________________ प्रकीर्णकों की पाण्डुलिपियाँ और प्रकाशित संस्करण * जौहरीमल. पारख जैन साहित्य में प्रकीर्णक शब्द विविध, विस्तृत, परचून, मिक्सचर आदि सामान्य अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है बल्कि पारिभाषिक प्रयोग लिए हुए है, क्योंकि प्रकीर्णक नाम से अभिहित प्रत्येक ग्रन्थ प्रायः एक सुसंहत विशिष्ट विषयवस्तु वाला ही है। प्रकीर्णक को परिभाषित करते हुए नंदी-चूर्णिकार कहते हैं अरहंतमगउवदितु जं सुतमणुसरित्ता किंचिणिज्जूहते (नियूंढ) ते सव्वे पइणग्गा; अहवा सुत्तमणुस्सरतो अप्पणो वयणकोसल्लेण जं धम्मदेसणादिसु (गंधपद्धत्तिणा) भासते तं सव्वं पइण्णगं'। नंदी के टीकाकारों ने एवं कोषकारों ने भी लगभग इसी परिभाषा को दोहराया है। जब आगम पुस्तकारूढ हुए तो नंदीकार ने प्रकीर्णकों की एक सूची बनाने का प्रयास किया परन्तु उन्हें भी अंत में एवमाइयाइं चउरासीती पइण्णग सहस्साई भगवतो अरहओ उसहस्स' कहकर संतोष करना पड़ा। सूत्रकार के अनुसार तीर्थंकरों की जितनी श्रमण संपदा अथवा जितने उत्कृष्ट चार प्रकार की बुद्धि वाले दिव्य ज्ञानी साधु शिष्य अथवा जितने प्रत्येक बुद्ध उतनी ही प्रकीर्णकों की संख्या है / इसप्रकार भगवान महावीर स्वामी के चौदह हजार प्रकीर्णक होते हैं। नंदीसूत्र का यह पाठ पूरे श्वेताम्बर संप्रदाय में मान्य है / ठाणांगसूत्र के दसवें स्थान में भी इन प्रकीर्णकों के कुछ नामोल्लेख मिलते हैं। व्यवहारसूत्र के दसवें उद्देशक में भी हमें 19 प्रकीर्णकों के नाम मिलते हैं। पाक्षिकसूत्र में प्रकीर्णकों की जो सूची है, वह नंदी के अनरूप ही है परन्तु उसमें गणिविद्या की जगह आणविभत्ति नाम है, सूर्यप्रज्ञप्ति को वहाँ कालिक सूत्र में गिना है, और नंदी के अलावा भी 7 और नाम वहाँ हैं, जिनका उल्लेख ठाणांग व व्यवहारसूत्र में है / षट्खण्डागम की धवलाटीका में भी 19. प्रकीर्णकों के नाम हमारे देखने में आये हैं। कुछ नाम जोगनंदी व विधिमार्गप्रपा नामक प्राचीनरचनाओं में भी प्राप्त होते हैं। ऋषिभाषित कासंदर्भ समवायांग, तत्त्वार्थ स्वोपज्ञभाष्य व अन्यत्र भी प्राप्त होता है। इनमें से कई प्रकीर्णक तो विस्मृत व नष्ट होते गये। नंदी, ठाणांग, व्यवहार, धवला, पाक्षिकादि सूत्रों में गिनाये गये अधिकतर ग्रन्थों का विच्छेद हो चुका है, यहाँ तक कि १७वीं शताब्दी में उपलब्ध 'पंचकल्प' नामक सूत्र आज अनुपलब्ध है / परन्तु साथ ही साथ इस प्रकार के श्रेष्ठ मान्यशास्त्र(ClassicScriptures) प्रकीर्णकों की कक्षा में जुड़ते भी गये; यहाँ तक कि विक्रम की १०वी ११वीं शताब्दियों में संकलित रचनाओं का समावेश प्रकीर्णकों में हुआ है, उस समय पर्यंत सांप्रदायिक द्वेष नहीं पनपा था / अर्थात् इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि प्रकीर्णकों की संख्या किंवा नामावली कभी भी सर्वमान्य निश्चित रूप नहीं ले सकी। जहाँ तक 11 अंग आगमों, बारहवें दृष्टिवाद और आवश्यक सूत्रों का प्रश्न है, इनके नामों के बारे में कोई विवाद नहीं है और न इन्हें कभी भी प्रकीर्णकों की संज्ञा दी गई थी।