________________ 76 : जौहरीमल पारख ऋषिभाषित-यद्यपि 10-10 प्रकीर्णकों के तीनों जोड़ों में इसे स्थान नहीं दिया . गया है परन्तु इस प्रकीर्णक की प्राचीनता व विषयवस्तु आदि की दृष्टि से बहुत महत्ता है। इसके स्वयं के संदर्भो के बल पर यह प्रकीर्णक आगम में शुमार होने योग्य है / यह ग्रन्थ पॉच जगहों से प्रकाशित हो चुका है परन्तु हमारा मंतव्य है कि पाठ, अर्थ व अन्य दृष्टि से पूरा ग्रन्थ अभी उच्चतर संपादन कर्तव्य है / हमें लगता है कि पूरा ग्रन्थदो भागों में विभाजित होना चाहिये, उस-उस ऋषि के मूलवचन और उस सूत्र पर व्याख्या / व्याख्या किसप्रकार की है (नियुक्ति तो भद्रबाहुकृत है उस शैली की नहीं है) भाष्य, चूर्णि, वृत्ति या अन्य किस्म की ? इस प्रश्न का निर्णय स्थगित हो तो भी सब अध्यायों का व्याख्याकार एक ही व्यक्ति . है और उसका दर्शन जैन है। दो चार अध्यायों को छोड़ भी दें (यद्यपि वैसा करना आवश्यक नहीं है) तो मूल व व्याख्या की यह भित्रता सहज में दृष्टिगोचर होती है / इस दृष्टिकोण से विद्वानों द्वारा अनुसंधान कर्तव्य है क्योंकि मूलपाठ तो उन-उन ऋषियों की रचनाओं में मिल जावेंगे (संस्कृत, प्राकृत या अन्य भाषा में) परन्तु बाकी का जो भान वहाँ प्राप्य नहीं है उसे व्याख्या ही समझना चाहिये / यह विभाजन अधिकतर तो गवभाग जो इसिणाबुइप' तक है कहीं पद्यभाग, कहीं पूरा अध्याय भी हो सकता है जहाँ व्याख्या नहीं है। परन्तु यह विभाजन सर्वसम्मत होने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होगी / मूल बात यह है कि सारा का सारा अध्याय उस ऋषि की रचना हो, यह बात उचित प्रतीत नहीं होती है। अंतिम वाक्य सर्वत्र एकसा है / अनुसंधान कर्तव्य है क्योंकि यह ग्रंथ धार्मिक साहित्य में अद्वितीय है। इसकी पाण्डुलिपियों की भी सघन खोज होनी चाहिये / - इन सब प्रकीर्णकों की हस्तलिखित प्रतियाँ (पाण्डुलिपियाँ) कहाँ-कहाँ उपलब्ध है, उसकी १७वीं व उससे प्राचीन सदियों की (जहाँ नहीं है वहाँ अर्वाचीन भी ली है) ग्रंथकार सूची हमने बना रखी है परन्तु उसे इस लेख के सापसंलग्न करना अनावश्यक प्रतीत होता है-केवल मोटे रूप में जानकारी दे रहे हैं कि सर्वप्रथम जैन श्वे० कॉन्सपायधुनी, मुम्बई वालों ने बहुत ही परिश्रमकर जैन ग्रंथावली नामक पुस्तक छपाई थी उसमें जहाँ-जहाँ प्रतियाँ उपलब्ध है, उसकी बीगतवार सूचना है / उसके बाद बड़ौदा से पाटण, जैसलमेर, खंभात आदि प्रमुख भंडारों के सूची पत्र छपे और मुंबई सरकार की रिपोर्ट भी पीटरसन भंडारकर वूलर आदि ने छपाईं / उन सबकी जानकारी का संकलन करके प्रो. चेतनकर ने जिनरत्नकोश नामक ग्रन्थ 1944 में भण्डारकर शोध संस्थान, पूना से प्रकाशित करवाया / लेकिन उस बात को आज पचास वर्ष हो गये हैं और उस दरम्यान सैकड़ों नये सूचीपत्र जिनमें जैन ग्रंथों के पर्याप्त उल्लेख हैं, पूना, जोधपुर, अहमदाबाद, जयपुर, पाटण, आरा, दिल्ली, सूरत व अन्य स्थानों से छप चुके हैं और भारत सरकार की सहायता से मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा प्राकृत व संस्कृत ग्रंथों का केटेलोगस भी छपा है, हम जिज्ञासुजनों को इन सबका अवलोकन करने का सुझाव देते हैं / अन्त में अपेक्षा है कि जैन प्रकीर्णक हों चाहे अन्य कोई ग्रन्थ, नया प्रकाशन करने के पहिले अद्यावधि मुद्रित व उपलब्ध हस्तलिखित प्रतियों का अवलोकनसूक्ष्म दृष्टि से करना लाभप्रद रहता है, विशेषतः अनुवाद आदि छापते समय अनुवादकों से एक और अनुरोध