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________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 55 तैतीसवें अध्याय में महाशालपुत्र अरुण के उपदेशों का संकलन है / इस अध्याय में कहा गया है कि भषा-व्यवहार और कर्म (आचरण) के आधार पर ही व्यक्ति के पण्डित या मूर्ख होने का निर्णय किया जा सकता है / अशिष्ट वाणी, दुष्कर्म और कार्य-अकार्य का विवेक अभाव मूर्ख के लक्षण हैं जबकि शिष्ट वाणी, सुकृत कर्म और कार्य-अकार्य के विवेक पंडितजन के लक्षण हैं / अध्याय के अन्त में यह कहा गया है कि जितेन्द्रिय और प्रज्ञावान साधकों को कल्याणकारी मित्रों का ही संसर्ग करना चाहिए / 1 ऋषिगिरि नामक चौंतीसवें अध्याय में ऋषिगिरि नामक ब्राह्मण परिव्राजक के उपदेशों का संकलन है / इसमें ऋषिगिरि मूरों या दुष्टजनों द्वारा दिए गये कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करने का निर्देश देते हैं / 42 पैतीसवें उद्दालक नामक अध्याय में उद्दालक ऋषि के उपदेश संकलित हैं। इसमें सर्वप्रथम क्रोधादि चार कषायों को वर्ण्य कहा गया है तथा इनका सेवन करने वाले का संसार परिभ्रमण अनन्त बतलाया गया है / तत्पश्चात् इस अध्याय में पंच इन्द्रियों, संज्ञाओं, त्रिदण्डों, त्रिशल्यों, त्रिगर्यो, और बाईस परिषहों से साधक को सर्वत्र जागृत रहने का निर्देश दिया गया है / 43 - छत्तीसवें नारायण (तारायण) नामक अध्याय में नारायण ऋषि के उपदेशों का संकलन है / इसमें मुख्य रूप से क्रोधाग्नि निवारण हेतु प्रेरणा देते हुए कहा गया है कि अग्नि तो एक ही भव (जीवन) को समाप्त करती है किन्तु क्रोधाग्नि तो अनेक भवों को समाप्त करती है. / क्रोधाग्नि के कारण धर्म, अर्थ और काम तीनों ही पुरुषार्थ नष्ट हो जाते हैं / अतः क्रोध का निरोध करना चाहिए / 44 . श्रीगिरि नामक सैतीसवें अध्याय में श्रीगिरि ऋषि के उपदेश संकलित हैं / इस अध्याय में श्रीगिरि सृष्टि की जल एवं अण्डे से उत्पत्ति होने संबंधी अवधारणा का खण्डन करते हैं / 45 अड़तीसवाँ अध्याय सारिपुत्त (सारिपुत्र) नामक ऋषि के उपदेशों का संकलन है। इस अध्याय का मुख्य प्रतिपाद्य सभी प्रकार की अतियों से बचकर मध्यम मार्ग की साधना करना है / प्रस्तुत अध्याय में सारिपुत्र साधनों पर बल न देकर साधना में पित्तवृत्ति की विशुद्धि पर बल देते हैं / 46 - उन्तालीसवें अध्याय में संजय ऋषि के अतिसंक्षिप्त उपदेश संकलित हैं / इसमें कहा गया है कि न तो पाप कृत्य स्वयं करना चाहिए और न ही दूसरों से करवाना चाहिए। यदि कारण वश करना पड़ा. हो या कभी कर लिया हो तो उसे बार-बार नहीं करें और ऐसे किये हुए पाप की आलोचना करनी चाहिए / 47 - चालीसवें अध्याय में द्वैपायन ऋषि के उपदेशों का संकलन है / इसमें इच्छा को अनिच्छा में परिवर्तित करने का निर्देश है / द्वैपायन का कहना है कि इच्छाओं के कारण ही प्राणी दुःख पाता है तथा इच्छाओं के वशीभूत हो वह माता-पिता, गुरुजन, राजा और देवता आदि की अवमानना कर देता है / इच्छा ही धन-हानि, बंधन, प्रिय-वियोग और
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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