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________________ 22 : डॉ० अशोक कुमार सिंह भावनायें ही समाधिमरण की आलम्बन हैं / समाधिमरण में मन की विशुद्धता का प्राधान्य है / 14 इन्द्रिय-सुखों में लीन, भयंकर परिषहों से पराजित, परपदार्थों में आसक्त, असंस्कारित, अधीर तथा गुरु के सम्मुख अपने दुश्चारित्र को प्रकट न करने वाले ये सभी. अनाराधक होते हैं / अज्ञानी व्यक्ति जिन कर्मों को करोड़ों वर्षों में क्षय करता है, उन कर्मो को त्रिगुप्ति से युक्त ज्ञानी व्यक्ति एक श्वासमात्र में ही क्षय करता है / जिस एक पद के द्वारा व्यक्ति संवेग को प्राप्त करता है, वैराग्य प्राप्त कराने वाला वह पद ही उस व्यक्ति का ज्ञान है, वह पद ही उसके मोह जाल को छिन्त्र कर देता है / 15 साधक असंयम का त्याग करने, उपधि का विवेक करने, उपशम भाव को धारण करने, योग से विरत होने, क्षमा . भाव और वैराग्य भाव का विवेक बनाये रखने, तथा इसप्रकार के अन्य प्रत्याख्यानों को ग्रहण करता हुआ समाधि को प्राप्त करता है / 16 जीव ने प्रमादवश अनेक बार अन्तिम नरक की अवस्था को प्राप्त किया है, अज्ञानवश अनेक क्रूर कर्म किये गये जिनके कारण इन दारुण विपाकों को प्राप्त किया है, ऐसा विचार करना चाहिए / 17 जिनकल्पी मुनि के एकाकी विहार तथा उनके द्वारा सेवित अभ्युद्यतमरण को प्रशंसनीय कहा गया है / तदनन्तर आराधना के चार स्कन्धों-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपका तथा उसके तीन प्रकारों-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य का उल्लेख है तथा इनकी साधना करने वाले की उसी भव में मुक्ति का वर्णन : है। प्रकीर्णक के अन्त में सभी जीवों के प्रति क्षमापना, धीर मरण की प्रशंसा और प्रत्याख्यान का फल निर्दिष्ट है / 18 (16) भक्तपरिज्ञा भक्तपरिज्ञा में 172 गाथाएँ हैं / इस प्रकीर्णक में भक्तपरिज्ञा नामक मरण का विवेचन है / प्रारम्भ में महावीर वन्दन और अभिधेय है / जिनशासन भव-भ्रमण का अन्त करने वाला और कल्पद्रुम कानन सदृश सुखद है / अभ्युद्यतमरण के भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन-ये तीन तथा भक्तपरिज्ञा के सविचार और अविचार-ये दो भेद हैं / मुनि द्वारा जो प्रयासपूर्वक शारीरिक संलेखना ली जाती है वह सविचारमरण और जब मृत्यु अनायास हो जाती है तब अविचारमरण कहा जाता है / परमसुख पिपासा से युक्त, विषय सुख से विमुख हो, मोक्षेच्छा से मृत्यु आसन्न होने पर व्याधिग्रस्त यति अथवा गृहस्थ भक्तपरिज्ञा की ओर उन्मुख होता है / तत्पश्चात् शिष्य द्वारा भक्तपरिज्ञामरण ग्रहण करने की अभिलाषा गुरु से व्यक्त करने और गुरु द्वारा आलोचना व्रत और क्षमापना से पुरस्सर भक्तपरिज्ञा व्रत ग्रहण करने की स्वीकृति का उल्लेख है / गुरु के आदेश को शिरोधार्य कर विधिपूर्वक गुरु वन्दना कर मोक्ष की तीव्रकामना से युक्त हो वह शुद्धि के लिए जो कुछ करता है, उससे आराधक होता है / इसके अनन्तर उसके आलोचना दोष रहित हो बालक सदृश सरल स्वभाव का होकर सम्यक् आलोचना देने पर गणि समस्त गण के समक्ष उसे प्रायश्चित्त देता है / वह आराधक भले ही महाव्रतों का अखण्ड पालन करने वाला यति रहा हो फिर भी इन जगत्तारक महाव्रतों का यावज्जीवन पालन करते रहने का पुनःसंकल्प करता है / 5 यदि आराधक देशविरत रहा हो तो वह यावज्जीवन अणुव्रतों के पालन की प्रतिज्ञा करता है / गुरु शुद्ध अणुव्रतों की पुनः आराधना करता है / तदनन्तर निदान रहित हो वह
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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