________________ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता : 5 प्रकीर्णक वीरभद्र की रचना कहे जाते हैं-चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताका / आराधनापताका की प्रशस्ति में 'विक्कमनिवकालाओ अद्वत्तरिमेसमासहस्सम्मि था पाठभेद से अट्ठत्तरिमे समासहस्सम्मि', के उल्लेख के अनुसार इसका रचनाकाल ई० सन् 1008 या 1078 सिद्ध होता है / इसप्रकार प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रंथो में जहाँ ऋषिभाषित ई० पू० पाचवीं शती की रचना है, वहीं आराधनापताका ई० सन् की दसवीं या ग्यारहवीं शती के पूर्वार्द्ध की रचना है / इसप्रकार प्रकीर्णक साहित्य में समाहित ग्रंथ लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि में निर्मित होते रहे हैं, फिर भी चउसरण, परवर्तीआउरपच्चक्खान, भत्तपरिण्णा, संथारग और आराहनापडाया को छोड़कर शेष प्रकीर्णक ई० सन की पाचवीं शती के पूर्व की रचनाएँ हैं। ज्ञातव्य है कि महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित पइण्णयसुत्ताइं में आउरपच्चक्खान के नाम से तीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं, इनमें वीरभद्र रचित आउरपच्चक्खान परवर्ती है किन्तु नन्दीसूत्र में उल्लिखित आउरपच्चक्खान तो प्राचीन ही है / यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य अंग आगमों एवं उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र जैसे प्राचीन स्तर के आगम ग्रंथों में भी पायी जाती हैं / गद्य अंगआगमों में पद्य रूप में इन गाथाओं की उपस्थिति भी यही सिद्ध करती है कि उनमें ये गाथाएँ प्रकीर्णकों से अवतरित हैं / यह कार्य वलभीवाचना के पूर्व हुआ है अतः फलित होता है कि नन्दीसूत्र में उल्लिखित प्रकीर्णक वलभीवाचना के पूर्व रचित हैं। तदुलवैचारिक का उल्लेख दशवकालिक की प्राचीन अगस्त्यसिंह चूर्णी में है। इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है / यह चूर्णी अन्य चूर्णियों की अपेक्षा प्राचीन मानी गई दिगम्बर परम्परा में मूलाचार, भगवतीआराधना और कुन्दकुन्द के ग्रंथों में प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएँ अपने शौरसेनी रूपान्तरण में मिलती हैं। मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्यायों में तो आतुरप्रत्याख्यान एवं महाप्रत्याख्यान इन दोनों प्रकीर्णकों की लगभग सत्तर से अधिक गाथाएँ हैं / इसीप्रकार मरणविभक्ति प्रकीर्णक की लगभगशताधिक गाथाएँ भगवतीआराधना में मिलती हैं। इससे यही फलित होता है कि ये प्रकीर्णक ग्रंथ मूलाचार एवं भगवतीआराधना से पूर्व के हैं / मूलाचार एवं भगवतीआराधना के रचनाकाल को लेकर चाहे कितना भी मतभेद हो, किन्तु इतना निश्चित है कि ये ग्रंथ ईसा की छठीं शती से परवर्ती नहीं हैं। ... यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि प्रकीर्णकों में ये गाथाएं इन यापनीय/ अचेल परम्परा के ग्रंथों से ली गयी होंगी, किन्तु अनेक प्रमाणों के आधार पर यह दावा निरस्त हो जाता है / जिनमें से कुछ प्रमाण इसप्रकार हैं..१. गुणस्थान सिद्धान्त उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और आचारांगनियुक्ति की रचना * प्रकीर्णक ग्रन्थों की शौरसेनी आगम से इस दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन की रुचि रखने वाले अध्येताओ के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ में डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय का प्रकाशित लेख 'प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम' ब्रटव्य है। .-सम्पादक