहार (गमन) करने वाले मुनियों के समूह का सूचक था वहाँ आगे चलकर वह एक गुरु की शिष्य परम्परा का सूचक बन गया / इसप्रकार शनैः शनैः 'गच्छ' शब्द ने 'कुल' का स्थान ग्रहण कर लिया / यद्यपि ८वीं-९वीं शताब्दी तक 'गण', 'शाखा' और 'कुल' शब्दों के प्रयोग प्रचलन में रहे, किन्तु धीरे-धीरे 'गच्छ' शब्द का अर्थ व्यापक हो गया और 'गण', 'शाखा' तथा 'कुल' शब्द गौण हो गये / आज भी चाहे श्वेताम्बर Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 : डॉ० सुरेश सिसोदिया परम्परा के प्रतिष्ठा लेखों में 'गण', 'शाखा' और 'कुल' शब्दों का उल्लेख होता हो, किन्तु व्यवहार में तो 'गच्छ' शब्द का ही प्रचलन है। 'गच्छ' शब्द का मुनि समूह के अर्थ में प्रयोग यद्यपि ६ठी-७वीं शताब्दी में मिलने लगता है। किन्तु स्पष्ट रूप में गच्छों का आविर्भाव १०वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और ११वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से ही माना जा सकता है / वृहद्गच्छ, संडेरगच्छ, खरतरगच्छ आदि गच्छों का प्रार्दुभाव १०वीं-११वीं शताब्दी के लगभग ही हुआ है / गच्छाचार प्रकीर्णक में मुख्य रूप से अच्छे गच्छ में निवास करने से क्या लाभ और क्या हानियाँ हैं, इसकी चर्चा के साथ-साथ अच्छे गच्छ और बूरे गच्छ के आचार की पहचान भी कराई गई है / इसमें यह बताया गया है कि जो गच्छ अपने साधु-साध्वियों के आचार एवं क्रिया-कलापों पर नियंत्रण रखता है, वही गच्छ सुगच्छ है और ऐसा गच्छ ही साधक के निवास करने योग्य है / प्रस्तुत ग्रंथ में इस बात पर भी विस्तार से चर्चा हुई है कि अच्छे गच्छ के साधु-साध्वियों का आचार कैसा होता है ? इसी चर्चा के सन्दर्भ में प्रस्तुत ग्रन्थ में शिथिलाचारी और स्वच्छन्द आचार्य की पर्याप्त रूप से समालोचना भी की गयी है / गच्छाचार के कर्ता प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचयिताओं के सन्दर्भ में मात्र देवेन्द्रस्तव को छोड़कर अन्य किसी प्रकीर्णक के रचयिता का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता / यद्यपि चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान और भक्तपरिज्ञा आदि कुछ प्रकीर्णकों के रचयिता के रूप में वीरभद्र का नामोल्लेख उपलब्ध होता है१६ और जैन परम्परा में वीरभद्र को महावीर के साक्षात् शिष्य के रूप में उल्लिखित किया जाता है, किन्तु प्रकीर्णक ग्रन्थों की विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह फलित होता है कि वे भगवान महावीर के समकालीन नहीं हैं / एक अन्य वीरभद्र का उल्लेख वि० सं० 1008 का मिलता है 17 / सम्भवतः गच्छाचार की रचना इन्हीं वीरभद्र के द्वारा हुई हो। प्रस्तुत प्रकीर्णक में प्रारम्भ से अन्त तक किसी भी गाथा में ग्रन्थकर्ता ने अपना नामोल्लेख नहीं किया है / ग्रन्थ में ग्रन्थकर्ता के नामोल्लेख के अभाव का वास्तविक कारण क्या रहा है ? इस सन्दर्भ में निश्चय पूर्वक भले ही कुछ नहीं कहा जा सकता हो, किन्तु एक तो ग्रन्धकार ने इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही यह कहकर कि श्रुतसमुद्र मेंसे इस गच्छाचार को समुद्भत किया गया है, अपने को इस संकलित ग्रन्थ के कर्ता के रूप में उल्लिखित करना उचित नहीं माना हो, दूसरे ग्रन्थ की गाथा 135 में भी ग्रन्थकार ने यह स्पष्ट स्वीकार किया है कि महानिशीथ, कल्प और व्यवहारसूत्र से इस ग्रन्थ की रचना की गई है / हमारी दृष्टि से इस अज्ञात ग्रन्थकर्ता के मन में यह भावना अवश्य रही होगी कि प्रस्तुत ग्रन्थ की विषयवस्तु तो मुझे, पूर्वाचार्यों अथवा उनके ग्रन्थों से प्राप्त हुई है, इस स्थिति में मैं इस ग्रन्थ का कर्ता कैसे हो सकता हूँ ? वस्तुतः प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों के समान ही इस ग्रन्थ के कर्ता ने भी अपना नामोल्लेख नहीं किया है / इससे जहाँ एक ओर उसकी विनम्रता प्रकट होती है वहीं दूसरी ओर यह भी सिद्ध होता है कि यह एक प्राचीन स्तर का ग्रन्थ है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छाचार ( प्रकीर्णक ) का समीक्षात्मक अध्ययन : 171 ग्रन्यकर्ता के रूप में हमने पूर्व में जिन वीरभद्र का उल्लेख किया है वह सम्भावना मात्र है इस सन्दर्भ में निश्चयपूर्वक कुछ कहना दुराग्रह होगा / गच्छाचार का रचनाकाल नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में आगमों का जो वर्गीकरण किया गया है उसमें गच्छाचार प्रकीर्णक का कोई उल्लेख नहीं है / तत्त्वार्थभाष्य और दिगम्बर परम्परा की सर्वार्थसिद्धि टीका में भी गच्छाचार प्रकीर्णक का कहीं कोई उल्लेख नही हुआ है / इसी प्रकार यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में भी कहीं भी गच्छाचार प्रकीर्णक का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। इससे यही फलित होता है कि ६ठीं शताब्दी से पूर्व इस ग्रन्थ का कोई अस्तित्व नहीं था / गच्छाचार प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख विधिमार्गप्रपा में मिलता है जहाँ चौदह प्रकीर्णकों में गच्छाचार को अन्तिम प्रकीर्णक गिना गया है१८ / इसका तात्पर्य यह है कि गच्छाचार प्रकीर्णक नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र से परवर्ती अर्थात् ६वीं शताब्दी के पश्चात् तथा विधिमार्गप्रपा अर्थात् १४वीं शताब्दी से पूर्व अस्तित्व में आ चुका था / गच्छाचार प्रकीर्णक के रचयिता ने जिसप्रकार ग्रन्थ में ग्रन्थकर्ता के रूप में कहीं भी अपना नामोल्लेख नहीं किया है उसीप्रकार इस ग्रन्थ के रचनाकाल के सन्दर्भ में भी उसने ग्रन्थ में कोई संकेत नहीं दिया है / किन्तु ग्रन्थ की १३५वीं गाथा में ग्रन्थकार का यह कहना कि इस ग्रन्थ की रचना महानिशीध, कल्प और व्यवहारसूत्र के आधार पर की गई है१९। इस अनुमान को बल देता है कि गच्छाचार की रचना महानिशीथ के पश्चात् ही कभी हुई है / ___ महानिशीथ का उल्लेख नन्दीसूत्र की सूची में मिलता है 20 / इससे यह फलित होता है कि महानिशीथ ६ठीं शताब्दी पूर्व का ग्रन्थ है किन्तु महानिशीथ की उपलब्ध प्रतियों में यह भी स्पष्ट उल्लिखित है कि महानिशीथ की प्रति के दीमकों द्वारा भक्षित हो जाने पर उसका उद्धार आचार्य हरिभद्रसूरि ने ८वीं शताब्दी में किया था 21 / इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महानिशीथ ग्रन्थ भले ही ६ठीं शताब्दी से पूर्व अस्तित्व में रहा हो, किन्तु उसके वर्तमान स्वरूप का निर्धारण तो आचार्य हरिभद्र की ही देन है / इससे यही प्रतिफलित होता है कि गच्छाचार के प्रणेता के समक्ष महानिशीथसूत्र अपने वर्तमान स्वरूप में उपलब्ध था / इस आधार पर गच्छाचार की रचना ८वीं शताब्दी के पश्चात् तथा १३वीं शताब्दी से पूर्व ही कभी हुई है, ऐसा मानना चाहिए / हरिभद्रसूरि द्वारा आगम ग्रन्थों के उल्लेख में कहीं भी गच्छाचार का उल्लेख नहीं किये जाने से भी यही फलित होता है कि गच्छाचार की रचना हरिभद्रसूरि (८वीं शताब्दी) के पश्चात ही कभी हुई है / हम पूर्व में ही यह उल्लेख कर चुके हैं कि गच्छाचार में 'गच्छ' शब्द का मुनि संघ हेतु जो प्रयोग हुआ है, वह प्रयोग भी ८वीं शताब्दी के बाद ही अस्तित्व में आया है / लगभग ८वीं शताब्दी से चन्द्रकुल, विद्याधरकुल, नागेन्द्रकुल और निवृत्तिकुल से चन्द्रगच्छ, विद्याधरगच्छ आदि 'गच्छ' नाम से अभिहित होने लगे थे। इतना तो निश्चित है कि गच्छों के अस्तित्व में आने के बाद ही गच्छाचार प्रकीर्णक की रचना हुई होगी। अभिलेखीय एवं Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 : डॉ. सुरेश सिसोदिया साहित्यिक साक्ष्यों में मुनिसंघ के रुप में 'गच्छ' शब्द का प्रयोग ८वीं शताब्दी के पूर्व नहीं मिलता / अतः गच्छाचार-प्रकीर्णक किसी भी स्थिति में ८वीं शताब्दी के पूर्व की रचना नहीं है / पुनः गच्छाचार प्रकीर्णक में स्वच्छन्द और सुविधावादी गच्छों की स्पष्ट रूप से समालोचना की गई है / यह सुविदित है कि निर्ग्रन्थ संघ में स्वच्छन्द और सुविधावादी प्रवृत्तियों का विकास चैत्यवास के प्रारंभ के साथ लगभग चौथी शताब्दी में हुआ जिसका विरोध सर्वप्रथम ६ठीं शताब्दी में दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थ सूत्तपाहुड, बोधपाहुड एवं लिंगपाहुड आदि में किया 22 / श्वेताम्बर परम्परा में शिथिलाचारी और स्वच्छन्दाचारी प्रवृत्तियों का विरोध लगभग ८वीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थसंबोधप्रकरण में किया है 23 | संबोधप्रकरण और गच्छाचार प्रकीर्णक में अनेक गाथाएँ समान रूप से पाई जाती हैं इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इन दोनों ग्रन्थों का रचनाकाल समकालीन होना चाहिए / यद्यपि इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि संबोधप्रकरण और गच्छाचार में समान रूप से उपलब्ध गाथाएँ गच्छाचार में संबोधप्रकरण से ली गई हैं / यदि हम यह मानते हैं तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि गच्छाचार संबोधप्रकरण से परवर्ती है / श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्रसूरि के पश्चात् स्वच्छन्द और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों का विरोध खरतरगच्छ के संस्थापक आचार्य जिनेश्वरसरि के द्वारा भी किया गया, उनका काल लगभग १०वीं शताब्दी का है / अतः यह भी संभव है कि गच्छाचार की रचना १०वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध अथवा ११वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में कभी हुई हो / पुनः यदि हम गच्छाचार के रचयिता आचार्य वीरभद्र को मानते हैं तो उनका काल ईस्वी सन की १०वीं शताब्दी निश्चित होता है। ऐसी स्थिति में गच्छाचार का रचनाकाल भी ईस्वी सन की १०वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध होना चाहिये, किन्तु वीरभद्र गच्छाचार के रचयिता हैं, यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है / अतः गच्छाचार का रचनाकाल ८वीं शताब्दी से 10 शताब्दी के मध्य ही कभी माना जा सकता है। विषयवस्तु गच्छाचार प्रकीर्णक में कुल 137 गाथायें हैं। ये सभी गाथायें गच्छ, आचार्य एवं साधु-साध्वियों के आचार का विवेचन प्रस्तुत करती हैं / इस ग्रन्थ में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है ___ सर्वप्रथम लेखक मंगलाचरण के रूप में त्रिदशेन्द्र (देवपति) भी जिसे नमन करते हों, ऐसे महाभाग महावीर को नमस्कार करके गच्छाचार का वर्णन करना प्रारम्भ करता है (1) / ग्रन्थ में सन्मार्गगामी गच्छ में रहने को ही श्रेष्ठ मानते हुए कहा गया है कि उन्मार्गगामी गच्छ में रहने के कारण कई जीव संसारचक्र में घूम रहे हैं (2) / सन्मार्गगामी गच्छ में रहने का लाभ यह है कि यदि किसी को आलस्य अथवा अहंकार आ जाए, उसका उत्साह भंग हो जाए अथवा मन खिन हो जाए तो भी वह गच्छ के अन्य साधुओं को देखकर तप आदि क्रियाओं में घोर पुरुषार्थ करने लग जाता है जिसके परिणाम स्वरूप उसकी आत्मा में वीरत्व का संचार हो जाता है (3-6) / Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छाचार (प्रकीर्णक ) का समीक्षात्मक अध्ययन : 173 आचार्य स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि आचार्य गच्छ काआधार है, वह सभी को हित-अहित का ज्ञान कराने वाला होता है तथा सभी को संसारचक्र से मुक्त कराने वाला होता है इसलिए आचार्य की सर्वप्रथम परीक्षा करनी चाहिए (7-8) / ग्रन्थ में स्वच्छंदाचारी, दुष्ट स्वभाव वाले, जीव हिंसा में प्रवृत्त रहने वाले, शय्या आदि में आसक्त रहने वाले, अपकाय की हिंसा करने वाले, मूल-उत्तरगुणों से भ्रष्ट, समाचारी का उल्लंघन करने वाले, विकथा कहने वाले तथा आलोचना आदि नहीं करने वाले आचार्य को उन्मार्गगामी कहा गया है और जो आचार्य अपने दोषों को अन्य आचार्यों को बताकर उनके निर्देशानुसार आलोचनादि करके अपनी शुद्धि करते हैं उन्हें सन्मार्गगामी आचार्य कहा गया है (9-13) / ग्रन्थ में कहा गया है कि आचार्य को चाहिए कि वह आगमों का चिन्तन, मनन करते हुए देश, काल और परिस्थिति को जानकर साधुओं के लिए वस्त्र, पात्र आदि संयमोपकरण ग्रहण करे / जो आचार्य वस्त्र, पात्र आदि को विधिपूर्वक ग्रहण नहीं करते, उन्हें शत्रु कहा गया है (14-15) / ग्रन्थ में यह भी कहा गया है कि जो आचार्य साधु-साध्वियों को दीक्षा तो दे देते हैं किन्तु उनसे समाचारी का पालन नहीं करवाते, नवदीक्षित साधु-साध्वियों को लाड़-प्यार से रखते हैं किन्तु उन्हें सन्मार्ग पर स्थित नहीं करते, वे आचार्य शत्रु हैं / इसी प्रकार मीठे-मीठे वचन बोलकर भी जो आचार्य शिष्यों को हित-शिक्षा नहीं देते हों, वे शिष्यों के हित-साधक नहीं हैं / इसके विपरीत दण्ड से पीटते हुए भी जो आर्चाय शिष्यों के हितसाधक हों, उन्हें कल्याणकर्ता माना गया है (16-17) / . शिष्य का गुरु के प्रति दायित्व निरूपण करते हुए कहा गया है कि यदि गुरु किसी समय प्रमाद के वशीभूत हो जाए और समाचारी का विधिपूर्वक पालन नहीं करे तो जो शिष्य ऐसे समय में अपने गुरु को सचेत नहीं करता, वह शिष्य भी अपने गुरु का शत्रु है (18) / जिनवाणी का सार ज्ञान, दर्शन और चारित्र की साधना में बतलाया गया है तथा चारित्र की रक्षा के लिए भोजन, उपधि तथा शय्या आदि के उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि दोषों को शुद्ध करने वाले को चारित्रवान आचार्य कहा गया है, किन्तु जो सुखाकांक्षी हो, विहार में शिथिलता वर्तता हो तथा कुल, ग्राम, नगर और राज्य आदि का त्याग करके भी उनके प्रति ममत्व भाव रखता हो, संयम बल से रहित उस अज्ञानी को मुनि नहीं अपितु केवल वेशधारी कहा गया है (20-24) / ग्रन्थ में शास्त्रोक्त मर्यादापूर्वक प्रेरणा देने वाले, जिन उपदिष्ट अनुष्ठान को सम्यक् रूप से बतलाने वाले तथा जिनमत को सम्यक् प्रकार से प्रसारित करने वाले आचार्यों को तीर्थङ्कर के समान आदरणीय माना गया है (25-27) / ग्रन्थ में उन्मार्गगामी और सन्मार्गगामी आचार्य का विवेचन करते हुए कहा गया है कि सन्मार्ग का नाश करने वाले तथा उन्मार्ग पर प्रस्थित आचार्य का संसार परिभ्रमण अनन्त होता है / ऐसे आचार्यों की सेवा करने वाला शिष्य अपनी आत्मा को संसारसमुद्र में गिराता है (29-31) / किन्तु जो साधक आत्मा सन्मार्ग में आरूढ़ है उनके प्रति Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 : डॉ. सुरेश सिसोदिया वात्सल्य भाव रखना चाहिए तथा औषध आदि से उनकी सेवा स्वयं तो करनी ही चाहिए और दूसरों से भी करवानी चाहिए (35) / / ___प्रस्तुत ग्रन्थ में लोकहित करने वाले महापुरुषों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि ऐसे कई महापुरुष भूतकाल में हुए हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे जो अपना सम्पूर्ण जीवन अपने एकमात्र लक्ष्य लोकहित हेतु व्यतीत करते हैं, ऐसे महापुरुषों के चरणयुगल में तीनों लोकों के प्राणी नतमस्तक होते हैं (36) / आगे की गाथा में यह भी विवेचन है कि ऐसे महापुरुषों के व्यक्तित्व का स्मरण करने मात्र से पापकर्मों का प्रायश्चित हो जाता है (37) / ग्रन्थ में शिष्य के लिए गुरु का भय सदैव अपेक्षित मानते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार संसार में नौकर, अश्व एवं वाहन आदि अपने स्वामी की सम्यक् देखभाल या नियन्त्रण के अभाव में स्वच्छंद हो जाते हैं उसीप्रकार प्रतिप्रश्न, प्रायश्चित तथा प्रेरणा आदि के अभाव में शिष्य भी स्वच्छंद हो जाते हैं इसलिए शिष्य को सदैव गुरु का भय रहना चाहिए (38) / ग्रन्थ में साधुओं के प्रत्येक गच्छ को गच्छ नहीं माना गया है वरन शास्त्रों का सम्यक अर्थ रखने वाले, संसार से मुक्त होने की इच्छा वाले, आलस्य रहित, व्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाले, सदैव अस्खलित चारित्र वाले और राग-द्वेष से रहित रहने वाले साधुओं के गच्छ को ही वास्तव में गच्छ माना गया है (39) / . साधु स्वरूप का निरूपण करते हुए ग्रन्थ में कहा गया है कि गीतार्थ के वचन भले ही हलाहल विष के समान प्रतीत होते हों तो भी उन्हें बिना संकोच के स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वे वचन विष नहीं, अपितु अमृत तुल्य होते हैं। ऐसे वचनों से एक तो किसी का मरण होता नहीं है और कदाचित् कोई उनसे मर भी जाय तो वह मरकर भी अमर हो जाता है। इसके विपरीत अगीतार्थ के वचन भले ही अमृत तुल्य प्रतीत होते हों तो भी उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए / वस्तुतः वे वचन अमृत नहीं, हलाहल विष की तरह हैं जिससे जीव तत्काल मृत्यु को प्राप्त होता है और वह कभी भी जन्म-मरण से रहित नहीं हो पाता (44 - 47) / अतः अगीतार्थ और दुराचारी की संगति का त्रिविध रूप से परित्याग करना चाहिए तथा उन्हें मोक्षमार्ग में चोर एवं लुटेरों की तरह बाधक समझना चाहिए (48-49) / ग्रन्थ के अनुसार सुविनीत शिष्य गुरुजनों की आज्ञा का विनयपूर्वक पालन करता है और धैर्यपूर्वक परिषहों को जीतता है / वह अभिमान, लोभ, गर्व और विवाद आदि नहीं करता है, वह क्षमाशील होता है, इन्द्रियजयी होता है / स्व-पर का रक्षक होता है, वैराग्यमार्ग में लीन रहता है तथा दस प्रकार की समाचारी का पालन करता है और आवश्यक क्रियाओं में संयमपूर्वक लगा रहता है (52-53) / विशुद्ध गच्छ की प्ररूपणा करते हुए ग्रन्थ में कहा गया है कि गुरु अत्यन्त कठोर, कर्कश, अप्रिय, निष्ठुर तथा क्रूर वचनों के द्वारा उपालम्भ देकर भी यदि शिष्य को गच्छ से बाहर निकाल दे तो भी जो शिष्य द्वेष नहीं करते, निन्दा नहीं करते, अपयश नहीं फैलाते, Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छाचार ( प्रकीर्णक ) का समीक्षात्मक अध्ययन : 175 निन्दित कर्म नहीं करते, जिनदेव-प्रणीत सिद्धांत की आलोचना नहीं करते अपितु गुरु के कठोर, क्रूर आदि वचनों के द्वारा जो भी कार्य-अकार्य कहा जाता है उसे तहत्ति' ऐसा कहकर स्वीकार करते हों, उन शिष्यों का गच्छ ही वास्तव में गच्छ है (54-56) / सुविनीत शिष्य की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वह न केवल वस्त्र-पात्रादि के प्रति ममता से रहित होता है अपितु वह शरीर के प्रति भी अनासक्त होता है / वह न रूप तथा रस के लिए और न सौन्दर्य तथा अहंकार के लिए अपितु चारित्र के भार को वहन करने के लिए ही शुद्ध एवं निर्दोष आहार ग्रहण करता है (57-59) / पाँचवें अंग आगम व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में वर्णित प्रश्नोत्तर शैली के अनुसार ही प्रस्तुत ग्रन्थ में भी गौतम को सम्बोधित करते हुए कहा गया है कि हे गौतम ! जहाँ छोटे-बड़े का ध्यान रखा जाता हो, एक दिन भी जो दीक्षा पर्याय में बड़ा हो उसकी जहाँ अवज्ञा नहीं की जाती हो, भयंकर दुष्काल होने पर भी जिस गच्छ के साधु, साध्वी द्वारा लाया गया आहार ग्रहण नहीं करते हों, वृद्ध साधु भी साध्वियों से व्यर्थ वार्तालाप नहीं करते हों, स्त्रियों के अंगोपांगों को सराग दृष्टि से नहीं देखते हों, ऐसा गच्छ ही वास्तव में गच्छ है (60-62) / ... साधुओं के लिए साध्वियों के संसर्ग को सर्वथा त्याज्य माना गया है / ग्रन्थानुसार साध्वियों का संसर्ग अग्नि तथा विष के समान वर्जित है / जो साधु, साध्वियों के साथ संसर्ग करता है वह शीघ्र ही निन्दा प्राप्त करता है / ग्रन्थ में स्पष्ट कहा है कि स्त्री समूह से जो सदैव अप्रमत्त रहता है, वही ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है उससे भिन्न व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता (63-70) / - गच्छाचार-प्रकीर्णक की एक विशेषता यह है कि इसमें कहीं तो साधु के उपलक्षण से और कहीं साध्वी के उपलक्षण से सुविहित आचार मार्ग का निरूपण किया गया है / हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि आचार मार्ग का निरूपण चाहे साधु अथवा सांध्वी के उपलक्षण से किया गया हो, वह दोनों ही पक्षों पर लागू होता है / जैन आगमों में ऐसे अनेक प्रसंग हम देखते हैं जहाँ मुनि आचार का निरूपण किसी एक वर्ग विशेष के उपलक्षण से किया गया है, किन्तु हमें यह समझना चाहिए कि वह आचार निरूपण दोनों ही वर्गों पर समान रूप से लागू होता है। ग्रन्थ में पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक तथा त्रसकायिक जीवों को किसी प्रकार से पीड़ा नहीं पहुँचे, इस हेतु विशेष विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि स्वयं मरते हुए भी जिस गच्छ के साधु षड़कायिक जीवों को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाते हों, वास्तव में वही गच्छ है (75-81) / प्रस्तुत ग्रन्थ में साधु के लिए स्त्री का तनिक भी स्पर्श करना दृष्टिविष सर्प, प्रज्वलित अग्नि तथा हलाहल विष की तरह त्याज्य माना गया है और यह कहा गया है कि जिस गच्छ के साधु, बालिका, वृद्धा ही नहीं अपनी संसार पक्षीय पौत्री, दौहित्री, पुत्री एवं बहिन का स्पर्श मात्र भी नहीं करते हों, वही गच्छ वास्तविक गच्छ है / साधु के लिए ही नहीं गच्छ के आचार्य Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 : डॉ० सुरेश सिसोदिया के लिए भी स्पष्ट कहा है कि आचार्य भी यदि स्त्री का स्पर्श करे तो उसे मूलगुणों से भ्रष्ट जानों (82-87) / ___ ग्रन्थ के अनुसार जिस गच्छ के साधु सोना-चाँदी, धन-धान्य आदि भौतिक पदार्थों तथा रंगीन वस्त्रों का परिभोग करते हों, वह गच्छ मर्यादाहीन है किन्तु जिस गच्छ के साधु कारण विशेष से भी ऐसी वस्तुओं का स्पर्श मात्र भी नहीं करते हों, वास्तव में वही गच्छ है (89-90) / ग्रन्थ में साध्वियों द्वारा लाए गये वस्त्र, पात्र, औषधि आदि का सेवन करना साधु के लिए सर्वथा वर्जित माना गया है (91-96) / प्रस्तुत ग्रन्थ में यह निर्देश दिया गया है कि आरम्भ-समारम्भ एवं कामभोगों में आसक्त तथा शास्त्र विपरीत कार्य करने वाले साधुओं के गच्छ को त्रिविध रूप से त्यागकर अन्य सद्गुणी गच्छ में चले जाना चाहिए और जीवन पर्यन्त ऐसे सद्गुणी गच्छ में रहना चाहिए (101-1.05) / साध्वी स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि जिस गच्छ में छोटी तथा युवा अवस्था वाली साध्वियाँ उपाश्रय में अकेली रहती हों, कारण विशेष से भी रात्रि के समय दो कदम भी उपाश्रय से बाहर जाती हों, गृहस्थों से अश्लील अथवा सावध भाषा में वार्ता करती हों, स्नान आदि द्वारा शरीर का श्रृंगार करती हों, रूई से भरे गद्दों पर शयन करती हों या शास्त्र विपरीत ऐसे ही अनेकानेक कार्य करती हों, वह गच्छ वास्तव में गच्छ नहीं है (107-116) / किन्तु जिस गच्छ की साध्वियों में परस्पर कलह नहीं होता हो तथा जहाँ सावध भाषा नहीं बोली जाती हो, अर्थात् जहाँ शास्त्र विपरीत कोई कार्य नहीं होता हो, वह गच्छ ही श्रेष्ठ गच्छ है (117) / ____ ग्रन्थ में स्वच्छंदाचारी साध्वियों का आचार निरूपण करते हुए बतलाया गया है कि ऐसी साध्वियाँ आलोचना नहीं करतीं, मुख्य साध्वी की आज्ञा का पालन नहीं करतीं, बीमार साध्वियों की सेवा नहीं करतीं, किन्तु वशीकरण विद्या एवं निमित्त आदि का प्रयोग करती हैं, रंग-बिरंगे वस्त्र पहनती हैं, विचित्र प्रकार के रजोहरण रखती हैं, अनेकबार अपने शरीर के अंगोपांगों को धोती हैं, गहस्थों को आज्ञा देती हैं, उनके शय्या-पलंग आदि का उपयोग करती हैं, इस प्रकार वे स्वाध्याय, प्रतिक्रमण एवं प्रतिलेखन आदि करने योग्य कार्य नहीं करती हैं, किन्तु जो नहीं करने योग्य कार्य हैं, उनको वे करती हैं (118-134) / ग्रन्थ का समापन यह कहकर किया गया है कि महानिशीथ, कल्प (बृहत्कल्प) और व्यवहारसूत्र तथा इसीतरह के अन्य ग्रन्थों से 'गच्छाचार' नामक यह ग्रन्थ समुद्भत किया गया है। साधु-साध्वियों को चाहिए कि वे स्वाध्यायकाल में इसका अध्ययन करें तथा जैसा आचार इसमें निरूपित है वैसा ही वे आचरण करें (135-137) / गच्छाचार-प्रकीर्णक की विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह आगम विहित मुनि-आचार का समर्थक और शिथिलाचार का विरोधी है / गच्छाचार में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ शिथिलाचार का विरोध किया गया है / यथा, गाथा 85 में स्पष्ट कहा गया है कि जिस गच्छ का साधु वेशधारी आचार्य स्वयं ही स्त्री का स्पर्श करता हो, उस Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छाचार (प्रकीर्णक) का समीक्षात्मक अध्ययन : 177 गच्छ को मूलगुणों से भ्रष्ट जानों / गाथा 89-90 में उस गच्छ को मर्यादाहीन कहा गया है, जिसके साधु-साध्वी, सोना-चाँदी, धन-धान्य, काँसा-ताम्बा आदि का परिभोग करते हों तथा श्वेतावस्त्रों को त्यागकर रंगीन वस्त्र धारण करते हों / गाथा 91 में तो यहाँ तक कहा गया है कि जिस गच्छ के साधु, साध्वियों द्वारा लाये गये संयमोपकरण का भी उपभोग करते हैं, वह गच्छ मर्यादाहीन है / इसीप्रकार गाथा 93-94 में अकेले साधु का अकेली साध्वी या अकेली स्त्री के साथ बैठना अथवा पढ़ना-पढ़ाना मर्यादा विपरीत माना गया है। ग्रन्थ में शिथिलाचार का विरोध करते हुए यहाँ तक कहा गया है कि जिस गच्छ के साधु क्रय-विक्रय आदि क्रियाएँ करते हों एवं संयम से भ्रष्ट हो चुके हों, उस गच्छ का दूर से ही परित्याग कर देना चाहिए / गाथा 118-122 में स्वच्छंदाचारी साध्वियों का विवेचन करते हुए कहा गया है कि दैवसिक, रात्रिक आदि आलोचना नहीं करने वाली, साध्वी प्रमुखा की आज्ञा में नहीं रहने वाली, बीमार साध्वियों की सेवा नहीं करने वाली, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि नहीं करने वाली साध्वियों का गच्छ निन्दनीय है / गच्छाचार-प्रकीर्णक में उल्लिखित शिथिलाचार के विवेचन से यह फलित होता है कि गच्छाचार उस काल की रचना है जब मुनि-आचार में शिथिलता का प्रवेश हो चुका था और उसका खुलकर विरोध किया जाने लगा / जैन आचार के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि विक्रम की लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी से मुनियों के आचार में शिथिलता आनी प्रारम्भ हो चुकी थी / जैनधर्म में एक ओर जहाँ तन्त्र-मन्त्र और वाममार्ग के प्रभाव के कारण शिथिलाचारिता का विकास हुआ वहीं दूसरी ओर उसी काल में वनवासी परम्परा के स्थान पर जैनधर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में चैत्यवासी परम्परा का विकास हुआ जिसके परिणाम स्वरूप पाँचवीं-छठीं शताब्दी में जैन मुनिसंघ पर्याप्त रूप से सुविधाभोगी बन गया और उस पर हिन्दू परम्परा के मठवासी महन्तों की जीवन शैली का प्रभाव आ गया / शिथिलाचारी प्रवृत्ति का विरोध दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में तथा श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों में देखा जा सकता है / यद्यपि यह कहना तो कठिन है कि आचार्य कुन्दकुन्द और हरिभद्रसूरि की आलोचनाओं से जैन मुनिसंघ में यथार्थ रूप से कोई सुधार आ गया था क्योंकि यदि ऐसा कोई सुधार आया होता तो भट्टारक और चैत्यवासी परम्परा समाप्त हो जानी चाहिए थी, किन्तु अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ८वीं९वीं शताब्दी में भट्टारक और चैत्यवासी परम्परा न केवल जीवित थी, अपितु फलफूल रही थी / जिसके परिणाम स्वरूप निर्गन्ध परम्परा में स्वच्छन्दाचारी एवं शिथिलाचारी प्रवृति में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी / जैसा कि हम पूर्व में ही यह प्रतिपादित कर चुके हैं कि लगभग उसी काल में गच्छाचार की रचना हुई होगी / वस्तुतः गच्छाचार ऐसा ग्रन्थ है जो जैन मुनि संघ को आगमोक्त आचार-विधि के परिपालन हेतु निर्देश ही नहीं देता है वरन उसे स्वच्छन्दाचारी और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों से दूर रहने का आदेश भी देता है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 : डॉ० सुरेश सिसोदिया us सन्दर्भ-सूची (क) नन्दीसूत्र-सम्पा० मुनि मधुकर, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर; ई० सन् 1982, पृष्ठ 161-162 / (ख) पाक्षिकसूत्र - प्रका० देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, पृष्ठ 76 / देविंदत्वयं-तंदुलवेयालिय-मरणसमाहि-महापच्चक्खाण-आउरपच्चक्खाण -संथारय-चंदाविज्झय-चउसरण-वीरत्थय-गणिविज्जा-दीवसागरपण्णत्तिसंगहणी-गच्छायारं-इच्चाइपइण्णगाणि इक्किक्केण निविएण वच्चंति / -विधिमार्गप्रपा, सम्पा० जिनविजय, पृष्ठ 57-58 .. वही, पृष्ठ 58 / समवायांगसूत्र-सम्पा० मुनि मधुकर, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समितिब्यावर, प्रथम संस्करण 1982, 84 वां समवाय, पृष्ठ 143 / / (क) प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, -डा० कैलाश चन्द्र शास्त्री, पृ० 197 (ख) जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, -देवेन्द्रमुनि शास्त्री; पृष्ठ 388 / (ग) आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, - मुनि नगराज, पृष्ठ 486 / पइण्णयसुत्ताइं-सम्पा० मुनि पुण्यविजय, प्रका० श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई; भाग 1, प्रथम संस्करण 1984, प्रस्तावना पृष्ठ 20 अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग 2, पृष्ठ 41 पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, प्रस्तावना पृष्ठ 18 / वन्दे मरणसमाधिं प्रत्याख्यान 'महा'-ऽऽतुरोपपदे / संस्तारक-चन्द्रवेध्यक-भक्तपरिज्ञा-चतुःशरणम् .||32 / / वीरस्तव-देवेन्द्रस्तव-गच्छाचारमपि च गणिविद्याम् / द्वीपाब्धिप्रज्ञप्तिं तण्डुलवैतालिकं च नमुः / / 33 / / / -उद्धृत-H.R.Kapadia, The Canonical Literature of the Jainas, p. 51. समवायांगसूत्र-सम्पा० मुनि मधुकर, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति,ब्यावर; प्रथम संस्करण, ई० सन् 1981, सूत्र 9/29 / कल्पसूत्र, अनु० आर्या सज्जनश्रीजी म०, प्रका० श्री जैन साहित्य समिति, कलकत्ता; पत्र 334-345 / / (क) जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, लेख क्रमांक 143 (ख) प्रतिष्ठा लेख संग्रह, लेख क्रमांक, 34,38,39,133,833 "संवत् 1011 वृहद्गच्छीय श्री परमानन्दसूरि शिष्य श्री यक्षदेवसूरिभिः प्रतिष्ठितं" -लोढ़ा दौलत सिंह : श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह, लेख क्रमांक 331 जह सागरम्मि मीणा संखोहं सागरस्स असहंता / निति तओ सहकामी निग्गयमित्ता विनस्संति / / ; 10. 14. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छाचार ( प्रकीर्णक) का समीक्षात्मक अध्ययन : 179 एवं गच्छसमुद्दे सारणवीईहिं चोइया संता / निति तओ सुहकामी मीणा व जहा विणस्संति / / (ओघनियुक्ति, गाथा 116-117) गुरुपरिवारो गच्छो तत्थ वसंताण निज्जरा विउला / विणयाओ तह सारणमाईहिं न दोसपडिवत्ती / / -पंचवस्तु (हरिभद्रसूरि), प्रका० श्री देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, गाथा 696 16. The Canonical Literature of the Jainas, p. 51-52. 17. bid.,p.52. 18. विधिमार्गप्रपा, पृष्ठ 57-58 / / 19. महानिसीह-कप्पाओ ववहाराओ तहेव य / साहु-साहुणिअट्ठाए गच्छायारं समुद्धियं / / (गच्छाचार प्रकीर्णक, गाथा 135) 20. नन्दीसूत्र-सम्पा० मुनि मधुकर, सूत्र 76, 79,-81 21. उद्धृत-जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 2, पृष्ठ 291-292 22. विस्तार हेतु द्रष्टव्य है-(क) सूत्तपाहुड, गाथा 9-15 / (ख) बोधपाहुड, गाथा 17-20, 45-60 / (ग) लिंगपाहुड, गाथा 1-20 / 23. संबोधप्रकरण, कुगुरु अध्याय, गाथा 40-50 / * शोधाधिकारी . आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान पद्मिनी मार्ग उदयपुर (राज.) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में प्रतिपादित विनयगुण ... * डॉ० हुकमचन्द जैन मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है / समाज एवं परिवार के बिना उसका जीवन निष्फल है / घर, परिवार एवं समाज को सुखमय बनाने के लिए व्यक्ति में जिन मानवीय गुणों का होना नितान्त आवश्यक है, उन्हीं में से एक गुण है-विनय / जैन आगमों, व्याख्याओं एवं टीकाओं के साथ ही चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में इसका विस्तार से विवेचन मिलता है / विनय का स्वरूप चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में विनय का स्वरूप समझाते हुए कहा है- 'जो छः प्रकार के जीवनिकायों के संयम का ज्ञाता और सरल चित्तवाला हो, वह निश्चित ही विनीत कहा जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में विनय की व्याख्या करते हुए कहा गया है-'जो कर्ममल को नष्ट करता है तथा पूज्य व्यक्तियों का आदर करता है, वह विनीत है / प्रायः 'विनय' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है-(१) नम्रता, (2) आचार और (3) अनुशासन के अर्थ में / उत्तराध्ययनसूत्र में मुख्य रूप से श्रमणाचार तथा अनुशासन के अर्थ में ही विनय को समझा गया है। विनय की विविध परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि 'विनय' वस्तुतः व्यक्ति को 'अहं' से दूर हटाकर 'यथार्थ' में लाकर खड़ा करता है / जिससे व्यक्ति त्रिरत्न का पालन करता हुआ कर्मों की निर्जराकर अपने को परमतत्त्व (मोक्ष) की ओर अग्रसर करता है। विनय के भेद विनय के सामान्यतः पांच भेद बतलाये गये हैं 1. लोकानुवृत्ति विनय : आसन से उठना, हाथ जोड़ना, आसन देना, पाहणगति करना तथा अपनी सामर्थ्य के अनुसार देवता की पूजा करना, लोकानुवृत्ति विनय है। 2. अर्थनिमित्त विनय : अपने स्वार्थवश दूसरों को हाथ जोड़ना, अर्थनिमित्त विनय 3. काम तन्त्र विनय : काम के अनुष्ठान हेतु किया जाने वाला विनय कामतन्त्र विनय 4. भय विनय : भय के कारण विनय करना भय विनय है / 5. मोक्ष विनय : जिस विनय से कर्मों की निर्जरा होती हो और जो मोक्ष की ओर अग्रसर कराता हो, वह मोक्ष विनय है / पुनः मोक्ष विनय पाँच प्रकार का कहा गया है(अ) ज्ञान विनय, (ब) दर्शन विनय, (स) चारित्र विनय, (द) तप विनय और (य) उपचार विनय / इसके भी भेदाभेद है, किन्तु हम यहाँ इसकी विस्तृत चर्चा नहीं कर रहे हैं। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में प्रतिपादित विनयगुण : 181 दशाश्रुतस्कन्ध में गुरु अपने शिष्य को चार प्रकार की विनय प्रतिपत्ति सिखाकर अपने ऋण से उऋण होता हुआ कहता है-“हे शिष्य ! विनय चार प्रकार का है- 1. आचार विनय, 2. श्रुत विनय, 3. विक्षेपणा विनय और 4. दोष निर्घातना विनय / "4 पुनः ये सभी विनय चार-चार प्रकार के कहे गये हैं / दशाश्रुतस्कन्ध में इसका विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है / स्थानांगसूत्र में विनय सात प्रकार का कहा गया है-''सत्तविहे विणए पण्णत्ते, तंजहा-णाण विणए, दंसण विणए, चरित्त विणए, मण विणए, वइ विणए, काय विणए, लोगोवयार विणए य / "6 अर्थात ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, मनोविनय, वाक् विनय, काय विनय और लोकोपचार विनय / . चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में विनय का महत्त्व __चन्द्रवेध्यक-प्रकीर्णक में विनय के स्वरूप एवं भेदाभेद का विवेचन करने के पश्चात् विनय के महत्त्व का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है / ग्रन्थ में सात द्वारों के माध्यम से सात गुणों की चर्चा की गई है / इसमें प्रथम द्वार विनय गुण ही है / ग्रन्थ में कहा गया है कि जो विनय है, वही ज्ञान है और जो ज्ञान है वही विनय कहा जाता है / विनय से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से विनय को जाना जाता है। विनय का महत्त्व बताते हुए कहा है कि मनुष्य के सम्पूर्ण सदाचार का सारतत्त्व विनय में प्रतिष्ठित होना है / विनय रहित तो निर्ग्रन्थ साधु भी प्रशंसित नहीं होते हैं / यदि कोई निग्रन्थी है और उसमें विनय नहीं है तो वह प्रशंसा का पात्र नहीं है / आगे यह भी कहा गया है कि अल्प श्रुतज्ञान से सन्तुष्ट होकर जो व्यक्ति विनय और पाँच महाव्रतों से युक्त है, वह जितेन्द्रिय है, आराधक है / इस बात को उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करते हुए ग्रन्थ में कहा है-जिस प्रकार लाखों-करोड़ों जलते हुए दीपक भी अन्धे व्यक्ति के लिए निरर्थक हैं उसीप्रकार विनय रहित व्यक्ति का बहुत अधिक शास्त्रज्ञ होने का क्या प्रयोजन?'८ तात्पर्य यही है कि विनय रहित व्यक्ति का शास्त्रज्ञानी होना भी निरर्थक है / विनय का अर्थ चारित्र लेते हुए उसका महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया है"(सम्यक्) दर्शन से रहित व्यक्ति को सम्यक् ज्ञान नहीं होता और सम्यक् ज्ञान से रहित व्यक्ति को क्रिया गुण (सम्यक् चारित्र) नहीं होता है / (सम्यक्) चारित्र से रहित व्यक्ति का निर्वाण (मोक्ष) नहीं होता है / चारित्र शुद्धि के महत्त्व को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है-"जिसप्रकार निपुण वैद्य शास्त्रज्ञान के द्वारा रोग के उपचार को जानता है उसी प्रकार ज्ञानी आगम ज्ञान के द्वारा चारित्र की शुद्धि को जानता है / "10 . उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि चारित्रशुद्धि, कषायों का शमन आदि विनय से ही संभव हैं / विनय वास्तव में एक ऐसा तप है जो समस्त विकृतियों को जलाकर व्यक्ति को मोक्ष की ओर अग्रसर कराता है इसलिए चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक के चतुर्थ द्वार विनयनिग्रह गुण में कहा गया है-"विनय मोक्ष का द्वार है, इसलिए कभी भी विनय को नहीं छोड़ें / निश्चय ही शास्त्रों को थोड़ा जानने वाला पुरूष भी यदि विनय सम्पत्र है Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 : डॉ० हुकमचन्द जैन तो वह कर्मों का क्षय कर लेता है / 11 अभिज्ञान शाकुन्तलम् में विनय का महत्त्व बतलाते हुए कहा गया है- 'भवन्ति नम्रास्तारवः फलोद्गमैः / 12 अर्थात् फल के आने पर वृक्ष झुक जाते हैं / उसीप्रकार विनयरूपी फल के आने पर व्यक्ति में मानवीय गुणों का विकास होता है और वह विनम्र हो जाता है / त्रिपिटक ग्रन्थों में विनय पिटक नामक अध्याय में भगवान बुद्ध ने विस्तार पूर्वक विनय के महत्त्व को समझाया है / उत्तराध्ययनसूत्र में विनीत शिष्य का गुरु के प्रति क्या कर्तव्य है, गुरु के साथ उसे कैसा व्यवहार करना चाहिए तथा अपने विनयपनसे क्रोधी से क्रोधी गुरु को भी वह कैसे शान्त कर देता है, यह सब विस्तार पूर्वक समझाया गया है / 13 वसुनन्दिश्रावकाचार में विनय के महत्त्व को बतलाते हुए कहा है-हे साधक ! पाँच प्रकार के विनय का मन, वचन एवं काया-तीनों प्रकार से पालन करो, क्योंकि विनय रहित सुविहित मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते हैं / 14. मूलाचार में भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा आचार-ये पांच प्रकार के विनय मोक्षगति के नायक कहे गये हैं।१५ मोक्ष मार्ग में विनय का स्थान विनय का अध्ययन, अध्यापन, आचरण आदि के पीछे व्यक्ति का मोक्ष प्रप्ति एक मुख्य उद्देश्य रहा है / भगवती आराधना एवं मूलाचार में कहा गया है कि विनयहीन पुरुष का शास्त्र पढ़ना निष्फल है क्योंकि शास्त्र पढ़ने का फल विनय है और विनय का फल मोक्ष मिलना है / ज्ञान लाभ, आचारशुद्धि और सम्यक् आराधना आदि की सिद्धि विनय से होती है / मोक्ष सुख अन्ततः विनय से ही प्राप्त होता है / अतः व्यक्ति को अपने में विनय-भाव सदैव रखना चाहिए। चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक एवं अन्य ग्रन्थों में निरूपित विनय के महत्त्व से यह ज्ञात होता है कि विनयगुण अहिंसा, समता, कषाय शमन में सहायक है तथा पर्यावरण संरक्षण, विश्व शांति, लोककल्याण का प्रेरक एवं मोक्ष का हेतु भी है / सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदि की ओर अग्रसर होने के लिए व्यक्ति में विनयगुण का होना नितान्त आवश्यक है। विनयगुण कालान्तर में एक वाद के रूप में स्थापित हो गया और यह विनयवाद कहलाया। जैनविद्या के बहुश्रुत विद्वान डॉ० जगदीश चन्द्र जैन अपनी कृति 'जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज' में विनयवाद का उल्लेख करते हुए कहते हैं-'जैनसूत्रों में चार प्रकार की मिध्यादृष्टियों का उल्लेख है-१. क्रियावादी, 2. अक्रियावादी, 3. अज्ञानवादी और 4. विनयवादी। 16 वहाँ विनयवादियों ने बाह्य क्रियाओं के स्थान पर मोक्ष प्राप्ति के लिए विनय को आवश्यक माना है / 17 अतः विनयवादी सुर, नृपति, यति, हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, बकरी, गीदड़, कौआ और बगुले आदि को देखकर उन्हें प्रणाम करते हैं / 18 औपपातिकसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा आदि में विनयवादियों को अविरुद्ध भी कहा गया है / 19 इस प्रकार विनय एक तप है, आचार है जो क्रियाओं में शुद्धि लाता है / इससे व्यक्ति अहिंसक बनता है / इससे ही व्यक्ति कर्म निर्जराकर महान तपस्वी, समतावादी एवं निर्मोही बनकर संसार-सागर को पार करने में सफल हो सकता है / निष्कर्ष रूप में हम यही कहना चाहेंगे कि चन्द्रवेध्यक में प्रतिपादित विनयगुण को जीवन में आत्मसात कर व्यक्ति अपना जीवन सफल बना सकता है / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में प्रतिपादित विनयगुण : 183 सन्दर्भ सूची सिसोदिया, डॉ. सुरेश-चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक, प्रका० आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, गाथा 40 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 3, पृष्ठ 548 मूलाचार (वट्टकेर), प्रका० भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, संस्करण 1944, गाथा 582 ॐ दशाश्रुतस्कन्ध, सम्पा० अमोलकऋषि, प्रका० राजाबहादुरलाल सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी जौहरी, हैदराबाद, पत्र 20 -25 वही, पत्र 20-25 स्थानांगसूत्र, सम्पा० मधुकर मुनि, प्रका० आगम प्रकाशक समिति, ब्यावर, पृष्ठ 610 सिसोदिया, डॉ० सुरेश-चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक, गाथा 62, विस्तृत विवेचन हेतु द्रष्टव्य है-भूमिका पृष्ठ 12-20 वही, गाथा 66 वही, गाथा 76 10. वही, गाथा 86 वही, गाथा 54 . . कालिदासकृत अभिज्ञान शाकुन्तलम् उत्तराध्ययनसूत्र, सम्पा० मधुकर मुनि, प्रका० आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, पृष्ठ 11 14. वसुनन्दिश्रावकाचार, गाथा 336 मूलाचार, गाथा 364 16. जैन, डॉ. जगदीश चन्द्र-जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, प्रका० चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, संस्करण 1965, पृष्ठ 421 17. . .वही, पृ०. 422 18. वही, पृ० 422 19. वही, पृ० 422 13.. * सहायक आचार्य जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिविद्या प्रकीर्णक एवं उसका अन्य प्राचीन ग्रन्थों में स्थान * डॉ. सुभाष कोठारी वर्तमान में जैन आगमों का नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र के पश्चात् सर्वप्रथम विभागीकरण विधिमार्गप्रपा (आचार्य जिनप्रभसूरि १३वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है / उसमें अंग, उपांग, मूलसूत्र के साथ-साथ प्रकीर्णकों का भी उल्लेख प्राप्त होता है / जैन पारिभाषिक दष्टि से प्रकीर्णक उन ग्रन्थों को कहा जाता है जो तीर्थंकरों के शिष्य उबुधवेत्ता श्रमणों द्वारा आध्यात्म संबद्ध विविध विषयों पर रचे जाते हैं। अनेक जैन आगमों एवं प्राचीन ग्रन्थों में भी प्रकीर्णकों का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है / यद्यपि अलग-अलग ग्रन्थों में संख्या व नाम में कथंचित भेद पाया जाता है तथापि सभी वर्गीकरणों में गणिविद्या प्रकीर्णक को स्थान मिला है। गणिविद्या प्रकीर्णक की व्याख्या करते हुए नन्दीचूर्णि में लिखा है : सबाल वुड्ढाउलो गच्छो गणो, सो जस्स अत्थि सो गणी, विज्जत्ति णाणं, तं च जोइस-निमित्तगतं णातुंपसत्येसुइमे कज्जे कुरेति, तंजहा-पव्वावणा (१)सामाइयारोवणं (2) उवट्ठावणा (3) सुत्तस्स उद्देस समुद्देसा अणुण्णातो (4) गणारोवणं (5) दिसाणुण्णा (6) खेत्तेसु य णिग्गमपवेसा (7) एमाइया कज्जा जेसु तिहि करणणक्खत्त-मुहुत्त-जोगेसु य जे जत्थ करणिज्जा ते जत्थअज्झयणे वणिज्जति तमज्झयणं गणिविज्जा"४ अर्थात् गण का अर्थ है-समस्त बाल वृद्ध मुनियों का समूह / जो इनकी आज्ञा में हो, वह गणि कहलाता है / विद्या का अर्थ ज्ञान होता है / ज्योतिष निमित्त विषय का ज्ञान, दीक्षा, सामायिक का आरोपण, व्रत में स्थापना, श्रुत सम्बन्धित उपदेश, समुद्देश, अनुज्ञा गण का आरोपण, दिशानुज्ञा, निर्गम तथा प्रवेश आदि कार्यों को तिथि, करण, नक्षत्र, मुहूर्त एवं योग से करने का निर्देश जिस अध्ययन में होता है, वह गणिविद्या कहलाता है / श्री हरिभद्रसूरि कृत नन्दीसूत्र वृत्ति एवं पाक्षिकसूत्र वृत्ति में कहा गया है कि गुणों का समूह जिसमें हो, वह गणि कहलाता है / गणि को आचार्य भी कहा जाता है / आचार्य की विद्या को गणिविद्या कहा जाता है / विषयवस्तु इस ग्रन्थ में 82 एवं कहीं-कहीं पर 85 गाथाओं में 9 विषयों का निरुपण दिवस, तिथि, नक्षत्र, करण, गृह, दिवस, मुहूर्त, शकुनबल, लग्नबल, निमित्तबल के रुप में किया गया है / ग्रन्थ में प्रतिफलित विषयों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है : Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिविद्या प्रकीर्णक एवं उसका अन्य प्राचीन ग्रन्थों में स्थान : 185 1. दिवस एक माह में 30 दिन, 2 पक्ष, प्रत्येक पक्ष के 15 दिन बतलाये गये हैं / इस ग्रन्थ में दिन और रात्रि की बलाबल विधि का निरुपण किया गया है / 2. तिथिद्वार इस द्वार में चन्द्रमा की कला को तिथिमानकर कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष की 1515 तिथियों का वर्णन किया गया है / इन्हीं तिथियों की नन्दा, भद्रा, विजया आदि संज्ञाएँ बतलाई गयी हैं। यहाँ यह बतलाया गया है कि कौन-कौनसी तिथियाँ कल्याणकारी हैं एवं कौनसी तिथियाँ विघ्नयक्त हैं / कौनसी संज्ञा में श्रमणों को दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए, कौनसी तिथियों में वस्त्र धारण करने चाहिये एवं कौनसी तिथियों में अनशन करना चाहिए। 3. नक्षत्रद्वार ताराओं के समूह के रूप में कहीं-कहीं पर अश्व, हाथी, सर्प, हाथ आदि की जो आकृतियाँ बन जाती हैं, वे नक्षत्र कहलाते हैं / आकाश में ग्रहों कि दूरी नक्षत्रों से ज्ञात की जाती है / ग्रन्थ में 27 नक्षत्रों का उल्लेख प्राप्त होता है / इनमें मुक्ति के लिए उपयोगी, मार्ग में ठहरने के लिए उपयोगी, खाने के लिए उपयोगी, पदोपगमन के लिये उपयोगी, लोच के लिये उपयोगी तथा गणि एवं वाचक पद के लिए उपयोगी नक्षत्रों का विधान किया गया 4. करणद्वार .. तिथि के आधे भाग को करण कहा जाता है / गणिविद्या में बव, बालव, कालव आदि 11 करणों का उल्लेख मिलता है / इसी ग्रन्थ में इनका फल बतलाते हुए कहा गया है कि बव, बालव, कालव, वणिज, नाग एवं चतुष्पद प्रव्रज्या के लिए उपयोगी हैं / बवकरण व्रत की स्थापना एवं गणिवाचकों की विनय हेतु उत्तम है / शकुनि एवं विष्टिकरण पादोपगमन हेतु शुभ हैं। 5. ग्रह दिवसद्वार - रवि से शनि 7 ग्रह दिवस हैं / गणिविद्या में कहा गया है कि गुरू, शुक्र एवं सोम ग्रह दिवसों में दीक्षाग्रहण, व्रतों की प्रतिस्थापना एवं गणिवाचकों की विनय करनी चाहिए। रवि, मंगल एवं शनिवार को संयम एवं पादोपगमन क्रियाओं को करना चाहिये। 6. मुहूर्तद्वार तीस मुहूर्त का एक दिन रात होता है / एक दिन में 15 मुहूर्त दिन के एवं 15 मुहूर्त रात्रि के बतलाये गये हैं यहाँ मुहूर्तो के नाम एवं दिन रात के विभिन्न मुहूर्तों में अलग-अलग कार्यों को करने का समय निश्चित किया गया है / 10 7. शकुनबलद्वार गणिविद्या में पुर्लिंग नाम वाले, स्त्रीलिंग नाम वाले, नपुंसक नाम वाले, मिश्र नाम Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 : डॉ. सुभाष कोठारी वाले, तिर्यञ्च नाम वाले शकुनों में कौन-कौनसे कार्य करने चाहिये एवं कौन-कौनसे कार्य नहीं करने चाहिये, इसका वर्णन किया गया है / 11 8. लग्नबलद्वार लग्न का अर्थ है-होराशास्त्र / यहाँ अस्थिर राशियों वाले, स्थिर राशियों वाले, एकावतारी लग्नों, सूर्य होरा लग्नों, सौम्य एवं क्रूर ग्रह वाले लग्नों, राहू एवं केतु वाले लग्नों, प्रशस्त एवं अप्रशस्त लग्नों में करने एवं न करने वाले कार्यों का उल्लेख प्राप्त होता है / 12 9. निमित्तबलद्वार शुभाशुभ कार्यों हेतु निमित्त भी एक पक्ष माना जाता है और ये भविष्य की कार्य सिद्धि में सहायक होते हैं / ये निमित्त उत्पाद लक्षण वाले होते हैं जिनसे भूत, भविष्य का ज्ञान किया जाता है / यहाँ पुरूष नाम वाले, स्त्री नाम वाले एवं नपुंसक नाम वाले निमित्तों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि प्रशस्त निमित्तों में कार्य प्रारम्भ किया जाना चाहिये एवं अप्रशस्त निमित्तों में समस्त कार्यों का त्याग करना चाहिये / 13 ___ ग्रन्थ की अंतिम गाथाओं में कहा गया है कि दिवसों से तिथि, तिथियों से नक्षत्र, नक्षत्रों से करण, करणों से ग्रह, ग्रहों से मुहूर्त, मुहूर्तों से शकुन, शकुनों से लग्न और लग्नों : से निमित्त बलवान होते हैं / 14 ग्रन्थ के अध्ययन एवं अनुवाद से यह प्रतिफलित होता है कि दैनिक जीवन व्यवहार, अध्ययन, शुभाशुभकार्य, दीक्षा एवं अनशन आदि ज्योतिष ग्रह नक्षत्रों के अनुसार ही करने चाहिए, परन्तु यह ग्रन्धकार का अपना एक पहलू है अन्यथा कई परम्पराएँ एवं समाज व्यवस्थाएँ इन सब पर आस्थाएँ नहीं रखती हैं। हमारा उद्देश्य तो सिर्फ पुस्तक में प्रतिपादित सत्य को उद्घाटित करना है / गणिविद्या प्रकीर्णक की गाथाओं की समानता किन-किन प्राचीन ज्योतिष विषयक ग्रन्थों, जैनागमों आदि में प्राप्त होती है उनका विवेचन करने के पूर्व इस ग्रन्थ में वर्णित 9 द्वारों का जैनागमों एवं अन्य ज्योतिष विषयक ग्रन्थों में क्या विवेचन प्राप्त होता है, उस पर एक दृष्टि डाल लेना उपयोगी होगा। 1. दिवसद्वार का वर्णन जंबूद्वीप्रज्ञप्ति में विस्तार से किया गया है / वहाँ प्रत्येक महिने के दो पक्ष एवं तीस दिन बतलाये गये हैं / प्रत्येक पक्ष के 15-15 दिन और 15 - 15 रात्रियाँ बतलायी गई हैं। 15 दिवसों के पूर्वांग, सिद्भमनोरम एवं 15 रात्रियों के उत्तमा, सुनक्षत्रा, देवानन्दा आदि 15 नाम बतलाये गये हैं / 15 दिवस के बारे में यही विस्तार तिलोयपण्णत्ति,१६ धवला१७ में भी प्राप्त होता है / २.तिथिद्वार में प्रतिपदा आदि तिथियों का उल्लेख प्राचीन शास्त्रों में उनके फलाफल सहित प्राप्त होता है / जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-व्रततिथिनिर्णय९ आरंभसिद्भिरे ज्योतिश्चन्द्रार्कर 1 में 15 तिथियों, उनकी संज्ञाओं एवं विभित्र तिथियों पर कार्य करने और विभित्र तिथियों पर कार्य नहीं करने का संकेत किया गया है / यहाँ यह कहा गया है कि प्रतिपदा सिद्धि देने वाली, द्वितीया कार्य साधने वाली, तृतीया आरोग्य करने वाली, चतुर्थी हानिकारक, पंचमी Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिविद्या प्रकीर्णक एवं उसका अन्य प्राचीन ग्रन्थों में स्थान : 187 शुभ, षष्ठी अशुभ, सप्तमी शुभ, अष्टमी विघ्ननाशक, नवमी मृत्युदायक, दसमी द्रव्यप्रद, एकादशी शुभ, द्वादशी-त्रयोदशी कल्याणप्रद, चतुदर्शी उग्र, पूर्णिमा पुष्टिप्रद एवं अमावस्या अशुभ है। इन्हीं ग्रन्थों में साध्वाचार के अतिरिक्त विवाह, गृह निर्माण, यात्रा, शस्त्र प्रयोग, प्रतिष्ठा, जाप, संग्राम, सैनिकों की भर्ती, आभूषण निर्माण, सवारी गाड़ी आदि कार्यों के लिये अशुभ दिन नियत किये गये हैं। 3. नक्षत्रद्वार में जिन 27 नक्षत्रों का वर्णन प्राप्त होता है उनमें घनिष्ठा से रेवती तक 5 नक्षत्र पंचक माने जाते हैं / उत्तरफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरभाद्रपद और रोहिणी में किये गये समस्त स्थित कार्य शुभ होते हैं / स्वाति, पूणर्वसू, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा चर संज्ञक होने से मशीन, सवारी एवं यात्रा हेतु शुभ हैं / पूर्वफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वभाद्रपद, भरणी और मघा नक्षत्र क्रूर होने से इनमें किये गये समस्त कार्य अशुभ माने जाते हैं। विशाखा एवं कृत्तिका सामान्य होने से शुभ हैं / हस्त, अश्विनी, पुष्य एवं अभिजित लघुसंज्ञक हैं इनमें व्यापार करना, विद्याध्ययन करना, शास्त्र लिखना शुभ है / मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा मृदु होने से गायन, वस्त्रधारण, यात्रा एवं क्रीड़ा आदि करने के लिये शुभ हैं / मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा और आश्लेषा दारूण हैं अतः शुभ कार्यों में इनका त्याग करना चाहिये। . 4. करणद्वार में 11 करणों में बव करण में शांति, बालव में गृह निर्माण, दानपुण्य, कोलव में मैत्री, विवाह, तैतिल में राजकार्य, गर करण में कृषि, क्रय-विक्रय, विष्टि में उग्र कार्य, शकुनि में मंत्र-तंत्र सिद्धि, चतुष्पद में पूजा पाठ, नाग में स्थिर कार्य एवं किस्तुघ्न करण में नाचना-गाना आदि कार्य श्रेष्ठ माने गये हैं / 22 5. ग्रहदिवस के सात वारों में रविवार, मंगलवार एवं शनिवार को क्रूर ग्रह मानकर इन दिनों समस्त कार्यों का त्याग करने का विधान किया गया है / शुक्रवार, गुरुवार, बुधवार सब कार्यों में ग्राहय हैं / सोमवार को मध्यम माना गया है / ... 6. एक मुहूर्त दो घड़ी (48 मिनट ) कालप्रमाण माना गया है / व्रततिथिनिर्णय नामक ग्रन्थ में 15 मुहूर्तों के नाम तथा उनका स्वभाव और उनमें करने योग्य कार्य तथा उनके फलों का वर्णन किया गया है / 23 गणिंविद्या एवं अन्य ज्योतिष ग्रन्थों को देखने के उपरान्त यह निष्कर्ष निकलता है कि जहाँ गणिविद्या में तिथि, करण, नक्षत्र, मुहूर्तों का वर्णन श्रमणों के कार्यों, उनके अध्ययन, उनके पदोपगमन आदि का वर्णन है, वहीं अन्य ग्रन्थों में धार्मिक कार्यों के साथ-साथ पारिवारिक, सामाजिक एवं अन्यान्य कार्यों को करने के लिये तिथि, नक्षत्र, करण आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है / जहाँ तक मूल गणिविद्या प्रकीर्णक की गाथाओं का अन्य ग्रन्थों से तुलना का प्रश्न है, गणिविद्या की अनेक गाथाएँ शब्दशः या किंचित अर्थ भेद से अनेक प्राचीन ग्रन्थों में प्राप्त होती हैं, जिनका विवेचन इस प्रकार हैं Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 : डॉ० सुभाष कोठारी 1. चाउद्दसि पनरसिं वज्जेज्जा अट्टमिं च नवमिं च / छट्टिं च चउत्थिं बारसिं च दोण्हं पि पक्खाणं // (गणिविद्या प्रकीर्णक, गाथा 7) . चाउद्दसिं पण्णरसिं वज्जेज्जा अट्ठमिं च नवमिं च / छद्रिं च चउत्थिं बारसिं च सेसास देज्जाहि || (विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3407) नंदा भद्दा विजया तुच्छा पुत्रा य पंचमी होइ / मासेण य छव्वारे इक्किक्काऽऽवत्तये नियए / / .. (गणिविद्या प्रकीर्णक, गाथा 9) ____नन्दा भद्दा जया रिक्ता पूर्णा चेति त्रिरन्विता / हीना मध्योत्तमा शुक्ला कृष्णा तु व्यत्मया तिथिः / / ( आरंभसिद्धि, पृ० 4.) / संझागयं रविगयं विड्डेरं संग्गरं विलंबि च / राहुहयं गहभित्रं च वज्जए सत्त नक्खत्ते / / (गणिविद्या प्रकीर्णक, गाथा 15) संझागयं रविगयं विडेरं संग्गरं विलंबं वा / राहुहयं गहभिण्णं च वज्जए सत्त-नक्खत्ते / / __ ( आरंभसिद्धि, पृ० 4) 4. मिगसिर अद्दा पुस्सो तिन्नि.... धणिट्ठा पुणव्वसूरोहिणी पुस्सो / / (गणिविद्या प्रकीर्णक, गाथा 23, 24) 44) मिगसर अद्दा पुस्से तिनि य पुव्वाइं मूलमस्सेसा / हत्थो चित्ता य तहा दस विद्धिकराइं नाणस्स / / . (विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3408) 46ii) मिगसर अद्दा पुस्सो तिनि य पुव्वा य मूलमस्सेसा / हत्थोचित्तो य तहा दस वुड्किराइं नाणस्स / / (समवायांगसूत्र-मुनि मधुकर-पृ० 27) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिविद्या प्रकीर्णक एवं उसका अन्य प्राचीन ग्रन्थों में स्थान : 189 4 / iii ) अट्ठावीसं णक्खत्ता पण्णत्ता-तंजहा-अभिई, सव्वो, धनिट्ठा, सयभिसया, पुवभदवया, उत्तरभद्दवया, रेवई, अस्सिणी, भरणी, कत्तिआ, रोहिणी, मिअसिर, अहा, पुणव्वसू, पूसो, अस्सेसा, मघा, पुव्वफग्गुणी, उत्तरफग्गुणी, हत्थो, चित्ता, साई, विसाहा, अणुराहा, जिट्ठा, मूलं, पुव्वासाढा, उत्तरासाढा इति / (जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-मुनि मधुकर-पृ. 360 ) 4(iv) मिगसिरमद्दा पुस्सो, तिणि य पुव्वाइं मूलमस्सेसा / हत्थो चित्ता य तहा, दस विद्धिकराई णाणस्स / / ___(स्थानांगसूत्र-मुनि मधुकर-पृ०७४) बव बालवं च तह कोलवं च धीलोयणं गराइं च / वणियं विट्ठी य तहा सुद्धपडिवए निसाईया // (गणिविद्या प्रकीर्णक, गाथा 42) 54) बवं च बालवं चेव कोलवं तीइवलो य णं / गरो हि वणियं चेव विट्ठी हवइ सत्तमा / / .. . (विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3348) 56) बवं च बालवं चेव, कोलवं घिविलोअणं। .. गराइ वणियं चेव, विट्ठी हवइ सत्तमी / / (उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 198) 5. i) बवं च बालवं चेव, कोलवं तेत्तिलं तहा / गरादि वणियं चेव, विट्ठी हवइ सत्तमा / / ( सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 11) सउणि चउप्पय नागं किंथुग्धं च करण धुवा होति / किण्हचउद्दसिरत्तिं सउणि पडिवज्जए करणं / / - (गणिविद्या प्रकीर्णक, गाथा 43) 6) सउणि चउप्पयं नागं, किसुग्घं करणं तहा / एए चत्तारि धुवा, सेसा करणा चला सत्त || : Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 : डॉ० सुभाष कोठारी किण्ह चउद्दसिरत्तिं सउणिं पडिवज्जए सया करणं / इत्तो अहक्कम खलु चउप्पयं नाग किंछुग्धं / / (उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 199-200) 6i) . सउणि चउप्पयं नागं किसुग्धं च करणं भवे एयं / एते चत्तारि धुवा अन्ने करणा चला सत्ता / / चाउद्दसिरत्तीए सउणि पडिवज्जए सदा करणं / तत्तो अहक्कम खलु चउप्पयं णाग किसुग्धं / / (सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 12-13) 6. iii) सउणि चउप्पय नागं किसुग्धं च करणं सिरं चउहा / बहुल चउद्दसिरत्तिं सउणिं सेसं तियं कमसो || (विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3350) 66iv) बव-बालव-कौलव-तैत्तिल-गरजा-वणिजविष्टि-चरकरणाः / शकुनिचतुष्पदनागाः किंस्तुघ्नश्चेत्यमी स्थिराःकरणा / / कृष्णचतुर्दश्यपरार्धतो भवन्ति. स्थिराणी करणानि / शकुनिचतुष्पदनागाः किंस्तुघ्नः प्रतिपदाधर्धे / / . ___ (जैन ज्योतिर्ज्ञानविधि-श्रीधर) 64v) गोयमा, एक्कारस करणा पण्णत्ता-तंजहा-बवं, बालवं, कोलवं, धीविलोअणं, गराइ, वणिज्जं, विट्ठि, सउणी, चउप्पयं, नागं, कित्थुग्छ / (जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-मुनिमधुकर-पृ० 358) इस प्रकार हम देखते हैं कि गणिविद्या प्रकीर्णक में मूलतः ज्योतिष के नियमों से दीक्षा, सामायिक, व्रतस्थापना, उपदेश, अनुज्ञा, गणपद का आरोपण, पादोपगमन आदि कार्यों को तिथि, करण, नक्षत्र, मुहूर्त एवं योग से करने का वर्णन किया गया है / जहाँ अन्य ज्योतिष ग्रन्थों में विवाह, मकान निर्माण, पूजन व अन्य लौकिक कार्यों को करने के दिन, स्थान और समय निश्चित किये गये हैं वहीं गणिविद्या में लोकोत्तर कार्यों को करने के दिन, स्थान और समय निश्चित किये गये हैं। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिविद्या प्रकीर्णक एवं उसका अन्य प्राचीन ग्रन्थों में स्थान : 191 >> सन्दर्भ-सूची विधिमार्गप्रपा, पृ० 55 (अ) आगम और त्रिपिटक-एक अनुशीलन-पृ०४८४ (ब) जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा-पृ० 388 (अ) नन्दीसूत्र - 51 (ब) अनुयोगद्वारसूत्र, ग्रन्यांक - 1 (स) पाक्षिकसूत्र, पृ० 76 नन्दीसूत्रचूर्णि - प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद-पृ० 58 नन्दीसूतम्-प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद-पृ० 71 गणिविद्या प्रकीर्णक - गाथा 4 से 10 वही, गाथा - 15 वही, गाथा - 42-46 वही, गाथा - 47-58 वही, गाथा : 56-58 वही, गाथा - 59-64 वही, गाथा - 64-72 वही, गाथा - 76-82 वही, गाथा * 83-85 जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति - मुनिमधुकर - सूत्र 185, पृ० 355-356 तिलोयपण्णत्ति, 4/288 17. .. धवला, 3-4 / पृ० 67, 318 जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति - पृ० 355 19. व्रततिधिनिर्णय - पृ०७२ आरम्भसिद्धि - पृ० 4 21. . ज्योतिषचन्द्रार्क - पृ० 5 22. सुगमज्योतिष - पृ० 85 23. व्रततिधिनिर्णय - पृ० 154-157 . 13. 18. * शोधाधिकारी आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, पद्मिनी मार्ग, उदयपुर Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और प्रवचनसारोद्धार * डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय प्रवचनसारोद्धार जैन महाराष्ट्री प्राकृत में प्रायः आर्याछन्द में रचित 1599 पद्य परिमाण ग्रन्थ है जिसका जैन साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है / इस ग्रन्थ के प्रणेता नेमिचंद्रसूरि हैं / ये आम्रदेव के शिष्य तथा जिनचंद्रसूरि के प्रशिष्य थे। इनकी गुरुपरम्परा उनके द्वारा ही वि. सं. 1216 में प्राकृतभाषा में रचित 1200 श्लोकप्रमाण अनंतनाथचरित' नामक ग्रंथ की प्रशस्ति में इस प्रकार है "बृहद्गच्छीय देवसूरि-अजितदेवसूरि-आनन्दसूरि जिनचंद्रसूरि-आम्रदेवसूरि-नेमिचंद्रसूरि / "1 प्रवचनसारोद्धार जैनप्रवचन के सारभूत पदार्थों का बोध कराता है / इसमें आये हुये अनेक विषय पद्युम्नसूरि के विचारसार में देखे जाते हैं परंतु ऐसे भी अनेक विषय हैं जो एक में हैं तो दूसरे में नहीं हैं / इस आधार पर इन दोनों ग्रंथों को एक दूसरे का पूरक कहा जा सकता है / यह ग्रंथ सिद्धसेनसूरि कृत तत्त्वप्रकाशिनी नामक वृत्ति के साथ दो भागों में देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने अनुक्रम से सन् 1922 और 1926 में प्रकाशित किया है / प्रथम भाग में 103 द्वार और 771 गाथाएं हैं जबकि दूसरे भाग में 104 से 276 द्वार तथा 772 से 1599 तक की गाथाएँ हैं। दूसरे भाग के प्रारम्भ में उपोद्घात तथा अंत में वृत्तिगत पाठों, व्यक्तियों. क्षेत्रों एवं नामों की अकारादि क्रम से सूची है / मुख्यतया इसमें 276 द्वार माने जाते हैं / इन द्वारों में जिन विषयों का निरूपण हुआ है उनमें चैत्यवंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, अतिचार, ऋषभादि के आद्य गणधरों एवं आद्य प्रवर्तिनियों के नाम, तीर्थंकरों के माता-पिता, उनकी गति तथा उनके आठ प्रतिहार्य, चौंतीस अतिशय, सिद्धों की संख्या, आचार्य के छत्तीस गुण, बारह भावना, पांच महाव्रत, बाईस परीषह, श्रमणाचार के विभिन्न पहलू, श्रावक की ग्यारह प्रतिमा, मृत्यु के भेद, कर्मप्रकृति, गुणस्थान, व्रत तथा भौगोलिक एवं गर्भविद्या आदि मुख्य हैं / 2 ___ जीवसंखाकुलय (जीवसंख्याकुलक) नाम की सत्तरह पद्य की अपनी कृति को नेमिचंद्रसरि ने २१४वें द्वार के रूप में मूल में ही समाविष्ट कर लिया है / सातवें द्वार की ३०३वीं गाथा में श्रीचंद नामक मुनि का उल्लेख है / ऐसा प्रतीत होता है कि 287 से 300 तक की गाथाएं उन मुनि द्वारा रचित हैं / गाथा 470 में श्रीचंद्रसूरि का उल्लेख है, हो सकता है वे ही उपर्युक्त मुनिपति हों / गाथा 457-470 भी शायद उन्हीं की कृति हो / श्रीचन्द नाम के दो या फिर अभिन्न एक ही मुनि यहाँ अभिप्रेत हों तो भी उनके विषय में विशेष जानकारी नहीं मिलती, जिसके आधार पर प्रवचनसारोद्धार की पूर्व सीमा निश्चित की जा सके / गाथा 235 में आवश्यकचूर्णि का उल्लेख है / Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और प्रवचनसारोद्धार : 193 इस ग्रंथ से इसके रचनाकाल पर विशेष प्रकाश नहीं पड़ता फिर भी नेमिचंद्रसूरि और उनकी अन्य रचनाओं के आधार पर इसका काल १३वीं शताब्दी ही माना जाता है। प्रवचनसारोद्धार पर सिद्धसेनसूरि की 16500 श्लोक परिमाण की तत्त्वप्रकाशिनी नाम की एक वृत्ति है, इसका रचनाकाल वि. सं. 1248 अथवा 1278 है / वृत्ति के अंत में 19 पद्य की प्रशस्ति है जिससे इसके प्रणेता एवं गुरुपरम्परा ज्ञात होती है / वह इस प्रकार __ अभयदेवसूरि-धनेश्वरसूरि-अजितसिंहसूरि-वर्धमानसूरि-देवचन्द्रसूरिचन्द्रप्रभसूरि-भद्रेश्वरसूरि-अजितसिंहसूरि-देवप्रभसूरि / ___ इसके अतिरिक्त रविप्रभ के शिष्य उदयप्रभ ने इस पर 3203 श्लोक परिमाण विषमपद नाम की व्याख्या लिखी है / ये रविप्रभ यशोभद्र के शिष्य और धर्मघोष के प्रशिष्य थे। एक और 'विषमपद' नामक 3303 श्लोक परिमाण टीका का उल्लेख मिलता है, जो अज्ञातकर्तृक है / पद्ममन्दिरगणि ने इस पर एक बालावबोध भी लिखा है / इसकी एक हस्तलिखित प्रति विक्रम संवत् 1651 की मिलती है / - प्रवचनसारोद्धार में सात प्रकीर्णकों५ की 72 गाथाएं मिलती हैं / इनमें से कुछ को छोड़कर अधिकांशतया पूर्णरूपेण मिलती हैं, कहीं-कहीं पाठ भेद का अंतर दिखाई देता है / कुछ गाथाओं के अर्थ में समानता होते हुए भी दूसरे चरण भित्र हैं / इनमें. देविंदत्यओ की 7, गच्छाचार की 1, ज्योतिषकरंडक की 3, तित्थोगाली की 32, आराधनापताका (श्रीपाईणाचार्य रचित) की 20, आराधनापताका (श्री वीरभद्राचार्य रचित) की 6 एवं पज्जंताराहणा की 4 गाथाएं मिलती हैं। जहां तक दोनो ग्रंथों के पूर्वापर का सम्बन्ध है, बहुत स्पष्ट है कि प्रकीर्णकों से ही गाथाएं नेमिचंद्रसूरि ने प्रवचनसारोद्धार में ली हैं / क्योंकि यह काफी बाद का ग्रंथ है और प्रकीर्णक इसके बहुत पहले के हैं / अतः प्रवचनसारोद्धार से गाथाएं प्रकीर्णकों में गई होंगी, इसतरह की कल्पना के लिए कोई अवकाश नहीं रह जाता / यद्यपि चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, संस्तारक, चन्द्रवेध्यक, गच्छाचार, तन्दुलवैचारिक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान एवं मरणसमाधि आदि १०.प्रकीर्णक जो मुख्य माने जाते हैं, ये प्राचीन हैं, परंतु 22 प्रकीर्णकों में से कुछ प्रकीर्णक अवश्य ही ऐसे हैं जो बाद के हैं तथापि वे प्रवचनसारोद्धार से तो प्राचीन ही हैं / इस तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर हम स्पष्ट रूपसे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रकीर्णकों के बाद लिखे जानेवाले ग्रंथों में प्रकीर्णकों से गाथाएं अवतरित करने की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। इससे हम एक निष्कर्ष यह भी निकाल सकते हैं कि प्रकीर्णकों के महत्त्व को परवर्ती जैन आचार्य स्वीकृत करते रहे हैं और उसकी विषयवस्तु एवं गाथाओं का अपनी ग्रंथरचनाओं में उपयोग भी करते रहे हैं। विभित्र प्रकीर्णकों की प्रवचनसारोद्धार में उपलब्ध होने वाली 72 गाथाओं का तुलनात्मक विवरण इसप्रकार है Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय "प्रकीर्णकों की गाथाएं प्रवचनसारोद्धार में" / पिसाय भूया जक्खा य रक्खसा किन्नरा य किंपुरिसा / महोरगा य. गंधव्वा अट्ठविहा वाणमंतरिया / / ( देविंदत्थओ पइण्णयं, गाथा 67) पिसाय भूया जक्खा य रक्खसा किन्नरा य किंपुरिसा / महोरगा य गंधव्वा अट्टविहा वाणमंतरिया || (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1130) चंदा सूरा तारागणा य नक्खत गहगणसमग्गा / पंचविहा जोइसिया, ठिई वियारी य ते भणिया / / (देविंदत्थओ पइण्णयं, गाथा 81) चंदा सूरा य गहा नक्खत्ता तारया य पंच इमे / . एगे चलजोइसिया घंटायारा थिरा. अवरे / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1133) विजयं च वेजयंतं जयंतमपराजियं च बोद्धव्वं / सव्वट्ठसिद्भनाम होइ चउण्हं तु मज्झिमयं / / ( देविंदत्थओ पइण्णयं, गाथा 184) विजयं च वेजयंतं जयंतमपराजियं च सव्वटुं / एयमणुत्तरपणगं एएसिं चउव्विहसुराणं / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1137) कप्पे सणंकुमारे माहिंदे चेव बंभलोगे य / एएसु पम्हलेसा, तेण परं सुक्कलेसा उ / / (देविंदत्थओ पइण्णयं, गाथा 192) कप्पे सणंकुमारे माहिंदे चेव बंभलोए य / एएसु पम्हलेसा तेण . परं सुक्कलेसाओ / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1160) अलोए पडिहया सिद्धा, लोयऽग्गे य पइट्ठिया / इहं बोदिं चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई / / (देविंदत्थओ पइण्णय, गाथा 286) अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया / इहं बोदिं चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झइ / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/486) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और प्रवचनसारोद्धार : 195 जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयम्मि / आसी य पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स || ( देविंदत्थओ पइण्णयं, गाथा 287) जं संठाणं त् इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयम्मि / आसीय पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स || (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/484 ) तिन्नि सया तेतीस धणुत्तिभागो य होइ बोधव्वो / एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिया / / (देविंदत्थओ पइण्णयं, गाथा 289) तिनि सया बाणउया इत्थुववासाण होति संखाए / पारणया गुणवत्रा भद्दाइतवा इमे भणिया / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1540 ) वेयण वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए / तह पाणवत्तियाए छटुं पुण धम्मचिंताए / ( गच्छायार पइण्णयं, गाथा 59) वेयण वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए / तह पाणवत्तियाए छटुं पुण धम्मचिंताए / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/737) सत्येण सुतिक्खेण वि छेत्तुं भेत्तुं व जं किर न सक्कं / तं परमाणुं सिद्धा भणंति आदी पमाणाणं / / (जोइसकरंडग पइण्णयं, गाथा 83 ) सत्येण सुतिक्खेणवि छेत्तुं भेत्तुं च जं किर न सक्का / त परमाणुं सिद्धा वयंति आइं पमाणाणं / / ___(प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1390) परमाणू तसरेणुं रधरेणुं अग्गयं च केसस्स / लिक्खा जूया य जवो अट्ठगुणविवड्डिया कमसो / / (जोइसकरंडग पइण्णयं, गाथा 84.) परमाणू तसरेणू रहरेणू अग्गयं च बालस्स / लिक्खा जूया य जवो अट्ठगुणविवड्डिया कमसो / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1391) सुसमसुसमा य सुसमा हवंति तहा सुसमदुस्समा चेव। दुस्समसुसमा य हवे दुस्सम अतिदुस्समा चेव / / (जोइसकरंडग पइण्णयं, गाथा 95 ) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय सुसमसुसमा य सुसमा तइया पुण सुसमदुस्समा होइ। दूसमसुसम चउत्थी दूमस अइदूसमा छट्ठी / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1034) वाससए वाससए एक्केक्के अवहडम्मि जो कालो / सो कालो बोधव्वो उवमा एक्कस्स पल्लस्स / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 12) वाससए वाससए एक्केक्के अवहियम्मि सुहुमंमि / सुसुमं अद्भापलियं हवंति वासा असंखिज्जा // (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1025) सुसमसुसमा य सुसमा तइया पुण सुसमदूसमा होइ / दूसमसुसम चउत्थी दूसम अतिदूसमा छट्ठी // (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 18) सुसमसुसमा य सुसमा तइया पुण सुसमदुस्समा होइ / दूसमसुसम चउत्थी दूसम अइदूसमा छट्ठी // (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1034) एक्का कोडाकोडी बायालीसाए तह सहस्सेहिं / वासाण होइ ऊणा दूसमसुसमाए सो कालो || (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 21) एक्का कोडाकोडी बायालीसाए जा सहस्सेहिं / वासाण होइ ऊणा दूसमसुसमाइ सो कालो / / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1036) अह दूसमाए कालो वाससहस्साई एक्कवीसं तु / तावइओ चेव भवे कालो अइदूसमाए वि / / ____(तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 22) अह दूसमाए कालो वाससहस्साई एक्कवीसं त / तावइओ चेव भवे कालो अइदूसमाएवि / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1037) मत्तंगया य भिंगा तुडियंगा दिव्व (? दीव) -जोइ-चित्तंगा / चित्तरसा मणियंगा गेहागारा अणियणा य / / (तित्थोगालीपइण्णय, गाथा 46) मत्तंगया य भिंगा तुडियंगा दीव जोइ चित्तंगा / . चित्तरसा मणियंगा * गेहागारा अणियणा य / / . (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1067) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और प्रवचनसारोद्धार : 197 मत्तंमएसु मज्जं सुहवेज्जं भायणाई भिंगेसु / तुडियंगेसु य संगयतुडियाइं बहुप्पगाराइं // (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 47) मत्तंगएसु मज्जं सुहपेज्जं भायणाणि भिंगेसु / तुडियंगेसु य संगयतुडियाइं बहुप्पगाराइं / / __ (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1068) मणियंगेसु य भूसणवराई भवणाई भवणरूवेसु / आइण्णेसु य धणियं वत्थाई बहुप्पगाराइं // (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 49) मणियंगेसु य भूसणवराई भवणाइ भवणरुक्खेसु / तह अणियणेसु य धणियं वत्थाई बहुप्पयाराइं // (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1070) सुसमसुसमा य एसा समासओ वनिया मणूसाणं / उवभोगविहिसमग्गा सुसमा एत्तो परं वोच्छं / / . (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 54 ) सुसमसुसमा य सुसमा तइया पुण सुसमदुस्समा होइ / दूसमसुसम चउत्थी दूसम अइदूसमा छट्ठी // (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1034) पुवस्स उ परिमाणं सयरिं खलु होंति कोडिलक्खा उ / छप्पत्रं च सहस्सा बोधव्वा वासकोडीणं / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 82) पुवरस उ परिमाणं सयरिं खल वासकोडिलक्खाओ / छप्पनं च सहस्सा बोद्भव्वा वासकोडीणं // . (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1387) बत्तीसं घरयाइं काउं तिरियाऽऽययाहि रेहाहिं / उड्डाययाहि काउं पंच घराइं तओ पढमे || (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 360) बत्तीसं घरयाइं काउं तिरियाअयाहि रेहाहिं / उड्डाययाहिं काउं पंच घराइ ताओ पढमे / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/406) उग्गाणं भोगाणं राइण्णाणं च खत्तियाणं च / चउहिं. सहस्सेहिं उसभो, सेसा उ सहस्सपरिवारा / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 395 ) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय उग्गाणं भोगाणं रायण्णाणं च खत्तियाणं च / चउहिं सहस्सेहिं उसहो सेसाउ सहस्सपरिवारा || . (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/384) सुमइत्थ निच्चभत्तेणं निग्गओ, वासुपुज्जो जिणो चउत्थेण / पासो मल्ली . वि य अट्रमेण सेसा उ छट्रेणं / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 400 ) सुमइत्थ निच्चभत्तेण निग्गओ वासुपुज्ज जिणो चउत्थेण / पासो मल्लीवि य अट्टमेण सेसा उ छटेणं / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/454 ) अट्ठण्हं जणणीओ तित्थगराणं तु होति सिद्धाओ / अट्ठ य सणंकुमारे, माहिंदे अट्ठ बोधव्वा || (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 567). अट्ठण्हं जणणीओ तित्थयराणं तु हिंति सिद्धाओ / अट्ठ य सणंकुमारे माहिदे अट्ट बोद्धव्वा || (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/325) नागेसुं उसभपिया, सेसाणं सत्त होति ईसाणे / अट्ठ य सणंकुमारे, माहिंदे अट्ठ बोधव्वा / / (तित्थोगालीपइण्णय, गाथा 568) नागेसुं उसहपिया सेसाणं सत्त हंति ईसाणे / अट्ठ य सणंकुमारे, माहिंदे अट्ठ बोद्धव्वा' / / __(प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/326) भरहो सगरो मघवं सणंकुमारो य रायसङ्कलो / संती कुंथु य अरो हवइ सुभूमो य कोरव्यो / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 570) भरहो सगरो मघवं सणंकुमारो य रायसठूलो / सत्ती कुंथू य अरो हवइ सुभूमो य कोरव्वो / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1209) नवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसङ्कलो / जयनामो य नरवती बारसमो बंभदत्तो य / / ___ (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 571) नवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसहूलो / . जयनामो य नरवई बारसमो बंभदत्तो प // (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1210) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और प्रवचनसारोद्धार : 199 आसग्गीवे तारय मेरय महकेढवे निसंभे य / बलि य हिराए (हिरण्णे) तह रावणे य नवमे जरासिंधू / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 610) आसग्गीवे तारय मेरए मधुकेढवे नुसुंभे य / बलि य हराए तह रावणे य नवमेजरासंधे / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1213) मण परमोहि पुलाए आहारग खमग उवसमे कप्पे / संजमतिय केवलि सिज्झणा य जंबुम्मि वोच्छिन्ना / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 699) मण परमोहि पुलाए. आहारग खवग उवसमे कप्पे / संयमतिय केवल सिज्झणाय जंबुम्मि वोच्छिन्ना / / ___(प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/693) उवसग्ग गब्भहरणं इत्थीतित्थं अभव्विया परिसा / कणहस्स अवरकंका अवयरणं चंद-सूराणं / / . (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 888) उवसग्ग गम्भहरणं इत्थीतित्थं अभाविया परिसा / कण्हस्स अवरकंका अवयरणं चंदसूराणं / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/885) हरिवंसकुलुप्पत्ती चमरुप्पाओ य अट्ठसय सिद्धा / अस्संजयाण पूया दस वि अणंतेण कालेणं / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 889) हरिवंसकुलुप्पत्ती चमरुप्पाओ अट्ठसयसिद्भा / अस्संजयाण पूया दसवि अणंतेण कालेणं / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/886) गणियस्स य उप्पत्ती माणुम्माणस्स जं पमाणं च / धण्णस्स य बीयाण य उप्पत्ती पंडुए भणिया / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 1133) गणियस्स य ग्रीयाणं माणुम्माणस्स जं पमाणं च / धनस्स य बीयाणं उप्पत्ती पंडुए भणिया / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1220) वत्थाण य उप्पत्ती निप्पत्ती चेव सव्वभत्तीणं / रंगाण य धोवा(या)ण य सव्वा एसा महापउमे / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 1136) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय वत्थाणं य उप्पत्ती निप्फत्ती चेव सव्वभत्तीणं / रंगाण य धोऊण य सव्वा एसा महापउमे / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1223) चक्कट्ठपइट्ठाणा अट्ठस्सेहा य नव य विक्खंभो / बारसदीहा मंजूससंठिया जण्हवीए मुहे || (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 1141). चक्कटुपइट्टाणा अटुस्सेहा य नव य विक्खंभे / बारहस दीहा मंजूससंठिया जण्हवीए मुहे || " (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1228) वेरूलियमणिकवाडा कणगमया विविहरयणपडिपुण्णा / ससि-सूरचक्कलक्खणअणुसमवयणोववत्तीया // ___ (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 1142) वेरुलियमणिकवाडा कणयमया विविहरयणपडिपुत्रा / ससिसूरचक्कलक्खणअणुसमवयणोववत्तीया - // (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1229) सुसमसुसमाए कालो चत्तारि हवंति कोडिकोडीओ / इय सागरोक्माणं कालपमाणेण. नायव्वा // ___ (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 1170) सुसमसुसमाए कालो चत्तारि हवंति कोडिकोडीओ / तिनि सुसमाए कालो दुनि भवे सुसमदुसमाए || (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1035) खंती य मद्दवऽज्जव मुत्ती तव संजमे य बोधव्वे / सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 1207) खंती य मद्दवऽज्जव मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे / सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो || (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/553) जिणसासणे कुसलता पभावणाऽऽयतणसेवणा घिरता / भत्ती य गुणा सम्मत्तदीवगा उत्तमा पंच // (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 1220) जिणसासणे कुसलया पभावणाऽऽययणसेवणा धिरया / . भत्ती य गुणा सम्मत्तदीवया उत्तमा पंच / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/935) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और प्रवचनसारोद्धार : 201 दीहं व हस्सं वा जं संठाणं तु आसि पुव्वभवे / तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिया / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 1238) दीहं वा हस्सं वा जं संठाणं तु आसि पुव्वभवे / तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिया / / - (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/482) अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया / इहं बोंदी चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई // (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 1237) अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया / इहं बोदिं चउत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झइ / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/486) जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयम्मि / आसी य पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स // . (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 1239) जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयंमि / आसीय पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स // (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/484) चत्तारि य रयणीओ रयणि तिभागूणिया य बोद्धव्वा / एसा खळु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिया / / (तित्थोगालीपइण्णयं, गाथा 1242) चत्तारि य रयणीओ रयणि तिभागूणिया य बोद्धव्वा / एसा खळु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिया // ___ (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/488) एगा य होइ रयणी अद्वेव य अंगुलाई साहीया / एसा खलु सिद्भाणं जहनओगाहणा भणिया // (तित्योगालीपइण्णयं, गाथा 1243) एगा य होई रयणी अटेव य अंगुलाइ साहीणा / एसा खलु सिद्धाणं जहण्णओगाहणा भणिया // (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/489) चत्तारि विचित्ताई, विगईनिज्जूहियाइं चत्तारि / संवच्छरे य दुण्ण उ एगंतरियं य आयामं // ( आराहणापडाया (पाईणापरिपविरहया), गाथा 10) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय चत्तारि विचित्ताइं विगईनिज्जहियाइं चत्तारि / संवच्छरे य दोनि उ एगंतरियं च आयामं / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/875) नाइविगिट्रो य तवो छम्मासे परिमियं च आयामं / अण्णे वि य छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्मं / / ( आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 11) नाइविगिट्रो य तवो छम्मासे परिमियं य आयामं / अवरेऽवि य छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्मं / / . . . (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/876) वासं कोडीसहियं आयामं कट्ठ आणुपुव्वीए / संलेहित्तु सरीरं भत्तपरित्रं पवज्जेइ / / (आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 12) वासं कोडीसहियं आयामं कटु आणुपुवीए / गिगिकंदरं व गंतुं पाओवगमं पवज्जेइ / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/877) उब्वत्त दार संथार कहग वाई य अग्गदारम्मि / भत्ते पाण वियारे कहग दिसा जे समत्था य / / (आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 33) उब्वत्त दारं संधार कहग वाईय अग्गदारंमि / भत्ते पाण वियारे कहग दिसा जे समत्था य / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/629) काले विणए बहुमाणे उवहाणे तहा अनिण्हवणे / वंजण अत्थ तदुभए सुयनाणविराहणं वियडे || ___ ( आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 176 ) काले विणए बहुमाणोवहाणे तहा अनिण्हवणे / वंजण-अत्थ तदुभए अट्ठविहो नाणमायारो / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/267) निस्संकिय निक्कंखिय निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य / उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पहावणे अट्ट / / ( आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 180) निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। . उववूह-थिरीकरणे वच्छल्ल-पभावणे अट्ठ // (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/268) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और प्रवचनसारोद्धार : 203 पुरओ पक्खाऽऽसने गंता चिट्ठण निसीयणाऽऽयमणे / आलोयण पडिसुणणे पुव्वालवणे य आलोए / / (आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 504 ) पुरओ पक्खासत्रे, गंताचिट्ठणनिसीयणायमणे / आलोयणऽपडिसुणणे पुव्वालवणे य आलोए || ___ (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/129) कोहो माणो माया लोभो चउरो वि हुंति चउभेया / अण-अप्पच्चक्खाणा पच्चक्खाणा य संजलणा / / (आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 651) कोहो माणो माया लोभो चउरो हंवति हु कसाया / एएसिं निग्गहणं चरणस्स हवंति मे मेया / / - (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/561) कोहो माणो माया लोभोऽणंताणुबंधिणो चउरो / एवमपच्चक्खाणा पच्चक्खाणा य संजलणा || (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1256) खहा पिवासा सी उण्हं दंसा-ऽचेला-ऽरइ-त्थिओ / चरिया निसीहिया सिज्जा अक्कोस वह जायणा || (आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 671) खुहा पिवासा सी उण्हं दंसा चेला रइथिओ / चरिया निसीगिया सेज्जा अक्कोस वह जायणा . / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/685) अलाभ रोग तणफासा मल सक्कारपरीसहा / पन्ना . अत्राण सम्मत्तं इइ बावीसं परीसहा / / ( आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 672) अलाभ रोग तणफासा मल सक्कार परिसहा / पत्रा अत्राण सम्मत्तं इइ बावीसं परिसहा // (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/686) पमाओ य मुणिंदेहिं भणिओ अट्ठभेयओ / अन्नाणं संसओ चेव मिच्छानाणं तहेव य / / ... ( आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 686) पमाओ य मुणिंदेहि, भणिओ अट्ठभेयओ / अनाणं संसओ चेव, मिच्छानाणं तहेव य // __(प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1207 ) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय रागो दोसो मइब्भंसो धम्मम्मि य अणायरो / जोगाणं दुप्पणीहाणं अट्टहा वज्जियव्वओ // ___( आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 687) रागो दोसो मइब्भंसो, धम्मम्मि य अणायरो / जोगाणां दुप्पणिहाणं अट्ठहा वज्जियव्वओ || (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/1208) / कंदप्प देवकिदिवस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा / एयाओ संकिलिट्ठा पंचविगप्पाओ पत्तेयं / / . . ( आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 714 ) कंदप्प देवकिदिवस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा / एसा हु अप्पसत्था पंचविहा भावणा तत्थ || (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/641) कंदप्पे कुक्कुइए दवसीलत्ते य हासणकरे य / / परविम्हयजणणे वि य कंदप्पो पंचहा होइ / / (आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 715 ) कंदप्पे कुक्कुइए दोसीलत्ते य हासणकरे य / परविम्हियजणणेवि य कंदप्पोऽणेगहा तह य / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/642) कोउय भूईकम्मे पसिणेहिं तह य पसिणपसिणेहिं / तहय निमित्तेणं चिय पंचवियप्पा भवे सा य / ( आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 717) कोउय भूईकम्मे पसिणेहिं तह य पसिणपसिणेहिं / तहय निमित्तेणं चिय पंचवियप्या भवे सा य / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/644) उम्मग्गदेसणा मग्गदूसणं मग्गविपडिवत्ती य / मोहो य मोहजणणं एवं सा हवइ पंचविहा / / ( आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 719) उम्मग्गदेसणा मग्गदूसणं मग्गविपडिवत्ती य / मोहो य मोहजणणं एवं सा हवइ पंचविहा / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/646) इरियासमिए सया जए उवेह भुजिज्ज व पाण-भोयणं / आयाण-निक्खेव दुगुंछ संजए समाहिए संजमए मणो वई / / ( आराहणापडाया (पाईणायरियविरहया) गाथा 746 ) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और प्रवचनसारोद्धार : 205 इरियासमिए सया जए उवेह भुंजेज्ज व पाण-भोयणं / आयाणनिक्खेवदुगुंछ संजए समाहिए संजयए मणो वई / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/636) अहस्ससच्चे अणुवीइभासए जे कोह लोह भयमेव वज्जए / सदीहराय समुपेहिया सिया, मुणी हु मोसं परिवज्जए सया || ( आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 747) अहस्ससच्चे अणुवीय भासए जे कोह लोह भयमेव वज्जए / से दीहरायं समुपेहिया सया, मुणी हु मोसंपरिवज्जए सिया / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/637) सयमेव उ उग्गहजायणे घडे मइमं निसम्म सइ भिक्खु उग्गहं / अणुनविय भुंजिय पाण-भोयणं जाइत्ता साहम्मियाण उग्गहं / / __ (आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 748) सयमेव उ उग्गहजायणे घडे मइमं निसम्मा सइ भिक्खु उग्गहं / अणुत्रविय भुंजीयपाण-भोयणं जाइत्ता साहम्मियाण उग्गहं / / . (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/638) आहारगुत्ते अविभूसियप्पा इत्थि न निज्झाइ न संथविज्जा / बुद्धे. मुणी खुड्डकहं न कुज्जा धम्माणुपेही सेवए बंभचेरं / / (आराहणापडाया (पाईणायरियविरइया) गाथा 749) आहारगुत्ते अविभूसियप्पा इत्थि न निज्झाय न संथवेज्जा / बुद्धे मुणी खुड्डुकहं न कुज्जा धम्माणुपेही संधए बंभचेरं / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/639) काले विणए बहुमाणे उवहाणे तहा अणिण्हवणे / वंजण अत्थ तदभए विणओ नाणस्स अट्रविहओ / / ( आराहणापडाया (वीरभद्दायरियविरइया) गाथा 89) काले विणए बहमाणोवहाणे तहा अनिण्हवणे .. / वंजण-अत्थ तदुभए अट्ठविहो नाणमायारो / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/267 ) निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिंछा अमूढदिट्ठीय / उववूह थिविकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ / / ( आराहणापडाया (वीरभद्दायरियविरइया) गाथा 9.0 ) निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढविट्ठी य / उववूह-धिरीकरणे वच्छल्ल-पभावणे अट्ठ | (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/268) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय चत्तारि विचित्ताई, विगईनिज्जूहियाइं चत्तारि / संवच्छरे य दुण्णि उ एगंतरियं च आयामं / / __ ( आराहणापडाया (वीरभद्दायरियविरइया) गाथा 155) चत्तारि विचित्ताई विगईनिज्जूहियाइं चत्तारि / संवच्छरे य दोणि उ एगंतरियं च आयामं / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/875) / वासं कोडीसहियं आयाम कट्ट आणुपुब्बीए / . पाओवगमं धीरो पडिवज्जइ मरणमियरं वा / / ( आराहणापडाया (वीरभद्दायरियविरइया) गाथा 157) वासं कोडीसहियं आयाम कट्ट आणुपुवीए / गिरिकंदरं व गंतुं पाओवगमं पवज्जेइ / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/877) वसहि कह निसिज्जं दिय कुटुंतर पुव्वकीलिय पणीए / . अइमायाहार विभूसणा य नव बंभगुत्तीओ || ( आराहणापडाया (वीरभद्दायरियविरइया) गाथा 543) वासहि कह निसिज्जि दिय कुड्डतर पुव्वकीलिय.पणीए / अइमायाहार विभूसणाई नव बंभगुत्तीओ / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/557) मिच्छत्तं वेयतिगं जाणसु हासाइछक्कमिक्किक्कं / कोहादीण चउक्कं चोइस अभितरा गंथा / / ( आराहणापडाया (वीरभद्दायरियविरइया) गाथा 647.) मिच्छत्तं वेयतियं हासाई छक्कगं च नायव्वं / कोहाईण चउक्कं चउदस अभितरा गंथा / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/721.) नाइविगिट्टो य तवो छम्मासे परिमियं च आयामं / अन्ने वि य छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्मं / / (पज्जंताराहणा, गाथा 8.) नाइविगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं य आयामं / अवरेऽवि य छम्मासे होइ विगिट्रं तवोकम्मं / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/876) वासं कोडीसहियं आयामं कट्ट आणुपुव्वीए / . गिरिकंदराइ गंतुं पाओवगमणं अह करिज्जा / / __ (पज्जंताराहणा, गाथा 9) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक और प्रवचनसारोद्धार : 207 वासं कोडीसहियं आयामं कट्ट आणुपुवीए / गिरिकंदरं व गंतुं पाओवगमं पवज्जेइ / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/877) छविहजयणाऽऽगारं छब्भावणभावियं च छट्ठाणं / इय सत्तसट्ठिदंसणभेयविसुद्धं य सम्मत्तं / (पज्जंताराहणा, गाथा 18) छविहजयणाऽऽगारं छब्भावण च छट्ठाणं / इय सत्तयसठुिलक्खणभेयविसुद्धं च सम्मत्तं / / (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/927) कंदप्प देवकिब्बिस अभिओगा आसुरी ये सम्मोहा / इह-परलोए कामं जीविय-मरणं च नासंतु (?) || (पज्जंताराहणा, गाथा 260) कंदप्प देवकिदिवस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा / एसा हु अप्पसत्था पंचविहा भावणा तत्थ // . (प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1/641) सन्दर्भ-सूची प्रवचनसारोद्धार, सम्पादक-मुनिचन्द्रविजय, श्री जैन श्वेताम्बर मूर्ति तपागच्छ, गोपीपुरा संघ, सूरत-१९८०, भूमिका पृ० 6 2... जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी - 1968, भाग-४, पृ० 177-178 वही, पृ० 178 4. . . वही, पृ० 179 5. पइण्णयसुत्ताइं भाग - 1,2, सम्पादक - मुनि पुण्यविजय, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई-१९८७ * प्रवक्ता पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई०टी० आई० रोड़, वाराणसी-५ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित * प्रो० सागरमल जैन ऋषिभाषित (इसिभासियाई) अर्धमागधी जैन आगम साहित्य का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है / वर्तमान में जैन आगमों के वर्गीकरण की जो पद्धति प्रचलित है, उसमें इसे प्रकीर्णक ग्रन्थों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जाता है / दिगम्बर परम्परा में 12 अंग और 14 अंगबाह्य ग्रन्थ माने गये हैं किन्तु उनमें ऋषिभाषित का उल्लेख नहीं है / श्वेताम्बर जैन परम्परा में स्थानकवासी और तेरापंथी, जो 32 आगम मानते हैं, उनमें भी ऋषिभाषित का उल्लेख नहीं है / श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में 11 अंग, 12 उपांग, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, २चूलिकासूत्र और 10 प्रकीर्णक, ऐसे जो 45 आगम माने जाते हैं, उनमें भी 10 प्रकीर्णकों में हमें कहीं ऋषिभाषित का नामोल्लेख नहीं मिलता है / यद्यपि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में जो कालिक सूत्रों की गणना की गयी है उनमें ऋषिभाषित का उल्लेख है / ' आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में अंग-बाह्य ग्रन्थों की जो सूची दी है उसमें सर्वप्रथम सामायिक आदि 6 ग्रन्थों का उल्लेख है और उसके पश्चात् दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा (आचारदशा), कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित का उल्लेख है / हरिभद्र आवश्यनियुक्ति की वृत्ति में एक स्थान पर इसका उल्लेख उत्तराध्ययन के साथ करते हैं। और दूसरे स्थान पर 'देविन्दत्थओ' नामक प्रकीर्णक के साथ। हरिभद्र के इस भ्रम का कारण यह हो सकता है कि उनके सामने ऋषिभाषित (इसिभासियाई) के साथ-साथ ऋषिमण्डलस्तव (इसिमण्डलत्थउ) नामक ग्रन्थ भी था, जिसका उल्लेख आचारांग-चूर्णि में है और उनका उद्देश्य ऋषिभाषित को उत्तराध्ययन के साथ और ऋषिमण्डलस्तव को 'देविन्दत्थओ' के साथजोड़ने का होगा। यह भी स्मरणीय है कि इसिमण्डल (ऋषिमण्डल) में न केवल ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों का उल्लेख है, अपितु उनके इसिभासियाई में जो उपदेश और अध्ययन हैं उनका भी संकेत है / इससे यह भी निश्चित होता है कि इसिमण्डल में तो क्रम और नामभेद के साथ ऋषिभाषित के लगभग सभी ऋषियों का उल्लेख मिलता है / इसिमण्डल का उल्लेख आचारांग-चूर्णि इसिणामकित्तणं इसिमण्डलत्थउ' (पृष्ठ 384) में होने से यह निश्चित ही उसके पूर्व (७वीं शती के पूर्व) का ग्रन्थ है / विद्वानों को इस सम्बन्ध में विशेष रूप से चिन्तन करना चाहिए / इसिमण्डल के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि वह तपागच्छ के धर्मघोषसूरि की रचना है ; किन्तु मुझे यह धारणा भ्रान्त प्रतीत होती है, क्योंकि ये १४वीं शती के आचार्य हैं / वस्तुत: इसिमण्डल की भाषा से भी ऐसा लगता है कि यह प्राचीन ग्रन्थ है और इसका लेखक ऋषिभाषित का ज्ञाता है / आचार्य जिनप्रभ ने विधिमार्गप्रपा में तप आराधना के साथ आगमों के स्वाध्याय की जिस विधि का वर्णन किया है, उसमें प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित का उल्लेख करके प्रकीर्णक अध्ययनक्रम विधि को समाप्त किया है। इसप्रकार वर्गीकरण की प्रचलित पद्धति में ऋषिभाषित की गणना प्रकीर्णक सूत्रों में की जाती है / Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित : 209 प्राचीन काल में जैन परम्परा में इसे एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था / आवश्यकनियुक्ति में भद्रबाहु ऋषिभाषित पर भी नियुक्ति लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं, वर्तमान में यह नियुक्ति उपलब्ध नहीं होती है / आज तो यह कहना भी कठिन है कि यह नियुक्ति लिखी भी गई थी या नहीं / यद्यपि 'इसिमण्डल' जिसका उल्लेख आचारांगचूर्णि में है, इससे सम्बन्धित अवश्य प्रतीत होता है / इन सबसे इतना तो सिद्ध हो जाता है कि ऋषिभाषित एक समय तक जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रहा है। स्थानांगसूत्र में इसका उल्लेख प्रश्नव्याकरणदशा के एक भाग के रूप में हुआ है / समवायांगसूत्र इसके 44 अध्ययनों का उल्लेख करता है / जैसा कि पूर्व में हम सूचित कर चुके हैं नन्दीसूत्र, पाक्षिकसूत्र आदि में इसकी गणना कालिकसूत्रों में की गई है / आवश्यनियुक्ति इसे धर्मकथानुयोग का ग्रन्थ कहती है (आवश्यक-नियुक्ति हरिभद्रीय वृत्ति : पृ० 206) / ऋषिभाषित का रचनाकाल यह ग्रन्थ अपनी भाषा, छन्द-योजना और विषयवस्तु की दृष्टि से अर्धमागधी जैन आगम ग्रन्थों में अतिप्राचीन है / मेरी दृष्टि में यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध से किंचित् परवर्ती तथा सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे प्रचीन आगम ग्रन्थों की अपेक्षा पूर्ववर्ती सिद्ध होता है / मेरी दृष्टि में इसका वर्तमान स्वरूप भी किसी भी स्थिति में ईसवी पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से परवर्ती सिद्ध नहीं होता है / स्थानांग में प्राप्त सूचना के अनुसार यह ग्रन्थ प्रारम्भ में प्रश्नव्याकरणदशा का एक भाग था ; स्थानांग में प्रश्नव्याकरणदशा की जो दस दशाएं वर्णित हैं, उसमें ऋषिभाषित का भी उल्लेख है / समवायांग इसके 44 अध्ययन होने की भी सूचना देता है / अतः यह इनका पूर्ववर्ती तो अवश्य ही है / सूत्रकृतांग में नमि, बाहुक, रामपुत्त, असित देवल, द्वैपायन, पराशर आदि ऋषियों का एवं उनकी आचारगत मान्यताओं का किंचित निर्देश है / इन्हें तपोधन और महापुरुष कहा गया है / उसमें कहा गया है कि पूर्व कालिक ऋषि इस (आर्हत प्रवचन) में 'सम्मत' माने गये हैं / इन्होंने (सचित्त) बीज और पानी का सेवन करके भी मोक्ष प्राप्त किया था। अतः पहला प्रश्न यही उठता है कि इन्हें सम्मानित रूप में जैन परम्परा में सूत्रकृतांग के पहले किस ग्रन्थ में स्वीकार किया गया है ? मेरी दृष्टि में केवल ऋषिभाषित ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें इन्हें सम्मानित रूप से स्वीकार किया गया है / सूत्रकृतांग की गाथा का 'इंह-सम्मता' शब्द स्वयं सूत्रकृतांग की अपेक्षा ऋषिभाषित के पूर्व अस्तित्व की सूचना देता है / ज्ञातव्य है कि सूत्रकृतांग और ऋषिभाषित दोनो में जैनेतर परम्परा के अनेक ऋषियों यथा असित देवल, बाहुक आदि का सम्मानित रूप में उल्लेख किया गया है / यद्यपि दोनो की भाषा एवं शैली भी मुख्यतः पद्यात्मक ही है, फिर भी भाषा की दृष्टि से विचार करने पर सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा भी ऋषिभाषित की अपेक्षा परवर्तीकाल की लगती है / क्योंकि उसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत के निकट है, जबकि . ऋषिभाषित की भाषा कुछ परवर्ती परिवर्तन को छोड़कर प्राचीन अर्धमागधी है / पुनः जहाँ सूत्रकृतांग में इतर दार्शनिक मान्यताओं की समालोचना की गयी है वहाँ ऋषिभाषित में इतर परम्परा के ऋषियों का सम्मानित रूप में ही उल्लेख हुआ है / यह सुनिश्चित सत्य Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 : प्रो० सागरमल जैन है कि यह ग्रन्थ जैनधर्म एवं संघ के सुव्यवस्थित होने के पूर्व लिखा गया था / इस ग्रन्थ के अध्ययन से स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि इसके रचनाकाल तक जैन संघ में साम्प्रदायिक अभिनिवेश का पूर्णतः अभाव था / मंखलि गोशालक और उसकी मान्यताओं का उल्लेख हमें जैन आगम सूत्रकृतांग१०, भगवती११ और उपासकदशांग१२ में तथा बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात, दीघनिकाय के सामञफलसुत्त१३ आदि में मिलता है। सूत्रकृतांग में यद्यपि स्पष्टतः मंखलि गोशालक का उल्लेख नहीं है, किन्तु उसके आर्द्रक नामक अध्ययन में नियतिवाद की समालोचना अवश्य है / यदि हम साम्प्रदायिक अभिनिवेश के विकास की दृष्टि से विचार करें तो भगवती का मंखलि गोशालक वाला प्रकरण सूत्रकृतांग और उपासकदशांग की अपेक्षा भी पर्याप्त परवर्ती सिद्ध होगा / सूत्रकृतांग, उपासकदशांग और पालि-त्रिपिटक के अनेक ग्रन्थ मंखलि गोशालक के नियतिवाद को प्रस्तुत करके उसका खण्डन करते हैं / फिर भी जैन आगम ग्रन्थों की अपेक्षा सुत्तनिपात में मंखलि गोशालक की गणना बुद्ध के समकालीन छः तीर्थङ्करों में करके उनके महत्त्व और प्रभावशाली व्यक्तित्व का वर्णन अवश्य किया गया है१४, किन्तु पालि-त्रिपिटक के प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात की अपेक्षा भी ऋषिभाषित में उसे अर्हत् ऋषि कह कर सम्मानित किया गया है / अत : धार्मिक उदारता की दृष्टि से ऋषिभाषित की रचना पालि त्रिपिटक की अपेक्षा भी प्राचीन है / क्योंकि किसी भी धर्मसंघ के सुव्यवस्थित होने के पश्चात ही उसमें साम्प्रदायिक अभिनिवेश का विकास होता है / ऋषिभाषित स्पष्टरूप से यह सूचित करता है कि उसकी रचना जैन परम्परा में साम्प्रदायिक अभिनिवेश आने के बहुत पूर्व हो चुकी थी / केवल आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर शेष सभी जैन आगम ग्रन्थों में धार्मिक अभिनिवेशन्यूनाधिक रूप में अवश्य परिलक्षित होता है / अतः ऋषिभाषित केवल आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़ शेष सभी जैनागमों से प्राचीन सिद्ध होता है / भाषा, छन्द-योजना आदि की दृष्टि से भी यह आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के मध्य में ही सिद्ध होता है / बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में प्राचीनतम ग्रन्थ सत्तनिपात है१५ किन्तु उसमें भी वह उदारता नहीं है जो ऋषिभाषित में है / त्रिपिटक साहित्य में ऋषिभाषित में उल्लेखित कुछ ऋषियों यथा नारद१६, असितदेवल९७, पिंग१८, मंखलिपुत्त 9, संजय (वेलठिपुत्त)२० वर्धमान (निग्गंटू नायपुत्त)२१, कुम्मापुत्त२२, आदि के उल्लेख हैं, किन्तु इन सभी को बुद्ध से निम्न ही बताया गया है-दूसरे शब्दों में वे ग्रन्थ भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश से मुक्त नहीं हैं, अत : यह उनका भी पूर्ववर्ती ही है ।ऋषिभाषित में उल्लेखित अनेक गद्यांश और गाथायें भाव, भाषा और शब्दयोजना की दृष्टि से जैन परम्परा के सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक और बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात, धम्मपद आदि प्राचीन ग्रन्थों में पाई जाती हैं / अत : उनकी रचना-शैली की अपेक्षा भी यह पूर्ववर्ती ही सिद्ध होता है / यद्यपि यह तर्क दिया जा सकता है कि यह भी संभव है कि ये गाथाएँ एवं विचार बौद्ध त्रिपिटक साहित्य एवं जैन ग्रन्थ उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक से ऋषिभाषित में गये हों, किन्तु यह बात इसलिए समुचित नहीं है कि प्रथम तो ऋषिभाषित की भाषा, छन्द-योजना आदि इन ग्रन्थों Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित : 211 की अपेक्षा प्राचीनकाल की है और आचारांग एवं सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध तथा सुत्तनिपात के अधिक निकट है / दूसरे जहाँ ऋषिभाषित में इन विचारों को अन्य परम्पराओं के ऋषियों के सामान्य सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया गया है, वहाँ बौद्ध त्रिपिटक साहित्य और जैन साहित्य में इन्हें अपनी परम्परा से जोड़ने का प्रयत्न किया गया है / उदाहरण के रूप में आध्यात्मिक कृषि की चर्चा ऋषिभाषित२३ में दो बार और सुत्तनिपात२४ में एक बार हुई है, किन्तु जहाँ सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं कि मैं इसप्रकार की आध्यात्मिक कृषि करता हूँ, वहाँ ऋषिभाषित का ऋषि कहता है कि जो भी इसप्रकार की कृषि करेगा वह चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो, मुक्त होगा / अत : ऋषिभाषित आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर जैन और बौद्ध परम्परा के अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा प्राचीन ही सिद्ध होता है। भाषा की दृष्टि से विचार करने पर हम यह भी पाते हैं कि ऋषिभाषित में अर्धमागधी प्राकृत का प्राचीनतम रूप बहुत कुछ सुरक्षित है / उदाहरण के रूप में ऋषिभाषित में आत्मा के लिए 'आता' शब्द का प्रयोग हुआ है, जबकि जैन अंग आगम साहित्य में भी अत्ता, अप्पा, आदा, आया, आदि शब्दों का प्रयोग देखा जाता है जो कि परवर्ती प्रयोग है / 'त' श्रुति की बहुलता निश्चित रूप से इस ग्रन्थको उत्तराध्ययन की अपेक्षा पूर्ववर्ती सिद्ध करती है, क्योंकि उत्तराध्ययन की भाषा में 'त' के लोप की प्रवृति देखी जाती है / ऋषिभाषित में जाणति, परितप्पति, गच्छति, विज्जति, वट्टति, पवत्तति आदि रूपों का प्रयोग बहुलता से मिलता है। इससे यह सिद्ध होता है कि भाषा और विषयवस्तु दोनों ही दृष्टि से यह एक पूर्ववर्ती ग्रन्थ है। : अगन्धक कुल के सर्प का रूपक हमें उत्तराध्ययन२५, दशवैकालिक२६ और ऋषिभाषित२७ तीनों में मिलता है / किन्तु तीनों स्थानों के उल्लेखों को देखने पर यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि ऋषिभाषित का यह उल्लेख उत्तराध्ययन तथा दशवैकालिक की अपेक्षा अत्यधिक प्राचीन है क्योंकि ऋषिभाषित में मुनि को अपने पथ से विचलित न होने के लिए इसका मात्र एक रूपक के रूप में प्रयोग हुआ है, जबकि दशवैकालिक और उत्तराध्ययन में यह रूपक राजीमती और रथनेमि की कथा के साथ जोड़ा गया है / . . ' अत : ऋषिभाषित सुत्तनिपात, उत्तराध्ययन और दशवकालिक की अपेक्षा प्राचीन है / इसप्रकार ऋषिभाषित आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध का परवर्ती और शेष सभी अर्धमागधी आगम साहित्य का पूर्ववर्ती ग्रन्थ है / इसीप्रकार पालि त्रिपिटक के प्राचीनतम ग्रन्थसुत्तनिपात की अपेक्षा भी प्राचीन होने से यह ग्रन्थसम्पूर्ण पालि त्रिपिटक से भी पूर्ववर्ती है। - जहाँ तक इसमें वर्णित ऐतिहासिक ऋषियों के उल्लेखों के आधार पर काल-निर्णय करने का प्रश्न है वहाँ केवल वज्जीयपुत्त को छोड़कर शेष सभी ऋषि महावीर और बुद्ध से या तो पूर्ववर्ती हैं या उनके समकालिक हैं / पालि-त्रिपिटक के आधार पर वज्जीयपुत्त (वात्सीयपुत्र) भी बुद्ध के लघुवयस्क समकालीन ही हैं-वे आनन्द के निकट थे / Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 : प्रो० सागरमल जैन वज्जीपुत्रीय सम्प्रदाय भी बुद्ध के निर्वाण की प्रथम शताब्दी में ही अस्तित्व में आ गया था। अत : इनका बुद्ध के लघुवयस्क समकालीन होना सिद्ध है / अतएव ऐतिहासिक दृष्टि से भी ऋषिभाषित बुद्ध और महावीर के निवार्ण की प्रथम शताब्दी में ही निर्मित हो गया होगा। यह सम्भव है कि इसमें बाद में कुछ परिवर्तन हुआ हो / मेरी दृष्टि में इसके रचनाकाल की पूर्व सीमा ईसा पूर्व ५वीं शताब्दी और अन्तिम सीमा ई०पू० ३शती के बीच ही है / मुझे अन्तः और बाह्य साक्ष्यों में कोई भी ऐसा तत्त्व नहीं मिला, जो इसे इस कालावधि से परवर्ती सिद्ध करे / दार्शनिक विकास की दृष्टि से विचार करने पर भी हम इसमें न तो जैन सिद्धान्तों का और न बौद्ध सिद्धान्तों का विकसित रूप पाते हैं। इसमें मात्र पंचास्तिकाय और अष्टविध कर्म का निर्देश है / यह भी सम्भव है कि ये अवधारणाएँ पाश्र्वापत्यों में प्रचलित रही हों और वहीं से महावीर की परम्परा में ग्रहण की गई हों / परिषह, कषाय आदि की अवधारणाएँ तो प्राचीन ही हैं / ऋषिभाषित के वात्सीयपुत्र, महाकाश्यप, सारिपुत्र आदि बौद्ध ऋषियों के उपदेश में भी केवल बौद्ध धर्म के प्राचीन सिद्धान्त सन्ततिवाद, क्षणिकवाद आदि ही मिलते हैं / अत : यह ग्रन्थ पालि-त्रिपिटक से भी प्राचीन है / ऋषिभाषित की रचना के सम्बन्ध में प्रो० शुब्रिग एवं अन्य विद्वानों का मत है कि यह मूलत : पार्श्व की परम्परा में निर्मित हुआ होगा, क्योंकि उस परम्परा का स्पष्ट प्रभाव प्रथम अध्याय में देखा जाता है, जहाँ ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को एक साथ मानकर उसे चातुर्याम की व्यवस्था के अनुरूप ढाला गया है / 28 पुन : पार्श्व का विस्तृत अध्याय भी उसी तथ्य को पुष्ट करता है / दूसरा इसे पार्श्व की परम्परा का मानने का एक आधार यह भी है कि पार्श्व की परम्परा अपेक्षाकृत अधिक उदार थी / उसकी अन्य परिव्राजक और श्रमण परम्पराओं से आचार-व्यवहार आदि में भी अधिक निकटता थी / पापित्यों के महावीर के संघ में प्रवेश के साथ यह ग्रन्थ महावीर की परम्परा में आया और उनकी परम्परा में निर्मित दशाओं में प्रश्नव्याकरणदशा के एक भाग के रूप में सम्मिलित किया गया / ऋषिभाषित के ऋषियों की परम्परा, जैन परम्परा के अनुसार इन 45 ऋषियों में 20 अरिष्टनेमि के काल के, 15 पार्श्व के काल के और शेष 10 महावीर के काल के माने गये हैं / 29 इसिमण्डल भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है / यदि हम इनके काल का यह वर्गीकरण इस आधार पर करें कि प्रथम 20 अरिष्टनेमि के काल के, उसके बाद के 15 पार्श्व के काल के और अन्त में 10 महावीर के काल के हैं तो यह वर्गीकरण उचित नहीं बैठता ; क्योंकि फिर 29 वें क्रम में स्थित वर्धमान को पार्श्व के काल का और 40 वें क्रम पर स्थित द्वैपायन को महावीर के काल का मानना होगा / जबकि स्थिति इससे भित्र ही है / द्वैपायन अरिष्टनेमि के काल के हैं और वर्धमान स्वयं महावीर ही हैं / अतः यह मानना समुचित नहीं होगा कि जिस क्रम से ऋषिभाषित में इन ऋषियों का उल्लेख हुआ है उस क्रम से ही वे अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर के काल में विभाजित होते हैं / कौन ऋषि किस काल का है ? इसके सन्दर्भ में पुनर्विचार की आवश्यकता है / शुब्रिग ने स्वयं भी इस सम्बन्ध में स्पष्ट संकेत नहीं किया है / ऋषिभाषित Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित : 213 के ऋषियों की पहचान का एक प्रयत्न शुब्रिग ने अपनी 'इसिभासियाई' की भूमिका में किया है / 3deg उनके अनुसार याज्ञवल्क्य, बाहुक (नल), अरुण, महाशालपुत्र या आरुणि और उद्दालक स्पष्ट रूप से औपनिषदिक परम्परा के प्रतीत होते हैं / इसके साथ ही पिंग, ऋषिगिरि और श्रीगिरि इन तीनों को ब्राह्मण परिव्राजक और अम्बड को परिव्राजक कहा गया है। इसलिए ये चारों भी ब्राह्मण परम्परा से सम्बन्धित हैं / यौगन्धरायण, जिनका अम्बड से संवाद हुआ है, वे भी ब्राह्मण परम्परा के ऋषि प्रतीत होते हैं / इसीप्रकार मधुरायण, आर्यायण, तारायण (नारायण) भी ब्राह्मण परम्परा से सम्बन्धित लगते हैं / अंगिरस और वारिषेण कृष्ण भी ब्राह्मण परम्परा से सम्बन्धित माने जाते हैं / शुब्रिग महाकाश्यप, सारिपुत्त और वज्जियपुत्त को बौद्ध परम्परा से सम्बन्धित मानते हैं / उनकी यह मान्यता मेरी दृष्टि से समुचित भी है / यद्यपि शुबिंग ने पुष्पशालपुत्र, केतलीपुत्र, विदु, गाथापतिपुत्र तरुण, हरिगिरि, मातंग और वायु को प्रमाण के अभाव में किसी परम्परा से जोड़ने में असमर्थता व्यक्त की है। यदि हम शुब्रिग के उपर्युक्त दृष्टिकोण को उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर रखते हैं तो नारद, असित देवल, अंगिरस भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, पिंग, तारायण को स्पष्ट रूप से वैदिक या औपनिषदिक परम्परा के ऋषि मान सकते हैं / इसीप्रकार महाकाश्यप, सारिपुत्त और वज्जीयपुत्त को बौद्ध परम्परा का मानने में भी हमें कोई आपत्ति नहीं होगी। पार्व और वर्धमान स्पष्ट रूप से जैन परम्परा के माने जा सकते हैं / मंखलिपुत्र स्पष्ट रूप से आजीवक परम्परा के हैं / शेष नामों के सम्बन्ध में हमें अनेक पहलुओं से विचार करना होंगा / यद्यपि पुष्पशालपुत्त, वक्कलचीरी, कुम्मापुत्त, केतलिपुत्त, भयालि, मधुरायण, सौर्यायण, आर्यायण, गर्दभालि, गाथापतिपुत्त तरुण, वारत्रय, आर्द्रक, वायु, संजय, इन्द्रनाग, सोम, यम, वरुण, वैश्रमण आदि की ऐतिहासिकता और परम्परा का निश्चय करना कठिन ऋषिभाषित के ऋषि प्रत्येकबुद्ध क्यों ? * ऋषिभाषित के मलपाठ में केतलिपत्र को ऋषि, अम्बड को परिव्राजक, पिंग, ऋषिगिरि एवं श्री गिरि को ब्राह्मण (माहण) परिव्राजक अर्हत् ऋषि, सारिपुत्र को बुद्ध अर्हत् * ऋषि तथा शेष सभी को अर्हत् ऋषि के नाम से सम्बोधित किया गया / उत्कट (उत्कल) नामक अध्ययन में वक्ता के नाम का उल्लेख ही नहीं है, अत : उसके साथ कोई विशेषण होने का प्रश्न ही नहीं उठता है / यद्यपि ऋषिभाषित के अन्त में प्राप्त होने वाली संग्रहणी गाथा३१ एवं ऋषिमण्डल३२ में इन सबको प्रत्येकबुद्ध कहा गया है तथा यह भी उल्लेख है कि इनमें से बीस अरिष्टनेमि के, पन्द्रह पार्श्वनाथ के और शेष महावीर के शासन में हुए है। किन्तु, यह गाथा परवर्ती है और बाद में जोड़ी गई लगती है / मूलपाठ में कहीं भी इनका प्रत्येकबुद्ध के रूप में उल्लेख नहीं है / समवायांग में ऋषिभाषित की चर्चा के प्रसंग में इन्हें मात्र देवलोक से च्युत कहा गया है, प्रत्येकबुद्ध नहीं कहा गया है / यद्यपि समवायांग में ही प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का विवरण देते समय यह कहा गया है कि इसमें स्वसमय Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 : प्रो० सागरमल जैन और परसमय के प्रवक्ता प्रत्येकबुद्धों के विचारों का संकलन है / चूँकि ऋषिभाषित प्रश्नव्याकरण का ही एक भाग रहा था / इसप्रकार ऋषिभाषित के ऋषियों को सर्वप्रथम समवायांग में परोक्षरूप से प्रत्येकबुद्ध मान लिया गया था।३३ यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित के अधिकांश ऋषि जैन परम्परा के नहीं थे, अत: उनके उपदेशों को मान्य रखने के लिए उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहा गया / जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में प्रत्येकबुद्ध वह व्यक्ति है, जो किसी निमित्त से स्वयं प्रबुद्ध होकर एकाकी साधना करते हुए ज्ञान प्राप्त करता है, किन्तु नतो वह स्वयं किसी का शिष्य बनता है और न किसी को शिष्य बनाकर संघ व्यवस्था करता है। इसप्रकार प्रत्येकबद्ध किसी परम्परा या संघ व्यवस्था में आबद्ध नही होता है, फिर भी वह समाज में आदरणीय होता है और उसके उपदेश प्रामाणिक माने जाते हैं / ऋषिभाषित और जैनधर्म के सिद्धान्त- . __ ऋषिभाषित का समग्रत : अध्ययन हमें इस संबंध में विचार करने को विवश करता है कि क्या ऋषिभाषित में अन्य परम्पराओं के ऋषियों द्वारा उनकी ही अपनी मान्यताओं का प्रतिपादन करवाया गया है अथवा उनके मुख से जैन परम्परा की मान्यताओं का प्रतिपादन करवाया गया है ? प्रथम दृष्टि से देखने पर तो ऐसा भी लगता है कि उनके मुख से जैन मान्यताओं का प्रतिपादन हुआ है / प्रो० शुब्रिग और उनके ही आधार पर प्रो० लल्लनजी गोपाल ने प्रत्येक ऋषि के उपदेशों के प्रतिपादन के प्रारम्भिक और अन्तिम कथन की एकरूपता के आधार पर यह मान लिया है कि ग्रन्धकार ऋषियों के उपदेशों के प्रस्तुतिकरण में प्रामाणिक नहीं हैं। उसने इनके उपदेशों को अपने ही ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है / अधिकांश अध्यायों में जैन पारिभाषिक पदावली यथा-महाव्रत, कषाय, परिषह आदि को देखकर इस कथन में सत्यता परिलक्षित होने लगती है। उदाहरणार्थ प्रथम नारद नामक अध्ययन में यद्यपि शौच के चार लक्षण बताये गये हैं, किन्तु यह अध्ययन जैन परम्परा के चातुर्याम का ही प्रतिपादन करता है / वज्जीयपुत्त नामक द्वितीय अध्याय में कर्म सिद्धान्त की अवधारणा का प्रतिपादन किया गया है / यह अध्ययन जीव के कर्मानुगामी होने की धारणा का प्रतिपादन करता है, साथ ही मोह को दुःख का मूल बताता है / यह स्पष्ट करता है कि जिसप्रकार बीज से अंकुर और अंकुर से बीज की परम्परा चलती रहती है उसीप्रकार मोह से कर्म और कर्म से मोह की परम्परा चलती रहती है और मोह के समाप्त होने पर कर्म-सन्तति ठीक वैसे ही समाप्त होती है जैसे वृक्ष के मूल को समाप्त करने पर उसके फूल-पत्ती अपने आप समाप्त होते हैं / कर्मसिद्धान्त की यह अवधारणा ऋषिभाषित के अध्याय 13, 15, 24 और 30 में भी मिलती है / जैन परम्परा में इससे ही मिलताजुलता विवरण उत्तराध्ययन के बत्तीसवें अध्ययन में प्राप्त होता है / इसीप्रकार तीसरे असित देवल नामक अध्ययन में हमें जैन परम्परा और विशेष रूप से आचारांग में उपलब्ध पाप को लेप कहने की चर्चा मिल जाती है / इस अध्ययन में हमें पांच महाव्रत, चार कषाय तथा इसीप्रकार हिंसा से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के 18 पापों का उल्लेख भी मिलता है। यह अध्ययन मोक्ष के स्वरूप का विवेचन भी करता है और उसे शिव, अतुल, अमल, अव्याघात, अपुनरावर्तन तथा शाश्वत स्थान बताता है / मोक्ष का ऐसा ही स्वरूप हमें जैन Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित : 215 आगम-साहित्य में अन्यत्र भी मिलता है / पांच महाव्रतों और चार कषायों का विवरण तो ऋषिभाषित के अनेक अध्ययनों में आया है / महाकाश्यप नामक ९वें अध्ययन में पुण्य, पाप तथा संवर और निर्जरा की चर्चा उपलब्ध होती है। इसी अध्याय में कषाय का भी उल्लेख है / नवें अध्ययन में कर्म के आदान की चर्चा करते हुए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग को बन्धन का कारण कहा गया है, जो जैन परम्परा के पूर्णतः अनुरूप है / इसमें जैन परम्परा के अनेक पारिभाषिक शब्द यथा उपक्रम, बद्ध , स्पृष्ट, निकाचित, निर्जीर्ण, सिद्धि, शैलेषी-अवस्था, प्रदेशोदय, विपाकोदय आदि पाये जाते हैं / इस अध्ययन में प्रतिपादित आत्मा की नित्यानित्यता की अवधारणा, सिद्धावस्था का स्वरूप एवं कर्मबन्धन और निर्जरा की प्रक्रिया जैन दर्शन के समान है / . इसी तरह अनेक अध्ययनों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अवधारणा भी मिलती है / बारहवें याज्ञवल्क्य नामक अध्ययन में जैन परम्परा के अनुरूप गोचरी के स्वरूप एवं शुद्धैषणा की चर्चा मिल जाती है / आत्मा अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और कृत-कर्मों के फल का भोक्ता है, यह बात भी पन्द्रहवें मधुरायन नामक अध्ययन में कही गयी है / सत्रहवें विदुर नामक अध्ययन में सावधयोग, विरति और समभाव की चर्चा है / उनीसवें आरियायणनामक अध्ययन में आर्यज्ञान, आर्य दर्शन और आर्य चरित्र के रूप में प्रकारान्तर से सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र की ही चर्चा है / बाईसवां अध्ययन धर्म के क्षेत्र में पुरुष की प्रधानता की चर्चा करता है तथा नारी की निन्दा करता है, इसकी सूत्रकृतांग के 'इत्थिपरिण्णा' नामक अध्ययन से समानता है / तेईसवें रामपुत्त नामक अध्ययन में उत्तराध्ययन (28/35) के समान ही ज्ञान के द्वारा जानने, दर्शन के द्वारा देखने, संयम के द्वारा निग्रह करने तथा तप के द्वारा अष्टविध कर्म के विधूनन की बात कही गयी है। अष्टविध कर्म की यह चर्चा केवल जैन परम्परा में ही पायी जाती है / पुन: चौबीसवें अध्ययन में भी मोक्ष मार्ग के रूपमें ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की चर्चा है। इसी अध्याय मे देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारक-इन चुतर्गतियों की भी चर्चा है / पच्चीसवें अम्बड नामक अध्ययन में चार कषाय, चार विकथा, पांच महाव्रत, तीन गुप्ति, पंच इन्द्रिय-संयम, छ: जीवनिकाय, सात भय, आठ मद, नौ प्रकार का ब्रह्मचर्य तथा दस प्रकार के समाधिस्थान की चर्चा है / इसप्रकारे इस अध्ययन में जैन परम्परा में मान्य अनेक अवधारणाएँ एक साथ उपलब्ध हो जाती हैं। इसी अध्ययन में आहार करने के छ: कारणों की चर्चा भी है, जो स्थानांग (स्थान६) आदि में मिलती है / स्मरण रहे कि यद्यपि जैनागमों में अम्बड को परिव्राजक माना है, फिर भी उसे महावीर के प्रति श्रद्धावान बताया है। यही कारण है कि इसमें सर्वाधिक जैन अवधारणएँ उपलब्ध हैं / ऋषिभाषित के छब्बीसवें अध्ययन में उत्तराध्ययन के पच्चीसवें अध्ययन के समान ही ब्राह्मण के स्वरूप की चर्चा है / इसी अध्ययन में कषाय, निर्जरा, छ: जीवनिकाय और सर्व प्राणियों के प्रति दया का भी उल्लेख है / इकतीसवें पार्श्वनामक अध्ययन में पुनः चातुर्याम, अष्टविध कर्मग्रन्थि, चार गति; पंचास्तिकाय तथा मोक्ष स्थान के स्वरूप का दिग्दर्शन होता है / इसी अध्ययन में जैन परम्परा के समान जीव को ऊर्ध्वगामी और पुद्गल को अधोगामी कहां गया है, किन्तु पार्श्व तो जैनपरम्परा में मान्य ही हैं अतः इस.