________________ 214 : प्रो० सागरमल जैन और परसमय के प्रवक्ता प्रत्येकबुद्धों के विचारों का संकलन है / चूँकि ऋषिभाषित प्रश्नव्याकरण का ही एक भाग रहा था / इसप्रकार ऋषिभाषित के ऋषियों को सर्वप्रथम समवायांग में परोक्षरूप से प्रत्येकबुद्ध मान लिया गया था।३३ यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित के अधिकांश ऋषि जैन परम्परा के नहीं थे, अत: उनके उपदेशों को मान्य रखने के लिए उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहा गया / जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में प्रत्येकबुद्ध वह व्यक्ति है, जो किसी निमित्त से स्वयं प्रबुद्ध होकर एकाकी साधना करते हुए ज्ञान प्राप्त करता है, किन्तु नतो वह स्वयं किसी का शिष्य बनता है और न किसी को शिष्य बनाकर संघ व्यवस्था करता है। इसप्रकार प्रत्येकबद्ध किसी परम्परा या संघ व्यवस्था में आबद्ध नही होता है, फिर भी वह समाज में आदरणीय होता है और उसके उपदेश प्रामाणिक माने जाते हैं / ऋषिभाषित और जैनधर्म के सिद्धान्त- . __ ऋषिभाषित का समग्रत : अध्ययन हमें इस संबंध में विचार करने को विवश करता है कि क्या ऋषिभाषित में अन्य परम्पराओं के ऋषियों द्वारा उनकी ही अपनी मान्यताओं का प्रतिपादन करवाया गया है अथवा उनके मुख से जैन परम्परा की मान्यताओं का प्रतिपादन करवाया गया है ? प्रथम दृष्टि से देखने पर तो ऐसा भी लगता है कि उनके मुख से जैन मान्यताओं का प्रतिपादन हुआ है / प्रो० शुब्रिग और उनके ही आधार पर प्रो० लल्लनजी गोपाल ने प्रत्येक ऋषि के उपदेशों के प्रतिपादन के प्रारम्भिक और अन्तिम कथन की एकरूपता के आधार पर यह मान लिया है कि ग्रन्धकार ऋषियों के उपदेशों के प्रस्तुतिकरण में प्रामाणिक नहीं हैं। उसने इनके उपदेशों को अपने ही ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है / अधिकांश अध्यायों में जैन पारिभाषिक पदावली यथा-महाव्रत, कषाय, परिषह आदि को देखकर इस कथन में सत्यता परिलक्षित होने लगती है। उदाहरणार्थ प्रथम नारद नामक अध्ययन में यद्यपि शौच के चार लक्षण बताये गये हैं, किन्तु यह अध्ययन जैन परम्परा के चातुर्याम का ही प्रतिपादन करता है / वज्जीयपुत्त नामक द्वितीय अध्याय में कर्म सिद्धान्त की अवधारणा का प्रतिपादन किया गया है / यह अध्ययन जीव के कर्मानुगामी होने की धारणा का प्रतिपादन करता है, साथ ही मोह को दुःख का मूल बताता है / यह स्पष्ट करता है कि जिसप्रकार बीज से अंकुर और अंकुर से बीज की परम्परा चलती रहती है उसीप्रकार मोह से कर्म और कर्म से मोह की परम्परा चलती रहती है और मोह के समाप्त होने पर कर्म-सन्तति ठीक वैसे ही समाप्त होती है जैसे वृक्ष के मूल को समाप्त करने पर उसके फूल-पत्ती अपने आप समाप्त होते हैं / कर्मसिद्धान्त की यह अवधारणा ऋषिभाषित के अध्याय 13, 15, 24 और 30 में भी मिलती है / जैन परम्परा में इससे ही मिलताजुलता विवरण उत्तराध्ययन के बत्तीसवें अध्ययन में प्राप्त होता है / इसीप्रकार तीसरे असित देवल नामक अध्ययन में हमें जैन परम्परा और विशेष रूप से आचारांग में उपलब्ध पाप को लेप कहने की चर्चा मिल जाती है / इस अध्ययन में हमें पांच महाव्रत, चार कषाय तथा इसीप्रकार हिंसा से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के 18 पापों का उल्लेख भी मिलता है। यह अध्ययन मोक्ष के स्वरूप का विवेचन भी करता है और उसे शिव, अतुल, अमल, अव्याघात, अपुनरावर्तन तथा शाश्वत स्थान बताता है / मोक्ष का ऐसा ही स्वरूप हमें जैन