SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 96 : डॉ० धर्मचन्द जैन ही उसके जीवन का अंग बन जाते हैं / मौन एवं अभिग्रह धारक उस आराधक से यदि देव एवं मनुष्य कुछ पूछे तो वह धर्मकथा कहता है / 32 (3) पादपोपगमनमरण भक्तप्रत्याख्यान एवं इंगिनीमरणसे भी यह भरण उत्कृष्ट है / इस मरण से मरने वाला साधक पादप के सूखे ढूंठ की तरह एक स्थान पर निश्चेष्ट पड़ा रहता है / वह किसी प्रकार हिलने-डुलने की भी क्रिया नहीं करता है / मरणसमाधि प्रकीर्णक में पादपोपगमन का लक्षण, इस प्रकार दिया है निच्चलनिप्पडिकम्मो निक्खिवए जं जहिं वा अंगं / एवं पाओवगमं सनिहारि वा अनीहारि वा / / 33 अर्थात निश्चल रूप में बिना प्रतिक्रिया के जहां जिस प्रकार अंग स्थिर करके जो मरण किया जाता है वह पादोपगमनमरण है / यह दो प्रकार का होता है-सनिहारी और अनिहारी। जब उपसर्ग के कारण मरण हो जाता है तो उसे सनिहारी एवं बिना उपसर्ग के मरण होने पर उसे अनिहारी कहा जाता है, यथा- . उवसग्गेण वि जं सो साहरिओ कुणइ कालमण्णत्थ / / तो भणियं नीहारिमियरं पुण, निरुवसग्गम्मि / / 34 यह मरण भी प्रथम संहनन अर्थात वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त जीव करता है / वीरभद्राचार्य के मत में संलेखना किया हुआ अथवा संलेखना न किया हुआ भी आत्मा पादोपगमनमरण करता है / 35 पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और त्रसों पर फेंक दिए या डाल दिए जानेपर भी साधक निश्चेष्ट बने रहते हैं / 36 पादोपगमनमरण करने वाले जीवों के अनेक उदाहरण आराधनापताका में दिए गए हैं। मरणसमाधि प्रकीर्णक में चिलातीपुत्र, स्कन्धक शिष्यों, गजसुकुमाल आदि के समाधिमरण के जो उल्लेख हैं वे दिल दहला देने वाले हैं तथा समाधिमरण की साधना का उत्कृष्ट निदर्शन हैं / चिलातीपत्र के शरीर को चीटियों के द्वारा छलनी कर दिया गया किन्तु उन्होंने मन में उनके प्रति थोड़ा भी द्वेष नहीं किया देहो पिपीलियाहिं चिलाइपुत्तस्स चालणिव्व कओ / तणुओ वि मणपओसो न य जाओ तस्स ताणुवरि / / (मरणसमाधि, गाथा 429) स्कन्धक ऋषि के शिष्यों को यन्त्र में पीला गया किन्तु उन्होंने किञ्चित भी द्वेष नहीं किया। गजसुकुमाल के सिर पर श्वसुर के द्वारा अंगारे रखे गए फिर भी वह विचलित नहीं हुआ। इस प्रकार की उत्कृष्ट चित्तसमाधि से मरण को प्राप्त होना जीवन की साधना का उत्कृष्ट निदर्शन है।
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy