________________ 218 .: प्रो० सागरमल जैन हैं / इसीप्रकार अड़तीसवें सारिपुत्त नामक अध्याय में भी बौद्ध धर्म के मूल उत्स मध्यम मार्ग का प्रतिपादन मिलता है / इसके साथ ही बुद्ध के प्रज्ञावाद का भी इसमें प्रतिपादन हुआ है / इस अध्याय में कहा गया है कि, मनोज्ञ भोजन, मनोज्ञ शयनासन का सेवन करते हुए और मनोज्ञ आवास में रहते हुए भिक्षु सुखपूर्वक ध्यान करता है / फिर भी प्रज्ञ पुरुष को सांसारिक पदार्थों में आसक्त नहीं होना चाहिए, यही बुद्ध का अनुशासन है / इसप्रकार यह अध्याय भी बुद्ध के उपदेशों को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करता है। इसीप्रकार याज्ञवल्क्य नामक बारहवें अध्याय में भी हम देखते हैं कि याज्ञवल्क्य के मूलभूत उपदेशों का प्रतिपादन हुआ है / ऋषिभाषित के अतिरिक्त याज्ञवल्क्य का उल्लेख हमें उपनिषदों एवं महाभारत में भी मिलता है / 34 उपनिषद् में जहाँ याज्ञवल्क्य मैत्रेयी संवाद है वहाँ उनकी संन्यास की इच्छा को प्रगट किया गया है / ऋषिभाषित में भी याज्ञवल्क्य के उपदेश के रूप में लोकैषणा और वित्तषणा के त्याग की बात कही गई है तथा यह कहा गया है कि जब तक लोकैषणा होती है तब तक वित्तैषणा होती है और जब वित्तैषणा होती है तो लोकैषणा होती है / इसलिए लोकैषणा और वित्तैषणा के स्वरूप को जानकर गोपथ से जाना चाहिए, महापथ से नहीं जाना चाहिए / वस्तुतः ऐसा लगता है कि यहाँ निवृत्तिमार्ग को गोपथ और प्रवृत्तिमार्ग को महापथ कहा गया है और याज्ञवल्क्य निवृत्ति मार्ग का उपदेश देते प्रतीत होते हैं / यहाँ सबसे विचारणीय बात यह है कि बौद्धधर्म में जो हीनयान और महायान की अवधारणा का विकास है, कहीं वह गोपथ और महापथ की अवधारणा का विकसित रूप तो नहीं है ? आचारांग में भी महायान शब्द आया है / महाभारत के शान्तिपर्व में भी अध्याय 310 से लेकर 318 तक याज्ञवल्क्य के उपदेशों का संकलन है / इसमें मुख्य रूप से सांख्य और योग की अवधारणा का प्रतिपादन है / ऋषिभाषित के इस अध्याय में मुनि की भिक्षा-विधि की भी चर्चा है जो कि जैन परम्परा के अनुरूप ही लगती है / फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि ऋषिभाषित के बीसवें उत्कल नामक अध्याय के उपदेष्टा के रूप में किसी ऋषिका उल्लेख नहीं है, किन्तु इतना निश्चित है कि उसमें चार्वाक के विचारों का पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रतिपादन हुआ है / ऋषिभाषित में वर्धमान का जो उपदेश है उसकी यथार्थ प्रतिच्छाया आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावना नामक अध्ययन में एवं उत्तराध्ययन के बत्तीसवें अध्याय में यथावत् रूप से उपलब्ध है / उपर्युक्त आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि ऋषिभाषित में ऋषियों के उपदेश को सामान्यरूप से प्रामाणिकता पूर्वक ही प्रस्तुत किया गया है / यद्यपि इसमें मुख्य रूप से उनके आध्यात्मिक और नैतिक विचारों का ही प्रस्तुतीकरण हुआ है और उसके पीछे निहित दर्शन पर इसमें कोई बल नहीं दिया गया है / दूसरा यह भी सत्य है कि उनका प्रस्तुतीकरण या ग्रन्थ-रचना जैन परम्परा के आचार्यों द्वारा हुई है / अतः यह स्वाभाविक था कि उसमें जैन परम्परा में मान्य कुछ अवधारणाएँ प्रतिबिम्बित हो गयी हों। पुनः इस विश्वास के भी पर्याप्त आधार हैं कि जिन्हें आज हम जैन परम्परा की अवधारणाएँ