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________________ प्रकीर्णकों का पाठ निर्धारण : 81 जो 'दुच्चरियं' हो गया है उसे क्या त्यागना, उसकी तो निंदा ही की जा सकती है, अतः अर्थ की दृष्टि से भी महापच्चक्खाण की गाथा का पाठ समीचीन ठहरता है / अतः महापच्चक्खाण-पइण्णयं की गाथा मूलतः प्राचीन प्रतीत होती है / (4) महापच्चक्खाण-पइण्णयं की गाथा 4 का पाठ इस प्रकार है : बाहिरऽब्भंतरं उवहिं, सरीरादि सभोयणं / मणसा वय काएणं, सव्वं तिविहेण वोसिरे / / मूलाचार की गाथा 40 का पाठ इस प्रकार है : बज्झब्भंतरमुवहिं, सरीराइं च सभोयणं / मणसा वचि कायेण, सव्वं तिविहेण वोसरे / / 1. वर्ण और मात्राओं की दृष्टि से विश्लेषण (अ) महापच्चक्खाण, वर्ण 9+ 8, 8+ 9, मात्राएँ 14 + 12, 12 + 14 हैं / (ब) मूलाचार, वर्ण 8+ 9,8+ 9, मात्राएँ 12+ 14, 11+14 हैं / अतः स्पष्ट है कि यह गाथा-छन्द की रचना नहीं है बल्कि अनुष्टुप छन्द की रचना है / 2. छन्द की दृष्टि से विश्लेषण (अ) महापच्चक्खाण की गाथा के प्रथम पाद के वर्ण नं. 5,6,7 की मात्रा ल०,गु०,ल० है और वर्ण नं. 6,7,8 की मात्रा गु०, ल०, ल० है / इस प्रकार दोनों ही तरह से यह अनुष्टुप छन्द की दृष्टि से गलत है। इसके द्वितीय पाद के वर्ण नं. 5,6,7 की मात्रा ल०, गु०, ल० है / जो अनुष्टुप छन्द की दृष्टि से सही है। इसके तीसरे पाद के वर्ण नं. 5,6,7 की मात्रा ल०, गु०, गु०, है / जो छन्द की दृष्टि से सही है / इसके चौथे पाद के वर्णनं. 6,7,8 की मात्रा ल०, गु०, ल० है, जो छन्द की दृष्टि से सही है / अर्थात् इसका पहला पाद छन्द की दृष्टि से त्रुटियुक्त जान पड़ता है। . . (ब) मूलाचार के प्रथम पाद के वर्णनं. 5,6,7 की मात्रा ल०, ल०, ल० है, जो छन्द की दृष्टि से गलत हैं। द्वितीय पाद के वर्ण नं. 6,7,8 की मात्रा ल०, गु०, ल० है, जो सही है / तृतीय पाद के वर्ण नं. 5,6,7 की मात्रा ल०, गु०, गु० है, जो सही है / चतुर्थ पाद के वर्ण नं. 6,7,8 की मात्रा ल०, गु०, ल० है, जो सही है। अर्थात् इसका भी पहला पाद छन्द की दृष्टि से गलत जान पड़ता है / महापच्चक्खाण की गाथा का प्रथम पाद यदि निम्न प्रकार से सुधारा जाय तो छन्द की दृष्टि से सही बन जाता है 'बाहिरऽन्भंतरं. ओवहिं (उवहिं के बदले में)' इसमें वर्ण नं. 5,6,7 की मात्रा ल०, गु०, गु० बन जाती है / प्राकृत भाषा में ऐसे कितने ही शब्द मिलेंगे जिनमें प्रारंभिक 'उ'
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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