अध्ययन में जैन अवधारणाएँ होना आश्चर्यजनक नहीं है / Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 : . प्रो० सागरमल जैन अब विद्वानों की यह धारणा भी बनी है कि जैनदर्शन का तत्त्वज्ञान पापित्यों की ही देन है / शुब्रिग ने भी इसिभासियाइं पर पापित्यों का प्रभाव माना है / पुनः बत्तीसवें पिंग नामक अध्ययन में जैन परम्परा के अनुरूप चारों वर्गों की मुक्ति का भी प्रतिपादन किया गया है / चौतीसवें अध्ययन में परिषह और उपसर्गों की चर्चा है / इसी अध्ययन में पंच महाव्रत से युक्त, कषाय से रहित, छित्रस्रोत, अनास्रव भिक्षु की मुक्ति की भी चर्चा है / पुन H पैतीसवें उद्दालक नामक अध्ययन में तीन गुप्ति, तीन दण्ड, तीन शल्य, चार कषाय, चार विकथा, पांच समिति, पंचेन्द्रिय-संयम, योग-सन्धान एवं नवकोटि परिशुद्ध, दस दोष से रहित विभित्र कुलों की परकृत, परनिर्दिष्ट, विगतधूम, शास्त्रपरिणत भिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है / इसी अध्ययन में संज्ञा एवं बाईस परिषहों का भी उल्लेख है। इसप्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में अनेक जैन अवधारणाएँ उपस्थित हैं। अतःस्वाभाविक रूपसे यह प्रश्न उठता है कि क्या जैन आचार्यों ने ऋषिभाषित का संकलन करते समय अपनी ही अवधारणाओं को इन ऋषियों के मुख से कहलवा दिया अथवा मूलतः ये अवधारणाएँ इन ऋषियों की ही थीं और वहाँ से जैन परम्परा में प्रविष्ट हुई ? यह तो स्पष्ट है कि ऋषिभाषित में उल्लेखित ऋषियों में पार्श्व और महावीर को छोड़कर शेष अन्य सभी या तो स्वतन्त्र साधक रहे हैं या अन्य परम्पराओं के रहे हैं / यद्यपि इनमें कुछ के उल्लेख उत्तराध्ययन और सूत्रकृतांग में भी हैं / यदि हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि इसमें जो विचार हैं वे उन ऋषियों के नहीं हैं तो ग्रन्थ की और ग्रन्थकर्ता की प्रामाणिकता खण्डित होती है, किन्तु दूसरी ओर यह मानना कि ये सभी अवधारणाएँ जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं से प्रविष्ट हुईं ; पूर्णत : सन्तोषप्रद नहीं लगता है / अत : सर्वप्रथम तो हम यह परीक्षण करने का प्रयत्न करेंगे कि ऋषिभाषित में जिन ऋषियों के उपदेश संकलित हैं वे उनके अपने हैं या जैन आचार्यों ने अपनी बात को उनके मुख से कहलदान है / ऋषिभाषित में उपदिष्ट अवधारणाओं की प्रामाणिकता का प्रश्न यद्यपि ऋषिभाषित के सभी ऋषियों के उपदेश और तत्सम्बन्धी साहित्य हमें जैनेतर परम्पराओं में उपलब्ध नहीं होता, फिर भी इनमें से अनेकों के विचार और अवधारणाएँ आज भी अन्य परम्पराओं में उपलब्ध हैं / याज्ञवल्क्य का उल्लेख भी उपनिषदों में है / वज्जीयपुत्त, महाकाश्यप और सारिपुत्त के उल्लेख बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में हैं। इसीप्रकार विदुर, नारायण, असितदेवल आदि के उल्लेख महाभारत एवं हिन्दू परम्परा के अन्य ग्रन्थों में मिल जाते हैं / ऋषिभाषित में इनके जो विचार उल्लेखित हैं, उनकी तुलना अन्य स्रोतों से करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि ऋषिभाषित में जिन ऋषियों के जिन विचारों का उल्लेख किया गया है उनमें कितनी प्रामाणिकता है / ऋषिभाषित के ग्यारहवें अध्ययन में मंखलिपुत्र गोशालक का उपदेश संकलित है / मंखलिपुत्र गोशालक के सम्बन्ध में हमें जैन परम्परा में भगवतीसूत्र और उपासकदशांग में, बौद्ध परम्परा में दीघनिकाय के सामञ्ज महाफलसुत्त और सुत्तनिपात में एवं हिन्दू परम्परां में महाभारत के शान्तिपर्व के १७७वें अध्ययन में मंखी ऋषि के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है / तीनों ही स्रोत उसे नियतिवाद का समर्थक बताते हैं / यदि हम ऋषिभाषित अध्याय 11 में वर्णित Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित : 217 मंखलि गोशालक के उपदेशों को देखते हैं तो यहाँ भी हमें परोक्ष रूप से नियतिवाद के संकेत उपलब्ध होते हैं / इस अध्याय में कहा गया है कि जो पदार्थों की परिणति को देखकर कम्पित होता है, वेदना का अनुभव करता है, क्षोभित होता है, आहत होता है, स्पंदित होता है, चलायमान होता है, प्रेरित होता है, वह त्यागी नहीं है / इसके विपरीत जो पदार्थों की परिणति को देखकर कम्पित नहीं होता है, क्षोभित नहीं होता है, दुःखित नहीं होता है, वह त्यागी है / परोक्ष रूप से यह पदार्थों की परिणति के सम्बन्ध में नियतिवाद का प्रतिपादन है / संसार की अपनी एक व्यवस्था और गति है वह उसी के अनुसार चल रहा है, साधक को उसका ज्ञाता-द्रष्टा तो होना चाहिए किन्तु द्रष्टा के रूप में उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए। नियतिवाद की मूलभूत आध्यात्मिक शिक्षा यही हो सकती है कि हम संसार के घटनाक्रम में साक्षी भाव से रहें / इसप्रकार यह अध्याय गोशालक के मूलभूत आध्यात्मिक उपदेश को ही प्रतिबिम्बित करता है / इसके विपरीत जैन और बौद्ध साहित्य में जो मंखलि गोशालक के सिद्धान्त का निरूपण है, वह वस्तुतः गोशालक की इस आध्यात्मिक अवधारणा से निकाला गया एक विकृत दार्शनिक फलित है / वस्तुतः ऋषिभाषित का रचयिता गोशालक के सिद्धान्तों के प्रति जितना प्रामाणिक है, उतने प्रामाणिक त्रिपिटक और परवर्ती जैन आगमों के रचयिता नहीं हैं / महाभारत के शान्तिपर्व के 177 वें अध्याय में मंखि ऋषि का उपदेश संकलित है इसमें एक ओर नियतिवाद का समर्थन है, किन्तु दूसरी ओर इसमें वैराग्य का उपदेश भी है / इस अध्याय में मूलतः द्रष्टा भाव और संसार के प्रति अनासक्ति का उपदेश है / इंसमें यह बताया गया है कि संसार की अपनी व्यवस्था है / मनुष्य अपने पुरुषार्थ से भी उसे अपने अनुसार नहीं मोड़ पाता है, अतः व्यक्ति को द्रष्टा भाव रखते हुए संसार से विरक्त हो जाना चाहिए / महाभारत के इस अध्याय की विशेषता यह है कि मंखि ऋषि को नियतिवाद का समर्थक मानते हुए भी उस नियतिवाद के माध्यम से उन्हें वैराग्य की दिशा में प्रेरित बताया गया है / इस आधार पर ऋषिभाषित में मंखलिपुत्र का उपदेश जिस रूप में संकलित मिलता है वह निश्चित ही प्रामाणिक है / .' इसीप्रकार ऋषिभाषित के नवें अध्याय में महाकाश्यप के और अड़तीसवें अध्याय में सारिपुत्त के उपदेश संकलित हैं / ये दोनों ही बौद्ध परम्परा से सम्बन्धित रहे हैं / यदि हम ऋषिभाषित में उल्लिखित इनके विचारों को देखते हैं तो स्पष्ट रूपसे इसमें हमें बौद्धधर्म की अवधारणा के मूल तत्त्व परिलक्षित होते हैं / महाकाश्यप अध्याय में सर्वप्रथम संसार की दुःखमयता का चित्रण है / इसमें कर्म को दुःख का मूल कहा गया है और कर्म का मूल जन्म को बताया गया है, जो कि बौद्धों के प्रतीत्यसमुत्पाद का ही एक रूप है / इसी अध्याय में एक विशेषता हमें यह देखने को मिलती है कि इसमें कर्म-सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए 'सन्तानवाद' की चर्चा है जो कि बौद्धों का मूलभूत सिद्धान्त है / इस अध्याय में निर्वाण के स्वरूप को समझाने के लिए बौद्ध दर्शन के मूलभूत दीपक वाले उदाहरण को प्रस्तुत किया गया है / पूरा अध्याय सन्तानवाद और कर्मसंस्कारों के माध्यम से वैराग्य का उपदेश प्रदान करता है / इसप्रकार हम यह कह सकते हैं कि इसमें बौद्धधर्म के मूल बीज उपस्थित Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 .: प्रो० सागरमल जैन हैं / इसीप्रकार अड़तीसवें सारिपुत्त नामक अध्याय में भी बौद्ध धर्म के मूल उत्स मध्यम मार्ग का प्रतिपादन मिलता है / इसके साथ ही बुद्ध के प्रज्ञावाद का भी इसमें प्रतिपादन हुआ है / इस अध्याय में कहा गया है कि, मनोज्ञ भोजन, मनोज्ञ शयनासन का सेवन करते हुए और मनोज्ञ आवास में रहते हुए भिक्षु सुखपूर्वक ध्यान करता है / फिर भी प्रज्ञ पुरुष को सांसारिक पदार्थों में आसक्त नहीं होना चाहिए, यही बुद्ध का अनुशासन है / इसप्रकार यह अध्याय भी बुद्ध के उपदेशों को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करता है। इसीप्रकार याज्ञवल्क्य नामक बारहवें अध्याय में भी हम देखते हैं कि याज्ञवल्क्य के मूलभूत उपदेशों का प्रतिपादन हुआ है / ऋषिभाषित के अतिरिक्त याज्ञवल्क्य का उल्लेख हमें उपनिषदों एवं महाभारत में भी मिलता है / 34 उपनिषद् में जहाँ याज्ञवल्क्य मैत्रेयी संवाद है वहाँ उनकी संन्यास की इच्छा को प्रगट किया गया है / ऋषिभाषित में भी याज्ञवल्क्य के उपदेश के रूप में लोकैषणा और वित्तषणा के त्याग की बात कही गई है तथा यह कहा गया है कि जब तक लोकैषणा होती है तब तक वित्तैषणा होती है और जब वित्तैषणा होती है तो लोकैषणा होती है / इसलिए लोकैषणा और वित्तैषणा के स्वरूप को जानकर गोपथ से जाना चाहिए, महापथ से नहीं जाना चाहिए / वस्तुतः ऐसा लगता है कि यहाँ निवृत्तिमार्ग को गोपथ और प्रवृत्तिमार्ग को महापथ कहा गया है और याज्ञवल्क्य निवृत्ति मार्ग का उपदेश देते प्रतीत होते हैं / यहाँ सबसे विचारणीय बात यह है कि बौद्धधर्म में जो हीनयान और महायान की अवधारणा का विकास है, कहीं वह गोपथ और महापथ की अवधारणा का विकसित रूप तो नहीं है ? आचारांग में भी महायान शब्द आया है / महाभारत के शान्तिपर्व में भी अध्याय 310 से लेकर 318 तक याज्ञवल्क्य के उपदेशों का संकलन है / इसमें मुख्य रूप से सांख्य और योग की अवधारणा का प्रतिपादन है / ऋषिभाषित के इस अध्याय में मुनि की भिक्षा-विधि की भी चर्चा है जो कि जैन परम्परा के अनुरूप ही लगती है / फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि ऋषिभाषित के बीसवें उत्कल नामक अध्याय के उपदेष्टा के रूप में किसी ऋषिका उल्लेख नहीं है, किन्तु इतना निश्चित है कि उसमें चार्वाक के विचारों का पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रतिपादन हुआ है / ऋषिभाषित में वर्धमान का जो उपदेश है उसकी यथार्थ प्रतिच्छाया आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावना नामक अध्ययन में एवं उत्तराध्ययन के बत्तीसवें अध्याय में यथावत् रूप से उपलब्ध है / उपर्युक्त आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि ऋषिभाषित में ऋषियों के उपदेश को सामान्यरूप से प्रामाणिकता पूर्वक ही प्रस्तुत किया गया है / यद्यपि इसमें मुख्य रूप से उनके आध्यात्मिक और नैतिक विचारों का ही प्रस्तुतीकरण हुआ है और उसके पीछे निहित दर्शन पर इसमें कोई बल नहीं दिया गया है / दूसरा यह भी सत्य है कि उनका प्रस्तुतीकरण या ग्रन्थ-रचना जैन परम्परा के आचार्यों द्वारा हुई है / अतः यह स्वाभाविक था कि उसमें जैन परम्परा में मान्य कुछ अवधारणाएँ प्रतिबिम्बित हो गयी हों। पुनः इस विश्वास के भी पर्याप्त आधार हैं कि जिन्हें आज हम जैन परम्परा की अवधारणाएँ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित : 219 कह रहे हैं, वे मूलतः अन्य परम्पराओं में प्रचलित रही हों / अतः ऋषिभाषित के ऋषियों के उपदेशों की प्रामाणिकता को पूर्णतः निरस्त नहीं किया जा सकता / अधिक से अधिक हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि उन पर अपरोक्षरूप से जैन परम्परा का कुछ प्रभाव आ गया है / ऋषिभाषित के ऋषियों की ऐतिहासिकता का प्रश्न यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि ऋषिभाषित में वर्णित अधिकांश ऋषिगण जैन परम्परा से सम्बन्धित नहीं है / उनके कुछ के नामों के आगे लगे हुए ब्राह्मण, परिव्राजक आदि शब्द ही उनका जैन परम्परा से भित्र होना सूचित करता है / दूसरे देव नारद, असितदेवल, अंगिरस भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, बाहुक, विदुर, वारिषेण कृष्ण, द्वैपायन, आरुणि, उद्दालक, तारायण, ऐसे नाम हैं जो वैदिक परम्परा में सुप्रसिद्ध रहे हैं और आज भी उनके उपदेश उपनिषदों, महाभारत एवं पुराणों में सुरक्षित हैं / इनमें से देवनारद, असितदेवल, अंगिरस भारद्वाज, द्वैपायन के उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त सूत्रकृतांग, औपपातिक, अंतकृतदशा आदि जैन ग्रन्थों में तथा बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी मिलते हैं / इसीप्रकार वज्जीयपुत्त, महाकाश्यप और सारिपुत्त बौद्ध परम्परा के सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व हैं और उनका उल्लेख त्रिपिटक साहित्य में उपलब्ध है / मंखलिपुत्त, रामपुत्त, अम्बड, संजय (वेलट्ठिपुत्त) आदि ऐसे नाम हैं जो स्वतन्त्र श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं और इनके उल्लेख जैन और बौद्ध परम्पराओं में हमें स्पष्ट रूप से मिलते हैं / ऋषिभाषित के जिन ऋषियों के उल्लेख बौद्ध साहित्य में हमें मिलते हैं उस पर विस्तृत चर्चा प्रो० सी० एस० उपासक ने अपने लेख 'इसिभासियाइं एण्ड पालि बुद्धिस्ट टेक्स्ट्स : ए स्टडी' में किया है / यह लेख पं० दलसुखभाई अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित हुआ है / पार्श्व और वर्द्धमान जैन परम्परा के तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में सुस्पष्ट रूप से मान्य हैं / आर्द्रक का उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त सूत्रकृतांग में है / इसके अतिरिक्त वल्कलचीरी, कूर्मापुत्र, तेतलिपुत्र, भयालि, इन्द्रनाग आदि ऐसे नाम हैं जिनमें अधिकांश का उल्लेख जैन परम्परा के इसिमण्डल एवं अन्य ग्रन्थों में मिल जाता है / वल्कलचीरी, कूर्मापुत्र आदि का उल्लेख बौद्ध परम्परा में भी है। किन्तु जिनका उल्लेख जैन और बौद्ध परम्परा में अन्यत्र नहीं मिलता है, उन्हें भी पूर्णतया काल्पनिक व्यक्ति नहीं कह सकते / यदि हम ऋषिभाषित के ऋषियों की सम्पूर्ण सूची का अवलोकन करें तो केवल सोम, यम, वरुण, वायु और वैश्रमण, ऐसे नाम हैं जिन्हें काल्पनिक कहा जा सकता है क्योंकि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराएँ इन्हें सामान्यतया लोकपाल के रूप में ही स्वीकार करती हैं किन्तु इनमें भी महाभारत में वायु का उल्लेख एक ऋषि के रूप में मिलता है / यम को आवश्यक चूर्णि में यमदग्नि ऋषि का पिता कहा गया है / अतः इस सम्भावना को पूरी तरह निरस्त नहीं किया जा सकता कि यम कोई ऋषि रहे हों / यद्यपि उपनिषदों में भी यम को लोकपाल के रूप चित्रित किया गया है किन्तु इतना तो निश्चित है कि ये एक उपदेष्टा हैं / यम और नचिकेता का संवाद औपनिषदिक परम्परा में सुप्रसिद्ध है / वरुण और वैश्रमण को भी वैदिक परम्परा में मंत्रोपदेष्टा के रूप में स्वीकार किया गया है / यह सम्भव है कि सोम, यम, वरुण और वैश्रमण Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 : प्रो० सागरमल जैन इस ग्रन्थ के रचनाकाल तक एक उपदेष्टा के रूप में लोक परम्परा में मान्य रहे हों और इसी आधार पर इनके उपदेशों का संकलन ऋषिभाषित में कर लिया गया है। उपर्युक्त चर्चा के आधार पर हम यह अवश्य कह सकते हैं कि ऋषिभाषित के ऋषियों में उपर्युक्त चार-पाँच नामों को छोड़कर शेष सभी प्रागैतिहासिक काल के यथार्थ व्यक्ति हैं, काल्पनिक चरित्र नहीं हैं। निष्कर्ष रूप में हम इतना ही कहना चाहेंगे कि ऋषिभाषित न केवल जैन परम्परा की अपितु समग्र भारतीय परम्परा की एक अमूल्य निधि है और इसमें भारतीय चेतना की धार्मिक उदारता अपने यथार्थ रूप में प्रतिबिम्बित होती है / ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका ' महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि यह हमें अधिकांश ज्ञात और कुछ अज्ञात ऋषियों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक सूचनाएँ देता है / जैनाचार्यों ने इस निधि को सुरक्षित रखकर भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की बहुमूल्य सेवा की है / वस्तुतः यह प्रकीर्णक ग्रन्थ ईसा पूर्व 10 वीं शती से लेकर ईसा पूर्व 6 ठीं शती तक के अनेक भारतीय ऋषियों की ऐतिहासिक सत्ता का निर्विवाद प्रमाण है / सन्दर्भ-सूची (अ) से किं कालियं ? कालियं अणेगविहं पण्णत्तं / तं जहा उत्तराज्झयणाई 1, दसाओ 2, कप्पो 3, ववहारो 4, निसीह 5, महानिसीह 6, इसिभासियाई 7. जंबद्दीपण्णत्ती 8, दीवसागरपण्णत्ती 9 / –नन्दिसूत्र : प्रका० महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, 1968, सूत्र 84 (ब) नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइअं अंगबाहिरं कालिअं भगवंतं / तंजहा- 1. उत्तराज्झयणाई, 2. दसाओ, 3. कप्पो, 4. ववहारो, 5. इसिभासिआई, 6. निसीह, 7. महानिसीह.......। -पाक्षिकसूत्र : प्रका० देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, सीरिज 99, पृ० 79 अंगबाह्यमनेकविधम् / तद्यथा-सामायिकं, चतुर्विंशतिस्तवः, वन्दनं, प्रतिक्रमणं, कायव्युत्सर्गः, प्रत्याख्यानं, दशवैकालिकं, उत्तराध्यायाः, दशाः, कल्पव्यवहारौ, निशीथं, ऋषिभाशितानीत्येवमादि। -तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (स्वोपज्ञभाष्य): प्रका० देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, सीरिज 57, सूत्र 1/20 तथा ऋषिभाषितानि उत्तराध्ययनादीनि.....। -आवश्यक नियुक्तिः हरिभद्रीयवृत्ति, पृ० 206 ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवादीनां नियुक्ति...... / -आवशयक नियुक्ति, हरिभद्रीय वृत्ति०, पृ० 41 2. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित : 221 इसिभासियाइं पणयालीसं अज्झयणाई कालियाई, तेसु दिण 45 निविएहिं अंणागाढजोगो / अण्णे भणंति उत्तराज्झयणेसु चेव एयाइं अंतब्भवंति / -विधिमार्गप्रपा, पृ० 58 देविंदत्थयमाई पइण्णगा होति इगिगनिविएण / इसिभासिय अज्झयणा आयंबिलकालतिगसज्झा // 61 / / केसिं चि मए अंतब्भवंति एयाइं उत्तराज्झयणे / पणयालीस दिणेहिं केसिं वि जोगो अणागाढो // 62 / / -विधिमार्गप्रपा, पृ० 62 6. (अ) कालियसुयं च इसिभासियाई ताइओ य सूरपण्णत्ती / सव्वो य दिट्ठिवाओ चउत्थओ होई अणुओगो / / 124 / / (मू० भा०) तथा ऋषिभाषितानि उत्तराध्ययनादीनि 'तृतीयश्च' कालानयोगः, -आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति, पृ० 206 (ब) आवस्सगस्स दसवेकालिअस्स तह उत्तराज्झमायारे / सयगडे निज्जत्तिं वच्छामि तहा दसाणं च / / कप्पस्स य निज्जुत्तिं ववहारस्सेव परमणिउणस्स। सूरिअपण्णत्तीए वुच्छं इसिभासिआणं च।। -आवश्यकनियुक्ति, गाथा 84-85 पण्हवागरणदसाणं दस अज्झयणा पत्रता, तंजहा-उवमा, संखा, इसिभासियाई, आयरियभासिताई, महावीरभासिताई, खोमपसिणाई, कोमलपसिणाई अद्दागपसिणाई, अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई / -ठाणांगसुत्त : प्रका० महावीर जैन विद्यालय, दसमं अजझयणं दसट्ठाणं, पृ० 311 चोत्तालीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुताभासिया पण्णत्ता / -समवायांगसूत्र-४४ सूत्रकृतांगसूत्र 1/3/4/1-4 वही, 2/6/1-3, 7, 9 भगवती, शतक 15 उपासकदशांग, अध्याय 6 एवं 7 (अ) सूत्तनिपात्त 32, सभियसुत्त (ब) दीघनिकाय, सामञफलसुत्त 14. सुत्तनिपात 32, सभियसुत्त . 10.. 13. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 : प्रो० सागरमल जैन 15. 21. (अ) पालि साहित्य का इतिहास (भरतसिंह उपाध्याय), पृ० 102-104 (ब) It is ......... the oldest of the poetic books of the Buddhist Scriptures. - The Suttaanipata (Sister Vayira ) Introduction, P. 2 16. उभो नारद पबता। . -सुत्तनिपात 32, सभियसुत्त 34 17. असितो इसि अद्दस दिवाविहारे / . -सुत्तनिपात 37, नालकसुत्त 1 18. सुत्तनिपात 71, पिगियमाणवपुच्छा 19. सुत्तनिपात 32, सभियसुत्त / 20. वही, सभियसुत्त / वही, सभियसुत्त / 22. थेरगाथा 36;Dictionary of Pali Proper names, Vol.I, p. 631& Vol. II, P.15 (अ) इसिभासियाई, 26/8-15 (ब) वही,३२/१-४ 24. . सुत्तनिपात, कसिभारद्वाजसुत्त 25. अहं च भोयरायस्स तं च सि अगन्धगवण्हिणो / मा कुले गन्धणा होमो संजमं निहुओ चर / / -उत्तराध्ययन, 22/44 26. पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं / नेच्छंति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे / / -दशवैकालिक, 2/6 27. अगन्धणे कुले जातो जधा णागो महाविसो / मुंचित्ता सविसं भूतो पियन्तो जाती लाघवं / / -इसिभासियाई, 45/40 28. See-Introduction of Isibhasiyaim by Walther Schubring: L.D.Institute of Indology, Ahmedabad, 1974. ऋषिमण्डल प्रकरणम्, आत्मवल्लभ ग्रन्थमाला, बालापुर, ग्रन्थांक 31, गाथा 29. 43 30. ISIBHASIYAIM, L.D. Institute of Indology, Introduction page 3-7. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित : 223 31. पत्तेयबुद्धमिसिणो बीसं तित्थे अरिट्ठणेमिस्स / पासस्स य पण्ण दस वीरस्स विलीणमोहस्स // -इसिभासियाई,पु० 205 32. ऋषिमण्डल प्रकरणम्, गाथा 44, 45 33. पण्हवागरणदसासु णं ससमय-परसमय पण्णवय पत्तेयबुद्धविविहत्यभासाभासियाणं -समवायांगसूत्र, 546 34. बृहदारण्यक उपनिषद्, द्वितीय अध्याय, चतुर्थ ब्राह्मण / * मानद निदेशक आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान पद्मिनी मार्ग उदयपुर (राज.) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदलवैचारिक प्रकीर्णक और आधुनिक जीव विज्ञान : एक तुलना * डॉ० रज्जन कुमार जैन परम्परा अपने विशाल साहित्य के लिए विश्व विख्यात है। जैन साहित्य मूलतः अंग और अंगबाह्य के रूप में बँटा हुआ है / प्रकीर्णकों का स्थान अंगबाह्य के अंतर्गत आता है / इनमें विविध विषयों का समावेश किया गया है / जैन विचारणा में ऐसी मान्यता रही है कि तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण वर्ग प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परम्परानुसार यह भी मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णक की रचना करते थे। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य की एक विशाल संख्या होनी चाहिए, भगवान ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के चौरासी हजार प्रकीर्णक रहे होंगे। इसी तरह अंतिम तीर्थकर महावीर के 14000 शिष्यों के भी 14000 प्रकीर्णक होने चाहिए, परंतु इतनी अधिक संख्या में प्रकीर्णक उपलब्ध नहीं हैं / वर्तमान में कुल दस प्रकीर्णक मान्य हैं जिनमें तंदुलवैचारिक़ भी एक है / यह एक गद्यपद्य मिश्रित रचना है / इसमें गर्भविषयक अवधारणा का विस्तार से विवेचन किया गया है / प्रस्तुत लेख में इसी विषय पर आधुनिक जीव विज्ञान की दृष्टि से विचार करने का प्रयास किया जा रहा है। ___ गर्भविषयक तथ्य को समझने के लिए हमें आधुनिक जीव विज्ञान में प्रतिपादित नर-मादा जननांग, भ्रूण-उत्पत्ति, भ्रूण-विकास तथा शिशु-जन्म की प्रक्रिया को संक्षेप में समझना होगा। नर जननांग के निम्नलिखित भाग होते हैं वृषण (Testes), शुक्राशय 'Seminal vesicle), अधिवृषण (Epididymis),शुक्रवाहिका (Vas deferens), पुरस्थ ग्रन्थि Prostate gland), वृषण कोष Scrotum) तथा शिश्न (Penis) | पुरुष में दो वृषण पाए जाते हैं, जो वृषणकोष में बंद रहते हैं / इनमें शुक्राणुओं का निर्माण होता है / अधिवृषण एक कुंडलित संकरी नली है / इसी नलिका के माध्यम से शुक्राणु वृषण से शुक्रवाहिका में आते हैं। शुक्रवाहिका में से शुक्रवाहिनी नलियाँ निकलती हैं जो शुक्राशय में जाकर खुलती हैं / शुक्राशय से दो छोटी नलिकाएँ मूत्राशय के कुछ नीचे खुलती हैं / इन्हीं नलिकाओं के माध्यम से शुक्र मूत्रमार्ग से होकर बाहर निकलता है / मूत्र शिश्न के द्वारा बाहर निकलता है तथा शुक्र भी इसी के द्वारा बाहर निकलता है। तंदुलवैचारिक में हमें वृषण (वसण)१, शुक्राशय (शुक्रधारणिशिरा), शिश्न तथा शुक्र का विवरण मिलता है / नारी जननांग बाह्य और अंतरंग दो भागों में बाँटा गया है / सभी बाह्य अंगों को सम्मिलित रुप से भग' (Valve) कहते हैं / इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित रहते हैं१. रतिशेल Mons Veneris)-यह एक गद्देदार संरचना है जो जांघों के जोड़ के Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक और आधुनिक जीव विज्ञान : एक तुलना : 225 सामने स्थित रहता है / यौवनावस्था में इस भाग पर लोम hair) निकल आते हैं। 2. बृहतभगोष्ठ Labium Major)-यह वसा और मांस से निर्मित मोटी तह जैसी संरचना है / इसी से भग के दोनों किनारे बनते हैं / 3. भगशिश्निका Clitoris)-यह भग के अग्रभाग में स्थित स्त्रियों का उत्तेजक अंग है / 4. योनि (Vagina)-यह एक पेशीय नली है जो गर्भाशय तक रहती है / यह स्त्री का ग्रहणशील लैंगिक अंग तथा प्रजनन का मार्ग है / यह गर्भाशय तथा प्रजनन अंग के बाह्य भाग के मध्य परिवहन के रूप में काम करती है / योनि का खुलाव नीचे बाहर की ओर होता है जिसे योनिद्वार कहते हैं / योनिद्वार का ऊपरी भाग गर्भाशय की ग्रीवा से चारों तरफ से बंद होता है। आंतरिक अंग के प्रमुख भाग डिम्ब ग्रंथि, डिम्बवाहिनी नली (Fallopian tube) तथा गर्भाशय (Uterus) है। स्त्री में बादाम के आकार की दो डिम्ब-ग्रंथियाँ पाई जाती हैं / ये गर्भाशय से एक चौड़े स्नायु द्वारा जुड़ी रहती हैं / इनका मुख्य कार्य अण्डाणु को विकसित करना है / ये अण्डाणु ही नए जीव की उत्पत्ति करते हैं / प्रत्येक डिम्बग्रंथी दो डिम्बवाहिनी नलिकाओं के द्वारा गर्भाशय से जुड़ी रहती है / डिम्ब डिम्बग्रंथी नली की सहायता से गर्भाशय तक पहुँचता है / गर्भाशय नाशपाती के आकार की एक खोखली संरचना है / यह पेडू में स्थित रहता है / इसमें ही निषेचित डिम्ब का विकास होता है / मैथुन के समय स्खलित शुक्राणु योनि में जाते हैं और धीरे-धीरे गर्भाशय में प्रविष्ट होकर डिम्ब प्रणाली के मुख की ओर चले जाते हैं / यहीं एक शुक्राणु की डिम्ब से मुलाकात होती है / डिम्ब में शुक्राणु के प्रवेश से निषेचण होता है / निषेचित डिम्ब का विकास गर्भाशय में ही होता है जो लगभग 40 सप्ताह के बाद शिशु के रुप में योनिद्वार से बाहर निकलता है / गर्भाधान-अवस्था में गर्भाशय का आकार बढ़ जाता है / / .तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक में स्त्री अंग के निम्न भागों का उल्लेख मिलता हैडिम्बग्रंथि (कुक्षि)६, डिम्बवाहिनी नली (शिराद्गम) और योनि / शुक्राणु और डिम्ब के संयोग को निषेचण कहते हैं / इन दोनों के संयोग से ही नए प्राणी का जन्म होता है।९ मैथुन के बाद असंख्य शुक्राणु योनि में जमा हो जाते हैं। शुक्राणु में गति.पाई जाती है और वे डिम्ब की तरफ बढ़ते हैं / मात्र एक शुक्राणु डिम्ब में प्रवेश कर पाता है और शेष की मृत्यु हो जाती है / डिम्ब में शुक्राणु के प्रवेश को ही निषेचण कहते हैं। निषेचित अंड गर्भाशय में आकर उसकी नरम और मोटी तहों में अवस्थित हो जाता है। निषेचित अंड के इस अवस्थापन को गर्भारोपण के नाम से जाना जाता है / गर्भारोपण Gmplantation) के बाद डिम्ब विभक्त होना प्रारंभ करता है-एक से दो, दो से चार और इसी प्रकार वह असंख्य कोशिकाओं में विभक्त हो जाता है और भ्रूण Embryo) बन जाता है / धीरे-धीरे भ्रूण का विकास होने लगता है / कोशिकाएँ एक पिण्ड के समान गुच्छे का रूप धारण कर लेती है / इसे आधुनिक विज्ञान की भाषा में मोरुला Morula) के नाम से जाना जाता है / इसमें तीन जननिक स्तर (Germinal layers) बन जाते . हैं -बहिर्जन स्तर (Ectoderm), मध्यजन स्तर Mesoderm), और अंतर्जन स्तर __(Endoderm) / इनमें प्रत्येक जननिक स्तर भिन्न-भिन्न अंगों का निर्माण करता है / 10 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 : डॉ० रज्जन कुमार गर्भारोपण के बाद भ्रूण अपना आहार एक विशेष प्रकार से निर्मित अंग अपरा (Placenta) की सहायता से लेता रहता है / अपरा भ्रूण के विकास के साथ बढ़ता जाता है तथा गर्भाशय के अंतःपृष्ठ का लगभग एक तिहाई भाग ढंक लेता है / इसके द्वारा ही माता के रक्त से भ्रूण का पोषण होता है / अपरा में उँगली जैसे उभार उत्पन्न होकर झिल्ली में फैले रहते हैं / अपरा का उभार गर्भाशय की दीवार की रक्त-कोशिकाओं के साथ होता है लेकिन इससे मिला हुआ नहीं होता / दोनों के बीच अत्यंत बारीक कला(Membrane) रहती है, जिसके द्वारा पोषक पदार्थ तथा आक्सीजन माता के रक्त से भ्रूण में तथा भ्रूण . की त्याज्य वस्तुएँ माता के रक्त में जाती हैं / 11 अपरा और गर्भ के बीच एक रज्जु सदृश संरचना होती है, जिसे नाभिरज्जु या नाभिनाल (Umibilicalcord) कहते हैं। नाभिनाल का एक छोर भ्रूण की नाभि से और दूसरा अपरा के मध्य भाग से जुड़ा रहता है / इस रज्जु में धमनी तथा शिरा (Veins) रहती है / धमनी Arteries) द्वारा माता का शुद्ध रक्त भ्रूण को मिलता है और भ्रूण का दूषित रक्त गर्भनाल की शिरा को मिलता है / 12 . __ भ्रूण ही गर्भ में शिशु का रूप धारण कर लेता है और एक निश्चित समयावधि के बाद योनिद्वार से बाहर निकल आता है / लेकिन भ्रूण को एक विकसित शिशु बनने में कई प्रकार की प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है / मानव भ्रूण जो एक समय में केवल एक कोशिका का होता है यही विकसित होकर पूर्ण काल-प्राप्त (बहुकोशिकीय शिशु) गर्भ बन जाता है। भ्रूण का यह विकास तीन प्रक्रियाओं के कारण होता है / 13 1. कोशिकाओं की संख्या में वृद्धि २.कोशिकाओं की आकार वृद्धि और 3. अंतरकोशिकीय पदार्थ की मात्रा में वृद्धि। संषेचन होने के उपरांत तथा जरायु बनने पश्चात् कोशिका समूह में विभक्त होने लगता है। कोशिकाओं में दो कोष बन जाते हैं, जिन्हें उल्व-कोष (AminionSac) और पीतककोष (Yolk Sac) कहते हैं / ये दोनों कोष एक स्थान पर एक -दूसरे के सम्पर्क में रहते हैं / ये दोनों मिलकर गर्भोदयक थैली बनाते हैं, जिसमें उल्वकोष तरल रहता है सगर्भता के प्रथम तीन सप्ताह के बाद भ्रूण केवल एक दियासलाई के सिर के बराबर रहता है, जिसमें रक्त स्वयं बनता है / निषेचित डिम्ब पहले गोल होता है, किन्तु जैसे-जैसे विकास होता जाता है और गर्भकाल पूरा होता जाता है, वैसे-वैसे इसकी आकृति और रूप में परिवर्तन होते जाते हैं / छह सप्ताह के बाद ही माता यह बता सकती है कि वह गर्भवती है या नहीं। इस समय ही भ्रूण के सिर का निर्माण होता है / 14 इसके बाद मुँह तथा हाथपैर का निर्माण होता है / दूसरे माह में विकास कर रहे भ्रूण की लंबाई एक इंच के लगभग होती है / इस समय जरायु माता के रक्त से सीधे संपर्क में आ जाते हैं / अंकुर में विकास होने से ऊपरी सतह बढ़ जाती है / इस समय से उल्वकोष में विकास होने लगता है और यह गर्भाशय गुहा तक फैल जाता है उल्वकोष का तरल पदार्थ भी बढने लगता है और भ्रूण नाभिनाल के साथ उस तरल पदार्थ में इधर-उधर भ्रमण करने लगता है। तीसरे माह के अंत तक भ्रूण के सभी अंग प्रायः बन जाते हैं / शरीर से सिर का आकार बड़ा हो जाता है तथा चेहरा बन जाता है / माता का गर्भाशय ऊपर से ऊँचा दिखाई पड़ने लगता है / चौथे माह तक भ्रूण की पेशी में विकास होने लगता है / पाँचवें माह के मध्य तक भ्रूण के सिर के बाल निकल आते हैं / 15 सातवें माह के अंत तक भ्रूण में पूर्ण विकास हो जाता है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक और आधुनिक जीव विज्ञान : एक तुलना : 227 आठ माह तक वह एक शिशु की तरह दिखाई पड़ने लगता है / नौवें माह के अंत में शिशु जन्म लेता है / 16 शिशु-जन्म एक जटिल प्रक्रिया है / शिशुगर्भोदयक थैली में भरे उल्वकोषीय द्रव्य में उपलाता रहता है / प्रसवपीड़ा के समय यह थैली फट जाती है और तरल द्रव्य योनि से बाहर निकलने लगता है / गर्भाशय-पेशी के संकुचन से भ्रूण धीरे-धीरे बाहर निकलने लगता है जिसे भ्रूण प्रसव वेदना (Labour Pain) कहते हैं / बाहर निकलने पर शिशु नाभिनाल द्वारा अपरा से जुड़ा रहता है। जन्म लेने के पश्चात् नाभिनाल काट दिया जाता है। नाभिनाल कटने से शिशु का माता से दैहिक सम्बन्ध छूट जाता है / कटे हुए दोनों छोरों को इस प्रकार बाँध दिया जाता है ताकि स्त्राव नहीं होने पाए / प्रसव के कुछ समय बाद अपरा गर्भोदयक थैली तथा गर्भनाल योनि मार्ग से बाहर निकल जाते हैं / 17 ___तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक में यह स्पष्ट किया गया है कि गर्भ में पल रहे जीव के अंगों का निर्माण माता-पिता से प्राप्त शुक्र और रज से होता है / भ्रूण के मांस, रक्त और मस्तकये तीन अंग मातृ अंग कहे जाते हैं जबकि अस्थि, मज्जा, केश, दाढ़ी, मूंछ, रोम एवं नख पिता के अंग हैं / 18 लेकिन आधुनिक जीवविज्ञान में जीव के अंगों के निर्माण का ऐसा स्पष्ट विवेचन नहीं मिलता है / यहाँ अंगों का निर्माण जननिक स्तर-बहिर्जन स्तर, मध्यजन स्तर तथा अंतर्जन स्तर द्वारा होना माना गया है / त्वचा, बाल तथा समस्त तंत्रिका तंत्र बहिर्जन स्तर से विकसित होते हैं / अस्थियाँ, पेशी, रक्त-वाहिकाएँ, मूत्रजननांग मध्यजन स्तर से निकलते हैं / आंत और उससे संबंधित अंग, यकृत तथा अग्न्याशय अंतर्जन स्तर से बनते हैं / 19 भ्रूण का यह जननिक स्तर अण्ड और शुक्राणु के सम्मिलित रूप से बनता है क्योंकि भ्रूण का निर्माण निषेचित अंड से होता है और निषेचण का अर्थ होता है-शुक्र और अण्ड का मिलना। :: नर, मादा और नपुंसक जीव की उत्पत्ति के संबंध में तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है- 'शुक्र अल्प और ओज अधिक होता है तो स्त्री की उत्पत्ति होती है जब ओज कम और शुक्र अधिक होता है तो पुरुष की उत्पत्ति होती है / जब ओज और शुक्र दोनों की मात्रा समान होती है तो नपुंसक जीव की उत्पत्ति होती है। 2deg लिंग निर्धारण की यह विधि आधुनिक जीव विज्ञान सम्मत जान पड़ती है विशेषकर नर और मादा के संदर्भ में / मनुष्य अथवा इस समूह से संबंधित प्राणी में लिंग निर्धारण क्रोमोसोम की सहायता से किया जाता है / जीवों में टो तरह के क्रोमोसोम पाए जाते हैं x और Y / x क्रोमोसोम मादालिंग और Y क्रोमोसोम नरलिंग का सूचक है / लेकिन हमें यहाँ यह याद रखना होगा कि क्रोमोसोम जोड़े में पाए जाते हैं। . निषेचण के फलस्वरुप डिम्ब के एक x क्रोमोसोम तथा शुक्र के एक x क्रोमोसोम मिलते हैं तो इनसे जो भ्रूण विकसित होगा वह xx क्रोमोसोम से युक्त होगा और शिशु का लिंग मादा होगा। इसी तरह अगर भ्रूण XY क्रोमोसोम से युक्त होगा तो वह नर होगा। Y क्रोमोसोम को नर क्रोमोसोम के रूप में जाना जाता है / 2 1 अतः यहाँ यह तथ्य भलीभाँति प्रयुक्त होता है कि यदि ओज अधिक हो तो मादा शिशु तथा शुक्र अधिक हो तो पुरुष शिशु Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 : डॉ० रज्जन कुमार की उत्पत्ति होती है / जहाँ तक नपुंसक शिशु की उत्पत्ति की बात है तो इस संबंध में जीववैज्ञानिकों की धारणा तदुलवैचारिक की तरह स्पष्ट नहीं है / वे नपुंसकता का कारण बहुत तरह के हारमोन्स तथा कुछ अन्य विकृतियों को मानते हैं। इसप्रकार तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक में वर्णित शरीर- विज्ञान सम्बन्धी कुछ अवधारणाओं पर विचार करने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आधुनिक जीव विज्ञान की मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में हमारी प्राचीन मान्यताएँ किसी भी रूप में कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं / प्राचीन ग्रन्थों में कुछ विषयों का विवेचन मात्र अनुमान के आधार पर अवश्य किया जाता था, परन्तु उस अनुमान में भी गूढ रहस्यों की तह तक पहुँचने का एक सुगम साधन छिपा रहता था / गर्भ विषयक जो मान्यताएँ हमें तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक में / मिलती हैं वे इसका साक्षात् प्रतिरूप हैं / नारी-पुरुष जननांगों का विवरण, नर-मादा लिंग के निर्धारण का जो विवरण इस प्रकीर्णक ग्रन्थ में मिलता है वह आधुनिक विज्ञान में प्रतिपादित सिद्धान्तों के प्रायः अनुरुप ही है / अतः आधुनिक विज्ञान और प्राचीन ग्रंथों में प्रतिपादित सिद्धांतों का तुलनात्मक अध्ययन अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं अपेक्षित है / इससे हमें अध्यात्म और विज्ञान के बीच समन्वय स्थापित करने में सुविधा रहेगी तथा यह वर्तमान काल की मांग भी है। सन्दर्भ-सूची तंदुलवेयालियं, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार, ग्रन्थांक-५९, पृ० -35 वही, पृ० -16, 35 मेहनम खरता दारध्यं सौन्दर्य समश्रुधृष्टता स्वीकामितेति लिंगानि, सप्त पुंस्तवे प्रकष्टति / वही, पृ०६ पिउसुक्क..... तदुलवैचारिक प्रकीर्णक, प्रका० आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, 1991, गाथा 17 शरीर क्रिया विज्ञान, पाण्डेय एवं वर्मा, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, चतुर्थ संस्करण, 1992, पृ०५१५ तंदुलवेयालियं, पृ०-३ इत्थीए नाभिहेट्ठा सिरादुगं पुप्फनालियागारं / / -तंदलवैचारिक, 19. तस्स य हेट्ठा जोणी अहोमुहा संठिया कोसा / / -वही., 9 कोसायारं जोणी संपत्ता सुक्कमीसिया जइया। तइया जीवुववाए जोग्गा भणिया जिणिंदेहि।। - वही, 11 शरीर क्रिया विज्ञान, पृ०५२१ जं से माया नाणाविहाओ रस विगईओ...दव्वाइं आहारेई तओ एगदेसेणं ओयमाहारेई / -तंदुलवैचारिक, 22 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक और आधुनिक जीव विज्ञान : एक तुलना : 229 12. तस्स फलबिंटसरिसा उप्पलणालोवमा भवइ नाभी / रसहरणी जणणीय सयाइ नाभीए पडिबद्धा / / नाभीए ताओ गब्भो ओयं आइयइ अण्हयंतीए / ओयाए तीए गब्भो विवढइ जाव जाओ ति / / (वही, गाथा 23,24) शरीर क्रिया विज्ञान, पृ० 525 वही, पृ० 527 (क) शरीर क्रिया विज्ञान, पृ०५२७. (ख) सत्तमे मासे ...सह केस-मंसुणा अधुट्ठाओ.... -तंदुलवैचारिक, 19 (क) शरीर क्रिया विज्ञान ,पृ०५२७ (ख) अट्ठमे मासे वित्तीकप्पो हवइ ।।-तंदुलवैचारिक, 19 शरीर क्रिया विज्ञान, पृ०५२३। 18. माउअंगा. मंसे 1 सोणिए 2 मत्थुलंगे 3 / ..पिउअंगा-अट्टि 1 अद्विमिंजा 2 केस-मंसु-रोम-नहा 3 ।।-तंदुलवैचारिक, 25 19. शरीर क्रिया विज्ञान, पृ०५२१ अप्पं सुक्कं बहुं ओयं इत्थीया तत्थ जायई / अप्पं ओयं बहुं सुक्कं पुरिसो तत्थ जायई // दोण्हं पि रत्त-सुक्काणं तुल्लभावे नपुंसगो / (तंदुलवैचारिक, गाथा 35,36) .21. सेल बायोलॉजी, वर्मा एण्ड अग्रवाल, प्रका० एस० चाँद एण्ड को दिल्ली, १९७७,पृ०३११-३१२ * प्रवक्ता पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई० टी० आई० रोड, करौदी वाराणसी - 5 . Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थोगाली प्रकीर्णक और प्राचीन जैन इतिहास * पं० कन्हैयालाल दक जैन आगम साहित्य अंगप्रविष्ट तथा अंगबाह्य इन दो विभागों में विभाजित किया जाता है / अंगप्रविष्ट में दृष्टिवाद सहित बारह अंगों का आविर्भाव होता है और अंगबाह्य में श्रुतकेवलियों तथा पूर्वधर स्थविरों की रचनाओं का समावेश होता है / नन्दीसूत्र में अंगबाह्य आगम साहित्य के दो भेद किये गये हैं- 1. आवश्यक तथा 2. आवश्यक-व्यतिरिक्त / आवश्यक को छः भेदों में विभक्त करके आवश्यक व्यतिरिक्त के कालिक तथा उत्कालिक ये दो भेद किये गये हैं / कालिक ग्रन्थों में उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्धादि 33 आगम ग्रन्थों को ग्रहण किया गया है और उत्कालिक में दशवैकालिक, औपपातिक, राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना आदि उपांगों तथा अनेक प्रकीर्णक' ग्रन्थों को ग्रहण किया गया है। __ 'प्रकीर्णक' जैन साहित्य का एक विशेष प्रकार का पारिभाषिक शब्द है, जिसका सामान्य अर्थ है - 'मुक्तक वर्णन' / आचार्य आत्माराम जी ने प्रकीर्णक की व्याख्या निम्न प्रकार से की है-अरिहन्त के उपदिष्ट श्रुतों के आधार पर श्रमण निर्ग्रन्थ भक्तिभावना तथा श्रद्धावश मूलभावना से दूर न रहते हुए जिन ग्रन्थों का निर्माण करते हैं, उन्हें 'प्रकीर्णक' कहते हैं। भगवान ऋषभदेव से लेकर श्रमण भगवान महावीर तक जितने भी विद्वान स्थविर साधु हुए हैं, उन्होंने श्रुतों के अनुसार अपने बुद्धि कौशल से ज्ञान को जन-साधारण तक पहुँचाने की दृष्टि से तथा कर्म-निर्जरा के उद्देश्य से प्रकीर्णकों की रचना की है / प्रकीर्णकों की रचना करने का दूसरा उद्देश्य यह भी समझा जा सकता हैं कि इनसे सर्व साधारणजन आसानी से धर्म की ओर उन्मुख हो सकें और वे जैन तत्त्वज्ञान के गूढ़तम रहस्य को जानने की क्षमता प्राप्त कर सकें / महावीर के तीर्थ में साधुओं की संख्या चौदह हजार मानी गई है, इसलिये उनके तीर्थ में प्रकीर्णकों की संख्या भी चौदह हजार ही मानी गई है / लेकिन वर्तमान में प्रकीर्णकों की संख्या दस मानी गई है और अन्य अपेक्षा से यह संख्या 22 भी है। इनमें एक प्रकीर्णक है-तित्थोगाली' / प्रस्तुत प्रसंग में हम तित्थोगाली में वर्णित प्राचीन जैन इतिहास पर संक्षिप्त चर्चा करेंगे / 'तित्थोगाली' प्रकीर्णक का उल्लेख व्यवहारभाष्य में प्राप्त होता है, इससे इसकी प्राचीनता का सहज में अनुमान लगाया जा सकता है / इस प्रकीर्णक में नन्दीसूत्र, आवश्यकनियुक्ति तथा सूर्यप्रज्ञप्ति आदि आगमों की गाथाएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं / इस प्रकीर्णक में कल्कि राजा की कथा का विस्तार से वर्णन किया गया है और इस वर्णन के साथ अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल तथा उसके छः-छः आरों का, प्रसंगोपरान्त ऋषभदेव स्वामी का चरित्र वर्णन, दस क्षेत्रों में एक ही समय में होने वाले तीर्थङ्करों का वर्णन, चौबीस तीर्थङ्करों के पूर्वभवों एवं उनके कल्याणक तथा चक्रवर्ती एवं बलदेव के उल्लेख उपलब्ध हैं / इसके अतिरिक्त पालक, मरूक, पुष्पमित्र, बलमित्र, भानुमित्र, नभसेन और गर्दभराजा Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थोगाली प्रकीर्णक और प्राचीन जैन इतिहास : 231 का तथा शकवंशीय राजाओं के राज्य समय का भी इसमें उल्लेख किया गया है / कल्कि राजा की कथा के साथ-साथ उसके पुत्र दत्तराजा की वंश-परम्परा का वर्णन भी किया गया है (गाथा 621-627) / इसके साथ ही भगवान महावीर से लेकर स्थूलभद्र पर्यन्त पट्टपरम्परा का उल्लेख भी इस प्रकीर्णक में किया गया है / इसप्रकार इस प्रकीर्णक में प्राचीन जैन इतिहास का परिचय दिया गया है / तित्थोगाली प्रकीर्णक के अज्ञात रचनाकार ने प्रारम्भिक मंगल गाथाओं में सर्वप्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव को तत्पश्चात अजितनाथ आदि मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों को और अन्त में तीर्थकर महावीर को वन्दन किया है / फिर श्रमण संघ को वन्दन करके श्रुतज्ञान से जनसाधारण को अवगत कराने हेतु रचनाकार कहता है कि महावीर ने राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में गणधरों को एक लाख पदों में विस्तारपूर्वक जो श्रुतज्ञान कहा था, मैं उसके अति संक्षिप्त और अति विस्तार को छोड़कर उसे साररूप में यहाँ कहता हूँ (गाथा 1 - 6) / मंगल और अभिधेय के पश्चात् ग्रन्थकार कहता है कि लोक में भरत तथा ऐरावत क्षेत्र में यह काल अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी के रूप में परिवर्तित होता रहता है, शेष क्षेत्रों में यह अवस्थित रहता है / अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल का प्रमाण बतलाकर विद्वान लेखक ने दोनों प्रकार के आरों का वर्णन किया है और सुषमा-सुषमा तथा दुःषमा-दुःषमा आरों का काल प्रमाण निर्दिष्ट किया है / बारह आरों का कालप्रमाण जैसा अन्य शास्त्रों में भी वर्णित है, बतलाने के पश्चात् कर्मभूमि तथा अकर्मभूमि का कथन करके प्रथम सुषमासुषमा नामक आरे का विस्तारपूर्वक विवेचन करते हुए कहा है कि इस काल में भरत तथा ऐरावत क्षेत्रों में भी दस कुरुओं के समान अकर्मभूमि होती है / इस काल में इन क्षेत्रों की भूमियां मणि-कनक से विभूषित होती हैं और पांच वर्ण के रत्न और मणियों से तथा भित्तिचित्रों से सुशोभित होती हैं / यहाँ बावड़ियां, पुष्करिणियां और दीर्घिकाएँ स्थान-स्थान पर सुशोभित होती हैं उनका स्वच्छ वशीतल जल मधुघृत, इक्षुरस तथा श्रेष्ठ वारूणि के समान होता है, जिनमें भित्र-भिन्न जाति के कमल सुशोभित होते हैं, स्थान-स्थान पर कामक्रेलिलतागृह और उनमें विचित्र प्रकार के रत्नचित्रित आंगन होते हैं, जहाँ मणि तथा कनकशिलाएँ दृष्टिगोचर होती हैं / यहाँ ग्राम, नगर आदि सुरालयों के समान होते हैं / इस काल में असि, मसि, कृषि तथा राजधर्म का कोई व्यवहार नहीं होता है / मैथुनधर्म पाया जाता है, किन्तुस्वामी-सेवक (प्रेष्य) का कोई व्यवहार नहीं होता है / यहाँ के निवासी सदा अनुपम सुख का अनुभव करते हैं, इनका श्वासोच्छ्वास भी नीलकमल के समान सुगन्धित होता है, वे निर्भय, गंभीर, दयालु और सरल स्वभाव वाले एवं अपरिमित पराक्रम तथा बल से सम्पत्र होते हैं / अहमिन्द्र व ऋषभ-नाराच-संहनन के धारक एवं मानोन्मान से मुक्त होते हैं / वे सर्वाङ्गसुन्दर, सुरूप, सौभाग्यशाली, मृगराज के समान पराक्रमशाली और श्रेष्ठ गजगति तथा श्रेष्ठ बत्तीस लक्षणों के धारक होते हैं / वे पृथ्वी से प्राप्त पुष्प तथा फलों काआहार करते हैं / इस काल में इन क्षेत्रों में पृथ्वी का रस शक्कर या मिश्री के समान होता है और पुष्प तथा फल भी अनुपम रसयुक्त, स्वादिष्ट एवं अमृत रस से भी ज्यादा श्रेष्ठ होते हैं / पांच Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 : पं० कन्हैयालाल दक भरत, पांच ऐरावत, पांच देवकुरु तथा पांच उत्तरकुरु इन बीस क्षेत्रों में प्रथम आरा होता है / यहां उत्पत्र होने वाले पुरुषों की जघन्य आयु तीन पल्योपम तथा उत्कृष्ट आयु चार . कोटिसागर की होती है / शरीर की ऊँचाई तीन कोस की होती है। पूर्व में किये गये सुकृत के कारण इन क्षेत्रों के मनुष्यों की इच्छापूर्ति कल्प वृक्ष करते हैं, जिनके नाम इसप्रकार हैंमत्तंगा, भुंगा, त्रुटितांग, दीपज्योति, दिव्यज्योति, चित्रांग, चित्तरस, मणितांग, गेहागार और . अनग्न ये दसों प्रकार के वृक्ष सभी इच्छाओं की पूर्ति करते हैं, जिसका विशद वर्णन इस ग्रन्थ में उपलब्ध होता है / देवकुरु, उत्तरकुरु क्षेत्रों में ये वृक्ष शाश्वत रूप से पाये जाते हैं जबकि भरत और ऐरावत क्षेत्रों में ये वृक्ष सदैव नहीं पाये जाते हैं / यहां के प्राणी अपनी आयु का कुछ काल अवशेष होने पर मैथुनधर्म का सेवन करते हैं, सन्तानोत्पत्ति करके मृत्यु को प्राप्त करके देवत्व को प्राप्त होते हैं / ये बड़े कोमल स्वभाव के होते हैं, अक्रोधी और ऋजु स्वभावी होते हैं / तप, नियम तथा संयम के कारण ये सभी दुःखों से मुक्त होते हैं, ये प्राणी बिना तप, नियम व संयम के भी देवलोक में विशिष्टतर विषयसुखों को प्राप्त करते हैं (गाथा 26-54) / प्रथम आरे के पश्चात् द्वितीय, तृतीय यावत्, षष्ठम् आरे का विद्वान् ग्रन्थकार ने अत्यन्त भावपूर्ण व रमणीय वर्णन प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रत्येक आरे में लोगों के आयुष्य, शरीर की शक्ति, ऊँचाई, बल, बुद्धि, शौर्य आदि का क्रमशः हास होता हुआ बतलाया गया है। आगे कुलकरों की उत्पत्ति, कल्पवृक्षों के नाम तथा उनके द्वारा होनेवाली मानव समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति, भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर तक सभी तीर्थङ्करों के च्यवन कल्याणक की प्ररूपणा एवं जन्म कल्याणक का विशद वर्णन किया गया है / तत्पश्चात् पाँच भरत और पाँच ऐरावत इन दस क्षेत्रों में एक साथ उत्पन्न होने वाले दसों तीर्थङ्करों की माताओं के चौदह स्वप्नों का वर्णन तथा उन श्रेष्ठ नररत्नों के जन्म एवं मोत्सव का अत्यन्त रोचक तथा आहलाददायक वर्णन किया गया है। पांच ऐरावत तथा पांच भरत क्षेत्रों में दस तीर्थकर हुए हैं, उनका जन्माभिषेक करने के लिये हम देवता भक्तिभाव तथा उत्साह से चलें' ऐसा सभी देवताओं को कहकर देवाधिपति शक्र मनुष्यलोक में आते हैं / 64 दिशाकुमारियों का प्रासंगिक वर्णन भी इसी संदर्भ में पठनीय व माननीय है (गाथा 63 - 273) / भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती तथा पुत्री ब्राह्मी आदि युगलों का वर्णन, ऋषभदेव के द्वारा स्थापित की गई 'विनीता' नगरी, शिल्पशिक्षा, राज्य का बँटवारा, चक्रवर्तियों की सेना, उनके चक्र एवं उन सबकी निधियों का अत्यन्त रोचक वर्णन प्रकीर्णककार ने किया है / चक्रवर्ती के चौदह रत्नों का तथा उनकी नगरियों का अत्यन्त लाक्षणिक वर्णन भी प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है (गाथा 282-304) / उपरोक्त दसों क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले तीर्थङ्करों के देह का वर्णन भी ग्रन्थकार ने ग्रन्थ में किया है। एक गाथा में उनके संहनन तथा संस्थान का वर्णन भी कर दिया गया है। इसके पश्चात् तीर्थङ्कर चक्रवर्ती, बलदेव तथा वासुदेवों की आयु प्रमाण एवं शरीर की ऊँचाई का वर्णन किया गया है / भगवान ऋषभदेव के शरीर की ऊँचाई 500 धनुष की Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थोगाली प्रकीर्णक और प्राचीन जैन इतिहास : 233 थी, जो घटते-घटते भगवान पार्श्वनाथ के शरीर की ऊँचाई नौ हाथ की तथा महावीर के शरीर की ऊँचाई सात हाथ की बतलाई गई है (गाथा 368) ।ऋषभदेव का आयुष्य चौरासी लाख पूर्वका था, जो घटते-घटते पार्श्वनाथका 100 वर्ष का तथा महावीर का आयुष्य केवल 72 वर्ष का वर्णित किया गया है / यह आयुष्य का वर्णन पांचवें आरे का है / छठे आरे में आयु, शरीर की ऊँचाई, बल, बुद्धि, शौर्य, वीर्य क्रमशः हीन और हीनतर होते चले जाएगें, यह सब कालचक्र की महिमा है / कौन-कौन तीर्थङ्कर कुमार अवस्था में रहे? कौन राजा अथवा चक्रवर्ती एवं तीर्थकर दोनों पदों को सुशोभित करने वाले हुए ? इसका वर्णन किया गया है (गाथा 376-388) / भगवान ऋषभदेव पूर्वभव में चौदहपूर्वो के धारक थे तो बाकी 23 तीर्थङ्कर पूर्वभवों में ग्यारह अंगों के ही ज्ञाता थे (गाथा 391) / चौबीस तीर्थङ्करों की निष्क्रमण-नगरी, उनकासमय तथा उनके साथ प्रव्रजित होने वाले स्त्री-पुरुषों की संख्या का निरूपण भी ग्रन्थ में किया गया है (गाथा 392-395) / चौबीस तीर्थङ्करों ने दीक्षा लेते समय क्या-क्या तपस्या स्वीकार की थी और उन्हें प्रथम भिक्षा प्राप्ति कहाँ और कब हुई, इसकी महिमा का सुन्दर वर्णन गाथा ४००से ४०२में किया गया है / तीर्थङ्करों को केवलज्ञान की प्राप्ति किस काल में हुई ? इसका संकेत गाथा 403-404 में किया गया है, जबकि गाथा ४०५में 10 धर्मतीर्थों का कथन किया गया है / इसके पश्चात् सभी 24 तीर्थङ्करों की केवलज्ञान भूमियों, चैत्यों तथा चैत्यवृक्षों के नामों का वर्णन किया गया है (गाथा 406-411) सभी तीर्थङ्करों को केवलज्ञान की प्राप्ति कौनसे माह, पक्ष, तिषितथा नक्षत्र में हुई, इसकी प्रामाणिक जानकारी इस ग्रन्थ में दी गई है (गाथा 412-421) / केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् उनके समवसरण (धर्मसभा) की रचना देवता किस प्रकार से करते हैं, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी तथा वैमानिक देवताओं की क्या-क्या भूमिका होती है तथा मनुष्य, तिर्यञ्च, देवता कहाँ बैठते हैं, कहाँ उपदेशामृत का पान करते हैं और सभी अपनी-अपनी भाषाओं में कैसे उपदेश ग्रहण करते हैं, इन सब बातों का अद्भुत वर्णन ग्रन्थ में किया गया है (गाथा 422-447) / ग्रन्थ में देवताओं के द्वारा तीर्थङ्करों को नमस्कार करने व उनकी पूजा, स्तुति करने का जो वर्णन है, वह अत्यन्त प्रशंसनीय है / जैनधर्म के.२-४ तीर्थङ्करों में से प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्कर का धर्म सप्रतिक्रमण' है, जबकि मध्यवर्ती 22 तीर्थङ्करों का धर्म कारण विशेष उपस्थित होने पर ही प्रतिक्रमण करने का विधान करता है / प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्कर को छोड़कर मध्यवर्ती 22 तीर्थङ्कर केवल सामायिकचारित्रका उपदेश देते हैं जबकि प्रथम तथा अन्तिमतीर्थकर छेदोपस्थापनिक चारित्र का उपदेश देते हैं, यह संकेत भी ग्रन्थ में दिया गया है (गाथा 448-450) / .... प्रस्तुत ग्रन्थ में चौबीस तीर्थङ्करों के गणधरों तथा शिष्यों की संख्या का प्ररूपण किया गया है (गाधा 452-470) / आगे की गाथाओं में चौबीस तीर्थङ्करों के शिष्य परिवार, तीर्थङ्करों के माता-पिता तथा उनके समकालीन राजाओं का जो वर्णन किया गया है (गाथा 471-495), वह जैन साहित्य के इतिहास पर अनुसंधान करने हेतु नया विषय हो सकता है / गाथा ४९६से 526 तक चौबीस तीर्थङ्करों के काल का अन्तर निरूपित Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 : पं० कन्हैयालाल दक है, तत्पश्चात गाथा 527 से 561 तक तीर्थङ्करों के सिद्भिगमन के समय में कौन से आसन थे तथा किस तपस्या के साथ उन्होंने मोक्ष को प्राप्त किया ? इसकी मार्मिक विवेचना है। . इससे स्पष्ट तौर पर यह ध्वनित होता है कि मोक्ष को प्राप्त करने तक भी तपस्या आवश्यक . ही नहीं अत्यन्त आवश्यक है। इसके पश्चात चौबीस तीर्थङ्करों के माता-पिताओं की गतियों का वर्णन किया गया है (गाथा 567-568) / आगे बारह चक्रवर्तियों के नाम, समय तथा गतियों का वर्णन किया गया है, जिनमें आठ चक्रवर्ती मोक्ष में गये हैं, ऐसा संकेत है (गाथा 569-576) / तत्पश्चात् वासुदेव तथा बलदेवों के नाम, उनकी ऋद्धि तथा माता-पिताओं के नाम, उनके पूर्वभवों के नाम, पूर्वभव के धर्मगुरुओं के नाम एवं नगरियों का वर्णन किया गया है (गाथा 602-609) / ग्रन्थ में 9 प्रतिवासुदेवों के नामों का भी उल्लेख हुआ है (गाथा 610) / जिस रात्रि में अन्तिम तीर्थकर महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए, उसी रात्रि में पालक राजा का राज्याभिषेक हुआ, इस प्रसंग को लेकर गाथा ६२०से 627 तक पालक, मरूक, पुष्यमित्र, बलमित्र, भानुमित्र, नभसेन, गर्दभ आदि राजाओं के राज्यकाल का तथा दुष्टबुद्धि नामक राजा के जन्म का वर्णन किया गया है / कल्कि के पुत्र दत्त के राज्याभिषेक का वर्णन, नन्दीसूत्र की भांति संघ की स्तुति तथा दत्त की वंश-परम्परा का वर्णन है (गाथा 690-697) / ग्रन्थ में यह भी कहा गया है कि भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति को 64 वर्ष हो जाने के पश्चात् अन्तिम तीन चारित्र, मनःपर्ययज्ञान, परमावधिज्ञान तथा पुलाकलब्धि भी एक साथ तित्थोगाली' के निर्देशानुसार विच्छिन्न हो जाएगें / (गाथा 698-700) / ग्रन्थ में उल्लेख है कि भगवान महावीर के निर्वाण के 170 वर्ष पश्चात स्थूलभद्र नामक आचार्य के बादं चौदह-पूर्वो का भी विच्छेद हो जाएगा (गाथा 710) / इस प्रकीर्णक में कल्कि राजा का जो समय दिया गया है वह भी आगम शोधक विद्वानों, विशेषकर आगम प्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी की दृष्टि में असंगत है / ग्रन्थ की गाथा 708 से 806 तक महावीर से लेकर भद्रबाहु स्वामी तथा स्थूलभद्र नामक आचार्य की पट्ट-परम्परा का उल्लेख है, जिसमें उस कथानक का भी उल्लेख है कि स्थूलभद्र की सात बहनें जो ज्ञान व चारित्र से सम्पत्र हैं, स्थूलभद्र के दर्शन के लिये आती हैं तब स्थूलभद्र मुनि श्रुतऋद्धि' का प्रदर्शन करते हैं, वे सिंह का रूप धारण करते हैं, इससे बहनें भयभीत हो जाती हैं / स्थूलभद्र के गुरु भद्रबाहुस्वामी उन्हें प्रायश्चित देते हैं, लेकिन उसके बाद पूर्वो का ज्ञान नष्ट हो जाता है / इस एक अपराध के लिये सब मुनिगण क्षमायाचना करते हैं, लेकिन गुरु भद्रबाहुस्वामी कोशा नामक वेश्या का पूरा कथानक कहकर 'ऋद्भिगारव' का सेवन करने से श्रुतज्ञान का नाश तथा चार पूर्वो का ज्ञान नष्ट होने का रहस्य समझाते हैं / गाथा 807 से 836 में श्रुतज्ञान का क्रम से विच्छेद होने की प्ररूपणा की गई है / कब, किस शास्त्र ज्ञान का विच्छेद होगा, इसका बहुत सुन्दर वर्णन इस ग्रन्थ में उपलब्ध होता है / ग्रन्थ में आचार-धर्म के नष्ट होने का भी संकेत किया गया Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थोगाली प्रकीर्णक और प्राचीन जैन इतिहास : 235 प्रस्तुत म्रन्थ में केवल दो ही चारित्र (सामायिक और छोदोपस्थापनीक) होने का विधान गाथा 867 में किया गया है / इसके पश्चात् गणिपिटक को द्रव्य की दृष्टि से नित्य और पर्याय की दृष्टि से अनित्य कहकर स्यावाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है / गाथा 872 में बतलाया गया है कि जो प्रमाण और नय से सुसज्जित स्यावाद की निन्दा करता है, वह सम्पूर्ण प्रवचन की ही निन्दा करता है / गाथा 924 से 975 तक छठे आरे का अत्यन्त भयानक व वीभत्स वर्णन किया गया है, जिसे सुनने और पढ़नेसे ही हृदय कम्पित हो जाता है / गाथा 976 से 1024 तक आगामी उत्सर्पिणी काल के छः आरों का वर्णन उलटे क्रम से किया गया है और बाद में आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थङ्कर 'महापद्म' का वर्णन किया गया है, जो आगामी उत्सर्पिणी काल के प्रथम आरे में जन्म धारण करेंगे। इसके बाद महापद्म तीर्थङ्कर के जन्मोत्सव, दीक्षा, श्रमणपर्याय तथा मोक्ष प्राप्ति का वर्णन किया गया है। प्रकीर्णक के अन्त में लेखक ने कहा है तेत्तीसं गाहाओ दोनि सता ऊ सहस्समेगं य / तित्थोगालीए संखा एसा भणिया उ अंकेणं / / - (गाथा 1261) उपरोक्त गाथा के आधार पर इस ग्रन्थ की गाथा संख्या 1233 ही होनी चाहिए, लेकिन आज गाथाएँ 1261 उपलब्ध होती हैं, इसका अर्थ यह है कि किसी अन्य मुनि या विद्वान ने 28 गाथाएँ अपनी ओर से प्रक्षिप्त कर दी है। __ इसप्रकार हम देखते हैं कि तित्थोगाली प्रकीर्णक में प्राचीन जैन इतिहास का विस्तृत विवेचन हुआ है / विशेष रूप से यह वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभ से लेकर चौबीसवें तीर्थकर महावीर तक का विवरण तो प्रस्तुत करता ही है साथ ही महावीर के पश्चात् के लगभग एक हजार वर्ष के इतिहास को भी प्रस्तुत करता है / इसलिए प्राचीन जैन-इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। प्रवक्ता सुरेन्द्र कुमार सांड शिक्षा सोसाइटी . द्वारा-अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैनसंघ बीकानेर (राज.) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISIBHASIYAIM* (A Jaina Text of Early Period) Prof. Walther Schubring (Submitted by E. Sieg at the session of den Nachrichten der Akademic der wissenschaften 24 Gottingen, 19th June 1942) Of the Isibhasiyaim (Rsibhasitani) we have only scanty and mutually contradictory statements from ancient times. The mere name appears in the lists of literature not included in the Angas as found in the Nandi (Agamodayasamiti 202 b, Weber, Verz. II 697) and the Pakkhiya (Devachand Lalbhai Pustakoddhara 4, 66 a), among the kaliya texts of the Jainas, i.e. those works which (in contrast to the ukkaliya) were destined for the study hours in the daily time-table. Thana 506a, on the other hand they appear as the third chapter of the 10 Panhavagaranain, the 10th Anga, in the shape of which come down to us, however, they are not contained. Samavaya 68 a, they have 44 ajjhayana, while Jinaprbha in his Vihimaggapava composed in s. 1363 (Weber p. 864-880) ascribes 50 sections to them. Haribhadra, when commenting on Avassayanijjutti 2, 6, identifies them with the canonical Painna (Prakirnaka) named Devindatthao, and when commenting on Av. 8, 5 obviously with the Uttarajjhayana. For details, Weber's Indische Studien vols. 16 and 17 be referred to. Thus, already at an early time, there was uncertainty regarding a work which the author of the Av. known under the famous name of Bhadrabahu mentions among these (Av. 2, 6, cp, Leumann, Uebersicht ueber die Avasyaka-Lit, p. 24b) which he intended to write a scholastic treatise (nijjutti). If he did carry out this intention, his work is however, so far as we know, not preserved. The original is mentioned by the Jaina-Granthavli (p. 80) for * by courtesy : Isibhasiyaim, L.D. Series 45, L.D. Institute of Indology, Ahmedabad, 1974, page 1-12. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Isibhasiyaim : 237 several libraries, but the individual lists of Jesalmer, Limdi, and the former Deccan College of Poona do not contain it. Thus, attention was necessarily roused when in 1927 at Indore an unpretentious pamphlet (43 pages, price 3 annas) appeared under the title "Srimadbhih prtyekabuddhair bhasitani Rsi-bhasittasutrani". It contains the text following below, and, as addenda, two Samgahani, which probably had been handed down together with it, for a long time, and in which the names of the Rsis? (6 gahas), and the catch-words of their utterances (4 gahas) as well as the above-mentioned quotations from Thana, Samavaya, and Pakkhiya with their commentaries, are put together. That we have the old Isibhasiyaim before us, cannot be doubted. Numerous, indisputably genuine reminiscences in language and style link the work up with the Ayara', the Sayagadathe Uttarajjhayana, and the Dasaveyalia, the seniors of the canon. Just Leumann (loc. cit. p. 1) compares the Avasyaka, on account of its daily utilization, with the Lord's Prayer, one might liken the latter four texts, in view of their importance, at least for the Svetambara Church, to the four Gospels, and add the Isibhasiyaimas an apocryphical fifth one, just as at the side of the original Gospels more than one apocryphical Gospels were placed. According to brahmanical model, the Jainas use the word rsi in the sense of muni; in ecclesiastic names too either appears as well as the other, cp. Candra-rsi. In the Isibhasiyain, however, a special meaning intrudes, since the speakers of the text are considered as pratyeka-buddhas, and also appear as such in tradition, just as the title of our printed pamphlet and the colophon of our MS. too are composed accordingly. The case of the Isimandala (pagarana), which will have to be referred to repeatedly later is similar. The idea of a pratyeka-buddha, i.e. a man who is arrived at the highest knowledge by himself, like the buddha, but unlike the later, did not form a community or school, has proved very useful for purposes of propaganda. It made it possible to claim for the Jaina faith men how originally stood aloof from the latter. Of this possibility, the author of our text has made good use by introducing number of names of vedic Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 : Prof. Walther Schubring brahmanic character and of Buddhist competency. But that he did have pratyeka-buddhas in view, follows also from the fact that to each of the speakers a buitam, a mere dictum, is assigned, for therewith, their intention of teaching is denied. If the latter were present, we should find pannattam. For, the 45 sections of the Isibhasiyaim are, with one exception, based on the principle that a more or less laconic dictum stated to have been uttered by a Rsi, is discussed more or less minutely, and concluded with a stereotype final phrase culminating in ti bemi, the exception is formed by No. 20, which lacks in Rsi and it is perhaps due to it that the Samavaya speaks of only 44 ajjhayana. On the whole, the Isibhasiyaim are a row of uniform sections strung together. In them, we distinguish the motto, the exposition separated from the latter by the name of the Rsi, and the conclusion. The conclusion is everywhere the same and needs not to be discussed here, it is in prose. Motto and exposition have each prose and verses or either of the two. According to its nature, the execution is much more diffused than the motto; in the last, the 45th section, it comes to 51 stanzas without any prose, in the 24th, with prose, still to 40, in the 9th to 33. In Nos. 42-44 however, it is missing. In Nos. 1, 4, 7, 42, 44, the motto has, besides the prose, one or also only half a sloka, in Nos. 2, 5, 29, 38, 43, it consists only of the latter two, in 30, one pada must suffice, Nos. 17 and 45 have 2 stanzas. No. 33 the Rsi-name is separated from the prose motto, a preamble of 7 slokas. In the proportion of motto by 16 doubtlessly executing stanzas; in No. 28 we find 20 stanzas before the name, 4 after it. Even though the latter draw the conclusion from the former (control vice desire), still the latter could scarcely be considered formally as the motto. It is the same in No.41, where the ascetic by disposition is confronted with the bread-ascetic. In both cases, the concluding 4 stanzas, to judge from the metre, bring illustrations from the other poems. In No. 36, the Rsi-name has obviously been pushed ahead by 2 lines in the usual form. Its indication is missing in No. 25, here, Yaugamdharaana is implicitly to be understood as the Rsi. In the case of this speaker - the Samgahani names in his Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Isibhasiyaim : 239 place Ambada, who however only poses the opening question - , the insertion of the piece reminding one of canonical dialogues is understandable. Not so is that of No. 20, where, it is true, we are reminded of the canon, but where decidedly no Rsi, not to speak of the Rsi-bhasita, is to be found. ... By designating the originator of the section as ukkatavadi, the Samgahani referred to circumvents the difficulty and can speak of 45 Rsis. For, it states that 20 Rsis belong to the time of Aristanemi, 15 to that of Parsva, and 10 to that of Vira. The same is stated by