SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ... समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 59 स्तनितकुमारों के.आवास अरुण द्वीप में माने गए हैं और यह कहा गया है कि उन्हीं में उनकी उत्पत्ति होती है / 17 ग्रन्थ का समापन यह कहकर किया है कि जो द्वीप और समुद्र जितने लाख योजन विस्तार वाला होता है / वहाँ उतनी ही चन्द्र और सूर्यों की पंक्तियाँ होती हैं / 18 (7) वीरस्तव 43 गाथाओं में रचित इस वीरस्तव प्रकीर्णक में महावीर की स्तुति उनके छब्बीस नामों द्वारा की गई है / इसमें 26 नामों का अलग-अलग अन्वयार्थ भी बताया गया है / प्रथम गाथा मंगल और अभिधेयरूप है। इसके पश्चात् महीवीर के छब्बीस नामों को गिनाया गया है, जो इस प्रकार हैं३-(१) अरुह, (2) अरिहंत, (3) अरहंत, (4) देव, (5) जिण, (6) वीर, (7) परमकारुणिक, (8) सर्वज्ञ, (9) सर्वदर्शी, (10) पारग, (11) त्रिकालविद् (12) नाथ, (13) वीतराग, (14) केवली, (15) त्रिभुवनगुरु, (16) सर्व, (17) त्रिभुवनवरिष्ठ, (18) भगवन, (19) तीर्थंकर, (20) शक्र-नमस्कृत, (21) जिनेन्द्र, (22) वर्द्धमान, (23) हरि, (24) हर, (25) कमलासन और (26) बुद्ध / प्रकीर्णक के शेषभाग में इन 26 नामों का अन्वयार्थ बताया गया है। अन्वयार्थ की विशेषता यह है कि इसमें अरिहंत के तीन, अरहंत के चार तथा भगवान के दो अन्वयार्थ किये गये हैं शेष नामों के एक-एक अन्वयार्थ हैं / (8) गच्छाचार गच्छाचार प्रकीर्णक में कुल 137 गाथाएँ हैं / ग्रन्थ की विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ आगम विहित मुनि-आचार का समर्थक और शिथिलाचार का विरोधी है / इस प्रकीर्णक की एक विशेषता यह है कि इसमें कहीं तो साधु के उपलक्षण से और कहीं साध्वी के उपलक्षण से सुविहित आचारमार्ग का निरूपण किया गया है, किन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि आचार मार्ग का निरूपण चाहे साधु अथवा साध्वी किसी के भी उपलक्षण से किया गया है, वह दोनों ही पक्षों पर लागू होता है / जैन आगमों में ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं जहाँ मुनि आचार का निरूपण किसी एक वर्ग विशेष के उपलक्षण से किया गया है, किन्तु हमें यह समझना चाहिए कि वह आचार निरूपण दोनों ही वर्गों पर समान रूप से लागू होता है। ___ प्रस्तुत प्रकीर्णक वस्तुतः जैनमुनि संघ को आगमोक्त आचार विधि के परिपालन हेतु निर्देश ही नहीं देता है वरन् उसे स्वच्छन्दाचारी और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों से दूर रहने का आदेश भी देता है। - इस प्रकीर्णक के संबंध में एक स्वतंत्र आलेख इसी पुस्तक में 'गच्छाचार (प्रकीर्णक) का समीक्षात्मक अध्ययन' नाम से प्रकाशित है / अतः हम इस प्रकीर्णक के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी हेतु उसका अवलोकन करने की अनुशंसा करते हैं /
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy