________________ प्रकीर्णकों की पाण्डुलिपियाँ और प्रकाशित संस्करण : 77 है कि उनका एकमात्र कर्त्तव्य है -भाषा का अवरोध दूर करना / मूल कृति को संशोधित, परिवर्धित या परिवर्तितकर, किंवा तोड़ मरोड़कर या अपनी ओर से कुछ जोड़कर अथवा छोड़कर प्रस्तुत करना अनुवादक के कार्य क्षेत्र के बाहर की वस्तु है / शब्दशः अनुवाद के माध्यम से ग्रन्थकर्ता के शुद्ध आशय, सही अर्थ एवं यथार्थ भावों को प्रकट कर देना, यही तो अनुवादक की कुशलता है / बिना भेलसेल असल को जानने की प्रवृति इन दिनों लोगों में बलवती हो रही है और उस आवश्यकता की पूर्ति में ही अनुवादक की सफलता है। बिना पूरी प्रतिभा लगाये आगम-अनुवादन कर्मबन्धन का कारण हो सकता है / बड़ा उपयुक्त रहेगा यदि अनुवाद अन्तर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी व राष्ट्रीय भाषा हिन्दी में भी हो / प्रकीर्णकों की मान्यता सन्देह से परे हो जाय, इसलिये जहाँ तक संभव हो प्रत्येक गाथा को अन्यत्र संदर्भ से जोड़ दें-अंगों में, अंगबाह्य आगमों में, श्वेताम्बर या दिगम्बर सर्वमान्य प्राचीन श्रेण्य ग्रंथों व शास्त्रों में, व्याख्या सहित्य में, जैनतर ग्रंथों में या जहाँ कहीं भी हों, मिलान कर दें- भाषायी व शाब्दिक भित्रता हो परन्तु भाव साम्य हो तो भी चलेगा / पहिले यह कार्य बहुश्रुतों का था जो अब कम्प्यूटरों द्वारा पर्याप्त मात्रा में आसान हो गया है और भविष्य में और भी आसान होने की आशा है, कठिन हो तो भी कर्तव्य है क्योंकि यह मिलान जैन धर्म के विभित्र सम्प्रदायों, आम्नायों, गणगच्छों को एकता के मंच पर ला खड़ा करेगा। 2. 3. . ... सन्दर्भ-सूची नन्दीसूत्रचूर्णीः सम्पा० मुनि पुण्यविजय, प्रका० प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद, वर्ष 1966, पृष्ठ 60 नन्दीसूत्रः सम्पा० मुनि मधुकर, प्रका० आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, सूत्र 81, पृष्ठ 163 ठाणाङ्गसूत्रः प्रका० आगमोदय समिति, सूरत, सूत्र 755 व्यवहारसूत्र : सम्पा० कन्हैयालाल कमल', प्रका० आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद, उद्देशक 10 पाक्षिकसूत्र : प्रका० देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार समिति, पृष्ठ 76-77 षट्खण्डागम : सम्पा० हीरालाल जैन, प्रका० जैन सहित्योद्धार फण्ड, अमरावती, सूत्र 1/1/2, पृष्ठ 109 विधिमार्गप्रपा : सम्पा० जिनविजय, पृष्ठ 57-58 ॐ ॐ 7. * सेवामंदिर रावटी जोधपुर (राज.)