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________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 41 उदधिकुमार, दिशाकुमार, वायुकुमार, स्तनितकुमार, विद्युतकुमार और अग्निकुमार आदि दस भवनपति देवों तथा चमरेन्द्र, धरणेन्द्र आदि बीस भवनपति इन्द्रों के नामल्लेख हैं। तत्पश्चात् भवनपति इन्द्रों की स्थति, आयु, भवन संख्या एवं आवास आदि का विस्तारपूर्वक निरूपण है / 6 पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व ये आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देव कहे गये हैं। इनके काल, महाकाल, सुरूप, प्रतिरूप, पूर्णभद्र, माणिभद्र, भीम, महाभीम, कित्रर, किंपुरुष, सत्पुरुष, अतिकाय, महाकाय, गीतरति, गीतयश आदि सोलह इन्द्र कहे गये हैं। ये देव ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक किसी भी लोक में उत्पत्र हो सकते हैं। इनकी कम से कम आयु दस हजार वर्ष और अधिकतम आयु एक पल्योपम कही गयी चन्द्र, सूर्य, तारागण, नक्षत्र और ग्रह ये पाँच ज्योतिषिक देव कहे गये हैं। ज्योतिषिक देवों के स्थान, विमान संख्या और विमानों के आयाम-विष्कम्भ के विवेचन के पश्चात् चन्द्र, सूर्य, तारे, नक्षत्र आदि के विषय में विस्तार से विवेचन हुआ है / इनकी गति के बारे में कहा गया है कि सूर्य चन्द्रमा से, ग्रह सूर्य से, नक्षत्र ग्रहों से और तारे नक्षत्रों से तेज गति करने वाले होते हैं। शतभिषज, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा ये छः नक्षत्र कहे गये हैं, जो पन्द्रह मुहूर्त संयोग वाले हैं / तीन उत्तरानक्षत्र पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा-ये छः नक्षत्र चन्द्रमा के साथ पैतालिस मुहूर्त का संयोग करते हैं / इसीप्रकार :: अन्य नक्षत्रों के चन्द्र-सूर्य संयोगों का उल्लेख हुआ है / 10 इसके बाद ज्योतिषिकों के पिटक, पंक्तियाँ, मण्डल, उनका ताप क्षेत्र, उनकी गति आदि का वर्णन किया गया है / 11 तत्पश्चात् चन्द्रमा की हानि और वृद्धि बतलाते हुए कहा गया है कि शुक्ल पक्ष के पन्द्रह दिनों में चन्द्रमा का बासठवाँ-बासठवाँ भाग राहु से अनावृत होकर प्रतिदिन बढ़ता है और कृष्णपक्ष के उतने ही समय में राहु से आवृत होकर घटता जाता है, इसप्रकार चन्द्रमा का वृद्धि-हास होता रहता है / 12 आगे ज्योतिषि देवों की गति, स्थिति तथा जम्बूद्वीप में चन्द्र-सूर्यों की संख्या और अन्तर का निरूपण है / 13 तत्पश्चात् वैमानिक देवों के बारह भेदों, ग्रैवेयक देवों के नौ भेदों और अनुत्तर वैमानिक देवों के पाँच भेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है। विशेषरूप से इनके विमान, स्थिति, लेश्या, ऊँचाई, गंध, काम-क्रीड़ा, अवधिज्ञान, आहार ग्रहण करने की इच्छा, उनके प्रासाद, प्रासादों का वर्ण आदि विवरण प्रस्तुत किया गया है / 14 इसके पश्चात सिद्धशिला पृथ्वी का वर्णन किया गया है जो सबसे ऊँचे स्तूप के अन्त से 12 योजन ऊपर इषतप्रारभारा पृथ्वी है, वह 45 लाख योजन लम्बी-चौड़ी है और परिधि में वह 14230249 योजन से कुछ अधिक है। इस पर सिद्धों का निवास है / वहाँ सिद्ध वेदनारहित, ममतारहित, आसक्तिरहित, शरीररहित, अनाकार दर्शन और साकार ज्ञान वाले होते हैं / इनकी उत्कृष्ट अवगाहना एक रत्नि आठ अंगुल से कुछ अधिक है / 15
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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