________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा : 103 न वि माया न वि पिया, न बंधना, न वि पियाइं मित्ताइं / पुरिसस्स मरणकाले न होंति, आलंबणं किंचि / / 70 अर्थात् माता-पिता, बन्धुजन और प्रिय मित्र कोई भी मृत्यु के समय पुरुष का सहारा नहीं बनता है। अशुचि भावना का स्वरूप प्रकट करते हुए आराधना प्रकरण में कहा गया है देहो जीवस्स आवासो, सो य सूक्काइसंभवो / धाउरूवो मलाहारो सुई नाम कहं भवे / / 71 अर्थात जीव का आवास यह देह शुक्र आदि से पैदा होता है, धातु इसका रूप है, मल आहार है इसमें शुचिता क्या है ? इसप्रकार की विभिन्न भावनाओं से अपनी आत्मशक्ति को बल मिलता है, वैराग्य में स्थिरता आती है तथा वेदनाओं एवं परीषहों को सहन करने का सामर्थ्य मिलता है / 8. पंच परमेष्ठि की शरण अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए अन्त में साधक पंच परमेष्ठि की शरण ग्रहण करता है / पंच परमेष्ठि को नमस्कार कर उनकी शरण ग्रहण करने का उल्लेख अंग आगमों में कहीं नहीं हुआ है, यह प्रकीर्णकों एवं अराधनाओं की ही देन है / महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक में कहा है मम मंगलमरिहंता सिद्धा साहू स्यं च धम्मो य / तेसिं सरणोतगओ सावज्जं वोसिरामित्ति / / 72 - अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, साधु, श्रुत और धर्म मेरे लिए कल्याणकारी हैं, मैं इनकी शरण में जाकर समस्त पापकर्म त्यांगता हूँ। आचार्य एवं उपाध्यायों को भी इसीप्रकार मंगल माना गया है / भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक में अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन, आचार्य एवं सर्वसाधुओं के प्रति तीनों करणों से भक्ति करने का उल्लेख है / 73 इसी प्रकीर्णक में अरिहंत को किए गए नमस्कार का फल बतलाते हुए कहा है अरिहंतनमुक्कारो वि हविज्ज जो मरणकाले / सो जिणवरेहिं दिट्ठो संसारुच्छेअणसमत्थो / / 74 / / अर्थात् मरणकाल में अरिहंत को किया गया नमस्कार भी जिनवरों के द्वारा संसार उच्छेद करने वाला कहा गया है / नमस्कार महामन्त्र में उसे पापनाशक कहा गया है, ये ही भाव आराधनाप्रकरण में इस प्रकार आए हैं * इय पंचनमुक्कारो पावाण पणासणोऽवसेसाणं / तो सेसं चइऊणं सो गेज्झो मरणकालम्मि / / 75