________________ प्रकीर्णकों की पाण्डुलिपियाँ और प्रकाशित संस्करण : 69 नंदीसूत्र में अंग आगम, आवश्यक व प्रकीर्णकों को स्वाध्याय समय की अपेक्षा कातिक एवं उत्कालिक ऐसे दो भागों में बांटा अवश्य गया था किन्तु कालान्तर में (संभवतः नंदीसूत्र के बाद) इन प्रकीर्णकों के बारे में दो महत्त्वपूर्ण परिपाटियाँ क्रमशः विकसित हुई 1. इन प्रकीर्णकों को भी आगम का दर्जा दिया गया / 2. श्वेताम्बर संप्रदाय में विषयादि की अपेक्षाओं से इन प्रकीर्णकों का वर्गीकरण भी हुआ है और तदनुसार 12 प्रकीर्णकों को उपाङ्गसूत्रों की कक्षा में, 6 प्रकीर्णकों को छेदसूत्रों की कक्षा में और 6 प्रकीर्णकों को मूलसूत्रों की कक्षा में रखा गया है, और शेष अवर्गीकृत प्रकीर्णको को 'प्रकीर्णक आगम' के नाम से ही पुकारा जाने लगा। (नोटः- प्राचीन चार अनुयोग विषय-वस्तु का विभाजन है उसे ग्रंथों का वर्गीकरण नहीं समझें) जैन परम्परा में उपरोक्त वर्गीकरणादि के बारे में जो सांप्रदायिक मतभेद है उसको स्पष्ट करना यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है ताकि प्रकीर्णकों की परिस्थिति समझने में कठिनाई नहीं होगी। मंदिरमार्गी श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वर्तमान में 45 आगम उपलब्ध है / इस सन्दर्भ में एक गाथा हैतिहा अंग इग्यारा, बारह उपांग, छ छेद, दस पइन्ना दाख्या मूलसूत्र छ उ भेद। जिन आगम षद्रव्य, सप्तपदारथ युक्त, सांभली श्रद्धन्ता तूटेकर्म तुरन्त / / ____ अर्थात 11 अंगर 12 उपांगर छेद 6 मूला 10 प्रकीर्णक 45;6 आवश्यक सूत्रों को मिलाकर 1 मूलसूत्र ही गिनते हैं और दो चूलिकासूत्रों नंदी व अनुयोगद्वार को भी मूल में ही शामिल कर देते हैं / : 45 की संख्या के आग्रहवश इस परम्परा में ओघ या पिण्डनियुक्ति में से एक को मूलग्रंथों में और पंचकल्प को (और उसके लुप्त हो जाने पर अब जीतकल्प को) छेदसूत्रों में गिनते हैं यद्यपि ये चारों नाम नंदीसूत्र या पाक्षिकसूत्र में नहीं है। जबकि स्थानकवासी इन चारों में से किसी को भी आगम नहीं मानते हैं और महानिशीथ (वर्तमान पाठ आचार्य हरिभद्र द्वारा उद्भरित) और 10 प्रकीर्णकों का विच्छेद मानते हैं और 45 में से इस प्रकार 13 की संख्या कम करने से उनमें 32 आगम की ही मान्यता है_ यद्यपि मंदिरमार्गी श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध प्रकीर्णकों की 10 संख्या ही मान्य है परन्तु गच्छाम्नाय या अन्य किसी कारणवश दस-दस ग्रंथों की ऐसी तीन सूचियाँ अलगअलग बनती हैं अर्थात मान्य-उपलब्ध प्रकीर्णकों की कुल संख्या 30 हो जाती हैं। इसके * लेखक ने यहाँ दस-दस (प्रकीर्णक) ग्रन्थों की तीन अलग-अलग सूचियों का उल्लेखकर प्रकीर्णको की संख्या 30 मानी है, किन्तु प्रकीर्णकों की उन सूचियों में कुछ नाम तो समान ही है / मात्र किसी सूची ' में गच्छाचार और मरणसमाधि के स्थान पर चन्द्रवेध्यक और बीरस्तव को गिना गया है तो किसी सूची में भक्तपरिज्ञा के स्थान पर चन्द्रवेध्यक को गिना गया है, अथवा किसी सूची में वीरस्तव के स्थान पर चन्द्रवेध्यक का उल्लेख है / इसप्रकार कुछ प्रकीर्णक ग्रन्थों के नामों को छोड़कर शेष नाम सभी सूचियों में प्रायः समान ही है। अतः इन अलग-अलग सूचियों के आधार पर प्रकीर्णकों की संख्या 30 नहीं होती -सम्पादक