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________________ 44 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया प्रस्तुत ग्रन्थ में मनुष्य की हड्डियों, शिराओं, अस्थियों, नसों, रोमकूपों आदि का संख्यात्मक विवेचन विस्तारपूर्वक निरूपित है।१५ ग्रन्थ में शरीर को सर्वथा अपवित्र और अशुचिमय बतलाते हुए कहा गया है कि शरीर की भीतरी दुर्गन्ध का ज्ञान नहीं होने के कारण ही पुरुष स्त्री के शरीर को रागयुक्त होकर देखता है और चुम्बन आदि के द्वारा शरीर से निकलने वाले अपवित्र स्त्रावों का पान करता है / अतः व्यक्ति को इस दुर्गन्धयुक्त शरीर में आसक्त नहीं होना चाहिए / 16 प्रस्तुत ग्रन्थ में नारी-स्वभाव का चित्रण करते हुए कहा गया है कि स्त्रियाँ स्वभाव से कुटिल, अविश्वास का घर, व्याकुल चित्त वाली, हजारों अपराधों की कारणभूत, पुरुषों का वध स्थान, लज्जा की नाशक, कपट का आश्रय स्थान, शोक की जनक, दुराचार का घर, ज्ञान को नष्ट करने वाली, कुपित होने पर जहरीले साँप की तरह, दुष्ट हृदया होने से व्याघ्री की तरह और चंचलता में बन्दर की तरह, क्षणभर में प्रसन या रूष्ट होने वाली, किंपाक फल की तरह बाहर से अच्छी लगने वाली किन्तु कटु फल प्रदान करने वाली, अविश्वसनीय, दुःख से पालित, रक्षित और मनुष्य की दृढ़ शत्रु हैं / ये साँप के समान कुटिल हृदय वाली; मित्र और परिजनों में फूट डालने वाली, कृतघ्न और सर्वाङ्ग जलाने वाली होती हैं। ___ आगे कहा है कि नानाप्रकार से पुरुषों को मोहित करने के कारण महिलाएँ, पुरुषों को मद युक्त बनाती हैं इसलिए प्रमदा, महान् कष्ट उत्पन्न कराती हैं इसलिए महिलिका तथा योग-नियोग से पुरुषों को वश में करती हैं इसलिए योषित कही जाती हैं / स्त्रियाँ विभिन्न हाव-भाव, विलास, अंगार, कटाक्ष, आलिङ्गन आदि द्वारा पुरुषों को आकृष्ट करती हैं / सैकड़ों दोषों की गागर और अनेक प्रकार से बदनामी का कारण होती हैं / स्त्रियों के चरित्र को बुद्धिमान पुरुष भी नहीं जान सकते हैं फिर साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है ? ऐसा कहकर व्यक्ति को स्त्रियों का सर्वथा त्याग करने की प्रेरणा दी गई है / 17 अन्त में धर्म का माहात्म्य बताते हुए कहा है कि धर्म रक्षक है, धर्म ही शरणभूत है। धर्म से ही ज्ञान की प्रतिष्ठा होती है और धर्म से ही मोक्ष पद प्राप्त होता है / देवेन्द्र और चक्रवर्तियों के पद भी धर्म के कारण ही प्राप्त होते हैं और अन्ततः उसी से मुक्ति की प्राप्ति भी होती है / 18 (3) चन्द्रकवेध्यक प्रकीर्णक प्रकीर्णक ग्रन्थों में चन्द्रकवेध्यक प्रकीर्णक ही एक ऐसा प्रकीर्णक है जिसके भित्रभिन्न आगम ग्रन्थों में नाम भी भित्र-भित्र प्राप्त होते हैं, यथा-चंदावेज्झयं, चंदगवेझं, चंदाविज्झयं, चंदयवेज्झं, चंदगविज्झं और चंदगविज्झयं / इन भिन्न-भित्र नामों के कई संस्कृत रूपान्तरण भी बनते हैं, जैसे-चन्द्रावेध्यक, चन्द्रवेध्यक, चन्द्रकवेध्यक, चन्द्राविध्यक, चन्द्रविद्या और चन्द्रकविध्यक / जैनविद्या के बहुश्रुत विद्वान पं० दलसुख मालवणिया के अनुसार इस ग्रन्थ का चन्द्रकवेध्यक नाम सर्वाधिक उपयुक्त है / * * व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर /
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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