Isimandala 45 f. (cp. Weber II 948), and this likewise without intimating which "patteyabuddha" fall into the period of which Tirthamkara. A plan in the order of the men is noi noticeable, only in the second half a few who belong together are found close to one another, cp. 29, 31, 32, 34, 37 (these according to the shape of the names); 33, 35; 39, 40 and a final group 42 - 45 is formed by the Lokapalas, and this for the matter of that, so scantily that the first three, as though they were only stop-gaps, are disposed off without the exposition of their mottoes. For our inspection, a grouping other than the pseudohistorical one recommends itself. In Jannavakka=Yajnavalkya (12), Bahuka, i.e. Nala (14), Soriyana, cp; Sauryayani (16), Aruna Mahasalaputta (33), cp. Aruni, and the latter himself : Addalaga=Uddalaka (35), the brahmanical prototypes known to us, clearly.come to light. The epithet mahana-parivvayagastamps Pinga (32), Isigiri (34) and Sirigiri (37) as Brahmans; the parivvayaga Ambada4 belongs here, as well as his interlocutor Jogamdharayana (25). Thus also Madhurayana (15) Ariyayana (19), and vitta Tarayana (36), who are not described in detail, and about the last of whom along with some others, one more word will have to be said just now, as also about Angarisi (4) and Varisavakanha (18). Buddhists appear in mahai-Mahakasava i.e., Mahakasyapa (9) and Sa(t)iputta buddha = Sariputra (38), and in view of the disfigurations of well-known names it is, I suppose not too bold to see in Vajji(ya)putta (2) the head of the school of the Vatsiputras, i.e. Vatsiputra. S Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 : Prof. Walther Schubring For want of clues we canot linger with Pupphasalaputta (5), Ketaliputta (8), Vidu (17) Gahavaiputta taruna (21) Harigiri (24), Matanga (26), and Vau Sacca-samjutta (30). On the other hand, some of the aforementioned ones are known to us from Jaina literature : Bahuya (14), and Divayana (40) we find mentioned in Suyagada 1, 3, 4, 2, the latter with Ambada (26) in Uvavaiya 76 and most exhaustively in the legend of the end of Dvaravati (Jacobi ZDMG 42,493 ff.); Angarisi Bharaddaya (4) is according to Thana 390 a, divided into two sub-gotras of the Goyama (Gautama), named Bhardda and Angirasa, a further one is ibidem, Varisakana, to whom here the Rsi Varisavakanha (18) corresponds ; one wonders whether both forms are not rather based on Varsagana ? Tarayana (36) at last is called Taragana is Suy. 1,3,4, 2, but by Silanka ibid. Narayana Ramagutta, who appears in the same place, is probably the same as Ramaputta (23). While, with the Jainas these Rsis appear only by names, others are the main figures in the stories named after them. For Jogamdharayana, it it true, this can only be inferred from a statement in the Abhidhanarajendra, according to which he occurs in the Avassayacunni, which is not accessible. Deva Naraya (1) makes us think of the Devarsi Narada of the epic, but we are in fact rather concerned with Prince Naraya of Baravai. Vasudeva questions him, this is reported by Yasodeva his Paksikasutratika(Pakkhiya edition 67 a/b) as a Vrddhasampradaya by which perhaps likewise the Avassayacunni is meant : "kim soyam (i.e. saucam) ?" Reply : saccam (satyam) soyam. Question: "kim saccam ?" Naraya, who cannot give information (already the previous question had to be answered by a Tirthamkara), obtains, by meditation, remembrance of former existence, and becomes sambuddha, padhamam ajjhayanam "soyavvam eva" ice-aiyam vadati evam sesani". The same story is Sanskrit Slokas Rsimandalavrtti 47 a (Berlin MS.1912) on the basis of Isimandala st. 43f. (cp. Weber II 948), where Naraya is called kacchullas with the conclusion: Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Isibhasiyaim : 241 adyam adhyayanam satyabhidham ketyasivam yayau(19) iti Navama Narada-Prsi-sambandhah. Here, the first section erroneously gets the name Satya, corresponding to the original (Sacca) a further proof of the insecurity of the tradition. What is reported about Naraya here, is a main feature of the narration, while in other cases, as will be shown in the course of our examination, our text, if a relation can be proved with the present expedients, has something by far more accidental as its starting point. With this it can be compared that from the mouth of Vaddhamana (29), i.e. Mahavira, of his adversary Mamkhaliputta (11) i.e. Gosala Maskariputra, and of his pathmaker Pasa (31) i.e. Parsva, we learn nothing particularly characteristic of them. Every other Jaina Rsi, of our textcould have said the same, only in the case of Pasa, the monk is called a caujjamaa niantha. That the three have been placed at all in the row of the Rsis, is very strange. For the stories, the already mentioned Isimandala and its commentary, the Rsimandalavrtti, among others, supply the basis of the criticism referred to. Asiya Davila (3), originally of course Asita Devala, who, however, is without any relation to the life of the Buddha, with the Jainas, forms a direct connection with our text in Isim. 125. If it is said there: 'bhaviyavvam bho khalu savva-kama-viraena' eyam ajjhayanam bhasittu Devilasuya-rayarisi siva-suham patto. this cannot be separated from the Rsi-word bhaviyavvam khalu bho savvalevovaratenam here. There is no allusion to the fact that King Devilasuta-a matter which is not quite unimportant nearly married his own daughter, Suy. 1, 3, 4, 3 we read about Asila and (?) Devila; Silanka makes two persons of our Rsi, just as there also exists an Asiyakaha. Vagalaciri (Vakkalaciri) ugga-tava (6) is known from Hemacandraa's Parisistaparvan. Not decisive worldly experiences of this Jinistic Rsyasonga however, nor his obtaining pratyekabuddha-ship have been preserved by our text, but it appears that only his childhood, when he lived in the woods like Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 : Prof. Walther Schubring an elephant (matanga), is reflected in the motto of the section. Kummapuita is among the Jaina saints, the model of puremindedness and sincerety of conduct, as can be read in Jinamanikya's K. cariya (ed. Vaidya 1930). Nothing is recorded of the great injury tht befell this monk of dwarfish, but wellproportioned exterior, still it is just the former which is stressed in our chapter. Teyaliputta (10) is known from Nayadhammakahao 14, but the idea that his own actions bring a man to the place where he stands, does not there play the part which one ought to expect from the motto. About Metejja Bhayali (13) we read in Isim. 87 ff. with the help of the Vrtti that Meyajja-as he is simply called there 10 rather suffered deadly maltreatment than betraying kraunca, who picked up the golden rice-grains destined for the princely Jina-puja, to their maker, a gold-smith. Our section harmonizes with this in the minor point that Metejja may have addressed the question of his motto : "Why is no friendliness shown on your side ?" Which, if our interpretation is correct, contains a reproach, to his tormentor. From the remarks on 13 to follow later, it will be clear that the dictum is turned quite differently, so that also the adjoining expression appano vimoyanatthayae cannot be linked with getting free from the torture, Varattaya (27) appears in Isim. 76 rather colourless as Vihuyaraya-mala-varatta-risi. The pratyeka-buddha Varattaka, thus the commentary relates, bestowed composure (ma bhir!-dana) on boys who ran to him frightened, from which happening a courtastrologer could predict to his price the victory over Canda Pradyota, which took place indeed, From this occurance can be derived the motto "sadhu sucaritm avyahata sramana-sampal" if we are right in seeing in these words a praise of the undisturbed company of the sramana. But the counterpart is likewise contained in the narration which towards the end adduces by way of a citation (yad arsam) the stanza : thevo vi gihi-pasngo Jaina suddhasa pankam avadai jaha so Varatta-risi hasio Pajjoya-naravaina. Addaga (28) appears Suy. II 6. as defensor fidie. Nothing of this is mentioned in the section of the Isibhasiyaim Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Isibhasiyaim : 243 bearing his name, which does not contain motto of the usual kind. If the stanzas speak of the worldly desires (Kama) and their control, this goes back to the story of Addaga, which Silanka renders with regard to Suyagadanijjutti 190-200 (edition 387a). There we read that insight into the transitoriness of worldly treasures led Ardrakumara to monkhood. If Samjaya (39) and Divayana, were not standing side by side intentionally, it would be a strange coincidence. We are however not concerned with the epical Samjaya, but with the king" known from Utt. 18 and sanskritized as Samyata. At least in 39, 4 this great huntsman is described, But in the commentary to 39 and 40 a conjucure will be ventured regarding the places of origin of several passages. No bridge leads to the motto from the narrative of Isim. 119, which is exclusively concerned with Samyata. From the pattern of the above-mentioned monstrous forms, one feels tempted to find Samjaya's teacher (Utt. 18 22) as well as that of Khandaga (Vijahapannatti 2, 2), Gaddabhali by name, in Dagabhala (22), whose section is entitled the Gaddabhiya. As now regards Divayana, we know him best, as already stated, from ZDMG 42, 495 ff. 12 as parivvayaga, risi and muni, how cannot abandon his anger about a bodily maltreatment. His buitam in our text, however, deals with the giving up of desire, and though each thirsting for revenge does contain a desire, yet the destruction of Dvaravati is surely not thought of with regard to the iccha. The conclusion of this survey makes Indanaga (44). Dressed in red, he accepted the gifts of many who announced themselves by a drum signal, thus the story to Isim. 95 reports. Under his name, though his motto remains withheld from us, our text is justified in making its reflections about the professional ascetices. Now let us throw a glance of the metrical material of the Isibhasiyaim. They have 452 complete stanzas, and the extent of the adjoining prose can be called large, while the Dasaveyaliya contains 550 stanzas and little prose, the Uttarajjhayana 1-14 501 stanzas and almost no prose. The four and a half hundred stanzas would lead upto the middle of the 9th chapter in the purely metrical 1st half of the Suyagada. Thus, as far as quantity is Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 : Prof. Walther Schubring concerned, the Dasav. stand closest to the new text; the diversity of the meters connects Isibhas. with it as well as with Utt. and. Suy., yet, against like in Dasav., the Slokas from the overwhelming majority. Besides them, there are only 13 stanzas of Vaitaliya and Aupacchandasaka-padas, 9 epic Tristubhas, and 11 Aryas. Some, on the whole unessential, findings regarding the sloka, will be mentioned below in the remarks to chapter 26; regarding Tristubha nothing is to be said. Among the Aryas, in which one includes 3, 4, f. with hesitation only, is one Giti, which occurs twice (12, 2-44, 16), while the old type, appearing in Ayara I (-Bambhaceraim) 9, Suy, I 4 and Utt. 8, is not found. Vaitaliya and Aupacchandasaks are only rarely represented in the canon. The main passage is the chapter Suy. 12, which accordingly is entitled Veyaliya from the metre. Its stanzas are on the whole correctly built, but on the other hand, Utt. 15!3 and Dasav. 10 have correspondingly questionable padas, and such are numerous in the Isibhas. too. Opposite Isibhas. 2,2 f. 8, 4;, 27, 2-7;, 28, 24;, 39, 5, where throughout irregularities or Aupacchandasaka, Tristubha, and Jagati padas occur, only 4, 22 and 27, 1 conform with the demands of the pure Vaitaliya, 8, 1, with the restriction that d is a Jagati-pada. In the same way, 27, 5 a, c 6b are Indravajra-padas is likewise known from Utt. and Dasav. In Utt. 15, they are la, 7a, 8a, 13 a c, 16 a d; or Dasav, 10, where also an Arya-pada and proseline have crept in, Leumann's foot-note (ZDMG 46, p 638) be referred. If in 3, 4f, the Aryas already just now indicated as doubtful, can at all be designated as such, they represent, in reality, a mixture of Aryas, Slokas, and perhaps also prose. In combination, the Arya appears in the shape of "Gahatriple-bars", as they have been called in "Wrote Mahaviras" p. 4 among the Vedha. Such is presupposed in the passage of 37 indicated by java. Short pieces of prose too are known to crop up between the Vedhas.14 Intermingling of prose with verses is found in grand style in the Bambhaceraim, the first part of the Ayara, into which the editor in his time endeavoured to bring some order, whole stanzas, half stanzas, and single padas alternate with unmetrical executions. Exactly the same picture of Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Isibhasiyaim : 245 offered, in the smaller measure, by the mottoes of the Isibhasiyaim. It has already been shown that, leaving complete stanzas aside, in 11 cases a half-or quarter-Sloka appear as representatives of rhythmical language. From all the four "seniors" a bridge thus leads formally to our text, not counting the parallels in language and expression, on which attention will be invited below the text and in the commentary. It is perhaps not only the charm of novelty which makes the Isibhasiyain appear as an original work. To stand opposite a uniform creation is already attractive, if, in the case of its sister creations, Sus., Utt. and Dasav. one has to deal with more or less cleverly and transparently composed compilations, is in the case of the Bambhaceraim, however, which could be compared most preferably, with considerably disturbed contexts, and layers. That our text goes back to one single author, cannot be doubted; the parallelism in the structure of the individual chapters proves this no less than the throughout uniform style and the numerous self-quotations. The stanzas in a metre other than the Slokas may, for a great part, come from elsewhere, one or the other among them is likewise repeated by way of quotation. Yet the author could not manage without greater borrowings eithter. Such a one is No. 25, especially since its beginning taenam, according to the usage of the canon, continues a description, but does not start one. Section 20, void of Rsi and motto, likewise has a form frequent in the canon, and its starting-point, the 5 ukkala, is actually found in Thana 343a. Some prose which reminds us of known pssages may be more or less conscious reminiscence. These foreign feathers however, are covered by the plumage of its own with which our work adorns itself. That is the considered, but not rigidly kept up from and the figurative expression. As considered form is also to be counted the shaping of the motto, so far as it stands in prose; a lapidary mode of speech, which must have been chosen intentionally, in order to characterize the solitary knowers not called upon to be teachers. Disciples of Vaglaciri, Mamkhaliputta, Metejja Bhayayana, Varattaya, to mention only the obscurest of our Rsis, would indeed have stood perplexed Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 : Prof. Walther Schubring before these splinters from the thought-workshop of the master. With us it goes similarly. If lucidity is sinned against here by terseness, the verses, on the other hand, nerly suffer from a surfeit of comparisons. Yet they are in most cases to the point, and if one remembers the renown enjoyed by the after all harmless allegory of the bees, Dasav, 1, the question arises why the Isibhasiyaim, which are so much richer in this respect, have fallen into nearly complete oblivion. We read some strange things in the Isibhasiyaim. Right in the 1st section (1,7.8) the fourth and fifth vows are contracted into one, as though we were still coneerned with the doctrine of Parsva, which did not know as yet of their separation, but which, on the other hand, expressed itself differently. Perhaps, Parsva stood indeed close to the author, and this would also explain the copiousness in the dictum of this "Rsi" (31). Section 20, which has already been referred to repeatedly, must have been especially dear to him, for in view of the super abundance of Rsis which we find among others in the Isimandala, the introduction of an anonymous utktaavadin would not have been necessary, while there is no indication whatever that these expositions have been added later. Before all the last of the five "grand speakers", for whom, as well as for these references in general , the commentary following below should be compared obtains, in the final portion, the explanation correct in itself in the materialistic sense. But while in the Suyagada, to which the passage is closely related with the refutation does follow after all (in II 1, 17) it is missing here, and the reader of No. 20 is left with the impression that the author shares the point of view of materialism. For he himself introduces it, though certainly only in the course of his elucidation, with the words : "therefore I rightly assert the following" (20, line 27), where the first person places itself at the side of those in section 21, 23, 24. We proceed. An allegory carried through, in Indian manner, upto the last point in 26 and 32 is based on the simile of the realization of dharma as of "divine farming" (divva kisi). Are we too sensitive if we remember that the 'breakin of the carth" is forbidden to the Jaina layman by Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Isibhasiyaim : 247 Uvasagadasao 51. and if we therefore feel the pretty comparison as somewhat out of place ? He who uses that simile in 32 is, it is true, a brahmanical wandering monk, just such a one, Sirigiri, announces in 37, like a second Thales, that the world originated from water. Two more cosmogonic theories follow this dictum, till the fourth, presented rather unpretentiously, brings the dogmatically correct idea. Sirigiri, like he just mentioned unjinistic saying, is also that one of the buddha Saiputta in 38; it is only in the third stanza of the section that the idea enjoined upon the Jaina appears. In the two last cases the motto as well as the originator, otherwise the support of whole, are made unworthy of belief. Thus, we have before us number of passages bewldering with regard to the contents. Earlier generations do not seem to have taken offence at this, otherwise the Pseudo-Bhadrabahu would scarecly have intended to annotate the work, as mentioned in the beginning. That the Isibhasiaim have a history, follows from the recording of bio padho in 31. Later on, opposition may possibly have appeared, which led to the neglect of the text. 16 Besides everything mentioned, orthodoxy could take it least of all that the founders Vardhamana Mahavira, Parsva, and the former's adversary Gosala Maskariputra are represented as Pratyekabuddhas in the work. Living side the fact that they were none in any case, Gosala is here obviously more than renegade disciple of Mahavira, and the conjecture already uttered before that the relationship in Viyahapannatti 15, gets confirmed. Other peculiarities, such as wavering in the judging of the riddhi (9 and 45), and the error concerning the agandhana (45), the repeated use of the same motto in 26 and 32, the transformation of current names, the Rsi Ketaliputta besides Tetaliputta, many have been found less striking. They doubtlessly must be laid at the author's door, while frequently the diffective tradition is to be blamed. The apportioning of the findings to author or tradition cannot always be effected without doubt. The mutilation of Vedic names cannot be thought to have heen perpetrated by person who proves his Sanskrit in Sandhi forms like, among other, ego addheyam10, : 2; purariyam 19, line 1; atthi nn esa 20, line 15; vatteya". 24, 11.16. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 : Prof. Walther Schubring in pura janami 21, line 1, in vahni 9, 24; durbuddhi 41, 6 and in the reference to the animal table. Concerning those names, it however be objected that Asia and Dvaipayana and which strongly differ from Asita and Dvaipayana, are also found in other Jaina texts. On no account however can we make the author responsible for those omissions which are to be stated in the begining of 3 and at the end of 10. For these lacunae and various kinds of obvious disorder (cp. 10, 12, 17, 18, 22, 33, 36, 40), the tradition, or rather its contrary, is just as responsible as for the incorrect or unsatisfactory shape of words. Opposite it, the editor often had to resort to conjectures of which the joint sigla HD render account. The right thing can scarcely be expected to have been hit upon in all cases; certain things resisted even conjecture. The translation of the whole has been reserved for the future. For the edition of the text, after all, only two expedients were available. First the above-mentioned printed text, which, for the matter of that is not very accurate. Its unnamed editor too has made conjectures (which partially were useful), by placing words or syllables into parentheses, sometimes also into square brackets. The former have been replaced by regular brackets in our foot-notes. The desire to be able to examine the MS, itself was understandable. If it was true that it was with Acarya-Maharaja Anandasagar Suri, a request addressed to him has in any case not found a response. In a way so much the wortheir of acknowledgement, and thanks to the mediation of my respected friend Muni Jayantavijaya, the Vijayadharma-Laksmi-Mandira, Belaganj, Agra, sent me an undated, rather modern MS. (H), comparing which was not without value, though its wording does not essentially deviate from the print. This MS., and in some cases also the print, writes about a dozen times (especially in the second half of the text) initial p for b (pahue 14 line 9, palavam 22, 7, pahave 28, 3), once medial duppala for dubbala (38, 28). This points to a prototype which designated the soft sound by a dot put into the Pa, as is often found in palm-leaf MS. A second phenomenon familiar from there is the frequent preservation of he tenuis k and p between vowels (e.g. muccati 1, 1; kandakat, Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Isibhasiyaim : 249 6; lokammi 4, 20; ripu 15, 24), where also many cases of wrong analogy occure (e.g. vikincitta 3, 6, jati 4, 3, joko 45, 52), which are marked by italices. The media too has often been saved from being dropped (vadati 1, 1 etc.). Incontrast to these preservations stands the liberty with which the poet occasionaly foregoes declension. About twelve times we find the pure stem. This is obviously what Pischel Gramm. 19 had chiefly in view, when he calls (not with justification) the language of the Dasav, "often much degenerated; the reference to details be reserved to the commentary, for wihch, however, very narrow space limits were drawn. Next follows the text. The foot-notes to the latter are meant accurately to reflect the statements of the two prototypes, up till now the only ones, since also mere slips of the pen can be useful for a geneology of newly to be added MSS. Notes and References 1. And, correspondingly, to-day too. From MS. No.1144 regis tered by Bhandarkar, Report..... 1887-88 ff. (1897) Leumann copied out "the supposed Rsibhasita" (copy-book of his legacy under the title Gautama-kulaka). But the 10 gahas have nothing to do with the text to be discussed just now. 2. The latter are also mentioned in Veber Verz. II 949 from a very defective MS. (vide below). 3. Especially with the Bambhaceraim ed. 1910. Ay. II refers to .: Jacobi's edition 1882. 4. Cp. Charlotte Krause, Prinz Aghata. Die Abenteure Ambadas (Leipzig 1922), p. 155 ff. 5. The Paddhati of the Rsimandalavrtti (Weber II 948) just as it finds a risi in Angarisi, also perpetrates and dissection of Vajji(ya)putta into the two pratyeka-buddhas Vajriand Putra. 6. Ketaliputta looks like a perplexity variant to Tetaliputta (10). Vidu is only the adjective going back to vedic Viduh accord ing to Pischel Gramm. 411. 7. A remark like this latter one may have been the cause why the modern commentary to Jinaprabha's Siddhantagamastavast. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 : Prof. Walther Schubring 9 designates Naraya as the author of the Isibhasiyaim (Kavyamala P. VII. p. 88, reference in Klatt's hand-written Onomasticon). 8. This designation (according to Leumann an adjective in weber II 474) is given to N. in the Nayadhammakahao (Agamod, edition 243 b). Malayagiri takes it for a name (etan-namatapasah 220 a). 9. According to the Senaprasna of subhavijaya (Devchand L. p. 51 1917), 9 Naradas were contemporary to Vasudeva, the 9th of whom was called Unmukha (Abhidhanarajendra 4, 2019). 10. The basic form is of course Maitreya; Metarya is incorrectly sanskritized. 11. Jacobi has conjectured in SBE 45, 80 that this is a wrong rendering of this very same name Sanjaya or Srnjaya. 12.495, 19 he is called Parayana only after his love-affair on an island (dvipa), from which his connection with Krsna Dvaipayana Parasarya Mbh. 1, 63 becomes clear, Uvav 76, Parasara, Kanha, and Divayana are three persons. 13."Wrote Mahaviras" p. 3 centre, "Un., 12" is to be deleted. 14. They are to be distinguished from the Veohas in print in the work of A. C. Sen : "A critical Introduction into the Panhavagaranaim" (Hamburg Dissertation 1936). 15. Suy, proceeds according to the size of the chapter. Utt., apparently without any plan, except that some legendary sections are standing together, and the dogmatic ones towards the end. Dasav. alternates from 4 onwards, between general and special representations (Author, Dasaveyaliya Sutta, transl., Ahmedabad 1932, p. VI). 