________________ 60 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया (9) सारावली प्रकीर्णक 116 गाथा वाले इस प्रकीर्णक में पुण्डरीकगिरि अर्थात शत्रुञ्जय तीर्थ का स्तवन किया गया है / इसका गुण निष्पन्न नाम सारावली प्रकीर्णक है / इसमें प्रारम्भ में कहा गया है कि जिस भूमि पर पंच परमेष्ठियों का विचरण होता है, उसे देव और मनुष्यों के लिए पूज्य माना जाता है। तदनन्तर उत्तम गुणों वाले पुण्डरीकगिरि पर तीर्थ के उद्भव का विवरण और पुण्डरीक तीर्थ के दर्शन एवं वन्दन का फल निरूपित किया गया है / 3 धातकीखण्ड में विद्यमान नारदऋषि दक्षिण भरत क्षेत्र में स्थित पुण्डरीक शिखर पर देवों का प्रकाश देखकर पुण्डरीक शिखर की पूजा के कारणों को ज्ञात करने के लिए आकाश मार्ग से अतिमुक्तककुमार केवलि के पास आते हैं / अतिमुक्तककुमार केवलि से जिज्ञासा व्यक्त करने पर वे इस पर्वत के पूज्य होने और इसका पुण्डरीक नाम पड़ने का वृत्तान्त बताते हैं। उनके अनुसार भरत के पत्र एवं ऋषभदेव के पौत्र पुण्डरीक उनके प्रथम समोवसरण में प्रतिबुद्ध हुए / उन्होनें संसार की निस्सारता से संवेग प्राप्त कर सावद्य-योग-विरति वाला श्रमण व्रत धारण किया। ऋषभदेव ने उन्हें बताया कि सौराष्ट्र देश के पर्वत शिखर पर तुझे ज्ञानोदय होगा / कालान्तर में वे विहार करते हुए उस पर्वत शिखर पर पहुँचे और साधना कर उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त किया / चूंकि इस पर्वत शिखर पर केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे इसलिए उसपर्वत शिखर पर देवों तथा मुनिजनों ने उनकी उपासना की। कालान्तर में भरत ने वहां जिनभवन बनवाया / इसप्रकार पुण्डरीकगिरि अवसर्पिणी काल का प्रथम तीर्थ हुआ / तीर्थोत्पत्ति की कथा के पश्चात् पुण्डरीक तीर्थ पर सिद्धि प्राप्त करने वाली अनेक आत्माओं का विवरण दिया गया है / पुण्डरीक तीर्थ के दर्शन, वन्दन आदि का फल बताते हुए कहा गया है कि जो फल अन्य तीर्थों पर उग्र तप की साधना से प्राप्त होता है वही फल शत्रुञ्जय तीर्थ के दर्शन से प्राप्त हो जाता है / जो व्यक्ति शत्रुञ्जय तीर्थ के सभी चैत्यों की विधिपूर्वक पूजा करता है उसकी देव, असुर और मनुष्य स्तुति करते हैं। इसके पश्चात् इसमें नारदऋषि आदि की दीक्षा, केवल ज्ञान प्राप्ति और सिद्धिगमन का निरूपण है / तत्पश्चात् पुण्डरीकगिरि की महिमा का विवेचन है / 1deg ज्ञान और जीवदया के फल के निरूपण के क्रम में कहा गया है कि जीव जिनप्रज्ञप्त वचनों पर ज्ञद्धा न करते हुए जो तप करता है, उस अज्ञानी और मूर्ख व्यक्ति का वह तप शारीरिक क्लेश मात्र है। 11 इसके पश्चात इसमें दान न देने से दुःख और दान देने से सुखादि का विवेचन है / ग्रन्थानुसार शत्रुञ्जयगिरि पर चढते हुए जो व्यक्ति दान देता है उसके समान दानी लोक में दुर्लभ होता है / 12 अन्त में प्रस्तुत प्रकीर्णक की प्रतिलिपी करवाने का फल, अत्यधिक यश और सत्कार की प्राप्ति बताया गया है / 13 (10) ज्योतिषकरण्डक स्थविर भगवंत श्रीपादलिप्ताचार्य रचित इस प्रकीर्णक में कुल 405 गाथाएं हैं। ज्योतिषकरण्डक के वृत्तिकार आचार्य श्री मलयगिरि ने अपनी वृत्ति में श्रीपादलिप्ताचार्य को