________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य * डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय जैन परंपरा के अनुसार आगम तीर्थकरों के उपदेशों के आधार पर निर्मित माने जाते हैं / महावीर ने उस समय की जन सामान्य की भाषा में अपने उपदेश दिये और उनके साक्षात शिष्य गणधरों ने उनके उपदेशों को सूत्ररूप में निबद्ध कर आगमों की रचना की / यह जन सामान्य की भाषा ही प्राकृत नाम से जानी जाती है, जो सम्पूर्ण जैन आगमों की भाषा है / ईस्वी सन् 11 वीं शताब्दी के जैन विद्वान नमिसाधु ने रूद्रट के काव्यालंकार की टीका लिखते हुए प्राकृत को परिभाषित किया है / उनके अनुसार प्राकृत' शब्द का अर्थ है-व्याकरण आदि संस्कारों से रहित लोगों का स्वाभाविक वचन व्यापार अथवा उससे उत्पत्र भाषा / अथवा जो पहले हो, उसे प्राकृत कहते हैं / यही प्राकृत मेघ मुक्त जल के समान पहले एक रूप होने पर भी देशभेद और संस्कार के कारण भिन्नता को प्राप्त करती हुई पालि, संस्कृत आदि अवांतरभेदों में परिणत होती है / वस्तुतः प्राकृत भाषा अपनी प्रकृति के अनुसार सदा परिवर्तनशील रही है / संस्कृत से भिन्न लोकभाषा प्राकृत कहलायी और जैसे-जैसे लोकभाषा में परिवर्तन होते गये, जैनागमों की भाषा भी परिवर्तित होती गई। जैसे-जैसे जैन धर्म अपने मूल केन्द्रस्थल मगध (उत्तर बिहार) से पश्चिम और दक्षिण की ओर फैलता गया, वैसे-वैसे उन उन क्षेत्रों में प्रचलित भाषा के शब्दों और रूपों का प्राकृत भाषा में समावेश होता गया / इस आधार पर प्राकृत के अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची, चूलिका पैशाची आदि अनेक भेद हुए / भरत (ईसा की तीसरी शताब्दी) के नाट्यशास्त्र में जो मागधी, अवन्तिका, प्राच्या, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, वाहलीका और दाक्षिणात्या आदि प्राकृत के सात भेद गिनाये हैं, वे इन भाषाओं की भौगोलिकता को ही सूचित करते हैं। सामान्यतया अर्धमागधी को जैनागमों की भाषा माना गया है / समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति और प्रज्ञापना आदि सूत्रों में आगमों की भाषा के रूप में अर्धमागधी का ही उल्लेख है। आचार्य हेमचन्द्र ने उसे आर्ष प्राकृत अथवा प्राचीन प्राकृत नाम दिया है। 'नन्दीसुत्तं'और अंनुयोगदाराइं की प्रस्तावना में आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी ने इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि जैनागमों की भाषा प्राचीन काल में अर्धमागधी थी। यह बात स्वयं आगमों के उल्लेख से पता चलती है / परन्तु आज वैयाकरण जिसे महाराष्ट्री प्राकृत कहते हैं, वही प्राकृत आगमों की भाषा के नजदीक है, अतः आधुनिक विद्वान इसे जैन महाराष्ट्री कहते हैं / इस भाषा की समग्र भाव से एकरूपता दिगम्बर ग्रंथों की शौरसैनी की भांति, आगम ग्रंथों में नहीं मिलती और भाषाभेद के स्तर स्पष्टरूप से . विशेषज्ञों को ज्ञात होते हैं / वस्तुतः देखा जाय तो शौरसेनी आगम साहित्य का विकास भी अर्धमागधी साहित्य के प्राचीन स्तर के इन्हीं आगमों के आधार पर हुआ है जो शौरसेनी की अपेक्षा निःसंदेह अधिक प्राचीन है /