________________ 52 : डॉ. अशोक कुमार सिंह एवं डॉ० सुरेश सिसोदिया बारहवें अध्याय में याज्ञवल्क्य ऋषि के उपदेशों का संकलन है / इसमें लौकैषणा और वित्तैषणा के त्याग पर बल दिया गया है और यह कहा है कि मुनि को गाय, कपोत आदि के समान अन्य किसी को कष्ट नहीं देते हुए अपनी भिक्षाचर्या करनी चाहिये / 19 / तेरहवें अध्याय में मेतेज्ज भयालि के उपदेशों का संकलन है / इसमें प्रतिपादित किया गया है कि सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती है / जिसकी उत्पत्ति होती है उसी का विनाश होता है / जिसप्रकार फल का आकांक्षी वृक्ष का सिंचन करता है, किन्तु जिसको फल की आकांक्षा नहीं है, वह वृक्ष का सिंचन नहीं करता है / उसी प्रकार साधक को भी फलाकांक्षा से ऊपर उठकर संसाररूपी वृक्ष का सिंचन नहीं करना / चाहिए / 20 चौदहवें बाहुक नामक अध्याय में इस लोक और परलोक की आकांक्षा से ऊपर उठने का निर्देश दिया गया है / इसमें बताया गया है कि आकांक्षाओं से ऊपर उठकर ही मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है / 21 मधुरायन नामक पन्द्रहवें अध्याय में मुख्यरूप से यह बताया गया है कि दुःखों का मूल कारण व्यक्ति का पापकर्मों में लीन होना है / जो व्यक्ति पापकर्म करता है, वह स्वतः : ही दुःखों को आमन्त्रण देता है / इसलिए दुःख के मूल कारण पापकर्मों का परित्याग करना चाहिए / 22 सोलहवें शौर्यायण नामक अध्याय में शौर्यायण ऋषि के उपदेश संकलित हैं। इसमें कहा गया है कि जो मनोज्ञ विषयों के प्रति राग और अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष करता है, वह पापकर्म का बन्ध करता है / इन्द्रियों के वेग को स्पष्ट करते हुए कहा है कि व्यक्ति को श्रोत, चक्षु, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शेन्द्रिय के मनोज्ञ विषय के प्राप्त होने पर उनमें आसक्त, अनुरक्त और लोलुप नहीं होना चाहिए / 23 . विदुर नामक सत्रहवें अध्याय में विदुर ऋषि के उपदेशों का संकलन है / इसमें कहा गया है कि वही विद्या महाविद्या या सर्व विद्याओं में श्रेष्ठ है जो दुःखों से मुक्त कराती है / 24 इस अध्याय में स्वाध्याय और ध्यान पर भी विशेष बल दिया गया है / 25 अठारहवें अध्याय में वारिषेण कृष्ण के उपदेश संकलित हैं / प्रस्तुत अध्याय में यह प्रतिपादित किया गया है कि जो व्यक्ति प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक और क्रोध से लेकर मिथ्या-दर्शन शल्य तक के वयाँ (अनाचरणीय या पापकर्मों) का सेवन करता है, वह हस्त-छेदन या पाप-छेदन को प्राप्त होता है और जो इन वज्र्यो (पापों) का सेवन नहीं करता है, वह सिद्ध स्थान को प्राप्त करता है / 26 उन्नीसवें अध्याय में आरियायण ऋषि के पदों का संकलन है इसमें यह कहा गया है कि अनार्य भाव, अनार्यकर्म, और अनार्य मित्र का वर्जन करना चाहिए / इनका संसर्ग करने वाला भवसागर में परिभ्रमण करता है। इसके विपरीत इनसे मुक्त व्यक्ति आर्यत्व को प्राप्त होता है / अध्याय के अन्त में कहा गया है कि आर्य भाव, आर्य ज्ञान और आर्य चरित्र उचित है, अतः इनकी सेवा करनी चाहिए / 27