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________________ 100 : डॉ० धर्मचन्द जैन 4. संस्तारक प्रकीर्णकों में संस्तरण को अधिक महत्व नहीं मिला है / भगवती आराधना में चार प्रकार के संस्तरणों का उल्लेख है - पुढवि सिलामओ वा फलमओ तणमओ य संथारो / होदि समाधिणिमित्तं उत्तरसिर अहव पुव्वसिरो / / 53. अर्थात् समाधिमरण में चार प्रकार के संस्तरण निमित्त बनते हैं-पृथ्वी, शिलामय, फलमय और तृणमय / साधक अपना सिर पूर्व या उत्तर दिशा में करके संथारा ग्रहण करता है। संस्तरण का अर्थ है बिछौना, लेटने-बैठने का स्थान या संसारसागर से तैरने की शय्या। प्रकीर्णकों की दृष्टि में बाह्य संस्तरण का कोई महत्त्व नहीं है, वस्तुतः आत्मा ही प्रमुख संस्तरण है, यथा न वि कारणं तणमओ संथारो न वि फासुआ भूमी / अप्पा खलु संथारो हवइ, विसुद्धे . चरित्तम्मि / / 54 अर्थात् विशुद्ध चारित्र में न तो तिनकों का बना संथारा या संस्तरण निमित्त है और न प्रासुक भूमि इसमें निमित्त है अपितु आत्मा ही निश्चय में संस्तरण है / संस्तारक प्रकीर्णक में संथारे के सन्दर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण कथन मिलते हैं / वहां कहा गया है कि देवलोक के देवता विविध प्रकार के भोगों को भोगते हुए भी जब संधारे का चिन्तन करते हैं तो वे आसन, शय्या आदि को भी छोड़ देते हैं / 55 जो गारव से मत्त होकर तथा गुरु के समक्ष अपनी आलोचना न करके संथारा ग्रहण करता है उसका संथारा अविशुद्ध होता है / 56 संथारा शुद्ध किसका होता है उसका इस प्रकीर्णक में विस्तृत निरूपण है / जो गुरु के पास आलोचना करके, सम्यग्दर्शन पूर्वक आचरण में निरत रहकर, राग-द्वेष को छोड़ते हुए तीन गुप्तियों से गुप्त एवं तीन शल्यों से रहित होकर, तीन गारवों एवं तीनदण्डों को त्यागकर, चतुर्विधकषाय एवं चार विकथाओं से रहित होकर, पाँच महाव्रतों एवं पाँच समितियों का पालन करता हुआ संथारा ग्रहण करता है उसका संथारा शुद्ध होता है।५७ यही नहीं शुद्ध संथारे पर आरूढ होने वाला साधक षड्जीवकाय की हिंसा से विरत होता है, सात भय स्थानों व आठ मदों से रहित होकर वह नव प्रकार की ब्रह्मचर्यगुप्ति से युक्त होता है एवं दसधर्मों का पालन करता है / 58 संथारा ग्रहण करने के प्रथम दिन ही इतना लाभ होता है कि उसका मूल्य आंकना कठिन है / 59 तृण के संस्तरण पर स्थित एवं राग तथा मोह से रहित मुनिवर को मुक्ति का वह सुख मिलता है जो चक्रवर्ती को भी नहीं मिल सकता / 60 संधारे पर कब आरूढ होना चाहिए, इसके लिए कहा गया है कि वर्षा ऋतु में विविध प्रकार के तप करके हेमंत ऋतु में संथारा ग्रहण करना चाहिए / 61
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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