________________ गच्छाचार (प्रकीर्णक ) का समीक्षात्मक अध्ययन : 173 आचार्य स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि आचार्य गच्छ काआधार है, वह सभी को हित-अहित का ज्ञान कराने वाला होता है तथा सभी को संसारचक्र से मुक्त कराने वाला होता है इसलिए आचार्य की सर्वप्रथम परीक्षा करनी चाहिए (7-8) / ग्रन्थ में स्वच्छंदाचारी, दुष्ट स्वभाव वाले, जीव हिंसा में प्रवृत्त रहने वाले, शय्या आदि में आसक्त रहने वाले, अपकाय की हिंसा करने वाले, मूल-उत्तरगुणों से भ्रष्ट, समाचारी का उल्लंघन करने वाले, विकथा कहने वाले तथा आलोचना आदि नहीं करने वाले आचार्य को उन्मार्गगामी कहा गया है और जो आचार्य अपने दोषों को अन्य आचार्यों को बताकर उनके निर्देशानुसार आलोचनादि करके अपनी शुद्धि करते हैं उन्हें सन्मार्गगामी आचार्य कहा गया है (9-13) / ग्रन्थ में कहा गया है कि आचार्य को चाहिए कि वह आगमों का चिन्तन, मनन करते हुए देश, काल और परिस्थिति को जानकर साधुओं के लिए वस्त्र, पात्र आदि संयमोपकरण ग्रहण करे / जो आचार्य वस्त्र, पात्र आदि को विधिपूर्वक ग्रहण नहीं करते, उन्हें शत्रु कहा गया है (14-15) / ग्रन्थ में यह भी कहा गया है कि जो आचार्य साधु-साध्वियों को दीक्षा तो दे देते हैं किन्तु उनसे समाचारी का पालन नहीं करवाते, नवदीक्षित साधु-साध्वियों को लाड़-प्यार से रखते हैं किन्तु उन्हें सन्मार्ग पर स्थित नहीं करते, वे आचार्य शत्रु हैं / इसी प्रकार मीठे-मीठे वचन बोलकर भी जो आचार्य शिष्यों को हित-शिक्षा नहीं देते हों, वे शिष्यों के हित-साधक नहीं हैं / इसके विपरीत दण्ड से पीटते हुए भी जो आर्चाय शिष्यों के हितसाधक हों, उन्हें कल्याणकर्ता माना गया है (16-17) / . शिष्य का गुरु के प्रति दायित्व निरूपण करते हुए कहा गया है कि यदि गुरु किसी समय प्रमाद के वशीभूत हो जाए और समाचारी का विधिपूर्वक पालन नहीं करे तो जो शिष्य ऐसे समय में अपने गुरु को सचेत नहीं करता, वह शिष्य भी अपने गुरु का शत्रु है (18) / जिनवाणी का सार ज्ञान, दर्शन और चारित्र की साधना में बतलाया गया है तथा चारित्र की रक्षा के लिए भोजन, उपधि तथा शय्या आदि के उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि दोषों को शुद्ध करने वाले को चारित्रवान आचार्य कहा गया है, किन्तु जो सुखाकांक्षी हो, विहार में शिथिलता वर्तता हो तथा कुल, ग्राम, नगर और राज्य आदि का त्याग करके भी उनके प्रति ममत्व भाव रखता हो, संयम बल से रहित उस अज्ञानी को मुनि नहीं अपितु केवल वेशधारी कहा गया है (20-24) / ग्रन्थ में शास्त्रोक्त मर्यादापूर्वक प्रेरणा देने वाले, जिन उपदिष्ट अनुष्ठान को सम्यक् रूप से बतलाने वाले तथा जिनमत को सम्यक् प्रकार से प्रसारित करने वाले आचार्यों को तीर्थङ्कर के समान आदरणीय माना गया है (25-27) / ग्रन्थ में उन्मार्गगामी और सन्मार्गगामी आचार्य का विवेचन करते हुए कहा गया है कि सन्मार्ग का नाश करने वाले तथा उन्मार्ग पर प्रस्थित आचार्य का संसार परिभ्रमण अनन्त होता है / ऐसे आचार्यों की सेवा करने वाला शिष्य अपनी आत्मा को संसारसमुद्र में गिराता है (29-31) / किन्तु जो साधक आत्मा सन्मार्ग में आरूढ़ है उनके प्रति