________________ साराम सात्वि में प्रकनिकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता : 3 फलित होता है कि प्रकीर्णक ग्रंथों की संख्या दस है, यह मान्यता न केवल परवर्ती है अपितु उसमें एकरूपता का भी अभाव है / भित्र-भित्र श्वेताम्बर आचार्य भित्र-भित्र सूचियाँ प्रस्तुत करते रहे हैं उनमें कुछ नामों में तो एकरूपता होती है, किन्तु सभी नामों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है / जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें तत्त्वार्थभाष्य का अनुसरण करते हुए अंग आगमों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक कहने की ही परम्परा रही है / अतः प्रकीर्णकों की संख्या अमुक ही है, यह कहने का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है / वस्तुतः अंग आगम साहित्य के अतिरिक्त सम्पूर्ण अंगबाह्य आगम साहित्य प्रकीर्णक के अन्तर्गत आता है / इसप्रकार प्रकीर्णक साहित्य जैन आगम साहित्य के अति विशाल भाग का परिचायक है और उनकी संख्या को 10 तक सीमित करने का दृष्टिकोण पर्याप्त रूप से परवर्ती और विवादास्पद है। प्रकीर्णक साहित्य का महत्त्व __ यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय प्रकीर्णकों को आगमों के अन्तर्गत मान्य नहीं करते हैं किन्तु प्रकीर्णकों की विषयवस्तु का अध्ययन करने से ऐसा लगता है कि अनेक प्रकीर्णक अंग आगमों की अपेक्षा भी साधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं / यद्यपि यह सत्य है कि आचार्य वीरभद्र द्वारा ईसा की दसवीं शती में रचित कुछ प्रकीर्णक अर्वाचीन हैं, किन्तु इससे सम्पूर्ण प्रकीर्णकों की अर्वाचीनता सिद्ध नहीं होती। विषयवस्तु की दृष्टि से प्रकीर्णक साहित्य में जैनविद्या के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है / जहाँ तक देवेन्द्रस्तव और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रकीर्णक का प्रश्न है, वे मुख्यतः जैन खगोल और भूगोल की चर्चा करते हैं, इसीप्रकार तित्थोगाली प्रकीर्णक में भी जैन काल व्यवस्था का चित्रण विभित्र भौगोलिक क्षेत्रों के सन्दर्भ में हुआ है / ज्योतिषकरण्डक और गणिविद्या प्रकीर्णक का संबंधमुख्यतया जैन ज्योतिष से है / तित्थोगाली प्रकीर्णक मुख्यरूप से प्राचीन जैन इतिहास को प्रस्तुत करता है / श्वेताम्बर परम्परा में तित्थोगाली ही एक मात्र ऐसा प्रकीर्णक है जिसमें आगमज्ञान के क्रमिक उच्छेद की बात कही गई है / सारावली प्रकीर्णक में मुख्य रूप से शत्रुञ्जय महातीर्थ की कथा और महत्त्व उल्लिखित है / तंदलवैचारिक प्रकीर्णक जैन जीव विज्ञान का सुन्दर और संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता है / इसीप्रकार अंगविद्या नामक प्रकीर्णक मानवीय शरीर के अंग-प्रत्यंगों के विवरण के साथ-साथ उनके शुभाशुभ लक्षणों का भी चित्रण करता है और उनके आधार पर फलादेश भी प्रस्तुत करता है / इसप्रकार इस ग्रंथ का संबंध शरीर रचना एवं फलित ज्योतिष दोनों विषयों से है / गच्छाचार प्रकीर्णक में जैन संघ व्यवस्था का चित्रण उपलब्ध होता है जबकि चन्द्रकंवेध्यक प्रकीर्णक में गुरु शिष्य के संबंध एवं शिक्षा संबंधी निर्देश हैं / वीरस्तव प्रकीर्णक में महावीर के विविध विशेषणों के अर्थ की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या की गई है। चतुःशरण प्रकीर्णक में मुख्य रूप से चतुर्विध संघ के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए जैन साधना का परिचय दिया गया है / आतुर प्रत्याख्यान महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, संस्तारक, आराधनापताका आराधनाप्रकरण, भक्तप्रत्याख्यान आदि प्रकीर्णक जैन साधना के अंतिम