16. Thus, the translation of Dasaveyaliyareferred to above p. 498 note 15 likewise fall into oblivion, since the Indian publishers do not distribute it for want of agreement with the rendering of Dasay. 5, 1, 73. Ex. Professor University of Hamburg Germany. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE ISIBHASIYAI AND PALI BUDDHIST TEXTS A STUDY* Prof. C. S. Upasak The Isibhasiyai (Rsibhasitani :' c. 2nd-1st cent. B.C.) is the only Praksta Jaina text which incorporates the sayings of some 44 (or 45) seers most of whom, from the later Jaina standpoint, are definitely heretics, or at best are those that belonged to contemporary non-Jaina religious folds. These saints are designated as 'Isi' (Rsi, though not in the same connotation as given in the Brahmanical texts), in this ancient Jaina work. They, moreover, and invariably, are called 'Araha' (Arhat), the two honorific terms are used there as synonyms. 'Isi' is a person gifted with special spiritual powers of insight and intuition, a holy man, an anchorite. In Pali Buddhist texts, 'Isi' occurs as a synonym of "Paccekbuddha", and probably was used in the same sense as implied in the Jaina texts Paccekabuddha attains 'enlightenment' by himself, without any guidance or help of a teacher like the Buddha, but does not indulge in proclaiming and propagating he 'Truth' and so does not found his Sangha'or sect and hence had no following. It appears that, in the Buddhist texts, the Buddha, the Paccekabuddha and the Arhat as terms were somewhat more frequently employed than in the Jaina texts where the term muni became popular for a saint, although all these terms were known to both the branches of the Sramanic culture. Undoubtedly, the term Paccekabuddha has been exclusively used by the Buddhists in early times, the Jainas seemingly adopted it later. In the Buddhist tradition the Paccekabuddha was held in very high esteem and is mentioned along with the Buddha and the Arhat. During the Kusana period, in the early centuries of the Christian era, when the worship of the Buddha became more popular by his thorough deification, the worship of Paccekabuddha also became popular. In the Taxila Scroll Inscription of a Kusana king (year 136/ A.D. 79), exhumed from Dharmarajika stupa along with the relics of the Buddha, the worship of Paccekabuddha is recorded together with the Buddha and the Arhat." * by courtesy : Aspects of Jainology, Vol. III, Pt. Dalsukh Malvania Felicitation, Vol. I, P.V. Research Institute, Varanasi, 1991, Page 68-73. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 : Prof. C.S. Upasak The Isibhasiyajis a text in which, as the later Jaina commen- . taries explain (pointed out also by Walther Schubring), the term 'Isi is used in the sense of Pratyekabuddha, although in the text the term Pratyekabuddha never figures; instead, we largely find Arhat, and sometimes not even "Isi' for a saint. For instance, Satiputta (No. 38) is designated as Buddha (Satiputtena Buddhena Arahata buitar). At most of the places in the Isibhasiai, the assertions of the saints are described as ...... arahata isina buitam, thus specifically calling them both 'Isi' and Arahata (not Pratyekabuddha). The text also refers to an Arahata and 'Isi'(No. 21) who is described as taruna (Young) in age and who was the son of a middle class householder (gahapatiputta) suggesting that usually the isis were of advanced age and hailed from the upper class of the society, mostly Brahmanas and Ksatriyas. Four Brahmana parivrajakas (non-sramanic wanderer-ascetic), namely Pingala (No. 32), Isigiri (Rsigiri) (No. 34), Sirigiri (Srigiri) (No. 37) and Divayana (Dvipayana) (No. 40) are mentioned in the text; while three of them are designated as Arhat and Isi, Isigiri (No. 34) is called only Arhata. Buddhist Influence As we earlier have seen, the Isibhasiyai includes the assertions of a number of sages which definitely are either of Buddhist or Brahmanic folds. A number of its verses are parallel to early Pali Buddhist texts, some of them being almost exactly the same, both in general form and content. This feature of the text points to its being very ancient, probably soon after some of the more ancient texts of the Pali Tipitaka. The inclusion of the sages not belonging to the Jaina, leaves no doubt that the 'sages' or seers intrue sense were equally revered and honoured by other religionists also, notwithstanding their philosophical differences or ecclesiastical and religious practices. The Isibhasiyai in this respect is an illustrious text, indeed very important for the cultural study of ancient India, revealing as it does the cultural commonalty shared by all the religionists of that period. Saintly personges in ancient India were held in the highest esteem by the society and they Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Isibhasiyai and Pali Buddhist Texts A Study : 253 commanded the utmost respect. This fact is known from several sources, but mainly from literature. The accounts of these Isis in the text is called Ajjhayana (Skt. Adhyayana) or 'study of the philosophical views of the sages. However, neither chronological order nor sect-wise grouping can be noticed in the text. It contains rather an arbitrary selection and equally arbitrary ordering of the Isis. The very first Ajjhayana is about Narada. Narada is a popular "Devarsi" in the Brahmanical mythology; in the Pali text also, the personages bearing the name Narada are equally popular. Pali texts mention as many as 18 persons with this application. It is difficult to ascertain the identity of the Narada of the Isibhasiyai with any found in the Pali texts. There is one Thera Narada in the SamyuttaNikaya (II, 115) who declares himself as being aware of the nature of Nibbana, but he is not an Arahanta. The ninth out of the twenty Buddhas was also called by this name (but not Paccekabuddha). Two sages called 'Narada' are mentioned in the Jatakas. One is described as a 'sage', brother of Kaladevala and pupil of Jotipala in the Indriya Jataka (No. 433) and the other is an ascetic, son of sage Kassapa who finds mention in the Cullanarada Jataka (No. 220). Obviously, the Isibhasiai text may have referred to any of these sages having this name, but probably not that of the Brahmanical mythology, as we do not find any hint toward him in the Isibhasiyai. The second saint of the text is Vajjiputta, who is both Arhat and Isi. He is said to have advocated the law of kamma (karma). It is kamma which determines the future birth on the basis of the deeds done in the past. Of the kammas, moha (delusion) is the cause of all sufferings. As the name suggests, he belonged to theVajji (Vatsi) clan of Vesali (Vaisali), and probably a person of some standing. In the Pali Buddhist texts, two Vajjiputta Theras figures, who probably represent one and the same person (Cf. DPPNVol. p. 810, 811). He is called there an Arhat. In the Dhammapadatthkatha (III, 406ff.) he is called 'Raja; probably, then, he belonged to the princely family of Vaisali. The Isibhasiyai perhaps refers to this very Vajjiputta Thera of the Buddhist text. He may be regarded as the one who was the Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 : Prof. C.S. Upasak head of the Vrjjiputras, as Schubring chooses to describe (p. 4). But Vrjjiputra school of thinking flourished somewhat later, probably later than our text.: The name of another sage, Devila (No. 4) of the text figures in the Pali text as Devala and also as Asita Devala (DPPN vol. I, p. 70). And if we take Devila as Devala, we are reminded of a sage who visited the court of Suddhodana, the father of Gautam Buddha, and who prophesied that the child Siddhartha will become a Cakravarti' if he choose to be the ruler, and, if a recluse, would become a Buddha. He is said to have attained various miraculous powers, iddhis (riddhis). Because of his dark complexion and probably to distinguish him from other sage of the same name, he is known as Asita Devala or Kaladevala (DPPN. Vol. Ip. 208). Another sage by the same name is known from the Dhammapadatthakatha (1. 32). He lived in the Himalayas and once, while he was staying with another ascetic named Narada under the same roof, the latter was trodden over in the night : (Cf. DPPN. II, p. 1116), A Paccekabuddha with this name is mentioned in the Theragatha Atthakatha (1.368). At least five persons of this name are found in different Pali texts (cf. DPPN. Vol. I, p. 1116), and it appears that the Isibhasiyai refers to any of them, very probably to Asita Devala. One other saintly personage referred to in the Isibhasiyai is Angirisa Bharaddaya (Angirasa Bharadvaja) (No. 4) who is mentioned several times in the Pali texts as one of the ancient Vedic seers. (DPPN. Vol I. p. 20). A Paccekabuddha bearing that name is also mentioned in the Majjhimanikaya (III, 70) for instance. Even the Buddha is called Angirasa several times in Palitexts (Cf. DPPN. Vol. I, p. 20). The Isibhasiyai probably refers to the Vedic Rsiby this name. An Arahanta Bakkula Thera is referred to in the Pali text who got the initiation at the age of eighty and became emancipated only within eight days after hearing the preachings of the Buddha. Vakkalaciri (No. 6) of the Isibhasiyai is probably different from Bukkula Thera of Pali text, Vakkalaciri probably was a seer of the Brahmanical tradition who used to clad himself with the cloth made Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Isibhasiyai and Pali Buddhist Texts A Study : 255 of bark (valkala). Mendicants with this dress are common in the Brhmanical tradition who used to clad themselves with the cloth made of bark (valkala). (In the Jaina lore, the personality of the Brahmanical "Rsyasonga" has been fused with "Vakkalaciri"). Mahākāsаva (No. 9) is obviously the same person who is known in the Pali texts as Mahakassapa, one of the most eminent disciples of the Buddha. He had attained a very high level in the saintlihood. He, in point of fact, is the same great patriarch who presided over the First Buddhist Council held at Ragarha in order to make the collection of the words of the Buddha soon after his Mahaparinibbana. (DPPN.Vol. II, pp. 476-483). The prose and the verses occurring in the Isibhasiyajin his context deal with the theory of Kammavada as propounded by the Buddha which supports the authenticity of the text. The text's statements ascribed to Mahakasava are true, as they should be upheld by one of the Buddha's main disciples like Mahakassapa. Mankhaliputta of the text (No. 11) is obviously "Makkhali Gosala", one of the six heretical teachers mentioned in the Pali texts, who were contemporary to the Buddha. He is also known to the Jaina texts, particularly the Vyakhyprajnapti. Gosala had his own followers and his own Sangha. In the Buddhist Pali texts he is described as Sanghi and Gani which suggest that he was enjoying a high status among the mendicants of Buddha's time. He is said to have propounded the view that there is no cause either ultimate or remote for the depravity of beings or for their restitute. But his views are confused and difficult to understand : (DPPN. Vol. II, pp. 398400). So we find here, in the Isibhasiyai, as rightly pointed out in its commentary; that while the stanzas 1-4 deal with the acquired knowledge. the stanza 5 contradicts the moral insight : (Isibhasiyai, p. 107). During the life time of the Buddha, a sage Uddaka Ramaputta was renowned for ascetic practices. As is recorded, the Buddha also went to him for instructions soon after leaving his home as a wanderer. Although the Buddha abandoned him for finding him not 'perfect', he held him in high regard because of his spiritual Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 : Prof. C.S.Upasak attainments. In the Isibhasiyai (No. 23) we find him described both Araht and Isi. He is said to have beleived that, by purifying the eight types of defilements (mala), one reaches a stage where he remains for ever. In the Pali texts he is said to have attained a state of "neither consciousness nor non-consciousness (Nevasannanasanna), the 'Fourth' Jhana where factors like sukha (happiness) and ekagrata, concentration) exist. The 26th Isiof the Isbhasiyajis devoted to Mayanga who may be identified with Matanga of the Pali texts. However, there occur four persons bearing this name. He may be the one who is said to be a Paccekabuddha : (DPPN. Vol. II, p. 599). The allegory of krsi or tilling of the land as found in the Isibhasiyai may be compared with the description found in the "Kasibharadvajasutra" of the Suttanipata Cf. Gatha77, Khuddakanikaya Vol. I, Nal. Ed., p. 281) and also in the Samyutta-nikaya with a little variation.. Pinga is another Brahmana parivrajaka (No. 32) whose utterances are recorded in the text. His statements may be compared with the saying of the above 'Isi Mayanga'. Both of these Isis compare the life of an ascetic with a farmer who tills the land by the bulls, sows the seeds in the field; so also the ascetics till the land of atma; the tapa or penance is the seed, samyama or moral restraint is like the two nangalas or furrows and ahimsa is the rains of the mendicants. This is the 'divine agriculture' or Dharmagarbha-krsi. Here, again, the allegory is the same as we find in the Suttanipata and in the Samyuttanikaya of the Pali Tipitaka as mentioned in the foregoing. These similar accounts suggests that the ascetics or religious wonderers had to encounter with the people for substantiating their 'unproductive'way of life. The Buddha also had to justify his monastic life by comparing it with the life of a farmer while discussing with Kasi Bharadvaja, a big landlord of his time. Isi Ping of the Isibhasiyai text is said to be a Brahmana Parivrajaka. The Anguttaranikaya mentions one Brahmana named Pingiyani of Vaisali who is said to be the follower of the Buddha. (DPPN. Vol. II, p. 199ff:) Again, in the Samyuttanikaya (I. 35, 60), another Pingiya is described as a Bhikkhu who attined Arhatship. It Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Isibhasiyai and Pali Buddhist Texts A Study : 257 is difficult to descern Pinga of the Isibhasiyai from any of the Pali texts. The Jaina text probably refers to an earlier Pinga from whom a line Pingayani emanated. But the allegorical illustrations are interestingly similar which point to the archaic nature and hence antiquity of the Isibhasiyai. The utterances of the two sages, namely Satiputta and Sanjaya are placed in the text one after another (Nos. 38 & 39). Satiputta has been identified with Sariputta of the Pali canon. He is one of the two "Chief Disciples" (Aggasavakas) of Gautama Buddha, the other is Moggallana. the Buddha has praised Sariputta as 'foremost among theose who possessed wisdom' (Etaggam mahapannanam): He is looked upon as a sage next to the Buddha, as wise in understanding the Dhamma as the Buddha himself. Significantly, in the Isibhasiyai, he is the only saint who is designated as 'Buddha'and 'Arhat'while other sages hold the title of 'Isi' and 'Arhat' or 'Isi' or 'Arhat' only. Probably because of his first grade spiritual achievements he was held in high esteen and reverence by all other religionists of the period. He was probably popular among other sects and equally among the Jaina sairts who also paid him full regard on account of his spiritual attainments. The compiler of the Isibhasiyai probably was aware of the esteemed personality of Sariputta and so calls him 'Buddha'(not isi), and thus, the text in the original linguistic form may be a composition of not later than the 3rd or 2nd cent. B.C, if not still earlier. The other saint Sanjaya, a contemporary of Sariputta (and also of the Buddha and Mahavira) is included in the list of six 'heretical teachers' in the Pali texts. (DPPN. Vol. II, p. 999ff.) He is called there Sanjaya Velatthiputta. Sariputta and Moggallana, the two 'Chief Disciples' of the Buddha were his earlier disciples before they joined the Order of the Buddha. Sanjaya had formed his own Sangha and probably had gathered a good number of followers. It is recorded in the Pali texts that he had died soon after Sariputta joined the Sangha of the Buddha at Rajaglha. Sanjaya of Ishibhasiyai appears to be the same saint who is known to the Pali texts. In the Commentary (Sangrahani) of Isibhasiyai, both Sariputta and Sanjaya are described as non-Jaina Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 : Prof. C.S.Upasak saints in the tirtha (life time) of Mahavira. This indicates the authenticity of the text and also proves that both were contemporary to the Buddha and Mahavira, as also evidenced from other sources. The teachings of the above-noted saints succinctly recorded in the Isibhasiyai and traceable in the early Pali Buddhist texts, are once more points in evidence as regards the venerable antiquity of the text. The author of the text is well aware of the great saints of ancient India and so he records their names and their teachings on the whole fairly/accurately. Thus, this text is one more valuable source for the evaluation of the religious ambience of the times that were contemporary, preceding, and immediately succeeding Buddha and Vardhamana Mahavira. Notes and References 1. Ed. Walther Schubring, L.D. Series 45, Ahmedabad 1974. 2. Cf. Rhys Davids, Pali-English Dictionary: p. 385;R.C. Childers, A Dictionary of Pali Language, p. 309'; Abhidhanarajendra, Vol. V, p. 1325; Tattvarthadhigama of Umasvati, Pt. II (Surat, 1980), p. 309 ; Sarvarthasiddhi Ch. X-9. Also cf. for Rsi in Amarakosa, 2.7.42. Cf. Mahavamsatika XII, p. 277 (Nal. Ed.) 3. Devaputras Khusanasa arogadaksinaye sarvabudhana puyae prcagabudhasa puyae' Epigraphia Indica I, XIV, p. 295, C.I.I., Vol. II, Pt. 1, No XXVI,p.77. 4. DPPN, Vol. II, p. 52ff. * Ex. Director Nava Nalanda Mahavihar, Nalanda (Bihar) Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE DATE OF THE DEVENDRASTAVA : AN ART-HISTORICAL APPROACH* * Lalit Kumar The Devendrastava (Devindatthao) is one of the Prakirnaka works of the Jaina Canonical literature. Subhash Kothari and Suresh Sisodiya have recently published a Hindi translation of Devendrastava alongwith a scholarly introduction, contributed by Prof. Sagarmal Jain'. The language of the existing edition of the work is Maharastri Praksta. However, it is acknowledged by these two writers that there are some manuscripts in which Ardhamagadhi variants of the texts are also available. The Devendrastava is a work of Rsipalita whose name occurs in the Sthaviravali of the Kalpasutra. In this work Rsipalit's name occurs is the twelfth place after Mahavira. Prof. Jain in his succinct discussion has shown that Rsipalita lived in the first century B.C.3 Without going into other detailed arguments put forward by these writers with regard to the dating of the Devendrastava, I would like to extend some more internal art-historical evidences in favour of their early dating of the text. The Devendrastva describes in gatha 82-93 the locale of the Jyotiska gods", number of their vimanas, their sizes, carrier of the Vimanaetc. The gatha no.93 has a specific bearing on the present context. It reads. पुरओ वहंति सीहा, दाहिणओ कुंजरामहाकाया / पच्चत्थिमेण वसहा, तुरगा पुण उत्तरे पासे / / i.e. (the Vimanais) born by lion in the east, a giant elephant in the south, a bull in the west and a horse in the north. :. This is exactly the same order in which the four animals are seen on the abacus of the famous qudripartite lion capital of * by courtesy : Sambodhi, L.D. Institute of Indology, Ahmedabad, Vol. XVIII, 199293, page 74-76. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 : Lalit Kumar Sarnath, erected by Asoka, (B.C. 272-231). So far these animals and the quadripartite lion have been interpreted in their Buddhistic perspective only. A Dharmacakra, originally surmounted on the lion capital was primarily conceived. The Dharmacakra was intended by Asoka to keep the buddhist Samgha intact from the impending danger from schism which had already surfaced in the Buddhist Samgha. This is amply clear from the inscription engraved on the pillar which had once surmounted the lion capital. In this way, Dharmacakra symbolised, not only the time, the eternal truth, but also the solemn desire of the ruler to maintain the Buddhist Samgha intact for time immemorial. To herald this majestic will, Asoka chose Sarnath, as the most appropriate place where Buddha had set the wheel of law into motion. The Dharmacakra was not a sectarian symbol in India. The Dharmacakra is often seen in the art of Bharhut, Sanci, Bodhagaya and Amravatii and also in the Jaina art of Mathura and Causa bronzes. The Dharmacakrais referred to as Brahmanda Cakra, Bhava Cakra, Kala Cakra, Dharma Cakra, and Sudarsan Cakra in Indian literature. It is a Vitta Cakra, a symbol of Visnu and above all it is a wheel of time in the Rgveda. The quadruple lion capital seems to be carrier or the vehicle of the Dharmacakra. According to the description found in the Devendrastava it should be identified as the Jyotiska Vimana. The four animals and the intervening wheels on the abacus represent the chariot of the Jyotiska god or the god of light. The most luminous godof light is the Sun, represented here by the four addorsed lions who look around in all the four directions. The lion is a west-Asiatic art motif which had been assimilated in Indian Art and Culture at a very early period. Thus, the quadripartite lion with the abacus represents aniconic representation of the sun god. This conception of Sun god does not conform to the later iconography of the god in which his chariot is driven by four or seven horses. In this way the Devendrastava provides the earliest literary reference to the interpretation of the abacus of the quadripartite lion capital of Sarnath. It may be pointed out that Sarnath lion Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Date of the Devendrastava : An Art-Historical approach : 261 capital is the only archaeological example of its kind in the realm of Indian art where the conception of a Vimana of a Jyotiska god has been given a concrete shape. In the present example it is the vimana of the Sun god. The Devendrastava also refers to some other kinds of a Vimanas or palaces. These are described as circular, triangular, square (catuskona) or rectangular in shape." It further adds that circular, triangular and rectangular palaces have one, three and four entrances respectively. 8 It perhaps refers to the earliest cave architecture of India which developed during the Maurayan period in Bihar. The Lomas Rsi cave, the Sudama Cave, Viskarma Cave, Karna Cauper Cave etc. of the Barabar Hills, in Rajgir, represent the kind of architecture referred to in the text. However, it does not strictly follow the description. It has to be born in mind that the text is not architectural treatise in detail. It is sufficient for the author of the Devendrastava to refer to the architecture by their shapes. . Most of the Barabar hill caves have an outer rectangular chamber and an inner circular room with a separate opening from the inside only. The main entrance is the side of the rectangular chamber. The doorway has a characteristic converging door jambs and forms a trapezoidal opening. About twenty kilometers away from Rajgir, is another cave called Sitamarhi cave. It also bears the Mauryan polish. It has a rectangular plan with characteristic trapezodial entrance, but it has a semi-eliptical elevation which gives it a triangular look.10 . Thus, a'special reference of the Jyotiska Vimana born by the four animals, as seen on the abacus of the lion capital of Sarnath and a reference to the earliest cave architecture of India, makes the Devendrastava a fairly early text, the antiquity of which can be traced back to the Mauryan period, save for the date of Rsipalita, the author of the text. Rsipalita's name occurs only in Sthaviravali of the Kalpasutra. Once the whole chronology of the Sthaviravali of the Kalpasutra is fixed, it would be easy to provide a precise date to the Devendrastava and its author Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 : Lalit Kumar Rsipalita. Till then, the date of Rsipalita as fixed by Sagarmal Jain seems most logical. Undoubtedly, it should be attributed to a period not later than the first century, B.C. Notes & References 1. Devindatthao (Devendrastava), Subhash Kothari and Suresh Sisodiya (trans.), Agam Ahimsa Samata evam Prakrit Samsthana, Udaipur, 1988 (in Hindi). 2. Ibid, p. xxii. Inspite of its being an early text, the Ardhamagadhi variants have given place to the Maharastri Prakrta by the editors. Editors invariably face a dilemma, when the date of a work is not certain. This makes the editor's task more challenging in the reconstruction of the original text. 3. Ibid., p. xxi 4. The classification of gods is found in all the ancient religions of India. In Jainism gods are classified as Bhavanapati, Vyantara, Jyotiska and Vaimanika. Ona comparative study of Indian religions one finds parallels in the classification of various gods. However, in Jaina religion the Jyotiska gods have been put in a separate class. This class of gods include sun, moon, planet, constellation and stray star. These are dealt in detail because of highly complex cosmological concept which Jainas had evolved in course of time. The Suryaprajnapti is one of the earliest treatise of the Jaina cosmology which is attributed to the third century B.C. But it is silent about the Vimanas of the Jyotiska gods. 5. S.P. Gupta, The Roots of Indian Art, Delhi, 1980, pp. 124-25. 6. A detailed study on the Symbolism of the Sarnath Lion Capital will be published soon by the present author. 7. Devindatthao, gatha 209. 8. Ibid., gatha, 216. 9. Gupta, RIA, pp. 189-192, fig. 2-5. 10. Ibid., p. 197 - 198, fig. 8. $ Asst: Curator L.D. Museum Ahmedabad.