________________ 10? : डॉ० धर्मचन्द जैन उपधि दो प्रकार की होती है-बाह्य और आभ्यन्तर / परिग्रह बाह्य उपधि है तथा कपाय भाव आभ्यन्तर उपधि है / इन दोनों प्रकार की उपधियों का त्याग भी अनिवार्य है। . ये दोनों उपधियां बाह्य एवं आभ्यन्तर परिग्रह की द्योतक हैं। आहार, शरीर एवं उपधि का त्याग तीन प्रकार से अर्थात् मन वचन एवं काय योग से हो, यथा सव् पि असणंपाणं चउव्विहं जो य बाहिरो उवही / अभिंतरं च उवहिं सव्वं तिविहेण वोसिरे / / 65 उवही सरीरगं चेव आहारं च चउव्विहं / / __ मणसा वय कारणं वोसिरामि त्ति भावओ / / 66 वर्तमान में सोते समय जो सागारी संथारा किया जाता है उसमें इन तीनों के त्याग का उल्लेख रहता है, यथा आहार शरीर उपधि पचखू पाप अठारह / मरण पाऊँ तो वोसिरे, जीऊँ तो आगार / / ___7. भावनाओं द्वारा दृढीकरण वैराग्यपरक चिन्तन एवं भावनाओं से चित्त में समाधि सुदृढ़ होती है / अनित्य, अशरण आदि द्वादश भावनाएं भी इसी का अंग हैं / अभयदेवसूरि ने आराधना प्रकरण में एकत्व, अनित्यत्व, अशुचित्व और अन्यत्व का नामतः उल्लेख करके प्रभृति शब्द से अन्य भावनाओं की ओर संकेत किया है / 67 इन भावनाओं की पुष्टि में महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा आदि प्रकीर्णकों में भी अनेक गाथाएं उपलब्ध हैं / यथा एगो मे सासओ अप्पा नाणदंसणसंजुओ / / सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा / / 68 अर्थात ज्ञान एवं दर्शन से युक्त शाश्वत आत्मा ही मेरी है और शेष सब वस्तुएं संयोग लक्षण वाली हैं तथा बाहरी हैं / उनसे आत्मा का संयोग सम्बन्ध है, नित्य सम्बन्ध नहीं है / इसमें एकत्व एवं अन्यत्व दोनों भावनाओं का भाव निहित है / जब समाधिमरण के समय अत्यन्त वेदना हो तो उसे भी इसप्रकार की भावनाओं के आलम्बन से सहज ही सहन किया जा सकता है / साधक सोचता है कि मैंने अनन्तबार नरकादि गतियों में इससे भी तीव्र वेदना सहन की है / जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा फल भोगना पड़ता है एक्को करेइ कम्मं एक्को अणुहवइ दुक्कयविवागं / एक्को संसरइ जिओ जर-मरण-चउग्गई गविलं / / 69 अर्थात जीव अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही अपने दुष्कर्मों का फल भोगता है. वह अकेला ही चतुर्गतियों में भ्रमण करता है / परिवार के लोग उसके शरणभूत नहीं