________________ 4 : प्रो० सागरमल जैन चरण समाधिमरण की पूर्व तैयारी और उसकी साधना की विशेष विधियों का चित्रण प्रस्तुत करते हैं / इसप्रकार प्रकीर्णक साहित्य में जैनविद्या के विविध पक्षों का समावेश हुआ है, जो जैन साहित्य के क्षेत्र में उनके मूल्य और महत्त्व को स्पष्ट कर देता है / प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल जहाँ तक प्रकीर्णकों की प्राचीनता का प्रश्न है उनमें से अनेक प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से वे उससे प्राचीन सिद्ध हो जाते हैं / मात्र यही नहीं प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रंथो मेंसे अनेक तो अंग-आगमों की अपेक्षा प्राचीन स्तर के रहे हैं, क्योंकि ऋषिभाषित का स्थानांग एवं समवायांग में उल्लेख है / ऋषिभाषित आदि कुछ ऐसे प्रकीर्णक हैं जो भाषा-शैली, विषयवस्तु आदि अनेक आधारों पर आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध को छोड़कर शेष आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन हैं / ऋषिभाषित उस काल का ग्रंथ है, जब जैनधर्म सीमित सिमाओं में आबद्ध नहीं हुआ था वरन् उसमें अन्य परम्पराओं के श्रमणों को भी आदरपूर्वक स्थान प्राप्त था / इस ग्रंथ की रचना उस युग में सम्भव नहीं थी, जब जैनधर्म भी सम्प्रदाय के क्षुद्र घेरे में आबद्ध हो गया / लगभग ई०पू० तीसरी शताब्दी से जैनधर्म में जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढ़ हो रहे थे, उसके संकेत सूत्रकृतांगसूत्र और भगवतीसूत्र जैसे प्राचीन आगमों में भी मिल रहे हैं / भगवतीसूत्र में जिस मंखलिपुत्र गोशालक की कटु आलोचना है, उसे ऋषिभाषित अर्हत् ऋषि कहता है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, तंदुलवैचारिक, मरणविभक्ति आदि प्रकीर्णक साहित्य के ऐसे ग्रंथहैं-जो सम्प्रदायगत आग्रहों से मुक्त हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों का सम्मानपूर्वक उल्लेख और उन्हें अर्हत् परम्परा द्वारा सम्मत माना जाना भी यही सूचित करता है कि ऋषिभाषित इन अंग आगमों से भी प्राचीन है / पुनः ऋषिभाषित जैसे कुछ प्राचीन प्रकीर्णकों की भाषा का अर्धमागधी स्वरूप तथा आगमों की अपेक्षा उनकी भाषा पर महाराष्ट्री भाषा के प्रभाव की अल्पता भी यही सिद्ध करती है कि ये ग्रंथ प्राचीन स्तर के हैं / नन्दीसूत्र में प्रकीर्णक के नाम से अभिहित 9 ग्रंथों का उल्लेख भी यही सिद्ध करता है कि कम से कम ये 9 प्रकीर्णक तो नन्दीसूत्र से पूर्ववर्ती हैं / नन्दीसूत्र का काल विद्वानों ने विक्रम की पाचवीं शती माना है, अतः ये प्रकीर्णक उससे पूर्व के हैं। इसीप्रकार समवायांगसूत्र में स्पष्टरूप से प्रकीर्णकों का निर्देश भी यही सिद्ध करता है कि समवायांगसूत्र के रचनाकाल अर्थात् विक्रम की तीसरी शती में भी अनेक प्रकीर्णकों का . अस्तित्व था। इन प्रकीर्णकों में देवेन्द्रस्तव के रचनाकार ऋषिपालित हैं / कल्पसूत्र स्थविरावली में ऋषिपालित का उल्लेख है / इनका काल ईसा पूर्व प्रथम शती के लगभग है / इसकी विस्तृत चर्चा हमने देवेन्द्रस्तव (देविंदत्यओ) की प्रस्तावना में की है। इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख सकतें है / अभी-अभी सम्बोधि पत्रिका में श्री ललितकुमार का एक शोधलेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने पुरातात्त्विक आधारों पर यह सिद्ध किया है कि देवेन्द्रस्तव की रचना ई० पू० प्रथम शती में या उसके भी कुछ पूर्व हुई होगी। प्रकीर्णकों में निम्न