________________ सम्पादकीय साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब होता है / इसी दृष्टि से अर्धमागधी आगम साहित्य जैन समाज और संस्कृति का प्रतिबिम्ब माना जा सकता है / अर्धमागधी आगम साहित्य को अंग, उपांग, छेद, मूल, चूलिका और प्रकीर्णकों में विभाजित किया जाता है / इसमें प्रकीर्णक साहित्य सामान्यतया उपेक्षा का विषय रहा है / अंग, उपांग आदि साहित्य के जितने अधिक संस्करण अनुवाद सहित प्रकाशित हुए हैं उतने प्रकीर्णक साहित्य के नहीं हुए हैं। यही कारण है कि प्रकीर्णक साहित्य के सन्दर्भ में जनसाधारण का ज्ञान अल्पतम ही है / अर्धमागधी आगम साहित्य का यह भाग अनुवाद और विस्तृत भूमिकाओं के साथ जनसाधारण के समक्ष आये, इस हेतु पार्श्वनाथ विद्याश्रमशोध संस्थान, वाराणसी के स्वर्ण जयन्ती समारोह के अवसर पर जैन विद्या के विद्वानों की समन्वय समिति के निर्णयानुसार यह कार्य आगम संस्थान, उदयपुर को सौंपा गया। आज हमें यह कहते हुए अत्यन्त प्रसन्नता होती है कि इस संस्थान ने पूरी प्रामाणिकता और निष्ठा के साथ विस्तृत भूमिका और अनुवाद सहित अनेक प्रकीर्णकों का प्रकाशन किया है / यद्यपि आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी ने प्रकीर्णकों का वैज्ञानिक शैली से संपादन किया और उनका प्रकाशन भी हुआ है, किन्तु अनुवाद के अभाव में प्राकृत भाषा से अनभिज्ञजन न तो प्रकीर्णक साहित्य का रसास्वादन कर सके और न ही उनके मूल्य और महत्त्व को समझ सके / प्रकीर्णक साहित्य के मूल्य और महत्त्व को जनसाधारण के समक्ष रखने के उद्देश्य से आगम संस्थान, उदयपुर द्वारा "प्रकीर्णक साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा" विषयक जिस संगोष्ठी का आयोजन किया गया था उसमें पठित आलेखों को प्रकाशित करने का यह प्रयत्न किया गया है। . प्रस्तुत ग्रन्थ में संगोष्ठी हेतु प्राप्त आलेखों के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित निम्न तीन आलेखों को भी सम्मिलित किया गया है-- (1) ISIBHASIYAIM : Prof. Walther Schubring, L. D. Institute of Indology, Ahmedabad, 1974 (2) ISIBHASIYAI AND PALI BUDDHIST TEXTS A STUDY: Aspects of Jainology Vol. III. Pt. Dalsukh Malvania Felicition, Vol. I., P.V. Reserach Institute, Varanasi, 1991. * (3) THE DATE OF THE DEVENDRASTVA : AN ART HISTORICALAPPROACH: Sambodhi,L.D.Instituteof Indology, Ahmedabad, Vol. XVIII, 1992-93.